छोटू टी कॉर्नर
छोटू टी कॉर्नर
"बसंती देख मेरा रेत का घर कितना सुंदर है। तेरे घर से भी सुंदर।" रेत में सने हुए दोनों हाथों को हवा में लहराते हुए मदन ने कहा।
बसंती, "देख मेरा घर भी बनकर तैयार हो गया है। तुझसे भी सुंदर और बड़ा घर!" तभी रामगंगा नदी की बलखाती एक लहर आई और बसंती के रेत के घरौंदे को अपने साथ बहाकर ले गई। उसे लगा जैसे उसके सारे सपने टूट कर बिखर गए थे।
तभी दोनों हाथों से ताली बजाते हुए मदन उछल कर बोला, "मज़ा आ गया, मज़ा आ गया। बड़ी फुदक रही थी अपने रेत के घर पर। देख मेरा घर अभी भी शान से तन कर खड़ा है।"
मदन को इस तरह हंसते देख बसंती का गुस्सा सातवें आसमान पर था। फिर अगले ही पल दोनों पांवों से मदन के घर को रौंदते हुए बोली, "ले तेरा घर भी ढह गया। बड़ा घमंड था न तुझे अपने घर पर। अब बजा ताली।"
बहुत ही मशक़्क़त से बनाए अपने घर को इस तरह ढहते देख मदन गुस्से में लाल पीला होकर बसंती की चुटिया को ज़ोर से खींचते हुए बोला, "बता तूने मेरा घर क्यों तोड़ा। आज़ मैं तुझे छोडूंगा नहीं।"
"मदन, तेरे ताऊ जी ने तुझे तुरंत बुलाया है। जल्दी घर चल। तेरी ईजा की तबीयत बहुत ख़राब है।" घबराते हुए गणेश ने पुकारा। गणेश इसी गाँव का रहने वाला मदन का अच्छा दोस्त था। गणेश की आवाज़ सुनकर मदन सरपट घर की ओर दौड़ पड़ा। मदन और अपनी गायों को वहीं चरता हुआ छोड़कर बसंती भी मदन के पीछे-पीछे दौड़ पड़ी।
घर पहुँच कर मदन ने देखा कि उसकी ईजा (मां) पार्वती बिस्तर पर बेसुध अवस्था में पड़ी थी। गाँव के कुछ बुज़ुर्ग लोग भी वहाँ एकत्रित हो चुके थे। मदन को देखते ही उसे अपने पास आने का इशारा किया।
उसकेसर पर अपना दाहिना हाथ रखते हुए पार्वती बहुत ही धीमे स्वर में बोली, "बेटा मदन मेरे जाने का समय आ गया है। मुझे पता है मेरा मदन बहुत समझदार है। मेरे बाद तूने ही अपना ख़्याल रखना है। मेरी एक बात हमेशा ध्यान रखना कि गिरकर तुझे अब ख़ुद ही संभलना है।" पार्वती की सांसें तेज़-तेज़ चलने लगी थी। आवाज़ भी धीमी हो चली थी।
फिर मुस्कराते हुए बोली, "बेटा मदन देख खिड़की से सफ़ेद कपड़ों में तेरे बाज्यू (पिता) हाथ से इशारा करके मुझे अपने पास बुला रहे हैं। तू अपना ख़्याल रखना। अब मैं...॥" अपनी बात पूरी होने से पहले ही पार्वती की गर्दन एक तरफ़ लटक गई। इसी दौरान गाँव की एक बुर्जुग महिला ने अपने आंसू पोंछते हुए मदन के सर पर हाथ रख कर कहा, "नाती (पोता) तेरी ईजा हम सबको छोड़ कर भगवान के पास चली गई है। पार्वती अब कभी वापस नहीं आयेगी।" फिर मदन को गले लगाकर फूट-फूट कर रोने लगी।
अभी तक मदन यही सोच रहा था कि उसकी माँ बीमार है। लेकिन जब पता चला कि उसकी ईजा (मां) अब कभी वापस नहीं आयेगी तो अपनी ईजा के सीने पर सर रखकर बार-बार यही कहता, "ईजा तू मुझे अकेला छोड़कर कहाँ चली गई। पहले बाज्यू (पिता) छोड़ कर चले गए अब तू भी चली गई। तेरे बिना मैं अकेले कैसे रहूंगा। एक दिन तूने कहा था कि अगर मैं तुझे परेशान करूंगा तो तू मुझे छोड़कर चली जायेगी। मैं अब कभी तुझे तंग नहीं करूंगा बस एक बार तू वापस आ जा।" फिर दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा।
धीरे धीरे गाँव के लोग एकत्रित होने लगे। सब आपस में यही बात कर रहे थे कि मदन की माँ पार्वती को मुखाग्नि कौन देगा, तभी गाँव के एक बुज़ुर्ग ने सलाह दी कि मदन ही अपनी ईजा को मुखाग्नि देगा। रामगंगा नदी के तट पर पार्वती का दाह संस्कार करके गाँव के पुरूष अँधेरा होने से पहले घर लौट आए थे। मदन का मुंडन कराया जा चुका था।
उस दिन शाम का वक़्त था, क्षितिज में सूरज अलसाया हुआ था। मदन घर के आंगन की दीवार पर बैठकर सामने की बर्फीली पहाड़ियों को ग़ौर से देख रहा था। उन चोटियों पर उसे अपनी ईजा के होने का ऐसा एहसास हो रहा था कि अभी बाहें फैलाकर उसे सीने से लगा लेगी। इसी बीच कहीं से फुदकती हुई बसंती भी वहाँ पहुँच कर मदन के बगल में ही बैठ गई।
बसंती, "मदन, क्या काकी अब कभी वापस नहीं आयेगी? हमें परियों की कहानी अब कौन सुनाएगा?" मदन अभी भी एकटक बर्फीली चोटियों पर अपनी निगाहें गड़ाए हुए था।
बसंती, "मदन तू चुप क्यों हैं? कुछ बोलता क्यों नहीं? क्या काकी सच में कभी वापस नहीं आयेगी?" बसंती की बातें सुनकर मदन फफक-फफक कर रोने लगा। गिरते हुए आंसूओं को साफ़ करते हुए कहा, "हाँ बसंती, ईजा अब कभी वापस नहीं आयेगी। सब कहते हैं ईजा मुझे अकेला छोड़कर भगवान के पास चली गई है।"
बसंती, "तो फिर तेरे लिए अब खाना कौन बनाएगा? तू मेरे साथ मेरे घर चल, वहाँ हमारे साथ रहेगा। मेरे बाज्यू (पिता) बहुत अच्छे हैं तुझे कुछ नहीं कहेंगे।"
रुआंसे स्वर में मदन ने कहा, "गांव के सब लोग कहते हैं मैं अनाथ हूँ। अनाथ बच्चे को कोई अपने साथ नहीं रखता। गाँव के बच्चे भी अब मेरे साथ नहीं खेलते। बसंती तुझे याद है उस दिन जब नदी की लहर में तेरा रेत का घर ढह गया था तो मैं बहुत खुश हुआ था। आज़ भगवान ने मेरा घर भी ढहा दिया।"
बसंती, "लेकिन मैं तो तेरे साथ खेलती हूँ न। हाँ ये बात ज़रूर है कि तू मुझसे दूर रहने लगा है।"
मदन, "बसन्ती तू ठीक कहती है। गाँव में अब मेरा मन नहीं लगता। जी चाहता है यहाँ से भाग कर कहीं दूर चला जाऊँ जहाँ कोई मुझे पहचानता न हो।"
बसंती, "बता कब भागना है मैं भी तेरे साथ चलूंगी। अगर तू मेरा अच्छा दोस्त है तो अकेला मत भागना, मुझे भी साथ ले चलना।"
मदन, "देखना जिस दिन भागूंगा गाँव में किसी को पता भी नहीं चलेगा, तुझे भी नहीं।"
तभी मदन की ताई बिमला घर से बाहर आई और चिल्लाते हुए मदन से कहा, "तू अभी तक यहाँ बैठकर आराम कर रहा है। नदी से पानी भरकर कौन लायेगा। एक नंबर का कामचोर कहीं का।"
बसंती से जब ये देखा नहीं गया तो मदन की ताई से बोली, "क्यों काकी पानी भरकर हरिया (बिमला का बेटा) नहीं ला सकता क्या। जब देखो मदन को डांटती रहती हो। देखना मैं तुम सबकी शिकायत पटवारी काका से करूंगी।" अंधेरा घिर आया था, इतना कहकर बसंती अपने घर चली गई।
कुछ दिनों तक सब ठीक ठाक था लेकिन धीरे-धीरे मदन के ताऊ और उनके परिवार ने मदन की अनदेखी शुरु कर दी। कभी उनकी गाय भैंसों को चराता तो कभी खेतों में काम करता हुआ नज़र आता। स्कूल जाना भी लगभग छूट गया था। ज़िन्दगी जैसे बंधुआ मज़दूर बनकर रह गई थी।
बसन्ती के पिता ठाकुर प्रेम सिंह मेहता गाँव के प्रधान थे। बहुत ही मिलनसार और हंसमुख स्वभाव के थे। ज़रूरत पड़ने पर सबकी मदद भी किया करते थे। गाँव के सभी लोग उनका बहुत सम्मान करते थे। एक दिन बसंती ने अपने पिता को मदन के साथ हो रहे अत्याचार के बारे में बताया तो उनको बहुत दुःख हुआ। बसन्ती के पिता ने जब इस बारे में मदन के ताऊ से बात करी तो इसे पारिवारिक मामला बताकर टाल गए।
उस दिन शाम के वक़्त मदन गायों को चराकर घर पहुँचा ही था कि उसके ताऊ ने गुस्से में लाल पीला होकर उसकी पिटाई शुरु कर दी। उसे अभी तक समझ नहीं आ रहा था कि उसकी पिटाई क्यों हो रही थी। उस रात उसके ताऊ ने उसे खाना भी नहीं दिया। भूखे पेट ही घर के आंगन की दीवार के ऊपर सो गया।
आज़ उसे अपनी माँ पार्वती की बहुत याद आ रही थी। उसे याद आ रहा था कि उसकी माँ कभी भी उसे भूखे पेट नहीं सोने देती थी। जाड़ों की रात थी, रह-रह कर डंक मारती सर्द हवाएँ चल रही थी, कंपकंपाती ठंड पड़ रही थी, चारों तरफ़ घना कोहरा बिखरा हुआ था। ऐसे में मदन का नाज़ुक बदन ठंड से ठिठुर रहा था, दांत किटकिटा रहे थे। उसे इंतज़ार था तो बस सुबह के होने का।
आधी रात को मदन उठकर गाँव के नीचे मुख्य सड़क पार आ गया और पूरी रात दिल्ली जाने वाली बस का इंतज़ार करने लगा। अँधेरा छटने से पहले दो लोग और वहाँ खड़े थे शायद उनको भी दिल्ली जाना था। सुबह लगभग छः बजे जैसे ही बस रूकी, अंधेरे का फायदा उठाते हुए मदन चुपके से पीछे की तरफ़ से बस की छत पर चढ़ गया। वस्त्र के नाम पर मदन के बदन पर मात्र एक निकर और आधी बाजू की फटी पुरानी एक कमीज थी। पहाड़ों की शीत लहरों के थपेड़ों से उसका बदन सिकुड़ गया था।
दूसरे दिन मदन जब घर में नज़र नहीं आया तो उसके ताऊ और ताई बहुत परेशान हुए। पूरा गाँव छान मारा लेकिन उसका कोई अता पता नहीं चला। जब ये बात बसंती को पता चली तो वह दौड़ती हुई मदन के घर पहुँची और उसके ताऊ से गुस्से में बोली, "काका मदन कहाँ है? उसे अभी ढूँढ कर लाओ। दो दिन पहले उसने मुझे बताया था कि तुम उसे रोज़ मारते हो और पेट भर कर खाना भी नहीं देते।"
जब मदन का दो दिन तक कोई पता नहीं चला तो गाँव का प्रधान होने के नाते बसन्ती के पिता ठाकुर प्रेम सिंह मेहता जी ने मदन के गायब होने की शिकायत पटवारी को लिखित में दे दी। ग्राम प्रधान के साथ पटवारी दिन के समय मदन के ताऊ से पूछताछ करने आया। पहले तो मदन के ताऊ इधर उधर की हांकने लगे लेकिन जब कड़ाई से पूछताछ हुईं तो स्वीकार किया कि कल किसी काम को लेकर मदन की पिटाई ज़रूर हुई थी लेकिन घर से नहीं निकाला था।
"पटवारी काका ये झूठ बोल रहे हैं। कुछ दिन पहले ही मदन ने मुझे बताया था कि उसके ताऊ उसे मारते हैं और पेट भर कर खाना भी नहीं देते।" वहाँ खड़ी बसंती ने रुआंसे होकर अपनी बात कही और फिर फूट-फूट कर रोने लगी। पटवारी ने उसके सिर पर हाथ रखकर सांत्वना देते हुए कहा कि मदन एक दिन अवश्य लौटकर आयेगा।
मदन के जाने से गाँव में अगर कोई सबसे ज़्यादा दुखी था तो वह थी बसन्ती। उसे याद था जब मदन ने एक दिन उससे कहा था कि उसके भागने की ख़बर गाँव में किसी को भी पता नहीं चलेगी और वैसा ही हुआ। मदन के साथ उसने रामगंगा नदी के तट पर रेत के सैकड़ों घरौंदे बनाए और गिराए थे लेकिन अब ये यादें सिर्फ़ अतीत बन कर रह गई थी। उसे पूरा विश्वास था कि एक दिन मदन गाँव ज़रूर लौटेगा॥
धीरे धीरे मदन के ताऊ ने उनके सभी खेतों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था। कई बार लोगों ने ताने भी दिए लेकिन उनको ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा। उनके दैनिक व्यवहार से ऐसा प्रतीत होता था मानो मदन के जाने का उनको कोई अफ़सोस नहीं था।
रास्ते में बस कई जगहों पर रूकी लेकिन पकड़े जाने के भय से मदन बस की छत पर ही सिकुड़कर लेटा रहा। भूख प्यास से उसका बहुत बुरा हाल था। सच ही तो है कि लाचारी और ग़रीबी इन्सान को क्या से क्या बना देती है। शाम को लगभग छः बजे बस जब दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे पहुँची तो कंडक्टर ने आवाज़ लगाई कि बस दिल्ली पहुँच गई थी। कंडक्टर की आवाज़ सुनकर मदन ज्यों ही बस की छत से नीचे उतरा तो कंडक्टर की नज़र उस पर पड़ गई।
कंडक्टर को देखते ही मदन फूट-फूट कर रोने लगा। कंडक्टर ने उसके सर पर हाथ रखकर पूछ, "बेटे रो क्यों रहे हो? क्या बात है? कहाँ से आ रहे हो और कौन है तुम्हारे साथ?" एक साथ इतने सारे प्रश्न सुनकर मदन आंखें ज़मीन पर टिकाए मौन खड़ा सिसकता रहा।
कंडक्टर ने एक बार फिर मदन को पुचकारते हुए पूछा, "बेटा डरो मत। अच्छा ये बताओ तुम्हारा नाम क्या है? बस की छत पर क्यों बैठे थे?"
मदन, "मेरा नाम मदन है और मैं अकेला हूँ।" उसके बाद मदन ने अपनी सारी आपबीती सुना डाली। उसकी कहानी सुनकर कंडक्टर की आंखों में भी आंसू आ गए। कंडक्टर को एहसास हुआ कि मदन ठंड से थर-थर कांप रहा था और बुखार से उसका बदन तप रहा था। मदन का हाथ पकड़कर कंडक्टर उसे सामने चाय की दुकान पर ले गया। चाय के साथ मदन को कुछ खाने को भी दिया।
ठंड से बचने के लिए उसने अपना शॉल निकाला और मदन के तपते बदन को ढकते हुए कहा, "मदन अब ये शॉल तुम्हारा है। सर्दी में ये तुम्हारे बहुत काम आयेगा।" क्योंकि कंडक्टर अक्सर इस दुकान पर बैठकर चाय पीता था तो चाय वाले को अच्छी तरह जानता था। उसने चाय वाले से कहा कि ये बच्चा तक़दीर का मारा हुआ है, इस बेचारे को चाय की दुकान पर ही अपने साथ रख ले। चाय वाले को भी एक छोटे लड़के की ज़रूरत थी तो वह मदन को अपने साथ रखने के लिए राजी हो गया। कुछ दिन तो चाय की दुकान के मालिक का व्यवहार मदन के प्रति ठीक था लेकिन धीरे धीरे हर बात पर मासूम मदन को डांटता रहता।
"अरे छोटू बिना चीनी वाली एक चाय लाना।" ये आवाज़ एक ग्राहक की थी जो सुबह के समय अक्सर यहाँ चाय पीने आता था।
मदन, "जी साहब जी अभी लाता हूँ।" कुछ ही देर में छोटू चाय देकर चला गया।
"छोटू ज़रा ईधर आना। देख ये कप कितना गंदा है। ठीक से साफ़ नहीं करता क्या। चल जल्दी से साफ़ कप में चाय लेकर आ।" कोने में बैठा एक ग्राहक थोड़ा गुस्से में बोला।
मदन के मालिक ने जब ये सुना तो एक झन्नाटेदार थप्पड़ मदन के दाएं गाल पर जड़ते हुए चिल्लाया, "साले तुझे कितनी बार समझाया है कप ठीक से धोया कर। तू ज़रूर एक दिन मेरा धंधा बंद करवाएगा।" मालिक के रोज़-रोज़ के बेरहम थप्पड़ों से अब तक मासूम मदन के दोनों गालों पर लाचारी और बेकसी की रेखाएँ उभर आई थी।
ठंड में सिकुड़ गए अपने गाल को सहलाते हुए मदन फिर से अपने काम पर लग गया। आंखों से टिप-टिप गिरते आंसू तो सबको नज़र आए लेकिन उन आंसुओं के पीछे छिपी दर्द भरी कहानी को कोई नहीं जान पाया। हर कोई हाथ में अख़बार लेकर किसी सनसनी ख़बर की तलाश कर रहा था।
चाय की दुकान के एक कोने में बैठा एक शख़्स छोटू पर हो रहे अत्याचार को देख रहा था जिनका नाम सोमनाथ मिश्रा था। मिश्रा जी दिल्ली के एक सीनियर सेकेंड्री स्कूल में गणित के अध्यापक थे। सुबह स्कूल के लिए बस पकड़ने से पहले मिश्रा जी अक्सर यहाँ चाय का आनंद लेते थे। छोटू की दयनीय हालत देख कई बार मिश्रा जी का दिल पसीजा था लेकिन कर भी क्या सकते थे। रोज़-रोज़ की बेरहम पिटाई से निजात पाने के लिए एक दिन अंधेरे में ही मदन यहाँ से भी भाग निकला।
घूमते घूमते मदन वैशाली मेट्रो स्टेशन के प्रवेश द्वार के सामने नुक्कड़ की चाय की दुकान पर पहुँचा और वहीं सड़क की पटरी पर बैठ गया। हालांकि मदन ने अपने बदन को कंडक्टर द्वारा दी हुई शॉल से ढक रक्खा था लेकिन शीत लहर के प्रकोप से थर-थर कांप रहा था। चाय वाला काफ़ी देर से उसे देख रहा था। जब उससे रहा नहीं गया तो आवाज़ देकर उसे अपने पास बुलाया और पीने को चाय दी। कुछ देर बाद चाय वाले ने उससे पूछा कि क्या वह उसकी चाय की दुकान पर काम करेगा। बिना कुछ बोले मदन ने गर्दन हिलाकर हामी भर दी।
मिश्रा जी का फ़्लैट वैशाली मेट्रो स्टेशन के पीछे पार्क के सामने था। उनके परिवार में उनके अलावा उनकी पत्नी रत्ना, बारह साल का बेटा और दस वर्ष की बेटी थी। उनकी पत्नी रत्ना धार्मिक विचारों की थी इसीलिए हर सोमवार को मन्दिर में शिवजी को जल चढ़ाया करती थी। वैसे तो मिश्रा जी पटना, बिहार के रहने वाले थे लेकिन नौकरी के सिलसिले में अब वैशाली में ही अपना फ़्लैट खरीद कर परिवार के साथ रहने लगे थे।
कुछ दिनों से चाय की दुकान पर जब मदन नज़र नहीं आया तो मिश्रा जी कुछ परेशान हुए। चाय वाले से पता चला कि छोटू कुछ दिन पहले ये जगह छोड़ कर बिना बताए चला गया था। दिल्ली और आसपास के इलाकों में ठंड का प्रकोप बढ़ रहा था। मिश्रा जी सोच रहे थे इतनी ठंड में बेचारा छोटू किस हाल में होगा।
कहते हैं न कि अगर किसी को दिल से याद किया जाए तो भाग्य भी साथ देने को मजबूर हो जाता है, कुछ ऐसा ही सोमनाथ मिश्रा जी के साथ भी हुआ। मिश्रा जी का तबादला लक्ष्मी नगर के सीनियर सेकेंड्री स्कूल में हो चुका था तो अब मेट्रो में ही सफ़र करने लगे। जनवरी का महीना था। चारों तरफ़ हल्की धुंध छाई हुई थी। उस दिन जैसे ही मिश्रा जी वैशाली मेट्रो के गेट से अंदर जा ही रहे थे कि उनकी नज़र मेट्रो गेट के बाहर नुक्कड़ की चाय की दुकान पर टिक गई। एक चेहरे को पहचानने की कोशिश कर रहे थे लेकिन धुंध के कारण वह अनजान चेहरा स्पष्ट नज़र नहीं आ रहा था।
थोड़ा और क़रीब जाकर देखा तो उनकी ख़ुशी की कोई सीमा नहीं थी। उसको देखते ही बोले, "अरे छोटू तुझे तो मैं कई दिनों से खोज रहा था और तू यहाँ है। सच में इतने दिनों बाद आज तुझे देखा तो दिल खुश हो गया।"
मदन, "अरे साहब जी आप तो आनंद विहार से सुबह की बस पकड़कर स्कूल जाते थे। आज़ वैशाली मेट्रो स्टेशन पर कैसे आना हुआ।"
मिश्रा जी, "छोटू मेरा तबादला लक्ष्मी नगर हो गया है तो अब मेट्रो से ही आना जाना लगा रहता है। तू बता यहाँ कब से काम कर रहा है।" इतने में छोटू मिश्रा जी के लिए चाय लेकर आया और यहाँ आने की सारी कहानी एक ही सांस में बता डाली। मिश्रा जी ने देखा इतनी ठंड में भी छोटू के बदन पर वही पुरानी निकर और फटी पुरानी आधी बाजू की कमीज थी।
इतनी ठंड में भी छोटू के चेहरे पर मुस्कान की खिली धूप देख कर मिश्रा जी ने पूछ ही लिया, "छोटू इतनी ठंड में भी तू मुस्कराता रहता है, क्या तुझे सर्दी नहीं लगती। इसका राज़ क्या है।"
मदन, "साहब जी, ठंड किसको नहीं लगती। मुझे भी लगती है लेकिन हम पहाड़ी लोगों को इसकी आदत बचपन से ही पड़ जाती है।" फिर मुस्कराते हुए दूसरे ग्राहक की चाय लेने चला गया। मिश्रा जी भी मन ही मन सोच रहे थे कि ये पहाड़ के लोग भी न जाने किस मिट्टी के बने थे।
दूसरे दिन सुबह जब मिश्रा जी आए तो उनके हाथ में एक बैग था जिसमें मदन के नाप के कुछ पुराने कपड़े थे। मदन को बैग थमाते हुए कहा, "छोटू इसमें कुछ गर्म कपड़े हैं सर्दी में तेरे बहुत काम आयेंगे।" इसके बाद मिश्रा जी मेट्रो स्टेशन के अंदर चले गए। मदन उन कपड़ों को पहन कर आज़ बहुत खुश था। धीरे-धीरे मदन और मिश्रा जी की अच्छी जान पहचान हो गई थी।
इतवार का दिन था, शाम के समय मिश्रा जी वैशाली मेट्रो स्टेशन के पीछे वाले पार्क में अपने बच्चों के साथ बैडमिंटन खेल रहे थे कि तभी उनकी नज़र सामने बेंच पर ठहर गईं। बेंच पर मदन बैठा हुआ था जो काफ़ी देर से उनके बच्चों को बैडमिंटन खेलते हुए देख रहा था। मिश्रा जी ने उसे बुलाया और उसके साथ बैडमिंटन खेलने लगे। अब हर इतवार की शाम मदन पार्क में बैडमिंटन खेलने आ जाता जहाँ मिश्रा जी उसका इंतज़ार कर रहे होते थे। अब मिश्रा जी के बच्चे भी मदन के साथ काफ़ी घुल मिल गए थे।
उस दिन मिश्रा जी की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था जब मदन ने उनको बताया कि वह भी उनके बच्चों की तरह पढ़ना चाहता था। जब मिश्रा जी ने खाली समय में उसे पढ़ाना आरंभ किया तो गणित विषय में उसके अद्भुत ज्ञान को देख कर अचंभित रह गए। मिश्रा जी की पत्नी मदन को भी अपना बेटा ही समझने लगी थी मानो परिवार का ही एक सदस्य हो।
मिश्रा जी को आजकल एक चिंता बहुत सता रही थी और चिंता थी मदन की पढ़ाई लिखाई की। इस बारे में एक दिन मिश्रा जी ने मदन की पढ़ाई के बारे में अपनी पत्नी रत्ना से कहा, "रत्ना, मदन के बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है?"
रत्ना, "आज अचानक से आप ऐसा क्यों कह रहे हो। आपको तो पता ही है कि मैं उसे अपना दूसरा बेटा मानती हूँ। छोटी-सी उम्र में भी अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छी तरह से समझता है। बहुत ही होनहार और समझदार बच्चा है।"
मिश्रा जी, "रत्ना, ये सब तो ठीक है लेकिन मैं मदन की पढ़ाई के बारे में बात कर रहा हूँ। आजकल दिन रात मुझे यही चिंता सता रही है कि यदि इसकी पढ़ाई छूट गई तो एक होनहार बचपन बर्बाद हो सकता है।"
रत्ना, "हाँ बात तो तुम्हारी ठीक है। मेरी राय है कि हमें ही कुछ करना पड़ेगा। अगर उसे बेटा माना है तो हमारी जिम्मेदारी बनती है कि उसकी पढ़ाई लिखाई का भी पूरा ख़्याल रखें।" अब शाम को हर रोज़ मिश्रा जी कुछ समय निकाल कर मदन को पढ़ाने लगे थे और मदन भी मन लगाकर पढ़ाई कर रहा था। मिश्रा जी ने दिल्ली के ओपन स्कूल में उसका दाखिला भी करवा दिया था।
मिश्रा जी चाहते थे कि मदन चाय की दुकान छोड़कर उनके साथ रह कर अपनी पढ़ाई करे लेकिन मदन इसके लिए बिल्कुल भी राजी नहीं था। मिश्रा जी की पत्नी रत्ना ने भी उसको समझाने की बहुत कोशिश की मगर मदन तो जैसे अपनी ही जिद्द पर अड़ा था। थक हार कर उनको मदन के जुनून के सामने झुकना ही पड़ा।
चाय की दुकान पर काम करते हुए मदन को लगभग चार साल हो गए थे। जब मालिक छुट्टी पर होता था तो मदन अकेला ही सभी ग्राहकों को चाय बना कर पिलाता था। उसके हाथ की बनी चाय में जाने ऐसा क्या जादू था कि जो एक बार पीता था फिर बार-बार आता था। यहाँ आने वाले सभी ग्राहक उसके कुशल व्यवहार से बहुत ही प्रभावित थे।
एक दिन उसका मालिक किसी ज़रूरी काम से अपने गाँव प्रयागराज़ गया और फिर कभी लौटकर नहीं आया। उसके एक जानकार ने मदन को बताया कि उसका मालिक कभी वापस नहीं आयेगा जिसके कारण चाय की दुकान का सारा बोझ अब मदन के कंधों पर आ गया था। चौदह साल की छोटी-सी उम्र का बालक वक़्त की ठोकरें खाकर आज़ परिपक्व व्यक्तित्व का धनी इन्सान बन चुका था। उसने दुकान के आगे एक बोर्ड लगा दिया जिस पर लिखा था "छोटू टी कॉर्नर"। धीरे-धीरे वैशाली मेट्रो स्टेशन के आसपास “छोटू टी कॉर्नर" का नाम काफ़ी मशहूर हो गया था।
अगस्त का महीना था, दिन का वक्त, हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। चाय की दुकान पर मदन अकेला ही बैठा हुआ बारिश का आनंद ले रहा था कि तभी चाय की दुकान पर दो पुलिस वाले आए और छोटू को दो चाय का ऑर्डर देकर आपस में कुछ बातें करने लगे। उनमें से एक सिपाही और एक हवलदार था। चाय बनाते-बनाते मदन उनकी बातों को ध्यान से सुन रहा था।
पुलिस वालों को चाय के कप थमाते हुए मदन ने पूछा, "साहब जी अभी आप किस बारे में बातें कर रहे थे?"
एक पुलिस वाला, "अरे छोटू, तू क्या करेगा ये जानकर कि हम क्या बातें कर रहे थे। तू बस अपनी चाय पर ध्यान दे।"
मुस्कराते हुए मदन ने कहा, "साहब जी आप तो नाराज़ हो गए। मैं तो बस यूं ही पूछ रहा था। क्या पता ये छोटू तुम्हारे कुछ काम आ जाए।"
दूसरा पुलिस वाला, "अच्छा छोटू ज़रा हमको भी तो समझा कि ये चाय वाला छोटू हमारे भला क्या काम आ सकता है?"
मदन, "साहब जी अभी आप दोनों जिस बारे में बातें कर रहे थे मैंने सुन ली हैं। आप दोनों आज़ शाम सात बजे चाय के बहाने मेरी दुकान पर आओ तो आप समझ जाओगे कि ये छोटू चाय वाला जेम्स बॉन्ड कितने काम का आदमी है लेकिन पुलिस की वर्दी में नहीं।"
शाम ठीक सात बजे दोनों पुलिस वाले आम आदमी के वेश में छोटू टी कॉर्नर पर आकर बैठ गए। उस समय चाय की दुकान पर कोई ग्राहक नहीं था। मदन पुलिस वालों के पास गया और बहुत ही नम्रता से कहा कि उसका नाम कहीं भी नहीं आना चाहिए। पुलिसवाले भी मदन की लाचारी और मजबूरी को समझते थे। जब बहुत देर हो गई तो एक पुलिस वाला झल्लाकर बोला, "छोटू देख आधा घंटा हो गया है हमें इंतज़ार करते-करते लेकिन हमारा काम अभी तक नहीं हुआ। तू कहीं हमें मूर्ख तो नहीं बना रहा।" इतना कहकर पुलिस वाले उठकर जाने ही वाले थे कि मदन ने उनको कुछ देर और रुकने का आग्रह किया।
इसी दौरान तीन आवारा क़िस्म के लड़के झूमते हुए वहाँ आए और छोटू टी कॉर्नर के सामने लगी बेंच पर बैठ गए। जैसे ही मदन की नज़र उन पर पड़ी, मदन ने आंखों ही आंखों में पुलिस वालों को कुछ इशारा किया। मदन का इशारा पाते ही पुलिस वालों ने आवारा क़िस्म के उन तीनों लड़कों को पीछे से दबोच लिया लेकिन उनमें से एक लड़का भागने में कामयाब रहा। इससे पहले कि वह लड़के कोई सवाल करते, पुलिस वाले उनको गाड़ी में बैठाकर वैशाली पुलिस स्टेशन ले कर चले गए।
दूसरे दिन सुबह का हिन्दी अख़बार पढ़कर मदन को मालूम हुआ कि वैशाली मेट्रो स्टेशन के पास मोबाइल और चैन झपटने वाले एक बड़े गिरोह पकड़ा गया था। पुलिस वालों ने उनसे कई सोने की चेन और कई मोबाइल फ़ोन बरामद किए थे। रात के लगभग दस बजे जब मदन चाय की दुकान बंद कर रहा था तो वही पुलिस वाले उसके पास आए।
मदन के कंधे पर हाथ रखते हुए हवलदार ने कहा, "यार छोटू, तू तो सच में जेम्स बांड निकला। तेरी मदद के कारण हमने मोबाइल और चेन चोरी के बीस से अधिक मामले सुलझा लिए हैं। हमारे बड़े साहब तुझसे एक बार मिलना चाहते हैं। बता कब चलना है?"
घबराते हुए मदन ने कहा, "साहब जी, मैंने आपको पहले ही कहा था कि मेरा नाम कहीं भी नहीं आना चाहिए लेकिन आपने मेरी सुनी नहीं। आगे से मैं अब किसी भी मुश्किल में पुलिस वालों का साथ नहीं दूंगा।" बात करते हुए मदन की आंखों से घबराहट के मारे आंसू छलक रहे थे।
उसके गिरते हुए आंसूओं को साफ़ करते हुए हवलदार ने कहा, "तुझसे वादा करते हैं कि तेरे नाम का खुलासा हम कभी नहीं करेंगे।" फिर सिपाही के हाथ से एक पैकेट लेकर मदन को थमाते हुए कहा कि ये उसका पुरस्कार था।
मदन, "साहब जी इसमें क्या है!"
हवलदार, "तूने हमारी जो मदद की है, ये उसका ही ईनाम है। ये ईनाम तो तुझे लेना ही पड़ेगा। इस पैकेट के अंदर पूरे दस हज़ार रुपए हैं जो तेरे बहुत काम आयेंगे।" फिर पुलिस वाले वहाँ से चले गए। इतना बड़ा ईनाम पाकर आज़ मदन बहुत खुश था। इस ईनाम के बारे में मदन ने मिश्रा जी को सारी बात बताई और पहले की तरह ये रूपये भी मिश्रा जी के पास जमा करा दिए।
“छोटू टी कॉर्नर” पर शाम के समय कभी-कभी करीबी बैंक के अधिकारी भी चाय की चुस्कियाँ लेने आया करते थे। उनकी मदद से मदन ने उनके बैंक में अपना खाता खुलवा लिया था। अपनी बचत को मदन अब इसी बैंक में जमा कराने लगा था। मिश्रा जी के पास उसके जो रूपये जमा थे उनको भी इसी बैंक में जमा करा दिया था।
छोटू टी कॉर्नर की मदद से स्थानीय पुलिस ने कई अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुँचाया था। वैशाली मेट्रो स्टेशन के आस पास चेन और मोबाइल फ़ोन झपटने की घटनाओं में अप्रत्याशित कमी आई थी। चाय की दुकान के साथ मदन अब पुलिस के लिए मुखबिरी का काम भी करने लगा था जिसके लिए उसे कई बार नकद पुरस्कार भी मिला था। मदन हर पुरस्कार की नकद राशि को अपने बैंक खाते में जमा करा देता क्योंकि वह जानता था कि एक दिन उसे अपना अधूरा सपना जो पूरा करना था।
सालों के अनुभव से मदन को एहसास हुआ कि दिल्ली के लोग समोसे और ब्रेड पकोड़े खाने के बेहद शौकीन हैं। उसने अब चाय के साथ-साथ समोसे और ब्रेड पकोड़े का धंधा भी शुरु कर दिया। उसका ये इनोवेटिव आइडिया काम कर गया और देखते-देखते उसकी चाय की दुकान पहले से बेहतर चल पड़ी। इस काम के लिए उसने दो लड़के भी अपने साथ रख लिए थे। एक बर्तन साफ़ करता था तो दूसरा समोसे और ब्रेड पकोड़े तैयार करता था। छोटू टी कॉर्नर का सबसे बड़ा आकर्षण मेट्रो से सफ़र करने वाला आज़ का युवा वर्ग था।
जून का महीना था, दिल्ली और उसके आस पास के वातावरण में गर्म हवाएँ अपना कहर बरपा रही थी। दोपहर का समय था, मोटर बाइक से पसीने में नहाया हुआ एक आदमी उतरा और छोटू टी कॉर्नर के सामने खड़ा होकर ग्राहकों के जाने का इंतज़ार करने लगा। ग्राहकों के जाते ही वह आदमी मदन के पास पहुँचा और एक फोटो दिखाते हुए बोला, "क्या इस आदमी को आस पास कभी देखा है?"
सकपकाते हुए मदन ने जवाब दिया, "जी मैं नहीं पहचानता इस आदमी को। आप कौन हैं?"
वो आदमी, "बेटा घबराओ मत। मेरा नाम इंस्पेक्टर यादवेंद्र राठौर है और वैशाली पुलिस स्टेशन का दरोगा हूँ।"
मदन, "साहब जी नमस्ते। साहब जी फिर कहता हूँ इस आदमी को मैं नहीं पहचानता।" जो आदमी अपने आपको इंस्पेक्टर बता रहा था मदन उससे पहले कभी नहीं मिला था, इसलिए इस मामले में फिलहाल चुप रहना ही बेहतर समझा। वह आदमी वहाँ से चला गया। लगभग आधे घंटे बाद वही आदमी फिर आया लेकिन इस बार उसके साथ एक आदमी और था। मदन इस आदमी को पहले से ही जानता था। मोटर बाइक से उतरकर उस आदमी ने मदन से कहा, "छोटू, बेटा क्या हाल हैं तेरे। काम धंधा कैसा चल रहा है।"
मदन, "हवलदार साहब नमस्ते। ज़िन्दगी मस्त चल रही है और आपकी कृपा से धंधा भी ठीक ठाक चल रहा है।"
हवलदार, "छोटू, ये साहब हमारे दरोगा जी हैं। कुछ देर पहले ये तेरे पास किसी ख़ास काम से आए थे लेकिन तूने इनको पहचाना नहीं।"
मदन, "साहब जी नमस्ते। मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा था इसलिए मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा।"
हवलदार राम सिंह छोटू को दुकान से कुछ दूर ले गया और वही फोटो दिखाते हुए कहा, "छोटू, इस तस्वीर को ध्यान से देख और बता इसे कभी इधर देखा है। हमें मुखबिर से सूचना मिली है कि कुछ दिनों से ये मेट्रो स्टेशन के आस पास घूमते हुए देखा गया है।"
उस तस्वीर को हाथ में पकड़ कर कुछ देर तक मदन ध्यान से देखता रहा फिर अगले ही पल तपाक से बोला, "साहब जी, बिल्कुल इसी शक्ल का एक दाढ़ी वाला आदमी दो दिन पहले मेरे यहाँ चाय पीने आया था, उसके साथ दो आदमी और थे। मुझे तो वह कोई खतरनाक गुंडा मालूम पड़ता है।"
दरोगा, "तुझे कैसे मालूम कि वह एक खतरनाक गुंडा है। क्या उसने तुझे धमकाया था?"
मदन, "क्योंकि मुझे ऐसा लगा था कि उसके कमर के अंदर कोई पिस्तौल जैसी चीज़ लटक रही थी।"
हवलदार, "छोटू ठीक है, ये आदमी जब दोबारा तुझे नज़र आए तो मुझे मेरे मोबाइल नंबर पर तुरंत ख़बर कर देना। छोटू क्या तुझे पता है कि इसे पकड़वाने वाले को दो लाख का नकद ईनाम मिलेगा। हमें पूरा यक़ीन है कि ये ईनाम भी तुझे ही मिलेगा।" इसके बाद पुलिस वाले वहाँ से मोटर बाइक में बैठकर निकल गए।
दो दिन बाद वही आदमी, जिसकी पुलिस को तलाश थी, शाम के वक़्त अपने दो साथियों के साथ छोटू टी कॉर्नर आया। मदन को तीन चाय और समोसों का ऑर्डर देकर अपने साथियों से बातें करने लगा। उनकी बातें ध्यान से सुनने के लिए मदन उनके आस पास ही रहा। उनकी बातों से पता चला कि वह अपने साथियों के साथ कल शाम को इसी समय बगल वाले बाबा दा ढाबा पर फिर आयेगा।
दूसरे दिन सिविल ड्रेस में हथियारों से लैस लगभग दस पुलिस वाले एक घंटा पहले ही बाबा दा ढाबा के आस पास खड़े होकर अपने शिकार का इंतज़ार कर रहे थे। तभी सफेद रंग की एक मर्सिडीज कार बाबा दा ढाबा के सामने रूकी। उसमें से वहीं गुंडा अपने दो साथियों के साथ कार से उतर कर सीधा बाबा दा ढाबा के अंदर चला गया। मदन से इशारा पाते ही कुछ पुलिस वाले हाथों में हथियार थामे ढाबे के अंदर घुस गए और कुछ पुलिस वाले ढाबे के बाहर ही खड़े रहे।
गुंडों को चारों तरफ़ से घेर कर दरोगा ने कहा, "जल्दी से हाथ खड़े कर दो। तुम चारों तरफ़ से घिर गए हो।" इसी बीच एक गुंडे ने पिस्तौल से दरोगा पर फायर झोंक दिया। दोनों तरफ़ से कुछ राउंड गोलियाँ चली। आख़िर में पुलिस वाले गुण्डों को दबोचने में कामयाब रहे थे। पुलिस ने तीनों बदमाशों को हथकड़ी पहना कर गाड़ी में बैठाया और वहाँ से ले गई।
कुछ दिनों के बाद हवलदार राम सिंह छोटू टी कॉर्नर पर मदन से मिलने आया और पूछा, "छोटू बेटा, तेरे नाम से कोई बैंक खाता है क्या?"
मदन, "जी साहब है न बगल वाले बैंक में। मगर आप क्यों पूछ रहे हो?"
छोटू को एक बैंक चेक थमाते हुए हवलदार राम सिंह ने कहा, "तेरी मदद से हमने कुछ दिन पहले एक खूंखार अपराधी को पकड़ा था। इसलिए पुलिस विभाग की तरफ़ से ये तेरे नाम दो लाख का चेक है, ये तेरा ईनाम है। इसे आज़ ही अपने बैंक खाते में जमा करा देना।" इतना कहकर हवलदार राम सिंह वहाँ से मोटर बाइक में बैठकर चला गया। कुछ देर बाद मदन ने दो लाख का चेक बैंक में जमा करा दिया।
दसवीं बोर्ड की परीक्षा में अब कुछ ही महीने बाक़ी थे। परीक्षा की तैयारी मिश्रा जी अपनी बेटी जयंती और मदन को साथ-साथ कराते थे। सारे दिन मदन छोटू टी कॉर्नर का काम संभालता तो रात के समय परीक्षा की तैयारी करता था। जैसे ही दसवीं बोर्ड परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ मिश्रा जी के पांव ज़मीं पर नहीं पड़ रहे थे। उनकी खुशियों का समन्दर छलक कर उम्मीदों के किनारों को भिगो रहा था। रत्ना तो मानो ख़ुशी से झूम रही थी।
दिल्ली ओपन स्कूलिंग से मदन ने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण
की थथी और जयंती भी अच्छे अंक लेकर सफल हुई थी।
दूसरी तरफ़ बसंती ने भी गाँव से दसवीं बोर्ड की परीक्षा में अच्छे अंकों से सफलता हासिल की थी। आगे की पढ़ाई के लिए वह दिल्ली अपने मामा जी चंदन सिंह नेगी जी के पास आ गई। उसके मामा जी दिल्ली में सरोजिनी नगर में सरकारी क्वार्टर में अपने परिवार के साथ रहते थे और सरोजिनी नगर के ही सरकारी नवयुग स्कूल में कॉमर्स के टीचर थे।
बारहवीं के बाद बसंती ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के मिरांडा हाऊस कॉलेज में बी. कॉम। (Hon) में दाखिला ले लिया जहाँ उसकी क्लास में पढ़ने वाली कुछ अच्छी सहेलियाँ बनी। धीरे-धीरे बसंती ने अपने आपको दिल्ली जैसे महानगर के आधुनिक वातावरण में ढाल लिया था लेकिन अपनी पहाड़ी संस्कृति और रीति रिवाजों को नहीं भूली थी।
इधर मिश्रा जी के मार्ग दर्शन में मदन की आगे की पढ़ाई जारी रही। मिश्रा जी मदन को हमेशा कहते थे कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इन्सान को शिक्षा ज़रूर ग्रहण करनी चाहिए। इधर समय अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रहा था और उधर समय के साथ क़दम मिलाते हुए मदन ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉरेस्पोंडेंस विभाग से बी. काम पूरी कर ली थी।
वैशाली मेट्रो स्टेशन के बाहर सरकार ने मेट्रो कॉम्प्लेक्स मार्केट का निर्माण करके लोगों को दुकानें आबंटित की थी। उनमें से नुक्कड़ की एक दुकान मदन के नाम पर भी आबंटित की गई थी। मदन ने अपनी सालों की कमाई इस दुकान को खरीदने में लगा दी थी। पुलिस की तरफ़ से मिली ईनाम की राशि को उसने अपने काम को आगे बढ़ाने में निवेश कर दिया। सालों से उसने जो एक सपना देखा था आज़ साकार होने जा रहा था।
अक्टूबर का महीना था, गर्मी का प्रकोप ख़त्म हो चुका था, दिल्ली और आस पास का मौसम यौवन की अंगड़ाई ले रहा था। आज़ मदन के नए रेस्टोरेंट "छोटू टी कॉर्नर" का उद्घाटन मिश्रा जी की पत्नी रत्ना मिश्रा द्वारा प्रातः दस बजे हुआ। मदन ने इसकी तैयारी बहुत पहले से शुरु कर दी थी। अपने नियमित हर युवा ग्राहक को उसने आमंत्रित किया था। लड़की हो या लड़का, सभी को एक टी शर्ट, जिसके पीछे लिखा था "छोटू टी कॉर्नर" गिफ्ट में दी।
दिन के लगभग दो बजे लड़कियों की एक टोली उसके रेस्टोरेंट के सामने खड़ी होकर बोर्ड पढ़ने लगी जिस पर लिखा था "छोटू टी कॉर्नर" ! तभी उनमें से एक लड़की चंद्रकांता बोली, "बसंती, लगता है इस रेस्टोरेंट का उदघाटन आज़ ही हुआ है। नाम भी कितना यूनीक है। चलो आज़ यहाँ की चाय का आनंद लेते हैं।" सभी लड़कियाँ रेस्टोरेंट के अंदर प्रवेश कर गई।
"भैया, लगता है रेस्टोरेंट आज़ ही खुला है। क्या ये आपका है। चार चाय और चाय के साथ गरमा गरम समोसे भी लाना।" चंद्रकांता ने मदन से कहा।
मदन, "जी मैडम, रेस्टोरेंट का आज़ पहला दिन है और “छोटू टी कॉर्नर" नाम का ये रेस्टोरेंट मेरा ही है।"
बसंती, "नाम तो बहुत ही यूनीक रक्खा है। क्या आपका ही नाम छोटू है।" बसंती का चेहरा देखते ही मदन बचपन की यादों में कहीं खो गया था। सोच रहा था कहीं ये उसके बचपन की नटखट दोस्त बसंती तो नहीं हैं। नहीं ये बसंती नहीं हो सकती। वह यहाँ कैसे आ सकती है। उसका तो विवाह भी हो चुका होगा। लेकिन बसंती के दाएँ गाल के काले तिल ने उसे ये सोचने को विवश कर दिया था कि हो न हो ये वही बसंती है जिसके साथ बचपन में रामगंगा नदी के तट पर गाएँ चराया करता था।
बसंती, "हैलो, किस सोच में डूब गए। क्या मैंने कुछ ग़लत पूछ लिया?" इसी बीच एक लड़का चाय और समोसे टेबल पर रखकर चला गया।
ख्यालों की दुनियाँ से बाहर आ कर मदन ने कहा, "नहीं मैडम, आपने कुछ भी ग़लत नहीं कहा। पहले सोचा था इसका नाम “बसंती टी कॉर्नर" रखूंगा लेकिन फिर इरादा बदल दिया। जब से यहाँ हूँ लोग मुझे छोटू नाम से ही पुकारते हैं तो फिर “छोटू टी कॉर्नर" ही नाम रख दिया।"
"भैय्या, लेकिन आपको कैसे पता इसका नाम बसंती है?" उनमें से एक लड़की शकुंतला ने मदन से पूछा।
मदन ने बसंती की तरफ़ देखते हुए जवाब दिया, "क्या इत्तेफाक है। आपका नाम भी बसंती है। काश पहले पता होता तो इसका नाम" बसंती टी कॉर्नर" ही रखता।" चाय पीने के बाद मदन ने सबको "छोटू टी कॉर्नर" नाम की टी शर्ट गिफ्ट की। इतनी आकर्षक टी शर्ट पा कर सभी लड़कियाँ बहुत खुश थी और फिर रेस्टोरेंट से बाहर आ गई।
तभी चंद्रकांता नाम की लड़की अकेले ही अंदर जा कर मदन से कहती है, "भैय्या, परसों बसंती का जन्म दिन है और मैं चाहती हूँ कि इस बार उसके जन्म दिन की पार्टी हम आपके ही रेस्टोरेंट में मनाएँ। कैसा है मेरा ये आईडिया।"
बसंती के जन्म दिन की बात सुनकर मदन मानो सातवें आसमान में उड़ रहा था। मुस्कराते हुए बोला, "ठीक है मैडम। आप परसों इसी समय पहुँच जाना। मैडम मुझे ग़लत मत समझना। मेरी कोई बहन नहीं है, क्या मैं आपको बहन बुला सकता हूँ?"
चंद्रकांता, "अरे क्यों नहीं। मेरा भी कोई भाई नहीं है। आज़ से हमारा रिश्ता भाई बहन का। भैया अब तो खुश हो।"
मदन, "बहन, आपके पास यदि बसंती मैडम की कोई तस्वीर हो तो मेरे मोबाइल पर भेज दो। इसका कारण कल आपको पता चल जायेगा।"
बसंती के जन्म दिन की ख़ुशी में मदन ने आज़ अपने रेस्टोरेंट को आम ग्राहक के लिए शाम चार बजे तक बंद रखने का निर्णय लिया। सुबह से ही रेस्टोरेंट को रंग बिरंगे फूलों से सजाया जा रहा था। साफ़ सफ़ाई का ख़ास ध्यान रखा गया था। रेस्टोरेंट के मुख्य द्वार पर बसंती का मुस्कराता हुआ एक बड़ा होर्डिंग रखा गया था। सारी तैयारियाँ हो चुकी थी बस इंतज़ार था तो उस टोली के आने का।
दिन के लगभग एक बजे बसंती अपनी सहेलियों के साथ "छोटू टी कॉर्नर" पहुँचती है। वहाँ का बदला हुआ नज़ारा देखकर बसंती के होश उड़ गए थे। उसे
यकीन नहीं हुआ कि उसकी आंखों के सामने होर्डिंग में मुस्कराता चेहरा उसका ही था। होर्डिंग के सबसे ऊपर लिखा था "हैप्पी बर्थ डे टू बसंती"। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कोई सपना देख रही थी।
तभी चंद्रकांता ने बसंती की ओर देखते हुए कहा, "बसंती किस दुनियाँ में खोई है। देख तेरे जन्म दिन की ख़ुशी में आज छोटू टी कॉर्नर भी तेरा अभिनंदन कर रहा है।" फिर सभी सहेलियाँ रेस्टोरेंट के अंदर प्रवेश कर गई। रेस्टोरेंट की हर दीवार पर बसंती के पोस्टर लगे थे। चारों तरफ़ रंग बिरंगे फुलों की शानदार सजावट देखकर सभी सहेलियाँ अचंभित थी।
मदन पहले से ही हाथों में लाल और सफ़ेद रंग के गुलाब के फूलों से सजा गुलदस्ता लेकर खड़ा था। गुलदस्ता बसंती को देते हुए बोला, "बसंती मैडम, जन्म दिन की शुभ कामनाएँ।"
सामने बड़ी टेबल पर केक रक्खा हुआ था जिस पर लिखा था "हैप्पी बर्थ डे टू बसंती" ! बारी-बारी से सबने बसंती को केक खिलाकर जन्मदिन की शुभ कामनाएँ दी। कुछ ही देर में मदन का एक साथी चाय, समोसे और मिठाई की ट्रे टेबल पर रख गया।
समोसा खाते हुए चंद्रकांता, "भैय्या, आपने तो कमाल कर दिया। क्या शानदार इंतज़ाम किया है आपने। कहाँ से लाए ऐसा इनोवेटिव आईडिया?"
बसंती, "आपको कैसे पता आज मेरा जन्म दिन है और मेरी ये तस्वीर आपको कहाँ से मिली है?" चंद्रकांता ने उसको सारी कहानी संक्षिप्त में समझा दी। बसंती मन ही मन उस कारण को खोजने का भरसक प्रयास कर रही थी जिसने मदन को ये सब करने को प्रेरित किया था।
कुछ देर बाद मदन के दूसरे साथी ने टेबल पर लंच सजा दिया। खाना खाते-खाते बसंती की दूसरी सहेली शकुंतला ने मदन से कहा, "भैय्या, क्या आप भी बसंती की तरह उत्तराखंड से हो?"
मदन, "जी मैडम, मैं उत्तराखंड से ही हूँ मगर आपने कैसे पहचाना।"
इतने में बसंती की तीसरी सहेली रूपाली ने बसंती की तरफ़ मुस्कराते हुए कहा, "हमारी बसंती रानी भी उत्तराखंड की है। आप दोनों की सूरत पहाड़ियों जैसी है। क्यों बसंती ठीक कहा न मैंने।"
बसंती, "उत्तराखण्ड में कौन-सी जगह से? मैं अल्मोड़ा से हूँ, चौखुटिया के पास मेरा गाँव है।"
मदन, "मैं कहाँ से हूँ? मैंने ये सब क्यों और किसलिए किया? इन सभी प्रश्नों के जवाब आपको ज़रूर मिलेंगे लेकिन आज़ नहीं। सही वक़्त आने पर हर रहस्य से पर्दा उठेगा।" लंच करके बसंती अपनी सहेलियों के साथ रेस्टोरेंट से बाहर निकलने ही वाली थी कि मदन ने अपने हाथों से सबको उपहार में एक-एक पैकेट थमा दिया। फिर मुस्कराते हुए बाहर निकल गए।
मदन बसंती को तब तक एकटक देखता रहा जब तक उसकी धानी चूनर का आखिरी छोर मदन की आंखों से ओझल नहीं हो गया। ज़िन्दगी में पहली बार आज़ उसे एक नए आनन्द की अनुभूति हो रही थी। अपने बचपन के प्यार की यादों को ताज़ा करते हुए उसकी आंखों से आषाढ़ के रिमझिम मोती टपक रहे थे।
