Kishan Negi

Romance Tragedy

4.5  

Kishan Negi

Romance Tragedy

पहला प्यार

पहला प्यार

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ये कहानी उस लड़की की है जिसने प्यार तो किया लेकिन अंतिम पड़ाव आने से पहले रास्ते जुदा हो गए, जितना मंज़िल के क़रीब आती मंज़िल उतनी ही दूर हो जाती। बहुत फक्र था इसे भी अपने अटूट रिश्ते पर, लेकिन कहते हैं न कि अगर शिल्पकार की नीयत में ही खोट हो तो पत्थर को वह आकार कौन देगा जिसका वह हकदार है।


कुछ ऐसा ही हुआ इस आधे अधूरे प्रेम कहानी की मुख्य किरदार मोनालीसा के साथ। इसके टेढ़े मेढ़े रास्तों, आढ़ी तिरछी बलखाती पगडंडियों और छल कपट की भूल भुलैया में जैसे इसका प्यार कहीं भटक गया था। 


डॉ मोनालिसा घोष की अर्थशास्त्र की क्लास चल रही थी और आज का मुख्य विषय था "भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान चुनौतियां" ! अपने बिखरे बालों को संवारते हुए मोनालीसा घोष ने पूछा, "कौन बताएगा भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान चुनौतियाँ क्या हैं?" 


हाथ खड़ा करके मोहन ने कहा, "मैम, मैं बताऊँ!" 


मोनालीसा घोष, "नहीं मोहन, तुम बैठ जाओ। मुझे पता है कि आपको इसका उत्तर आता है। आज रुकमणी मेरे प्रश्न का जवाब देगी।" 


रुकमणी, "मैडम, गरीबी, बेरोजगारी एवं मूल्य वृद्धि ये वे तीन प्रमुख चुनौतियाँ हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष सदैव उपस्थित रही और अनेक प्रयासों के बावजूद भी भारतीय अर्थव्यवस्था इन चुनौतियों से अभी तक पूरी तरह से उबर नहीं पाई है। लेकिन देश में नई सरकार आने के बाद भारत की नई आर्थिक नीति बनी और अर्थव्यवस्था ने एक नई रफ़्तार पकड़ी है जिसके परिणाम स्वरूप आज हमारी अर्थव्यवस्था दुनियाँ में छटे पायदान पर खड़ी है, इसे और बेहतर करने की एक नई उम्मीद भी जगी है।" 


मोनालीसा घोष, "बहुत ही सटीक, सुन्दर व प्रभावित करने वाला जवाब रुकमणी। लगता है आजकल कुछ ज़्यादा ही ध्यान लगाकर अर्थशास्त्र के पन्ने पलट रही हो। लेकिन इसके अलावा कुछ और भी चुनौतियाँ हैं जिन पर हम आज विस्तार से चर्चा करने वाले हैं।" मोनालीसा घोष से अपनी तारीफ सुनकर रुकमणी फूली नहीं समा रही थी जिसकी झलक उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी। हो भी क्यों न। इस तरह की प्रशंसा छात्र के अंदर एक नई ऊर्जा, प्रेरणा व प्रोत्साहन का संचार करती है। 


दूसरी तरफ़ मोनालीसा घोष की नजरें जाने किस बेचैनी में ईधर उधर दौड़ रही थी। लेकिन जिसकी तलाश थी उसके सिवा सब नज़र आ रहे थे। थोड़ा-सा बेचैन होकर, "वो जनाब नज़र नहीं आ रहे जो प्रेम की रसभरी कविताएँ लिखते हैं।" 


इसी बीच कोई हांफता हुआ दौड़े-दौड़े बिना आज्ञा के क्लास के अंदर प्रवेश कर गया और सबसे पीछे वाले डेस्क पर जाकर बैठ गया। उसकी सांस अभी भी फूल रही थी। वह कोई और नहीं अपितु प्रद्युमन ही था जिसकी तलाश में मोनालीसा घोष भी बेताब थी। उसको इस हालत में देखकर क्लास में सभी ठहाके मारकर हंसने लगे। 


प्रद्युमन की इस हास्यजनक हालत पर मोनालीसा घोष भी अपनी हंसी रोक नहीं पाई और मुस्कुराते हुए कहा, "क्यों जनाब, इतना तो मालूम होगा ही कि जब क्लास चल रही हो तो बिना आज्ञा अंदर आना अनुशासनहीनता का परिचायक है।" 


मैडम की बात सुनते ही प्रद्युमन फुर्ती से उठा और दौड़कर क्लास से बाहर चला गया। किसी को समझ नहीं आया कि प्रद्युमन अब कौन-सा नया नाटक रचने जा रहा था। क्लास से बाहर जाते ही प्रद्युमन पलटा और ज़ोर से बोला, "मैडम, क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?" 


उसका ये लड़कपन देखकर कमरा एक बार फिर ज़ोर के ठहाकों से गुंजायमान हो उठा था जिसकी प्रतिध्वनि बगल वाली क्लास में भी स्पष्ट गूंज रही थी। हंस-हंस कर मोनालीसा घोष के पेट में बल पड़ गए थे। फिर रुमाल से अपनी बेकाबू हंसी को रोकते हुए कहा, "अंदर आ जाओ और चुप चाप अपना स्थान ग्रहण करो।" 


मोनालीसा घोष, "क्यों कवि महोदय, आज ये नया ड्रामा क्या चल रहा है? क्लास में आने में देरी कैसे हुई?" 


प्रद्युमन, "मैम, आज फिर दग़ा दे गई।" 


मोनालीसा घोष, "कौन दग़ा दे गई? प्रेमिका या फिर कोई और।" इस बात पर एक बार फिर पूरी क्लास ठहाकों के समन्दर में गोते लगा रही थी। 


प्रद्युमन, "मैम, आप ग़लत मतलब निकाल रही हैं। मेरी बाइक पंक्चर हो गई थी। रही प्रेमिका, फिलहाल तो कोई नहीं है। जिस दिन मिल जाएगी सबसे पहले आपको ही ख़बर करूंगा।" क्लास में उपस्थित सभी छात्र छात्राओं का हंस-हंस कर बुरा हाल हुआ जा रहा था। मोनालीसा घोष को भी समझ नहीं आ रहा था कि इस गुत्थी की डोर को किस छोर से पकड़ा जाए। 


कुछ पल चुप रही और फिर ठिठोली के मूड में आते हुए बोली, "तो जनाब की बाइक प्रेमिका की तलाश करते-करते पंक्चर हो गई। क्यों सही कहा है न मैंने। कवि महोदय इस जहाँ में तुम अकेले नहीं हो जिनकी बाइक प्रेम गली के चक्कर काटते-काटते पंक्चर हुई हो। तुमसे पहले भी बड़े-बड़े धुरंधर खिलाड़ी इस खेल में अपने हुनर को आजमाते हुए अपनी बाईक पंक्चर करा चूके हैं और कुछ दीवानों की तो ज़िन्दगी ही पंक्चर हो गई।" 


"मेरे प्रिय छात्र, यदि आपकी वर्तमान दशा का व्यंग्यात्मक विश्लेषण किया जाए तो आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि इस जहाँ में कुछ और भी है करने को ईश्क के सिवा और भी सरल शब्दों में कहूँ तो तू नहीं तो कोई और सही और नहीं तो कोई और सही।" मोनालीसा घोष की बातों में सभी छात्र छात्राएँ कुछ इस तरह खो गए थे जैसे आसमान में काली घटाओं को देखकर आषाढ़ माह में चातक मचलने लगता है। क्लास में हर कोई ये महसूस कर रहा था जैसे कोयल अपनी मधुर वाणी का मीठा रस उनके कानों में घोल रही हो। 


फिर एक लंबी गहरी सांस लेते हुए बात आगे बढ़ाई, "इस खेल का अपना न तो कोई संविधान होता और न ही कोई नियम। इस मंज़िल को पाने वाले दीवानों की लंबी कतार होती है। इस खेल में भाग लेने वाला हर खिलाड़ी इस मंज़िल को सबसे पहले छू लेना चाहता है। अंधी दौड़ में सब पागल है, दीवाने हैं। क्योंकि मंज़िल दो कश्तियों में तो सवार हो नहीं सकती, इसलिये जो भी इसे पाता है वह तक़दीर का शुक्रिया अदा करता है और नाकाम दीवाने इसे बेवफाई का नाम देकर ख़ुद को तसल्ली देते हैं।" 


डॉ मोनालीसा घोष की क्लास का वातावरण ही ऐसा होता था कि ये अर्थशास्त्र की क्लास नहीं बल्कि प्रेम दर्शनशास्त्र की पाठशाला हो जिसके वायु मंडल में चहुं दिशा में प्रेम और वात्सल्य की गंध महक रही हो। 


मन के अन्दर उमड़ रही उत्सुकता को उजागर करते हुए आखिरकार उर्वशी ने पूछ ही लिया, "मैम, लगता है आप भी कभी किसी की मंज़िल ज़रूर रही होंगी। इस दर्द की टीस आज भी कितनी गहरी होगी ये आपकी बातों से प्रतीत होता है। क्या आपने भी कभी प्यार किया है?" 


मोनालीसा घोष जो अभी तक बहुत ही सरल और सहज वातावरण में अपनी मधुर वाणी से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किए हुए थी, उर्वशी की बात सुनकर एकाएक सकपका गई, चेहरे पर गंभीर रेखाएँ उभर आईं थी। हाँ उर्वशी, तुम ठीक कहती हो कि उस दर्द की टीस आज भी भीतर ही भीतर मेरे जिस्म और रूह को कचोट रही है, उसे जितना भूलना चाहती हूँ उतना ही करीब आ जाता है। 


कुछ पलों के लिए सब चुप थे, एक अजीब-सा सन्नाटा पसर गया था क्लास के हर कोने में। सबके चेहरों पर गहरी खामोशी छा गई थी। सभी छात्र छात्राएँ मोनालीसा घोष की आपबीती सुनने को उत्सुक व बेकरार हुए जा रहे थे। एक लंबी गहरी सांस लेते हुए मोनालीसा घोष दूर कहीं अपने अतीत की असीम गहराइयों में खो गई। फिर धीरे-धीरे उस किताब से धूल की परतें हटाकर उसके पन्ने पलटते हुए कहने लगी...


बात उन दिनों की है जब मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी के ही एक कालेज में आप ही की तरह बी.ए. (Eco Hon) की पढ़ाई कर रही थी। आप ही की तरह मेरी आंखों में भी कुछ सपने जन्म ले रहे थे, आसमां को छूने की प्रबल इच्छा मन में पल रही थी, ज़िन्दगी में कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति और आत्म विश्वास अभिलाषाओं के सागर में हिलोरें मारकर अक्सर मुझे गुदगुदाते थे। 


मेरे कॉलेज का ही अभिमन्यु नाम का एक लड़का अचानक एक दिन मेरी ज़िन्दगी में आया और मेरा ही होकर रह गया था। मेरे सपनों की उड़ान और भी ऊंची होती गई। हम अक्सर हर सोमवार प्रातः शिव मन्दिर के पास मिला करते थे। शिवजी के दर्शन करने के बाद वहीं एक खूबसूरत पार्क में बैठकर अपने दिल की बातें साझा किया करते थे। इस दौरान हम दोनों कई बार क्लास में देरी से भी पहुँचते थे। 


एक दिन अभिमन्यु जब क्लास में देरी से पहुँचा तो प्रोफेसर बंसल ने उससे देरी से आने का कारण जानना चाहा। उसने तपाक से जवाब दिया कि उसकी मोटर बाइक रास्ते में पंक्चर हो गई थी। उस दिन तो बहाना काम कर गया लेकिन हर रोज़ तो बाइक पंक्चर नहीं हो सकती थी। उस दिन प्रातः के लगभग आठ बजे होंगे जब हम दोनों शिव मन्दिर से बाहर निकलकर पार्क में बैठने जा ही रहे थे तो उसी वक़्त प्रोफेसर बंसल भी शिव मन्दिर से बाहर निकल रहे थे। उन्होंने हमें पार्क के अन्दर जाते हुए देख लिया था लेकिन कहा कुछ नहीं। 


आज क्लास में पहुँचते ही प्रोफेसर बंसल की नजरें सबसे पहले अभिमन्यु को ढूँढने लगी, नज़र तो तब आते जनाब जब क्लास में उपस्थित होते। कुछ ही देर में अभिमन्यु हांफता हुआ क्लास में प्रवेश करता है तो प्रोफेसर बंसल ने कहा कि बाइक पंक्चर हो गई थी क्या। ज़वाब में अभिमन्यु ने हाँ में सिर हिलाया लेकिन अगले ही क्षण पूछ बैठा कि उनको कैसे मालूम। मुस्कुराते हुए प्रो बंसल ने शिव मन्दिर वाली बात का ज़िक्र करते हुए कहा कि ठीक उसी स्थल पर कभी उनकी बाइक भी पंक्चर हो जाया करती थी जैसे अभिमन्यु की। 


ज्यों ज्यों समय बीतता गया हम एक दूजे के काफ़ी करीब आ चुके थे। लंबी मुलाकातों का अनन्त सिलसिला अपनी रफ़्तार पकड़ चुका था। कॉलेज में हमारी मित्र मंडली हम दोनों को कालिदास और मल्लिका नाम से ही सम्बोधित करती थी। हमारे इस रिश्ते की चर्चा अब हमारे घरों में भी होने लगी थी। इस तरह पलक झपकते ही कॉलेज के तीन साल कैसे गुजर गए इसका अहसास ही नहीं हुआ। 


अभिमन्यु का एकमात्र लक्ष्य था भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाना जबकि मेरा लक्ष्य था अर्थशास्त्र का प्रोफेसर बनना। भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए वह मेरे ऊपर अनुचित दवाब बनाने लगा था। प्रारम्भ में तो मैं अभिमन्यु के इस निर्णय का पुरजोर विरोध करती रही लेकिन फिर ये ख़्याल भी आया कि इस रिश्ते की खातिर इतनी कुर्बानी तो देनी ही पड़ेगी। अपने ख़्वाब को कुचलकर मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षा की तैयारी में जुट गईं। भारतीय प्रशासनिक सेवा की लिखित परीक्षा में सफल होने के तुरन्त बाद हम दोनों इसके इंटरव्यू की तैयारी की कोचिंग लेने लगे। 


मुझे आज भी आषाढ़ की वह भीगी-सी अलसाई शाम याद है जब हम दिल्ली में चाणक्य पूरी के पास नेहरू पार्क में खुले धवल आकाश तले बैठकर ज़िन्दगी के ताने बाने बुन रहे थे। कुछ ही देर में आसमान में बिजलियाँ कोंधने लगी, बादलों की गड़गड़ाहट से वातावरण गुंजायमान हो उठा था, बादलों के नयनों से झर-झर गिरते रिमझिम मोती प्यासी धरती को शोभायमान कर रहे थे, गुलाब की कलियाँ बारिश की बूंदों की छुअन से मचल रही थी। 


आषाढ़ की उस सुहानी रिमझिम शाम के सुनहरे पल आज भी मेरी आंखों में क़ैद हैं। कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी और अभिमन्यु की ये आखिरी व अंतिम मुलाकात होगी। मगर भाग्य और वक़्त के आगे इंसान हमेशा स्वयं को लाचार पाता है इस सत्य का अनुभव मुझे इसके बाद ही हुआ था। 


कुछ दिनों के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा का जब अंतिम परिणाम आया तो एक तरफ़ इस बात की ख़ुशी थी कि अभिमन्यु सफल होकर अपनी मंज़िल पाकर अति आनंदित था तो दूसरी तरफ़ मेरी असफलता ने अभिमन्यु के लिए मुझसे दूर होने के सारे कपाट खोल दिए थे। जाने क्यों ये अहसास मुझे बार-बार कचोट रहा था कि अभिमन्यु को मेरी नाकामयाबी पर कोई अफ़सोस नहीं था, शायद हमारे रिश्तों में उसी पल से अवरोध उत्पन्न होने शुरू हो गए थे। 


अभिमन्यु मसूरी में प्रशिक्षण के लिए रवाना हो गया। मैंने उससे संपर्क करने की बहुत कोशिश की मगर हर बार निराशा ही हाथ लगी। इसके बाद जैसे हमारी बातों का सिलसिला हमेशा-हमेशा के लिए टूट चुका था। मैं अंदर से पूरी तरह बिखर चुकी थी। बहुत प्रयास किए पुराने लम्हों को भुलाने की किंतु सब व्यर्थ। आहिस्ता-आहिस्ता ज़िन्दगी एक बार फिर से पटरी पर उतरने लगी। 


एक दिन मुझे एक मेल मिला जो अभिमन्यु की तरफ़ से भेजा गया था। मेल में अभिमन्यु ने लिखा था, "मैं अभी मसूरी मैं प्रशिक्षण ले रहा हूँ। प्रशिक्षण के दौरान ही मेरी मुलाकात कामिनी से हुई जो मेरे ही बैच की हैं। हम दोनों ने शादी करने का फ़ैसला किया है और अगले महीने हम शादी के बंधन में बंधने जा रहे हैं। तुम तो जानती ही हो कि मेरी इच्छा भी यही थी कि यदि मैं आई. ए. एस. बन गया तो जीवन संगिनी भी आई. ए. एस. ही चुनूंगा। हो सके तो मुझे भूल जाना।" 


अभिमन्यु के इस मेल ने जैसे मेरे पुराने ज़ख्मों को फिर से ताज़ा कर दिया था, मुझे अंदर से बुरी तरह झिंझोड़ कर रख दिया था। इस बुरे वक़्त से छुटकारा पाने में मुझे अपने परिवार का पूरा सहयोग मिला। एक दिन सोने से पहले मेरे पिता मेरे पास आए और बहुत भावुक होकर बोले कि मेरी शेरनी ने आगे क्या सोचा है। मैं मन ही मन तो तय कर चुकी थी कि किसी भी क़ीमत पर एक बार आई. ए. एस. ज़रूर बनना है लेकिन ज्वॉइन नहीं करूंगी। 


दूसरी तरफ़ अपने पुराने लक्ष्य, अर्थशास्त्र का प्रोफेसर बनना, को फिर से ज़िंदा करूंगी। अब यही मेरी जिद्द और यही मेरा जुनून था। अपने इस निर्णय से जब मैंने अपने पिता को अवगत कराया तो उनकी आंखों से अनायास ही गर्व के आंसू छलक रहे थे। मैंने उनके टपकते हुए आंसुओं को अपने दुपट्टे से पोंछते हुए कहा था कि बाबा ये आंसू नहीं अनमोल मोती हैं, इन मोतियों को तब तक संभाल कर रखिए जब तक मैं इस घर से विदा नहीं हो जाती, उस दिन बहुत काम आएंगे। 


अपने दृढ़ व अटल संकल्प के साथ मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी में एक बार फिर से दिन रात जुट गई। लिखित परीक्षा में सफल होने के पश्चात इंटरव्यू की तैयारी करने लगी थी। 


आज आई. ए. एस. परीक्षा का अंतिम परिणाम घोषित होना था, सो मैं अपने माता पिता के साथ सुबह भगवान के दर्शन के लिए मंदिर गई थी। मुझसे अधिक विश्वास मेरे पिता को था कि इस बार मुझे सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। विश्वास तो मुझे भी पूरा था, चिंता थी तो बस रैंक की। वैसे भी ज्वाइन तो करना नहीं था तो रैंक को लेकर भी ख़ास परेशान नहीं थी। आई. ए. एस. में सफल होकर सिर्फ़ और सिर्फ़ अभिमन्यु के छद्म अहंकार के किले को ढहाना था। 


इन्तज़ार ख़त्म हुआ और शाम को आई ए एस का परिणाम भी घोषित हो गया। आज मुझे एक आई ए एस अधिकारी बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। मेरे माता पिता की ख़ुशी की कोई सीमा नहीं थी। आख़िर हुआ भी वही जो सोचा था। कहते हैं कि अगर इंसान के होंसलों की उड़ान को जिद्द और जुनून के पंख लग जाएँ तो सफलता भी उसकी ऋणी हो जाती है। मेरे साथ भी जैसे यही हुआ था। 


मेरे आई.ए.एस की सफ़लता की ख़बर शायद अभिमन्यु तक पहुँच चुकी थी। इस बात का अंदाज़ा लगाना तो मुश्किल था कि इस ख़बर से उसे ख़ुशी मिली या हताशा मगर एक बात ज़रूर मालूम हुई थी कि उसे अब मेरी कमी खल रही थी जिसका पता मुझे उसके एक मेल से पता चला था। उस मेल में उसने लिखा था...


"मोना, आई. ए. एस. की सफ़लता पर आपको ढेरों बधाइयाँ। मुझे माफ़ करना, मैंने अकारण ही तुम्हारी क्षमता, काबिलियत और सामर्थ्य पर संदेह किया था, उसके लिए मैं आज भी शर्मिंदा हूँ। मैं और कामिनी हमेशा-हमेशा के लिए अलग हो गए हैं। मेरी ज़िन्दगी में आज भी तुम्हारा वही स्थान है जो पहले कभी था। तुम चाहो तो हम एक बार फिर से नई शुरुआत कर सकते हैं।" 


जिस इंसान ने सफ़लता के दंभ में अपने पहले प्यार को ही ठुकरा दिया हो, उसके मेल का जवाब देना मैंने उस पल उचित नहीं समझा। जिस कामिनी के लिए अभिमन्यु ने मुझे ठुकरा दिया था उसे आज उसकी सजा मिल चुकी थी। इंसान की फ़ितरत भी कितनी अजीब होती है कि शतरंज के खेल में हर चाल अपनी ज़रूरत के हिसाब से चलता है। 


मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएचडी करने लगी और उसके बाद की कहानी ये है कि इस पल मोनालीसा घोष आपके सामने खड़ी मुस्कुरा रही है। महान नाटककार मोहन राकेश द्वारा लिखित पुस्तक "आषाढ़ का एक दिन" में जैसे मल्लिका को उसका कालिदास नहीं मिला उसी प्रकार मैं भी अपने पहले प्यार के कालिदास से वंचित रह गई, शायद नियति को भी यही मंजूर था।



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