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Kunda Shamkuwar

Abstract Fantasy Others

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Kunda Shamkuwar

Abstract Fantasy Others

पिंजरा

पिंजरा

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कभी कभी मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मैं किसी पिंजरे में बंद हूँ ?  

शादी के बाद की यह जिंदगी किसी पिंजरे जैसी लगने लगी है....

ऐसा नहीं की यह घर और मेरी शादीशुदा जिंदगी हमेशा से ही ऐसी रही हो।यह पिंजरे वाला अहसास मुझे कुछ दिनों से ही होने लगा है जब से बच्चें बड़े होकर अपने जॉब्स में और अपनी अपनी जिंदगियों में मसरूफ़ हो गए है।

पति और मैं.....हमारे रिश्तें पर एक अलग कहानी लिखी जा सकती है....

हाँ, तो बात पिंजरे की हो रही थी...

वही पिंजरा जो दिखायी नहीं देता है लेकिन मुझे अपनी मौजुदगी बराबर दर्ज़ करते रहता है....कभी भी....किसी भी वक़्त....कभी कभी हर रोज़.....

ऑफिस से घर जाने के बाद मैं घर के काम करते हुए खुद को पाती हूँ बस खाने पीने की ज़रूरियात को पूरी करने वाली कोई मशीन हो....

तुम्हारे हाथ की रोटियाँ...

तुम्हारे हाथ की बनी हुई सब्जी....

तुम्हारे हाथ के पराठें...और भी न जाने क्या क्या...

लेकिन इन बातों के अलावा दूसरी कोई बात ही नहीं होती है...

सच मे कोई दूसरी बात नहीं....

मेरा मन न जाने क्या क्या चाहता है....

हँसी आती है मुझे याद करते हुए की कभी मुझे चाँद तारे लाने के वादें किये गए थे...

लेकिन आज?आज मेरी ढ़ेर सारी अधूरी ख़्वाहिशें है...वे कोई चाँद तारों वाली बड़ी बड़ी ख़्वाहिशें नहीं है ....वे सारी छोटी छोटी ख्वाहिशें है.....बेहद छोटी...

मुझे तुम्हारा थोड़ा वक़्त चाहिए...

तुम बस मेरे साथ रहो...

मेरे से बातें करो...बस... 

इतनी सी बातें...और इतने ही थोड़े अरमान....

लेकिन यह क्या? तुम अपने दोस्त और अपने ऑफिस के काम मे इतने ज्यादा मसरूफ़ रहने लगे हो कि मेरे लिए तुम्हारे पास वक़्त ही नहीं है....

और फिर वही पिंजरा मुझे दिखायी देने लगता है....और मुझे अपनी मौजुदगी बराबर दर्ज़ करता है....


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