पुत्र वत्सल द्रोण
पुत्र वत्सल द्रोण
बालकों के साथ क्रीड़ामग्न भोला शिशु अश्वत्थामा। अन्य ऋषि बालकों को दुग्धपान करते देखता , तो सतृष्ण नेत्रों से उन्हें ताकने लगता। कैसा है यह श्वेत तरल द्रव्य, उसने तो आज तक इसका अनुभव नहीं किया है। पुत्रवत्सल द्रोण बालक अश्वत्थामा की आतुरता देखते और व्याकुल होकर रह जाते । विवशता की दुर्दमनीय पीड़ा अन्तस्तल तक प्रहार करती।
अश्वत्थामा की लालसापूर्ति के लिए, बालक को भुलाने के लिए आटे को पानी में घोलकर दे दिया। अश्वत्थामा ,निश्छल सरल अश्वत्थामा मनचाही वस्तु पा उछल पड़ा और प्रसन्नता से साथियों के बीच जा उछलता कूदता उसका पान करने लगा।
अन्य बालकों ने उसे चिढ़ाया," अरे नक़ली दूध पी रहा है"। प्रताड़ित अश्वत्थामा पिता द्रोण के पास आकर फफक फफककर रोने लगा। महात्यागी विरक्त द्रोण,पुत्र को इस प्रकार दयनीय अवस्था में रोता देख और अधिक न सह सके ।उनके नेत्र भर आए और भरे कंठ से उन्होंने अश्वत्थामा को गोद में उठा लिया व चल पड़े द्रपदराज के महल की ओर। द्रोण और द्रुपद एक ही गुरु के शिष्य रहे थे। द्रुपद ने द्रोण को अपना आधा राज्य देने का वादा भी किया था। परंतु निस्पृह द्रोण ने उसकी कभी कामना नहीं की।
द्रोण आज दूध के लिये तड़पते बालक के स्नेह से व्याकुल होकर द्रुपदराज के दरबार में पहुँचे। पूर्व प्रतिज्ञा स्मरण कराने के लिए नहीं,दूध से बिलखते बालक के लिए दूध की याचना करने।
पर अभिमानी द्रुपद ने उनको पहचानने से अस्वीकार किया। आहत द्रोण का तेज जाग उठा और आकुल अश्वत्थामा को लेकर हस्तिनापुर चले गए, कुरुवृद्ध पितामह भीष्म के आश्रय में। वहॉं राजकुमारों को शस्त्रशिक्षा देते और बालक अश्वत्थामा को प्रसन्न देख पुत्रवत्सल द्रोण अपार प्रसन्नता का अनुभव करते। अश्वत्थामा उनकी आँखों का तारा और जीवन का आनंद था ।
वही पुत्रवत्सल द्रोण जो एकदिन पुत्रमोह से शांत अरण्य की कोमल छाया छोड़कर राज्याश्रय में आ कर रहे थे, कुरुक्षेत्र के रणप्रांगण में,' अश्वत्थामा मारा गया' यह सुनकर गतसंज्ञा ,गतसत्त्व हो गए।धर्मराज युधिष्ठिर के ऊपर अपूर्व विश्वास ने उनको छल लिया ।महाराज युधिष्ठिर की कभी न डिगने वाली सत्य धर्मिता उस समय शर्म से मुँह छुपा कर सो रही। उनका धरती से चार अंगुल ऊँचा चलता गर्वस्फीत रथ आज लज्जाभार से,त्रपा से ,धरा को छू रहा था।
विश्वासी द्रोण अपने ही सत्य प्रिय शिष्य द्वारा छले गए। कोमल पितृहृदय हाहाकार कर उठा। जिस भूखे बालक को वे तड़पते न देख सके थे और मान मर्यादा छोड़कर द्रुपदराज के द्वार पर याचक बने थे, जिस अश्वत्थामा के सुख के लिए हस्तिनापुर के राज्याश्रय को स्वीकार किया था, जिसके लिए साधनारत निस्पृह तापस ने ब्राह्मणकर्म छोड़कर शस्त्रग्रहण किया था, वही अश्वत्थामा न रहा। पिता की अजस्र स्नेहधारा जिसके मुख चंद्र को निहारकर औरों को भी आप्यायित करती थी,वह स्नेहस्रोत का आधार आज न रहा। पिता के व्याकुल प्राण और अधिक न सुन पाए। पुत्रशोक से उस महाशौर्यशाली द्रोण ने समरांगण के बीच ही शस्त्र त्याग कर दिया।
क्या वे पुत्र हत्या का प्रतिकार लें? पर व्यर्थ, किसलिए किसलिए? किसको कहें कि उन्होंने प्रतिशोध ले लिया है? वह प्राणसम पुत्र तो न मिल सकेगा। आह, उसके एक बार के दर्शन के लिए आकुल पिता का प्राण तड़पकर रह जाया करेगा। जिसके हेतु उनका सम्पूर्ण व्यापार था, जब वही नहीं रहा तो द्रोण करें तो क्या करें, करें तो किसलिये करें, करें तो किसके लिए करें?द्रोण की समाधि लग गई। वाष्पकुल नेत्रों को मूँद लिया। फिर भी गर्म गर्म अश्रुधारा टपक कर गालों पर बहती रही,श्वेत दाढ़ी को सिंचन करती रही। पिता का पक्षपाती स्नेह पुत्ररहित संसार में रह न सका। द्रोण, कोमल द्रोण !अन्त:करण में इससे अधिक मर्माघात, इससे अधिक तीव्र वेदना क्या और कोई तुम्हें दे सकता था ? सत्यदंभी शिष्य ने आज अवसर पाकर गुरु के अन्तस्तल में वो अचूक प्रहार किया था, जिसने उनको नि:शेष,जड़ित स्पंदनरहित कर दिया। इस जगत का ,इस समर का उन्हें कुछ भी भान न रहा। पिता के स्नेह के भूखे प्राण ऊर्ध्वगमन कर गए।