कैद, बचपन में!
कैद, बचपन में!
बचपन में मेरे कोई ख़ास दोस्त नहीं थे। शायद इसी वजह से मैं आसमान में उड़ रहे बादलों का फास्टम फास्ट दोस्त बन गया।
एक सुनहरी सुबह उदास चेहरा लिये मैं बाल्कनी की छोटी सी खिड़की से अपने उस ख़ास दोस्त बादल के घर की ओर एकटुक ताके जा रहा था।
मुझे नीला आसमान और उसमें उड़ रहे चंदेरी बादलों के तितरबितर होने के बाद भी छा जाने की अनोखी अदा लुभाती थी।
"अरे, देख तो सही, जरा ध्यान से!" मेरे अंतरंग मन ने मुझें झकझोरते हुए कुछ दिखलाने की कोशिश की।
और मैं, उसके दिखलाए हुए बादलों को माइक्रोस्कोपिक निगाहों से घूरने लगा।
"देख, देख, एक भालू और तेंदुआ अपनी मोटी मोटी तोंद लिए बर्फ़ के टीले पर हाइड एन्ड सीक खेल रहे हैं!"
"कोई टीले पर हाइड एन्ड सीक कैसे खेल सकता है भला! कुछ भी मत फेंक।
नहीं तो, ये गेंद फेंकूँगा तुझ पर। निढाल हो जाएगा फिर तू।
फिर देखता हूँ, तू कैसे हाइड एन्ड सीक खिलवा पायेगा टीले पर!!
हा हा हा हा हा हा हा"
ये आवाज़ तो बिल्कुल भी अम्मा जैसी नहीं है। मतलब, यक़ीनन, ज़ुज़ु आया होगा। मुझे तंग करने।
ज़ुज़ु, मेरा बड़ा भाई।
मेरे ख़यालों की दुनिया का सबसे बड़ा दुश्मन। उसे मेरा यूँ ख़यालों में गुफ़्तगू करना, कतई बर्दाश्त नहीं होता। और इसलिए वो मेरी जासूसी करता है।
ज़ुज़ु के ख़यालों में घूमने भर से देखो, मेरे प्यारे दोस्त बादलों की टोली, मेरी खिड़की के सामने वाला आसमान छोड़ कहीं ओर निकल गए। अब, न जानें कब मुलाक़ात होगीं मेरी उनसें!!
"कुकु, ओ कुकु, कहाँ हो और क्या कर रहे हो?"
(फिर से चाँद, तारों और बादलों से ख़यालों में मिलना झूलना शुरू तो नहीं कर दिया?) ऐसा ही कुछ बुदबुदा रहा होगा, अकेले में, अपने आप से, शायद!
ज़ुज़ु, मुझसे सिर्फ़ 16 मिनट बड़ा है, लेकिन दादागिरी तो ऐसे करता है कि वो मुझसे 16 साल बड़ा हो!
ज़ुज़ु के विचारों से भी मेरे दिमाग़ में झिलमिला रहें वो बादलों का खेल, उनकी जादुई शक्ति -जिससे, वे कोई भी आकारों में अपने आप को तबदील कर देते। और वो भी चुटकियों में।
बस यूँ। (मैंने चुटकी बजाकर दिखलाया, अपने ही अक्स को, आईने में, मैं काफ़ी खुश लग रहा था। ख़ुद से बातचीत करके।)
मैंने ज़ुज़ु को अपने ज़ेहन से हटाकर अपने उस ख़याली दुनिया में लौटने की खूब सारी कोशिशें की। पर वो, तो मानो फेविकोल लगाए बैठा था जैसे, चिपकू कहीं का। निकल ही नहीं रहा था।
फिर मैंने पापा का आइडिया आज़माया।
ज़ोर का झटका धीरे से दिया, और अपने सिर को हौले से दाएं बाएं घुमाया। फिर भी दिमाग़ से वो न गया।
फिर मैंने अम्मा की तरह दो चार गहरी गहरी साँसें ली और शेर की तरह दहाड़ते हुए मुँह से साँसें छोड़ी।
हाँ, हैश! तब जाके गया वो फेवीक्विक जैसा चिपकू ज़ुज़ु!
इन सब में मैं कब बाल्कनी से नीचे उतर आया, मुझें कोई ख़याल ही नहीं रहा।
खैर, अब जब नीचे आ ही गया था तो, अपने नीचे की सरजमीं की फ्लोरिंग वुडन की थी, वो भी मुझे आज ही समझा। फिर गोया, मैं ख़ुद ही से हँस पड़ा, ये सोचकर कि, जिस घर में पला - बड़ा हुआ, ग़र उसे ही मैं नहीं पहचान पा रहा हूँ तो क्या मुझे, दुनिया से कोई सरोकार रखने का हक़्क़ मिलता है भला!!
एकदम से मेरा ध्यान सामने रखें लंबे से आईने पर पड़ा। जो मेरी उटपटांग हरकतों को देख मंद मंद मुस्कुरा रहा था।
मैंने भी अपनी तहज़ीब दिखलाई, और एक हल्की सी मुस्कुराहट फ्लाईंग किस जैसे उसकी ओर फूँक मार के उड़ा दी। और, जादू भी देखो तो ज़रा, वो मुस्कुराहट भी फुर्ररर करती हुई आईने को जा मिली।
मैं तो सम्मोहित हो गया। उसकी अदा पर। और क्या देखता हूँ कि, नीला आसमान और उस पर होकर सवार आ रहे थे चंदेरी किनारी वाले बादलों की टोलियाँ!! बर्बस, वे सारे मेरे ख़यालों से निकल कर बाहर आ गए थे और मुझें हँसा रहे थे आईने में रहकर। मेरे क़रीब। बिल्कुल क़रीब।
"अरे, ये कौन चहका!?
बलुबुल, वो तुम हो नां!"
बलुबुल, मेरी चिया। पता है, मैं जब छोटा था। और बोलना अभी पूरी तरह से सीखा नहीं था। तब, चिड़िया को चिया कहकर पुकारता था। और वो भी मुस्काती थी। बिल्कुल भी नहीं चिढ़ती थीं ज़ुज़ु कि तरह!!
ज़ुज़ु को पहलेपहल मुझसे ज़ुज़ु ही बोला जाता था और, वो, मुझ पर खूब चिल्लाता था।
कहता था कि, मैं उसका नाम बिगाड़ रहा हूँ। लेकिन मैं करता भी तो क्या? उसके जैसी मेरी साफ़ ज़बान नहीं थी तो!!
खैर छोड़ो उसको। वैसे भी वो बहोत बॉरियत क़िस्म का बच्चा है।
हाँ, तो मैंने जब अपने फास्टम फ़ास्ट दोस्तों को मेरे इतने क़रीब आईने में पाया तो, मैं ख़ुशी से झूम उठा। और खिलखिलाकर हँसने लगा।
मुझें हँसता देख मेरे दोस्त भी हँसने लगें, और उदासी भरा सारा आलम उल्लासित हो उठा।
उन दोस्तों को कुछ गिफ्ट देने का ख़याल आया।
तो मैने, बलुबुल के पिंजरें में रखें जल से अपनी उँगली गीली की और आईने की सतह पर एक मुस्कुराती शक़्ल बनाई: दो बूँदों से मोटी मोटी दो आंखें, एक लंबी बूँद से नाक, और एक U आकार का स्माइली बना दिया, हँसते हुए मुखड़े जैसा।
ये अँगुलीमान चित्रकारी को ख़ुशनुमा अंजाम देने के मेरे अतरंगी विचार ने उसमें चार चाँद लगा दिए। जब मैंने, उस अँगुलीमान चित्रकारी पर ली हुई गहरी साँस को फिर एक बार दहाड़ते शेर सा मुँह खोला और वह फूँक दे मारी उस ग्लास पैंटिंग पर।
खिल सा गया वो चहेरा। जी उठा। सौ से भी अधिक सालों से मानो मृतप्रायः सा सोया पड़ा था और आज मेरी एक फूँक से जी उठा।
आईने पर धुँध सी छा गई। लेकिन, उस धुंध में देखते बनता था मेरा वो स्माइलिंग फेस वाला ग्लास पैंटिंग। उस पर की गई कारीगरी।
वो दो बड़े बूँदों वाली आंखें, वो चपटा थोड़ा लंबा बना हुआ नाक, और वो खुशनुमा मुस्कान।
"मैं यहाँ हूँ, यहाँ हूँ, यहाँ हूँ, यहाँ ....!!
मैं तन्हा हूँ, नहीं हूँ, कहाँ हूँ, कहाँ ...!!"
मैंने, कुकु ने, आईने में झिलमिलाते अपने खास दोस्तों को, ख़ुद को, और यक़ीनन अपने 16 मिनटों से बड़े हुए भाई को आख़री जवाब दे ही दिया।
जवाबदेही बनने के पश्चात मैं चिया की ओर मुड़ा।
याद है वो चिया_ मेरी चिड़िया, मेरी बुलबुल।
हाँ तो ये है बलुबुल, मेरे अकेलेपन की एक मात्र बोलतीं सखी।
बलुबुल को आईने में चहचहाते देख मैं भी थोड़ा सा सुकून महसूस कर लेता था।
हम दोनों की हालत एक सी थीं।
वो भी कैद पिंजरें में, और, अपनेआप में मैं भी, अपने बचपन में!!