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Chandra prabha Kumar

Tragedy

4  

Chandra prabha Kumar

Tragedy

उपेक्षिता

उपेक्षिता

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अपनी माँ के पलंग के पास  बहनें जुटी हुईं थीं, जो पता चलने पर आ पायीं थीं ,और चिन्तातुर नेत्रों से उनका अन्तिम समय नज़दीक आता देख रहीं थीं। दूर पलंग पर भैया हताश से बैठे थे। वे खुद भी अस्वस्थ थे। माँ की सॉंस घर्र घर्र कर ज़ोर आवाज़ से चल रही थी, ऑक्सीजन की नली लगी थी। दो बहनें भगवद्गीता का पाठ करने लगीं। जैसे ही पाठ समाप्त हुआ, सहसा ही सॉंस की घर्र घर्र की आवाज़ बन्द हो गई,और आक्सीजन की नली नाक के नथुनों से खिसक गई। लगाने की कोशिश पर भी नहीं लगी। दूसरा सॉंस नहीं आया। अन्दर की सॉंस अन्दर और बाहर की बाहर । मतलब वे नहीं रहीं। शरीर था, सब कुछ था, पर प्राण- पंछी पिंजरा जैसे का तैसा छोड़ उड़ चला था। न कोई शिकवा न शिकायत, न किसी से कुंछ कहना न सुनना, न खाना न पीना, कितने सहज भाव से संसार त्याग चलीं गईं। मुँह पर एक दैवी अलौकिक आभा। पीछे उनकी स्मृति लिये सब रह गये। 

महीने खिसकते गये। हर महीने पंडित को दान- दक्षिणा दी जाती रही। फिर आई बरसी। जो ग्यारहवें महीने पर कर दी जाती है। बहनों को भी ख़बर कर दी गई बरसी पर आने के लिये। पता लगा कि बहनों के व मेहमानों के स्वागत की ज़ोर- शोर से तैयारी हो रही है। 

सुना कि बहनों को ठहराने के लिये वह कमरा ठीक कराया जा रहा है और उनकी सुख सुविधा के लिये उसमें बने कामचलाऊ टॉयलेट में टाईल्स लगवाये जा रहे हैं और उसे नये सिरे से ठीक किया जा रहा है। कौन कमरा और कौन टॉयलेट ?वही माँ वाला कमरा और टॉयलेट व बाथरूम, जो कमरे के एक छोटे से हिस्से को घेरकर कामचलाऊ बनाया गया था उनके लिये, क्योंकि उन्हें दूर बाथरूम तक पकड़कर ले जाने में परेशानी होती थी। माँ के आराम के लिये कामचलाऊ टॉयलेट व स्नान की जगह एक कोने में ही कमरे में बना दी गई थी, जिसमें उनके जाने के बाद अब टाईल्स लग गये थे !

घर बड़ा था। टॉयलेट की कमी नहीं थी। माँ की स्मृति से भरे उस कामचलाऊ टॉयलेट को मरम्मत कराने और नया रूप देने की ऐसी क्या आवश्यकता आन पड़ी कि माँ की बरसी का भी इन्तज़ार नहीं हो सका ? क्या वे बहिनें वह टॉयलेट इस्तेमाल करेंगी जो अपनी माँ को अन्तिम सॉंस लेते उस कमरे में देख चुकी हैं ? और स्मृतियॉं जुड़ी हुई हैं उस कमरे से उस स्थान से ! टॉयलेट में टाईल्स लगवाने थे तो माँ के समय क्यों नहीं लगवाये गये ,कि वे भी देखकर ख़ुश होतीं और लगता कि उनका ध्यान रखा गया। वे तो ऐसे ही उपेक्षिता चली गईं। अब वहॉं मरम्मत की बात सुनते ही दिल में चोट सी लगी। 

संवेदनहीनता की भी हद है !क्या बहिनें अपने आराम के लिये वहॉं जाती थीं ? वे क्या मेहमान थीं ? वे तो माँ से मिलने ,अपने बचपन की स्मृतियों को साझा करने ,माँ को थोड़ा आराम पहुँचाने के ख़्याल से जाती थीं। अपने को कभी मेहमान नहीं समझा। 

अब बरसी पर मेहमानों को ठहराने के लिये इन्तज़ाम हो रहा था। मेहमान भी कौन ? वही जो माँ की बेटियाँ ही थीं जो बरसी में इकट्ठी होंगीं; जो यहॉं बचपन से रहीं थीं, यहीं पलकर बड़ी हुईं थीं। अभी भी इसे अपना घर समझती थीं। पर उन्हें इस एक घटना ने पल भर में पराई बना दिया। जहॉं माँ ने अन्तिम सॉंसें ली थीं, उस कमरे को उनके जाने के बाद सजाया जा रहा है। बिस्तरे के गद्दे पलटे जा रहे हैं, टाईल्स लगाकर कमरा सुन्दर किया जा रहा है, कमरे में एक एक्ज़ॉस्ट फ़ैन लगवाया जा रहा है, जिससे टॉयलेट की बदबू न आये। क्या बेटियाँ उस जगह का इस्तेमाल करेंगीं ? वह भी उसी माँ की बरसी में जो उनकी यादों में छाई हैं;जिन्हें श्रद्धॉंजलि अर्पित करने वे आ रही हैं ।

घर में ठहरने की जगह की कमी नहीं। टॉयलेट की जगह की कमी नहीं। और भी कई स्थान ऐसे थे जहॉं टायलेट बनवाये जा सकते थे ।माँ की स्मृति से उनके कमरे से अभी छेड़छाड़ करने की क्या ज़रूरत थी ? 

घर में अब निकट भविष्य में कोई शादी-ब्याह होने को नहीं है कि सब जुटेंगे। गृहस्वामिनी स्वयं कहती हैं कि अब तो उस नन्हीं पोती की शादी में सब जुटेंगे। 

तो यह तामझाम किसके लिये ?क्या पैसे ज़्यादा आ रहे हैं ? क्या इसी घर से सबके शादी -ब्याह नहीं हुए ? क्या सब यहॉं ठहरे नहीं ? और यदि अपने लिये ज़रूरत थी तो बरसी बीतने का तो इन्तजार कर लेते। दिखावे की क्या ज़रूरत थी ? और किसको दिखाना था ? बेटियाँ घर में मेहमान समझी जाने लगीं! तो वहॉं क्या जाना और क्या ठहरना ? 

माँ के समय माँ के आराम का कोई ख़्याल नहीं रखा गया, तो क्या अब कमरा ठीक कराने की समझ आ गई ? व्यथा का कारण सही था।क्या उनके समय कमरा ठीक नहीं कराया जा सकता था?क्या उनके समय उसमें एकज़ॉस्ट फ़ैन नहीं लगवाया जा सकता था? एक माँ उपेक्षा झेलती चली गईं। वे अपने से कुछ कहती नहीं थीं। झोगली सी खटिया रही उनके लिये जबकि घर में अच्छा निवाड़ का पलंग भी था। गद्दा उनका वही पुराना रहा, उसमें नई रूई तक नहीं भरी गई। तकिया भी बरसों पुराना होकर अपना लचीलापन खो चुका था। कभी कभी बड़ी बेटी आकर कुछ फेरबदल करवा जाती थी तो बातें सुननी पड़ती थीं। कमरे में बरसों से पुताई तक नहीं कराई गई थी। उनके रोज़मर्रा के इस्तेमाल का सामान भी कमरे से हटा दिया गया था। उनकी जप करने की माला,पढ़ने की धार्मिक किताबें और उनकी अलार्म घड़ी। अब वे टाइम देखने को भी तरस जाती थी, उन्हें पता नहीं चलता था कि क्या बजा है। हनुमान चालीसा, राम रक्षा स्तोत्र आदि जो उन्हें याद थे उन्हीं को मन ही मन दोहराती थीं। अकेली पड़ी बिस्तरे से निहारती रहती थीं। 

जाड़ों में गीज़र का गर्म पानी भी सही से नहीं मिल पाता था। कड़कते जाड़े में भी निवाये से पानी से उनको नहला दिया जाता था। वे कंपकंपाती रहती थीं। ठीक से बदन भी नहीं पोंछा जाता था। बिना प्रेस के ठण्डे कपड़े पहना दिये जाते थे।गीले पंजों में मौजे पहना दिये जाते थे। जिससे अंगुलियों में खारवे हो गये थे।नौकरानी कैसा काम कर रही है यह कोई नहीं देखनेवाला नहीं था , न शिकायत सुनने वाला था। नौकरानी उनका गाल नोच देती थी, उनके लिये आये भोजन व दूध को भी जूठा कर जाती थी, उनका चूर्ण खा जाती थी। खाना भी कभी कभी अधपका सा बेस्वाद होता था ,जो वे खा नहीं पाती थीं। 

जाड़ों में ठण्ड के कारण उनकी नाक बहती थी तो रुमाल या नैपकिन भी नहीं रखा जाता था, उनकी फटी धोती के टुकड़े कर नैपकिन की जगह रख दिये जाते थे। जिसके खुरदरेपन से नाक रगड़ के कारण लाल हो जाती थी , कभी कभी छिल भी जाती थी। 

एक उपेक्षित जीवन का अन्त हो गया। क्या उन्हीं की मृत्यु का इन्तज़ार हो रहा था ? जो बाद में कमरा ठीक कराया जा रहा था ?वृद्धावस्था की लाचारी की यह लघु कथा दिल को छू जाती है। जानेवाला तो चला गया अब पीछे क्या हो रहा है, इससे उसे क्या मिलता है। आजकल बुजुर्गों के प्रति यही उपेक्षा की स्थिति प्राय: कमोबेश सब जगह है। बहुत कम घरों में उन्हें उचित आदर - सम्मान दिया जाता है।


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