Chandra Prabha

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श्री राम वन गमन

श्री राम वन गमन

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कालजयी रचना तुलसी की रामायण है। बचपन में रामलीला देखने जाते थे। रात्रि के समय नौ दस बजे से रामलीला शुरू होती थी और बारह एक बजे तक चलती थी। एक तरफ़ पात्र रामलीला में अभिनय करते थे ,अपने अपने संवाद बोलते थे और साथ ही साथ तुलसी रामायण की चौपाइयों का गायन होता रहता था। राम जन्म आदि,ताड़का वध आदि एवं धनुषभंग आदि सभी लीलाओं का मंचन होता था।राधेश्याम जी की रामायण से संवाद बोले जाते थे।

 हम सब बच्चे बहुत चाव से रामलीला देखने जाते थे, भैया के साथ। हमारे घर में रोज ही रामायण का पाठ होता था, राम -कथा पता थी ,तो देखने में भी अच्छा लगता था । बीच बीच में प्रहसन भी चलते रहते थे। जैसे एक गुरु जी और चेला आते थे, चेला साष्टांग लेटकर प्रणाम् करता था और कहता था,' गुरु जी ,दण्डोवत् प्रणाम् '। उसका कहने का ढंग ऐसा था कि सुनकर हँसी आती थी। गुरु जी का आशीर्वाद देने का ढंग और भी मज़ेदार था। वे कहते थे,' बच्चा! जय सीता राम'। 

 रामायण की कथा आगे बढ़ती थी, श्रीराम को वनवास होता था। पिता राजा दशरथ का विलाप होता था ।उधर रावण का दरबार दिखाया जाता था, उसमें हँसने की सामग्री रहती थी।रावण कहता -'परधाना!'

'जी, सरकार'!

 रावण पूछता -,' सूरज किधर निकलता है '? 

उसका एक दरबारी परधाना होता था ,क्योंकि वह प्रधान था तो उसका बहुत मोटा पेट बना दिया जाता था और वह जवाब देता था-

'सूरज पूरब में निकलता है'। 

रावण कहता, 'अरे नहीं, सूरज पश्चिम में निकलता है। 

'  उत्तर आता, ' हॉं हजूर, सूरज पश्चिम में निकलता है। 

रावण कहता-' अभी तो तुमने कहा था कि सूरज पूरब में निकलता है?'

परधाना जवाब देता-'मैं आपका सेवक हूँ, सूरज का नहीं। '। 

इस संवाद से पता चलता था कि रावण के दरबार में उसकी चापलूसी करनेवाले और जीहज़ूरी करने वाले लोग थे और रावण बड़ा अहंकारी था। 

राम वनवास का प्रसंग मार्मिक होता था। अयोध्या का नाज़ों और लाड़ों से पला बड़ा राजकुमार राम बिना किसी अपराध के विमाता के कहने पर राजमहल से ,राजधानी से और नगर जीवन से निष्कासित कर दिया जाता है और वे जटाजूट बॉंधे मुनिवेश में पैदल ही बिना पदत्राण के भारत के उत्तर में स्थित अयोध्या से दक्षिण की ओर प्रस्थान करते हैं , साथ में पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण भी अनुगमन करते हैं। 

रात्रि की रामलीला के बाद दिन में भी राम लीला होती थी। राम तपस्वी वेश में सीता लक्ष्मण संग पैदल नगर की गलियों से होकर जाते। लोगों की भीड़ यह देखने के लिये जमा हो जाती। हमारे घर के आगे से भी यह जुलूस निकलता । हम अपने घर के दरवाज़े पर आकर खड़े होते और निर्निमेष पलकों से यह दृश्य ऑंखें में अश्रु लिये देखते। किशोर राम लक्ष्मण पीली धोती पहने ,पीले कुर्त्ते में जटाजूट बॉंधे नंगे पैर निकलते ,सीता भी पीली साड़ी में होतीं। सड़क पर लम्बा पतला पीला पॉंवड़ा लोग बिछाते जाते, जिस पर राम लक्ष्मण सीता चलते जाते। हम उन पर फूलों की वर्षा करते , और लोग भी उन पर फूल बरसाते और साथ चलते जाते। बड़ा हृदयद्रावक दृश्य होता। 

आज भी वह चित्र ऑंखें में खिंच जाता है। सुकुमार कोमल पदगामी श्री राम ,लक्ष्मण ,सीता अद्भुत रूप सौन्दर्य एवं राजलक्षणों के धनी नंगे पैर ही कठिन कंकरीली भूमि पर वर्षा हिम आतप सहते हुए वन में आगे चले जा रहे हैं, बढ़ते जा रहे हैं। 

राम का यह लोकरंजक रूप है। सब साधारण जनों से मार्ग में मिलते जा रहें हैं। राम की यह पंथकथा और रास्ते में मिलते नर नारियों का राम को इस तरह वन वन भटकते हुए देखने के विषाद का वर्णन बड़ी सुन्दरता से अपने अपने ढंग से बड़ी कुशलता से कवियों ने किया है। पुरुष तो घरों से निकल आते हैं, स्त्रियॉं भी आती हैं। क्योंकि राम अकेले नहीं हैं,साथ में भाई लक्ष्मण तो हैं ही, सिय सुकुमारी भी हैं जो काननजोगु नहीं हैं, फिर भी पतिनिष्ठा, कर्तव्यपरायणता एवं राम के प्रति प्रेम के कारण सब भोगों को तजकर राम के साथ पैदल ही वन वन घूमते प्रियतम का साथ निबाहे जा रहीं हैं; न थकित होती हैं न क्षुभित होती हैं , राम साथ हैं वही उनका परम सुख है ।

जब कृतकार्य होकर रावण का वध कर राम अयोध्या लौटते हैं, नन्दीग्राम में भरत जी से मिलते हैं तो दिन की राम लीला में यह दृश्य दिखाया जाता है। भरत मिलाप के बाद स्वर्णिम रथ पर राम जी की सवारी निकलती है जिसमें वनवासी वेश में श्री राम लक्ष्मण सीता होते हैं, भरत जी भी जटाजूट बॉंधें हैं, केवल शत्रुघ्न जी राजसी वेश में हैं। साथ में हनुमान जी हैं ।सवारी का रथ हमारे घर के आगे से भी निकलता है। भगवान जी हमारे घर भी आते हैं , उनका स्वागत होता है, उन पर नौरते रखते हैं, फूल चरणों मे चढ़ाते हैं,आरती होती है-

 "आरती करिये सियावर की,नख सिख छविधर की। 

  हे लाल पात अम्बर अति राजे ,

  मुख निरखत सारद ससि लाजे। 

  तिलक सुभग भालन पर विराजे,

  कुमकुम केसर की। आरती करिये...  

  श्रवण फूल कुण्डल झलकत हैं,

  चन्द्रहार मोती हिलकत हैं ,

  कर कंकण द्युति दमकत हैं,

  जगमग दिनकर की। आरती करिये.. ...

  मृदु नैनन में अधिक ललाई,

  हास विलास कछु कहि न जाई। 

  चितवन की गति अति सुखदाई,

मनसिज मन हर की। आरति करिये.....

 सिंहासन पर चँवर ढुलत हैं,

 झाँझ बजत जय जय उचरत हैं। 

 सादर अस्तुति देव करत हैं,

श्री हरि रघुबर की।  

 आरती करिये सियावर की, नख सिख छविधर की। ।     

शंखनाद होता है, घंटे बजते हैं, भोग लगता है ,भगवान जी भोग ग्रहण करते हैं ,सबको प्रसाद बँटता है। ख़ूब ख़ुशी का माहौल होता है। रात्रि के बारह बज जाते हैं ,पर समय का बीतना पता नहीं चलता। 

 इस तरह हर्ष उल्लास के साथ दशहरे का पर्व मनाया जाता है।घर घर कथा कही सुनी जाती है। अन्याय पर न्याय की, असत्य पर सत्य की,बुराई पर अच्छाई की विजय का यह त्योहार जन मानस को सदियों से प्लावित करता आ रहा है। इस दिन सुबह दशहरा पूजन में शस्त्रपूजा भी होती है।बाहर जाकर नीलकंठ पक्षी का भी दर्शन किया जाता है,जो शुभ माना जाता है।इस दिन नौ दिन की पूजा के बाद दुर्गा देवी का , सॉंजी का जल में विसर्जन होता है।




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