SANGEETA SINGH

Romance Inspirational

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SANGEETA SINGH

Romance Inspirational

प्यार

प्यार

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आजकल की पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति का अंधाधुंध अनुसरण करती है और इसी को आधुनिकता कहती है।

जब की हमारी संस्कृति इतनी समृद्ध है कि यहां के महान विभूतियों ने पश्चिम तक अपना परचम लहराया था। उनमें से स्वामी विवेकानंद और परमहंस योगानंद अग्रणी हैं। पाश्चत्य जगत के लोग अध्यात्म,योग ,और शांति की तलाश में सैकड़ों मील की दूरी तय करके यहां आते हैं और यहीं के हो के रह जाते हैं।

 ऐसी ही कुछ महिलाएं हैं ,जिन्होंने  अपना देश ,अपनी पहचान छोड़ भारत भूमि में अपनी नई पहचान बनाई और वो हर भारतीय महिला के लिए अनुकरणीय भी है ,मदर टेरेसा से तो पूरा विश्व वाकिफ है ।

 मैं सावित्री बाई खानोलकर उन्हीं पश्चिम की महिलाओं में से एक हूं।मुझे हमेशा से यही लगता रहा कि मैं गलती से पश्चिम में पैदा हो गई।मेरा जन्म स्विट्जरलैंड में 20 जुलाई 1913 को हुआ था।मेरे पिता हंगरी के और मां रूसी थी।मां का साया बचपन में ही मेरे सर से उठ गया था।

पिता जेनेवा में लीग ऑफ नेशंस में पुस्तकालयाध्यक्ष थे।

 यहीं से मेरा शौक किताबों के प्रति हुआ , मैं छुट्टियों में सीधे पुस्तकालय भागती और किताबें पढ़ती ।भारत के बारे में वहां की संस्कृति के बारे में किताबों से जान मेरा खिंचाव भारत की ओर तीव्र गति से होता जा रहा था ,मुझे ऐसे लगता की कोई मुझे अपनी ओर खींच रहा है ,बुला रहा।

 महज 14 वर्ष की ही तो थी मेरी आयु ,,जब समुद्र तट पर छुट्टी मनाए आए ब्रिटेन के सेन्डहर्स्ट मिलिट्री कॉलेज के भारतीय छात्र विक्रम खानोलकर से मेरा परिचय हुआ।

 मैने उनसे उनका पता लिया और लगातार पत्रों के माध्यम से उनसे जुड़ी रही।

उनकी पढ़ाई पूरी हुई तो वे वापस भारत लौट गए।

 उन्होंने मुझे बताया _ईवा मैं भारत लौट आया हूं ,यहां मेरी पोस्टिंग भारतीय सेना की 5/11 सिख बटालियन में हुई है,और अब मैं औरंगाबाद जा रहा हूं।

मैं अपने अंदर विक्रम के लिए प्यार महसूस करती थी।मेरा प्यार ,और भारत मुझे बार बार खींच रहा था ,आखिरकार मैं भारत आ गई ,और विक्रम को शादी के लिए मना लिया ।

  विक्रम भी मुझे चाहते थे लेकिन उन्होंने कभी खुल कर नहीं बोला ,शायद यही भारतीय संस्कार थे , कि वे अपने माता पिता को दुखी नहीं करना चाहते थे।

आखिर थोड़े विरोध के बाद उनके माता पिता भी मान गए,और हमारी शादी 1932 में मराठी रीति रिवाज से संपन्न हो गई।

 विवाह के बाद मैं ईवा से सावित्री विक्रम खानोलकर हो गई।मैने भारतीय संस्कृति को अपना लिया ,मुझे महाराष्ट्र में पहनी जाने वाली नवसारी साड़ी बहुत आकर्षित करती थी,मैने अपनी सासू मां से साड़ी पहनना सीखा,हिंदी ,मराठी भाषाएं सीखी। विक्रम का तबादला जब पटना हुआ तो ,ऐसा लगा जैसे मेरे जीवन को नई दिशा मिल गई , मैं जो पाना चाहती थी , अब वह मेरे करीब थी।मैने पटना विश्वविद्यालय से संस्कृत,वेदांत,उपनिषद और हिंदू धर्म का गहन अध्ययन किया

पंडित उदय शंकर (पंडित रवि शंकर के भाई) से नृत्य सीखा,चित्रकला में मैं काफी माहिर थी।मेरी अंग्रेजी में दो किताबें छप चुकी थीं।

विक्रम अब लेफ्टिनेंट कर्नल बन चुके थे।एक दिन उन्होंने मुझे मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल से मिलवाया ।वो मुझसे मिल कर काफी प्रभावित हुए। उस समय उन्हें भारतीय सेना के लिए पदक डिजाइन करने का काम मिला था।उन्होंने पदक का नाम सोच रखा था ,लेकिन डिजाइनिंग का काम मेरी योग्यता देख मुझे सौपना चाहा।

ये मेरे लिए एक बड़े सम्मान की बात थी,एक विदेशी भारत की वीरता के पदक को डिजाइन करने का सौभाग्य मिला। मैं फूली नहीं समा रही थी।

मैंने अपनी पूरी लगन और मेहनत से सबसे पहले सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र के डिजाइन को सोचने में लग गई ।आखिर मैंने अपने दिमाग में अपने जीवन को संसार की खातिर उत्सर्ग्र करने वाले दधीचि के शरीर से बने वज्र का ध्यान आया।

मैंने परमवीर चक्र के चारो ओर वज्र के चार चिह्न अंकित किए।पदक के दूसरी ओर कमल का चिह्न है और हिंदी व अंग्रजी में परमवीर चक्र लिखा है।


इसी तरह महावीर चक्र और वीर चक्र को भी डिजाइन किया।आज मुझे गर्व है कि जब भी इन पदकों को कोई भी देखेगा ,या दिया जाएगा तो मेरा नाम भी इतिहास के पन्नों में जरूर होगा।संयोग की बात देखो पहला परमवीर चक्र मेरे ही परिवार के मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत दिया गया था।

1952 में विक्रम सदा के लिए हमें अकेला छोड़ कर चले गए,अब मेरा मन संसार में नहीं लगता।

अब मैं दार्जिलिंग स्थित राम कृष्ण मिशन जा रही हूं,वहीं समाज के लोगों के कल्याण का कार्य कर अपनी आख़िरी सांसे लूंगी।


समाप्त


(सावित्री खानोलकर का देहांत 26 नवंबर 1990 में हो गया।वे एक प्रेरणा हैं उनलोगों के लिए जिन्हें भारत गरीब ,बेकार लगता है।इस महिला ने अपने प्यार के लिए उसके देश ,उसकी संस्कृति को अपनाया।)



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