पत्थर पर दूब
पत्थर पर दूब
पलंग पर बैठी सौम्या विकास के बालों को सहला रही थी..और विकास, सौम्या के उभरे पेट को वात्सल्य भरी नजरों से देख रहा था। बाँझ कहलाने की पारिवारिक अवहेलना को झेलते-झेलते, सौम्या डिप्रेशन के करीब पहुँच चुकी थी। वो हमेशा उदास और खिन रहती , सारा दिन केवल पूजा-पाठ में लगी रहती थी ।
आखिर, उसी जगदंबा की कृपा से पति -पत्नी के जीवन में एकाएक चमत्कार हुआ । विवाह के सात साल बाद घर में रौनक आई। वीरान पड़े उनके दाम्पत्य में हठात् मधुमास छा गया। आपसी स्पर्श में फिर से गर्माहट की पुनरावृत्ति होने लगी।
सौम्या गर्भ से थी, इसलिए विकास भी बेहद खुश था। उसे पिता बनने का सौभाग्य जो प्राप्त हुआ ।
एक दिन सौम्या ने लजाते हुए पति से अपनी मन की बात पूछ ही लिया , “ तुम गेस करो..बेटा होगा या बेटी..?”
“नहीं.. तुम्हीं को बताना होगा , लेडीज फर्स्ट।” विकास ने ठहाका लगाते हुए जवाब दिया । “
" अच्छा, तो सुनो। मैं बिल्कुल निराश हो गयी थी...! माँ जगदंबा की कृपा और आधुनिक विज्ञान का चमत्कार जो हमारी सूनी बगिया में फूल खिला । विकास, यह हमारे लिए पत्थर का दूब है। मुझे तो बस एक हँसता-खेलता बच्चा चाहिए।ताकि उसकी मासूमियत पर हम फिदा होते रहें और हमारे सूने आंगन में किलकारी गूँजती रहे ।"
" बताओ , अब तुम्हारी बारी ...|” सौम्या की नजरें विकास के चेहरे के भाव को पढने मे व्यस्त हो गयी।
“बेटा हो या बेटी, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । क्योंकि, सृजन के लिए दोनों की जरूरत होती है । लेकिन, सच तो यही है कि बेटे को जन्म देने वाली एक बेटी ही होती है !” कहते हुए विकास ने पत्नी को कस कर अंक में भर लिया ।

