Kishan Negi

Tragedy Fantasy Inspirational

4.5  

Kishan Negi

Tragedy Fantasy Inspirational

एक थी कामिनी

एक थी कामिनी

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ये प्रेम कहानी दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज के आस पास घूमती है। किस तरह दो अनजान दिलों की मुलाकात होती है और फिर वही मुलाकात एक दिन प्रेम रूपी सांचे में ढल जाती है। प्रेम की ये कहानी अधूरी रहेगी या अपने वांछित लक्ष्य को भेदने में कामयाब रहेगी, क्या अपनी मंजिल तक पहुंच पाएगी या फिर प्रेम का ये सफ़र अधूरा ही रह जायेगा,

ये सब जानने के लिए अपने प्रिय पाठकों से अनुरोध है कि कहानी को अंत तक अवश्य पढें।

आज़ कॉलेज का अंतिम दिन था, क्योंकि आज हमारी अंतिम वर्ष की आखिरी परीक्षा थी। परीक्षा ख़त्म होते ही जब सभी दोस्त बाहर मिले तो सबकी आँखें नम थी। किसीको समझ नहीं आ रहा था कि तीन वर्ष कब और कैसे बीत गए। 

एक दूसरे का मोबाइल नंबर साझा किया, फिर मिलने का वादा करके सब धीरे-धीरे कॉलेज के प्रांगण को अंतिम बार अलविदा कहते हुए अपने अपने घरों को निकल पड़े थे। मगर कोई था जो अब तक एक कोने में खड़ा-खड़ा किसीका इंतज़ार कर रहा था। पास जाकर देखा तो कामिनी अपनी आँखों से झरते हुए आँसुओं को छिपाने का भरसक प्रयास कर रही थी।

कामिनी से मेरी पहली मुलाक़ात की कहानी भी बहुत अजीब है। ये बात तब की है जब कॉलेज में मेरा पहला वर्ष था। हुआ कुछ यूँ था कि एक दिन कॉलेज की एक लड़की बगल में कुछ किताबें दबाये लाइब्रेरी की तरफ़ जा रही थी। मैं भी लाइब्रेरी ही जा रहा था लेकिन कुछ जल्दी में था। ज्यों ही मैं उसके करीब से गुजरा तो उससे जा टकराया था, टकराते ही उसकी किताबें फ़र्श पर गिर गयी थी। 

मैं अंदर ही अंदर बहुत शर्मिन्दा हुआ था। माफ़ी मांगते हुए मैंने फ़र्श पर गिरी किताबें उसे थमा दी। उसने पहले तो धन्यवाद कहा और फिर चेहरे पर रसभरी मुस्कान बिखेरते हुए मुझे देखा और लाइब्रेरी की तरफ़ चली गई थी। 

हमारी दूसरी मुलाक़ात कैंटीन में हुई थी जहाँ वह किसीका इंतज़ार कर रही थी। मेरे साथ मेरी क्लास के कुछ दोस्त भी थे। हम चाय पीकर कैंटीन से बाहर जा ही रहे थे कि तभी मेरी नज़र उस लड़की पर पड़ी। मैंने हेलो कहा, जवाब में उसने भी हेलो कहा। मैंने पूछा, "क्या किसीका इंतज़ार हो रहा है?" जवाब में उसने कहा, "हाँ! अपनी सहेली अंशुल का इंतज़ार कर रही हूँ, लेकिन काफ़ी देर हो गयी है अभी तक आयी नहीं।" 

मुड़कर मैंने अपने साथियों की तरफ़ देखा। शायद वह मेरा इशारा समझ गए थे इसलिए मुझे वहीँ छोड़कर सभी बाहर निकल गए थे। मुस्कराते हुए मैंने उस लड़की से पूछा, "अगर तुम कहो तो क्या मैं आपका साथ दे सकता हूँ?" पहले तो सकुचाई, फिर अगले ही पल मुस्कुराकर बैठने का इशारा किया। कॉफ़ी पीते हुए मैंने अपना नाम राहुल और उसने कामिनी बताया था। मेरी तरह उसका भी कॉलेज में पहला साल था। 

अब अक्सर हम कभी कैंटीन में तो कभी कॉलेज के रोज गार्डन में मिला करते। एक दिन की बात है कि कामिनी का इतिहास का पीरियड खाली था। वह मुझसे क्लास बंक करके बाहर घूमने की जिद्द कर रही थी। उस दिन तो मैंने इंकार नहीं किया लेकिन उसे समझाते हुआ कहा, “कामिनी, हम यहाँ पढ़ने आते हैं मौज़ मस्ती करने नहीं। आज के बाद मैं कभी भी क्लास बंक करके तुम्हारे साथ घूमने नहीं जाऊंगा।" मेरी बातें सुनकर वह मूक बनी रही शायद उसे अपनी गलती का अहसास हो चला था। 

इस तरह समय की गति के साथ हमारी मुलाकातों का सिलसिला भी धीरे-धीरे अपनी रफ्तार पकड़ रहा था। अब दिल की बातें भी होने लगी थी। हम एक दूसरे की पसंद नापसंद का भी ख़्याल रखने लगे थे। जाने क्यों कभी-कभी महसूस होता था कि ये दोस्ती कहीं प्यार का आकार तो नहीं ले रही। इस बात को लेकर मन में कभी दुविधा तो कभी बेचैनी-सी होने लगी थी। आख़िर क्या नाम दूँ इस अनाम रिश्ते को। मैं इस अकस्मात रिश्ते को अधिक गंभीरता से नहीं ले रहा था। 

एक दिन वह बहुत खुश नज़र आ रही थी। मैंने कारण पूछा तो कहने लगी कि उसके पास चाणक्य थिएटर की अंग्रेज़ी फ़िल्म की दो टिकटें हैं। मैंने मजाकिये लहजे में कहा, "कौन खुशनसीब है जिसके साथ इंग्लिश फ़िल्म देखने जा रही हो। मेरी बात पूरी होने से पहले ही तपाक से बोली, “तुम।”

मैंने थोड़ा गंभीर हो कर कहा, "कामिनी, तुमको मैंने पहले भी बताया था कि जब तक कॉलेज की पढ़ाई पूरी नहीं हो जाती हमारी ये दोस्ती कॉलेज की सरहदों तक ही सीमित रहेगी, इससे बाहर नहीं। मुझे माफ़ करना। मैं तुम्हारे साथ फ़िल्म देखने नहीं आ सकता।" मेरी बात ख़त्म होने से पहले ही उसने दोनों टिकटें फाड़ डाली और पैर पटक कर तमतमाते हुए वहाँ से खफ़ा हो कर चली गई थी।

इस घटना को आज छैः महीने हो गए थे, हमारे बीच कोई संवांद नहीं हुआ था। मेरे बहुत प्रयास करने के बाद भी उसकी नाराज़गी दूर नहीं हो रही थी। हमारे दरमियान जैसे कोई तूफ़ान आकर खड़ा हो गया था। दूरियाँ बढ़ती जा रही थी। थक हारकर मैंने भी उम्मीद छोड़ दी और अपना सारा ध्यान अब पढ़ाई में केंद्रित कर दिया था। 

आज सूरज नामालूम किस दिशा से निकला था। मैं लाइब्रेरी में बैठकर आने वाली वार्षिक परीक्षा की तैयारी कर रहा था कि कामिनी मेरे पास आयी और फुसफुसा कर कान में बोली, "चलो कैंटीन में चलकर कॉफ़ी पीते हैं।" जैसे ही हम कैंटीन में पहुँचे उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा, "राहुल मुझे ग़लत मत समझना। मुझे माफ़ कर दो। मैं समझ गई हूँ कि तुम और लड़कों जैसे नहीं हो। तुम दूसरों से बिल्कुल अलग हो। मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ। मेरा यक़ीन करो अब कभी शिकायत का मौका नहीं दूँगी।" उसकी बातें सुनकर मैं भी भावुक हो गया था लेकिन चकित भी था कि उसके व्यवहार में अचानक ये बदलाव आया कैसे?

मार्च का महीन था, सर्दी का मौसम रवानगी पर था और गर्मी का मौसम अपने आने की आहट दे चुका था। होली की खुमारी कॉलेज के अंदर भी साफ़ नज़र आ रही थी। अंतिम वर्ष की परीक्षायें भी नज़दीक आ रही थी। मैंने कामिनी को कॉलेज के रोज़ गार्डन में बुलाया और कहा। "मुझे तुमसे कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं।" मुझे याद है इतना सुनते ही उसके चेहरे पर एक अजीब सी खामोशी छा गई थी। 

मैंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुआ कहा। "मैं जानता हूँ कि हम दोनों एक दूसरे से बेइंतहा प्यार करते है, लेकिन ये भी सच है कि हमारे आगे पहाड़-सी ज़िन्दगी भी बाहें फैलाए खड़ी है। कॉलेज ख़त्म होने के बाद तुम्हारी क्या योजना है? मैंने तो निर्णय लिया है कि मैं कुछ अपना ही करूँगा। फिलहाल मेरे दिमाग़ में कॉमर्स कोचिंग सेंटर खोलने का इरादा है।" अपनी योजना के बारे में उसने बताया कि एम। ए। पूरी करने के बाद वह प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी करना चाहती थी और उसके घरवालों की भी यही इच्छा है। क्योंकि परीक्षायें सर पर थी तो हमारी मुलाकातों की रफ़्तार कुछ धीमी पड़ गई थी।

परीक्षायें आरम्भ होने में अब केवल कुछ ही दिन बचे थे। कॉलेज में पढ़ाकू क़िस्म के लड़के-लड़कियां सुबह से ही लाइब्रेरी में कब्जा जमा कर ऐसे बैठे होते थे मानो विरासत में मिली उनकी पैतृक संपत्ति थी। जिनको पढ़ने के लिए जगह नसीब नहीं होती थी, वो बेचारे कॉलेज के रोज़ गार्डन में बैठकर कुछ पढ़ाई कर लिया करते थे। लेकिन मैंने फैसला किया था कि कॉलेज लाइब्रेरी में जाने की बजाय घर के नज़दीक वाले बाग़ में बैठकर पढ़ाई करूंगा। इसके पीछे मेरा तर्क था कि इससे वक़्त की बर्बादी नहीं होगी। 

यही बात मैंने कामिनी को भी समझाने की बहुत कोशिश की थी मगर मेरी बातों का जैसे उस पर कोई असर ही नहीं हुआ था। इस दौरान एक दिन कामिनी का फ़ोन आया कि वह मुझसे तुरंत मिलना चाहती थी। 

मैंने कारण पूछा तो नाराज हो गई और झट से फ़ोन काट दिया था। फिर मैंने फ़ोन मिलाया और हंसते हुए कहा था कि मैंने तो बस ऐसे ही मज़ाक किया था और तुम इसे दिल पर ले बैठी।

इसके बाद हमने तय किया कि कॉलेज में ही कहीं मिलेंगे। मुझे लाइब्रेरी से कुछ किताबें भी जारी करवानी थी। ठीक दो घंटे बाद हम दोनों कॉलेज की लाइब्रेरी में मिले। लाइब्रेरी का काम ख़त्म करके हम कैंटीन में कॉफ़ी पीने चले गए थे। कुछ देर तक तो हम परीक्षा की तैयारी के बारे में चर्चा करते रहे। फिर अचानक जाने क्यों कामिनी खड़ी हो गई और मेरा हाथ खींचते हुए बोली कि कॉलेज के पीछे झील वाले बाग़ में चलते हैं, बाक़ी की बातें वहीं करेंगे। झील वाले पार्क के एक कोने में जहाँ छाँव थी, घास के ऊपर हम दोनों बैठ गए। 

कामिनी ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रखकर कहा, "राहुल, क्या हम रोज़ नहीं मिल सकते। पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगता है कि कोई तुमको मुझसे दूर, बहुत दूर ले जा रहा है। आजकल मेरे मन में बार-बार यही ख़्याल आ रहा है कि परीक्षा ख़त्म होते ही कहीं हम हमेशा के लिए एक दूसरे से जुदा तो नहीं हो जाएंगे। जब भी पढ़ने के लिए किताब खोल कर बैठती हूँ तो एक अनजाना-सा डर मुझे सताने लगता है, शायद तुमको खोने का डर।" 

मैंने देखा कि बात करते-करते वह हांफ रही थी, उसकी आवाज़ में एक प्रकार का कम्पन भी था, आँखों से जैसे सावन की घटा भी बरसने लगी थी। फिर अपना सर मेरे कन्धों पर रखकर फफक-फफक कर रोने लगी थी। 

मैंने उसे समझाने का प्रयास करते हुए कहा। "कामिनी, तुम भी ये बात समझती हो कि हम दोनों एक दूसरे का बहुत सम्मान करते है और एक दूसरे से प्यार भी करते हैं, लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि प्यार के चक्कर में पड़ कर हम अपने भविष्य के बारे में सोचना ही छोड़ दें।" 

"हम दोनों तरुणाई के जिस दौर से अभी गुजर रहे हैं वहाँ मन में ऐसे विचारों का आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। हर युवा मन में ज़िन्दगी के इस मोड़ पर इस प्रकार के विचार अक्सर जन्म लेते रहते हैं। प्रेम, इश्क़, मोहब्बत एक प्राकृतिक नियम है जिसको चाहना बुरा नहीं है, लेकिन किसीकी चाहत में अंधा हो कर अपने भविष्य को दांव पर लगा देना ज़रूर बुरा है। अगर स्त्री-पुरुष आज प्यार करते हैं तो संभव है कल शादी की बाध्यता भी हो सकती है। मैं मानता हूँ कि हमें अपनी ज़िन्दगी का निर्णय लेने का पूरा अधिकार है, लेकिन हमें अपने माता-पिता की भावनाओं का भी उतना ही सम्मान करना होगा।" 

रुआंसे स्वर में कामिनी ने कहा। "राहुल, मैंने कब कहा कि हमें अपने माता पिता का सम्मान नहीं करना चाहिए, बिल्कुल करना चाहिए। लेकिन ये भी तो सच है कि हमें अपने वांछित लक्ष्यों को साकार करने का अधिकार भी है।" 

कामिनी को समझाते हुए मैंने आगे कह, "तुम क्षणिक भावनाओं में बहकर बहकी-बहकी बातें कर रही हो। अभी हम दोनों को सिर्फ़ अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।" 

मेरी बात ख़त्म होते ही वह धीरे से मुस्कुराते हुए बोली। "राहुल, आज तो तुम बिल्कुल एक दार्शनिक की भांति प्रवचन दे रहे हो। लगता है मेरे प्यार ने तुमको आम इंसान से महान दार्शनिक बना डाला है।" 

कॉलेज के तीन साल कब और कैसे बीत गए इसका कभी अहसास ही नहीं हुआ। कितना अजीब-सा लगता है जब दोस्तों के साथ इतना समय व्यतीत करने के बाद उनसे जुदा होने का वक़्त भी आता है। शायद कामिनी भी इसी मनोदशा से गुजर रही थी। मैंने उसे बहुत समझाया था लेकिन उसकी आँखों से टपकते आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। मैंने उससे वादा किया कि हम दोनों फिर से बहुत जल्द मिलेंगे। वह बार-बार एक ही बात दोहरा रही थी कि कहीं मैं उसे भूल तो नहीं जाऊंगा। अपनों से अलग होने के पल कितने मर्मभेदी, कितने मर्मस्पर्शी, कितने भावपूर्ण होते हैं आज पहली बार मुझे भी अनुभव हुआ था। 

आज़ सोचता हूँ कि बदलते वक़्त के साथ इन्सान की फ़ितरत भी कैसे रंग बदलने लगती है। जो कामिनी कभी मुझे खोने के डर से मेरे कन्धों पर सर रखकर टिप-टिप आंसू बहाया करती थी आज़ उसी कामिनी ने अपने मोबाइल पर मेरा नंबर भी ब्लॉक कर दिया था। शायद मुझसे बेहतर कोई और मिल गया था। कामिनी आज़ कहाँ और किस हाल में है इसकी कोई ख़बर मुझे आज़ भी नहीं है। 

दर्द भरे धूमिल यादों को भूला कर मैं आज़ अपने दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ कॉमर्स पर अधिक व्यस्त हूँ और हाँ पहले से अधिक खुश भी। बस इतनी-सी कहानी है मेरे पहले और अधपके प्रेम की।

(अपने प्रिय पाठकों से अनुरोध है कि कहानी को अंत तक ज़रूर पढ़ें। पढ़ने के बाद कमेंट में बताएं कि कहानी कैसी लगी, और हां लाईक भी करें) 


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