Kishan Negi

Romance Tragedy

4.5  

Kishan Negi

Romance Tragedy

कहीं दीप जले कहीं दिल

कहीं दीप जले कहीं दिल

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470



दिसम्बर का महीना था, कड़ाके की सर्दी ने वातावरण को अपने चंगुल में जकड़ा हुआ था। मैं अपने गाँव कुर्माण, जो गनाई घाटी अल्मोड़ा, उत्तराखंड) के पास रामगंगा नदी के तट पर बसा हुआ एक छोटा-सा गाँव है, एक पारिवारिक पूजा में शामिल होने जा रहा था। रास्ते में हमारी बस कई जगह रुकती, कुछ सवारियाँ उतरती तो कुछ बस में चढ़ जाती। 


घना अँधेरा भी धीरे-धीरे घिर रहा था। दाने की तलाश में सुबह के निकले पंछी भी समूह बनाकर चहकते हुए अपने घरौंदों में वापस लौट रहे थे। स्वेत बर्फीली पहाड़ों की चोटियों को छूकर सूरज भी क्षितिज में अंतर्धान होने को व्याकुल था। जैसे ही हमारी बस मांसी (एक बाज़ार) पर रुकी तो कमसिन तरूणाई की सफेद आंचल में सिमटी एक युवती बस में चढ़कर मेरे पीछे वाली सीट पर बैठ गई। 


सभी यात्री बहुत थके हुए थे तो किसी का ध्यान उस नई सवारी की तरफ़ नहीं गया। पीछे मुड़कर मैंने भी बहुत कोशिश की उसके सौन्दर्य को निहारने की मगर क्या करता चांद घूंघट में जो कैद था। पहाड़ों की बलखाती सड़क पर हमारी बस हिचकोले खाते हुए नागिन की तरह धीरे-धीरे रेंग रही थी। 


इतने में मेरे कानों में एक गीत की धुन गूंजने लगी...

"कहीं दीप जले कहीं दिल

बहुत देर भई अब तो मिल" 


तभी मुझे अहसास हुआ कि मेरे पीछे की सीट पर बैठी हुई युवती ही ये दर्दभरा गीत गुनगुना रही थी। उसके स्वरों में एक अजीब-सा जादू था जो चुम्बक की भांति मुझे अपनी ओर आकर्षित किए जा रही थी। उस पल मेरे लिए अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल था कि क्यों मेरा मन अनायास ही उसके जादुई सुरों की गहराइयों में डूबने को बेकरार हुआ जा रहा थ। उसका साथ देते हुए मैं भी वहीं धुन गुनगुनाने लगा। मुझे गुनगुनाते देख वह हंसने लगी। मन मैं मचल रही बेचैनी पर अब मेरा कोई काबू नहीं था। काश उस क्षण पहाड़ों की ये कमसिन सुन्दरी मेरे साथ बैठी होती तो मेरे अन्दर जाग रही उत्सुकता की तृप्ति हो पाती। 

सफर चलता रहा और मैं उसके ही अनदेखे ख्यालों मैं जैसे कहीं खो गया था। आख़िर थोड़ी हिम्मत जुटाकर मैंने उससे मेरी साथ वाली सीट पर बैठने का आग्रह कर ही डाला मगर उसका जवाब होता कि परदेशी बाबू हम पहाड़ों की भोली भाली महिलाओं को किसी अनजान परदेशी के साथ बैठने में लज्जा आती है।

शायद तक़दीर ने मेरी प्रार्थना सुन ली थी और मेरे बार-बार आग्रह करने पर वह मेरे बगल वाली सीट पर बैठ गई। उसका चेहरा अभी भी घूंघट से ढका हुआ था। मैंने सोचा क्यों न इससे कुछ बातें की जाय ताकि मन भी बहल जायेगा और सफ़र भी कट जायेगा। 


रास्ते में हमारी बस अचानक खराब हो गई थी। ड्राइवर और कंडक्टर ने बहुत कोशिश की मगर बस की खराबी को ठीक करने में नाकाम रहे। इस समय रात के दस बज रहे थे। अब तलक सभी सवारियाँ बस से नीचे उतर चुकी थी। 


अंधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में टिमटिमाते तारे छटपटा रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलाखिलाकर हँस पड़ते थे। 


मेरे बगल में बैठी युवती के साथ मैं भी नीचे उतर गया। उसने मुझे बताया कि आगे जाने के लिए अब कोई साधन उपलब्ध नहीं था तो आज की रात यहीं गुजारनी पड़ेगी। तुम घबराओ मत मैं इसी गाँव में रहती हूँ। तुम्हारा हर तरह से एक मेहमान की भांति ख़्याल रखूंगी। 


इसी बीच ड्राइवर ने कहा कि आज की रात सभी सवारियों को यहीं के गाँव के पंचायत घर में काटनी पड़ेगी। सभी यात्री गाँव के ग्राम प्रधान के साथ पंचायत घर की ओर प्रस्थान करने लगे। ज्यों ही मैं भी उन सबके पीछे-पीछे चलने को हुआ कि किसी ने अपनी नाज़ुक व कोमल उंगलियों से मेरा हाथ थामा और अपने साथ चलने का इशारा किया। पीछे पलटकर देखा तो ये वही युवती थी जो बस में मेरे बगल वाली सीट पर बैठी हुईं थी। 


उस वक़्त मेरी हालत ऐसी थी कि मैं स्वयं के नियंत्रण में नहीं था। जाने अनजाने में मैं सफेद आंचल में लिपटी इस अजनबी युवती की मधुर वाणी और जादुई स्पर्श के आकर्षण की ओर खींचा चला जा रहा था। मेरा हाथ पकड़कर वह मुझे संकरी पगडंडियों से पहाड़ की दूसरी दिशा की तरफ़ खिंचे जा रही थी। वहाँ दूर-दूर तक न कोई रोशनी थी और न ही कोइ घर। पूनम की रात थी तो चांद की रोशनी में दूर बर्फीली पहाड़ी चोटियाँ ऐसी प्रतीत हो रही थी जैसे आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। 


मुझे ऐसा लग रहा था जैसे हम गाँव की विपरीत दिशा की ओर चल रहे थे। इतने में हवा का एक शीतल झोंका आया और उसका सफेद आंचल एक कांटेदार झाड़ी में उलझ गया। तभी मैंने देखा कि वह अब बिना घूंघट के थी। उसके चांद से खुबसूरत चेहरे को जैसे ही मैंने देखना चाहा उसने पलक झपकते ही अपना चेहरा दूसरी तरफ़ छिपा लिया और मैं पूनम के चांद के दर्शन से एक बार फिर वंचित रह गया। हम अभी भी धीरे-धीरे चले जा रहे थे। उसके घने रेशमी बाल कंधों तक झुके हुए थे। चांद की धवल रोशनी में उसकी सुनहरी लंबी लटाओं की छटा ऐसी थीं जैसे स्वर्ग की किसी अप्सरा का आंचल हीरे मोतियों से जड़ा हो। 


अब तक मेरे जिस्म और मेरी आत्मा की बागडोर दिलोजान से उसके ही नियंत्रण में थी। लगभग एक घंटे की दुर्गम चढ़ाई करने के बाद एकाएक उसके क़दम रुक गए। एक बात से मैं अभी तक अचंभित था कि इतनी अगम्य और थकान भरी चढ़ाई के बाद भी न तो मेरी सांस फूली थी और न ही मेरे चेहरे पर थकान की कोई सिकन थी। ज़रूर किसी अदृश्य दिव्य शक्ति का ही ये कमाल रहा होगा। 


उस वक़्त हम दोनों यहाँ की सबसे ऊंची पहाड़ी पर खड़े थे। ठीक हमारे सामने एक खंडहरनुमा घर था जो बहुत ही जीर्ण शीर्ण और जर्जर अवस्था में था। वह युवती भीतर गई और हाथ में एक दीप जलाकर मुझे अंदर आने का इशारा किया। मैंने अंदर जाकर देखा घर की छत से पानी टपक रहा था, दीवारें गोबर से पोती गई थी, सामने एक उधड़ी-सी चटाई बिछी थी। उसने जला हुआ दीया एक कोने में रखा और बाहर चली गई। 


कुछ देर बाद उसके दोनों हाथों में पहाड़ों में उगने वाले कुछ फल थे। इतने में कहीं से आवाज़ आई, "बसंती इतनी रात गए कौन आया है?" इतना तो पता चल गया था कि इस सुंदरी का नाम बसंती हैं। बसंती ने जवाब दिया, "इजा (मां) , कोई परदेशी मेहमान आया है, आज की रात यहीं गुजारेंगे।" इसके बाद हम दोनों में कुछ वार्तालाप होने लगी। 


बसंती, "परदेशी बाबू, तुमको भूख लगी होगी फल खालो।" 


मैं, "इतनी आधी रात को तुम ये फल कहाँ से तोड़कर लाई हो?" 


बसंती, "पीछे एक बगीचा है वहीं से तोड़कर लाई हूँ।" 


मैं, "बसंती कुछ बताओ न अपने बारे में।" 


बसंती, "परदेशी बाबू, इतनी जल्दी भी क्या है बस थोड़ा-सा सब्र और रखो। वक़्त आने पर सब जान जाओगे।" 


मैं, "बसंती, मेरे धैर्य का बाँध टूटा जा रहा है। मेरे अन्दर तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जानने की प्रबल इच्छा जाग रही है और कितना इंतज़ार कराओगी?" 


बसंती, "मेरे परदेशी मेहमान, इतना उतावलापन ठीक नहीं होता। बस कुछ ही दिन की तो बात है।" 


मैं, "बसंती, में कुछ समझा नहीं। कब तक इस तरह पहेलियाँ बुझाती रहोगी?" 


बसंती, "जब तक तुम अपने देवता की पूजा संपन्न करके लौट कर नहीं आ जाते।" 


मैं, "मगर तुमको कैसे मालूम हमारे यहाँ पूजा है?" 


बसंती, "बसंती अपनों की सब जानकारी रखती है। समझे परदेशी बाबू।" 


मैं हैरान परेशान था कि बसंती को ये सब जानकारी कैसे है। मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था। 


बसंती, "क्या तुमने कभी किसीसे सच्चा प्रेम किया है?" 


मैं, "अगर किया भी होगा तो तुमको देखने के बाद सब भूल गया हूँ।" 


बसंती, "इसका मतलब तुम्हारा प्रेम सच्चा नहीं था क्योंकि सच्चे प्रेम को कभी भुलाया नहीं जा सकता, सात जन्मों तक भी।" 


मैं, "बसंती, जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि तुमसे मिलने के बाद जैसे मुझे इस क्षण सच्चे प्रेम की अनुभूति हो रही है। कुछ ही पलों की मुलाक़ात में तुमको दिलोजान से चाहने लगा हूँ।" 


बसंती, "शुरू शुरू में सब ऐसा ही कहते हैं, फिर वक़्त बदलते ही ख्यालात भी बदलने लगते हैं। शायद हर पुरुष की यही फ़ितरत है।" 


मैं, "बस एक बार अपने चेहरे से घूंघट हटाकर चांद के दर्शन कराकर मेरी ये अभिलाषा पूर्ण कर दो।" 


बसंती, "परदेशी बाबू, बहुत थक गए होंगे तो चटाई में लेटकर दिन भर की थकान मिटा लो।" 


मेरे प्रश्न का जवाब दिए बिना बसंती घर से बाहर निकल गई। उसके पांवों की पायल की झनकार अभी तक मेरे कानों में गूंज रही थी। दिन भर की थकान के कारण कुछ ही देर में मैं गहरी नींद में खो गया था। 


अचानक मेरे कानों में एक बार फिर से वही धुन गूंजने लगी। ऐसा आभास हो रहा था जैसे दूर पहाड़ी के दूसरे छोर पर कोई पहाड़ी युवती गुनगुना रही थी...

" कहीं दीप जले कहीं दिल

बहुत देर भई अब तो मिल" 


जिस दिशा से ये मधुर व सुरीली आवाज़ आ रही थी मेरे क़दम ख़ुद ब ख़ुद उधर ही बढ़ चले। वहाँ पहुँचकर क्या देखता हूँ कि बसंती एक नीले सरोवर में स्नान करते हुए गुनगुना रही थी। सरोवर के चारों ओर कमल के पुष्प खिल हुए थे। ऐसा लगा जैसे बसंती मेरा ही इंतज़ार कर रही थी। मुझ पर नज़र पड़ते ही इशारा करके मुझे अपने पास बुलाया। इधर मैं कड़ाके की ठंड से कांप रहा था तो उधर बसंती शीत लहरों की थपेड़ों से बेपरवाह सरोवर में आधी रात स्नान कर रही थी। 


जैसे ही मैं सरोवर के किनारे पहुँचा ही था कि बसंती ने एक ही झटके में मुझे खींचकर अपनी बाहों में भर लिया। मगर ये क्या जो सोचा था एकदम उसके विपरीत अनुभव हुआ। सरोवर का जल ठंडा नहीं अपितु गरम था। पहाड़ों में आधी रात को ये चमत्कार मेरी समझ से बिल्कुल परे था। बसंती अब तलक मुझे अपनी नरम बाहों में कसकर जकड़ चुकी थी। मैं भी इन जादुई पलों का भरपूर आनंद लेने से स्वयं को रोक नहीं पाया। 


मेरा जिस्म और मेरी आत्मा दोनों ही आहिस्ता-आहिस्ता उसके शरीर में समाने लगी थी। मेरे शरीर से खेलते हुए बसंती ने बुदबुदाते हुए कहा कि आज की रात वह जी भर कर मुझसे प्यार करना चाहती है। क्योंकि शरीर और दिमाग़ अब पूरी तरह से उसके अधीन हो चुके थे तो मेरी मर्जी या मेरी चाहत की भूमिका की हर गुंजाइश लगभग ख़त्म हो चुकी थी। मैंने ख़ुद को पूरी तरह से उसके सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। 


दूसरे दिन प्रातः बसंती मुझे बस स्टैंड पर छोड़ने आई थी जहाँ से मुझे अपने गाँव के लिए दूसरी बस पकड़नी थी। लेकिन बस में बैठने से पहले हल्के से मेरा हाथ खींचकर एक एकान्त जगह पर ले गई। उसका चेहरा अभी भी सफेद आंचल से ढका हुआ था। इस सफेद लिबास में बसंती का गदराया बदन जैसे चांद के आंगन में ठुमकता कोई सितारा हो। 

तभी उसने अपने सुनहरे बालों का एक गुच्छा तोड़कर मुझे थमाते हुए कहा, "परदेशी बाबू, जब तुम्हारे कुल देवता की पूजा संपन्न होने को होगी तो कुछ अदृश्य शैतानी परछाइयाँ उसमें विघ्न डालने का प्रयास करेंगी। ये सत्य मेरे सिवा कोई और नहीं जानता। उस वक़्त तुम मेरे बालों के इस गुच्छे को जलाकर इसकी राख को उन शैतानी परछाइयाँ के ऊपर छिड़क देना और फिर पूजा में कोई विघ्न नहीं पड़ेगा।" 


जाते जाते मेरे कानों में बुदबुदाकर कह गई कि परदेशी बाबू देखना लौटते वक़्त एक बार फिर बसंती से तुम्हारी मुलाकात ज़रूर होगी। बस आ गई थी और मैं गाँव जाने के लिए बस में बैठ गया। सारे रास्ते बसंती के ही ख्यालों में इतना खो गया था कि कब आंखें लग गई पता ही नहीं चला। 


इतने में एक ज़ोर का झटका लगा और ड्राइवर ने बस रोक दी। खिड़की से बाहर झांककर देखा तो मूसलाधार बारिश हो रही थी। ड्राइवर से मालूम हुआ कि भूस्खलन के कारण सड़क बंद है इसलिए आगे जाना फिलहाल संभव नहीं था। जब तक रास्ता साफ़ होता शाम हो चली थी। अँधेरा धीरे-धीरे दस्तक दे रहा था। मन ही मन में अब बुरे ख़्याल आने लगे थे। कल बस खराब हो गई थी और आज भूस्खलन के कारण रास्ता बंद था। आख़िर ये सब हो क्या रहा था, मेरी समझ से बाहर था। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे कुल देवता रूष्ट हो गए थे।


अंततोगत्वा हमारी बस अपने गंतव्य स्थान गनाई पहुँच चुकी थी। रात के दस बज गए थे। गाँव पहुँचने के लिए अब एकमात्र साधन था पैदल चलना। चारों तरफ़ घुप अंधेरा। बारिश थम गईं थीं लेकिन बादलों के कारण चांद की रोशनी धरती तक नहीं पहुँच रही थी। मैं अकेला था तो भीतर ही भीतर बहुत डरा हुआ भी था। पास ही में रामगंगा नदी के किनारे शमशान घाट पड़ता था। 


सियारों का क्रंदन और जंगली जानवरों की डरावनी आवाज़ कभी-कभी निस्तब्धता को चीरकर अवश्य भंग कर देती थी। शमशान घाट के दूसरे छोर से कराहने और रिरियाहट की आवाज़ें कानों में साफ़ सुनाई पड़ती थी। पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में विशेष व्यवधान नहीं पड़ रहे थे। 


रात के सन्नाटे में कुत्तों की रोने और भौंकने के स्वर रुक-रुक कर दिल को और रूह को दहला रहे थे। कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की विशेष बुद्धि होती है। वे दिन-भर राख के घूरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रि को डरावनी अदृश्य काली परछाइयों की आहट से सब मिलकर रोते थे। 


जैसे ही शमशान घाट के सामने से गुजरा कानों में बहुत ही डरावनी व भयंकर आवाजें आने लगी जैसे बच्चे रो रहे थे। मैंने अपने कदमों की रफ़्तार बढ़ा दी और तेज-तेज चलने लगा। आहिस्ता-आहिस्ता कुछ कदमों की आहट पास आने लगी। मुझे अहसास हुआ कि कुछ लोग मेरा पीछा कर रहे थे। डरावनी आवाजें और करीब आने लगी। सामने एक पीपल का पेड़ नज़र आया जिसकी शाखों पर कुछ आकृतियाँ लटकी हुई थी। डर और घबराहट के मारे सर्दी में भी मैं पसीने में नहाया हुआ था। अब कुछ हल्की-हल्की परछाइयाँ मेरे इर्द गुनगुना रही थी...

कहीं दीप जले कहीं दिल

बहुत देर भई अब तो मिल" 

जैसे तैसे रात ग्यारह बजे गाँव पहुँचा तो पूजा आरंभ हो चुकी थी। पहाड़ों में कुल देवता की पूजा रात को ही होती है। जैसे ही मेरे क़दम आंगन में पड़े मैं बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ा। कुछ देर बाद जब होश आया तो चाची से मालूम हुआ कि शमशान की कुछ काली परछाइयाँ पूजा में विघ्न डाल रहीं हैं इसलिए पूजा आगे नहीं बढ़ पा रही थी। अचानक मुझे ध्यान आया कि बसंती ने मेरे हाथों में अपने बालों का एक गुच्छा थमाया था। जिन सज्जन पर पूजा संपन्न करवाने की जिम्मेदारी थी, मैंने बसंती के बालों का गुच्छा उनको थमाकर सारी बात समझा दी। 


जैसे ही पूजा फिर से आरंभ हुई तो कुछ अदृश्य काली आकृतियाँ पूजा स्थल के चारों ओर हवा में मंडराकर बार-बार पूजा में विघ्न डाल रही थी। पूजा संपन्न करने वाले ने वैसा ही किया जैसा मैंने कहा था। तब कहीं जाकर आधी रात को पूजा संपन्न हो पाई थी। 


दूसरे दिन प्रातः बस से में दिल्ली के लिए निकल पड़ा। जाने क्यों मैं अब तक ये भूल चुका था कि कभी किसी बसंती नाम की युवती से मिला था। रास्ते में एक जगह बस रुकी और मैं चाय पीने के लिए नीचे उतर गया। सभी यात्री चाय पीने के लिए बस स्टैंड के साथ वाली दुकान में गए मगर मेरे क़दम विपरीत दिशा में बढ़ रहे थे। कुछ दूर चलने के बाद एक सुनसान एकान्त जगह पर चाय की दुकान दिखाई दी। अन्दर से एक लड़की की आवाज़ आई, "बाबू जी, चाय पीओगे क्या?" हाँ में सिर हिलाकर मैं वहीं एक बेंच पर बैठ गया। तभी मेरे कानों में फिर से वही धुन गूंजने लगी...


कहीं दीप जले कहीं दिल

बहुत देर भई अब तो मिल" 


जिधर से ये आवाज़ आ रही थी मेरे क़दम उसी तरफ़ बढ़ रहे थे जैसे कोई अदृश्य शक्ति मेरी ऊंगली पकड़कर मेरे आगे-आगे चल रही थी। सांय-सांय शीत लहर चल रही थी। ठंड से वातावरण सिकुड़ गया था। मौसम साफ़ था लेकिन आसमान में काली घटाएँ छाई हुई थी। चारों तरफ़ घना कोहरा इस तरह रह-रह कर उठ रहा था जैसे चोटी पर खड़े होकर कोई सिगरेट के धुंवे के गोल छल्ले बनाकर आकाश में उड़ा रहा था। 


कुछ क़दम चलने के बाद मैं वहाँ खड़ा था जहाँ से वही सुरीली धुन की आवाज़ आ रही थी। अब ठीक मेरे सामने पीठ किए हुए सफेद पोशाक में सजी संवरी कोई युवती खड़ी थी। तभी उसने कहा, "क्यों परदेशी बाबू, मैंने कहा था न कि वापसी में फिर मुलाक़ात होगी।" उसकी आवाज़ सुनकर मैं सन्न रह गया था। फिर ख़्याल आया ये आवाज़ तो बसंती की है। उस पल मैं अपने जज्बातों पर काबू नहीं रख पाया और बसंती से लिपटकर बोला, "बसंती, तुम इस वक़्त यहाँ कैसे। मुझे यहाँ क्यों बुलाया है?" 


बसंती, "कुंदन, क्या मुझे घूंघट हटाने को नहीं कहोगे?" मैंने अभी तक बसंती को अपना नाम नहीं बताया था तो इसे कैसे मालूम कि मेरा नाम कुंदन है। ऐसा लगा जैसे मैं अपने होश खो बैठा था। 


मैं, "बसंती, इस तरह पहेलियाँ मत बुझाओ। तुम कौन हो? इस रहस्य से पर्दा कब गिराओगी? आख़िर तुम मुझसे चाहती क्या हो?" 


मेरी ओर पलटकर बसंती ने कहा, "जिस रहस्य को जानने के लिए मेरे परदेशी बाबू इतने बेकरार हैं उस रहस्य से पर्दा बस हटने ही वाला है।" अपनी बात ख़त्म करते ही बसंती ने एक ही झटके में चांद के चेहरे से घूंघट गिरा दिया। शर्म से पलकें झुकाए बसन्ती मंद-मंद मुस्कुरा रही थी। उसका चेहरा देखते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए, काटो तो खून नहीं। समझ नहीं पा रहा था कि ये हक़ीक़त है या फिर कोई अनदेखा ख्वाब। 


मैं चिल्लाकर बोल उठा, "अरे तुम तो वही बसन्ती हो न जो मेरे साथ स्कूल में पढ़ती थी।" 


बसंती, "हाँ कुंदन! मैं वही बसंती हूँ जो स्कूल में तुम्हारी सबसे प्रिय सहपाठी थी, जिसको तुम ख़ुद से ज़्यादा चाहते थे, जिसको रूठने पर प्यार से मनाया करते थे।" 


मैं, "लेकिन बसंती ये सब क्या चल रहा है ज़रा विस्तार से बताओ।" 


बसन्ती, "कुंदन, तुमको याद होगा हम दोनों ने जीवन भर एक दूसरे का साथ निभाने का वादा किया था। उधर आगे की पढ़ाई करने तुम दिल्ली चले गए और इधर मेरे घरवालों ने मेरी शादी एक शराबी से कर दी। मैंने उनको बहुत समझाया लेकिन मेरी एक न चली। तुमको मैंने कई ख़त लिखे लेकिन कभी भी तुम्हारा कोई जवाब नहीं मिला।" 


मैं, "फिर उसके बाद क्या हुआ?" 


बसंती, "कुंदन, बसंती तुम्हारे प्यार में इतना डूब चुकी थी कि किसी और के साथ बाक़ी का जीवन बिताना उसके लिए कदापि मुमकिन नहीं था और फिर एक दिन आधी रात को मैंने वह किया जिसे तुम सुन नहीं पाओगे।" 


मैं, "बसन्ती, तुमने ऐसा क्या किया जिसे मैं सुन नहीं पाऊंगा।" 


बसन्ती, "वो रात पूनम की रात थी, चांद की रोशनी में बर्फीली चोटियाँ ऐसी प्रतीत हो रही थी जैसे किसी अप्सरा की सुनहरी लटाओं पर सितारे जड़े हों, शीत लहर के प्रकोप से सारा ब्रह्मांड सिकुड़ा हुआ था, चहुं ओर सिर्फ़ शान्ति और शांति पसरी हुई थी। मैं सामने की चोटी पर चढ़ गई और आंखे बंद करके छलांग लगा कर पहाड़ों की गोदी में हमेशा के लिए समा गई। कुंदन तुम इस क्षण जिससे बातें कर रहे हो, बसन्ती नहीं बल्कि बसन्ती की आत्मा है।" इतना कहकर वह ज़ोर से चीखने लगी थी फिर अगले ही पल मुस्कुराई और हवा में हाथ हिलाते हुए एक शून्य के आकार में अदृश्य हो गई थी। 


पहाड़ों से टकराकर एक बार फिर वही सुरीली मधुर धुन मेरे कानों में अमृत रस घोल रही थी...

"कहीं दीप जले कहीं दिल

बहुत देर भई अब तो मिल।"


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