जस्सी की वीर गाथा
जस्सी की वीर गाथा
जस्सी की वीरगाथा
१९६२ में हुए भारत-चीन के भीषण युद्ध के कई किस्से आज भी जीवंत हैं। इस युद्ध में माँ भारती के वीर जवानों ने जिस अदम्य साहस और प्रतिबद्धता के साथ अपनी वीरता और शौर्यता का अद्भुत परिचय दिया, वह भारत को हमेशा गर्व की अनुभूति कराता रहेगा।
ये कहानी इसी सच्ची घटना पर आधारित है और हाँ, अपने प्रिय पाठकों के लिए कहानी को थोड़ा और दिलचस्प मोड़ देने के लिए कहीं-कहीं कल्पनाओं का सहारा भी लिया गया है। इस कहानी का लक्ष्य स्कूली बच्चों को राष्ट्रीय नायकों और वीरों की कहानियों से अवगत कराना, उनकी बहादुरी के कारनामों और जीवन की कहानियों का प्रचार प्रसार करना है। कहानी की शुरुआत कुछ इस तरह होती है...........
‘‘जस्सी, जल्दी बाहर आ, देख तेरे दोस्त आए हैं।‘‘ हेमा जोर से चिल्लाते हुए बोली। हेमा की आवाज सुनते ही जस्सी दौड़े-दौड़े कक्षा से बाहर आया और बाहर का दृश्य देखते ही तुरन्त सावधान की स्थिति में आते हुए सैल्यूट मारने लगा।
स्कूल के सामने से पहाड़ी की ओर जाती हुई बलखाती सड़क से गढ़वाल राइफल्स के जवान परेड करते हुए गुजर रहे थे। स्कूल के दूसरे छात्र छात्राओं ने जब सेना की टुकड़ी को आंखों के सामने से जाते हुए देखा तो सभी सैल्यूट मारकर उनका अभिवादन करने लगे।
गढ़वाल राइफल्स के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल हर्षवर्धन सिंह राणा की नजर जब जस्सी पर पड़ी तो उनके चेहरे पर मुस्कान साफ झलक रही थी। उनसे रहा नहीं गया और जस्सी के पास आकर बोले, ‘‘बेटा क्या नाम है तुम्हारा?‘‘
जस्सी, ‘‘मेरा नाम जशवंत सिंह रावत है लेकिन मेरी माँ और गाँव के सब बच्चे मुझे जस्सी बुलाते हैं।‘‘
कर्नल राणा, ‘‘लेकिन आपको सैल्यूट मारना सिखाया किसने?‘‘
जस्सी, ‘‘मेरे चाचा मोहन सिंह रावत जी ने। वह भी आपकी तरह फौज में हैं।‘‘
कर्नल राणा, ‘‘अच्छा जस्सी बेटा ये बताओ बड़े होकर क्या बनना चाहते हो?‘‘
जस्सी, ‘‘बड़े होकर मैं भी आपकी तरह फौज में भर्ती होकर दुश्मन को हराकर अपनी मातृभूमि की सेवा करना चाहता हूँ। फौज की वर्दी मुझे बहुत पसंद है।‘‘
हेमा जो अभी तक चुप खड़ी थी तपाक से बोली, ‘‘मुझे भी बड़े होकर जस्सी की तरह फौजी बनना है।‘‘
मासूम और भोले बच्चों के मुख से देश प्रेम की बातें सुनकर कर्नल हर्षवर्धन सिंह राणा की आंखें भर आई। दोनों बच्चों के सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और फिर अपनी टुकड़ी के साथ रवाना हो गए।
जस्सी और हेमा उत्तराखंड के गढ़वाल जिले के एक छोटे से गाँव में रहते थे। गाँव के ही प्राइमरी स्कूल से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। दोनों एक दूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकते थे। साथ-साथ जंगल में गायों को चराते, साथ-साथ नदी से हर शाम पानी भरने जाते और स्कूल आना जाना भी साथ-साथ था।
आज बारहवीं का परीक्षा परिणाम आया जिसमें जस्सी और हेमा दोनों उत्तीर्ण हुए। ये पल दोनों के लिए ख़ुशी का पल था लेकिन जस्सी को अहसास हुआ कि हेमा के चेहरे पर ख़ुशी की जगह उदासी पसरी हुई थी, बहुत ख़ामोश और गुमसुम थी।
जस्सी स्वयं को रोक नहीं पाया और हेमा से पुछा, ‘‘हेमा, हम दोनों ही बारहवीं में सफल हुए हैं और तू फिर भी इतनी उदास क्यों हैं?‘‘
हेमा का गला भर आया और अपने आंसूओं को साफ करते हुए बोली, ‘‘जस्सी तू तो अब फौज में भर्ती हो जाएगा और यहाँ गाँव में तेरे बिना मैं कैसे रहूंगी। तू लड़का है न तो तू नहीं समझ पायेगा एक लड़की की पीड़ा को।‘‘
जस्सी का दिल भी भर आया था लेकिन अपने जज्बातों को दबाए रखा। हेमा के आंसुओं को पोंछते हुए बोला, ‘‘पगली फौज में जा रहा हूँ देश सेवा के लिए। तुझे तो गर्व होना चाहिए मुझ पर और तू है कि बिन बादल के सावन को न्योता दे रही है।‘‘
हेमा, ‘‘जस्सी, मुझे बहुत गर्व है कि मेरा दोस्त देश सेवा के लिए जा रहा है। लेकिन क्या तेरे बिना हेमा एक पल भी रह पाएगी। जस्सी कुछ तो बोल यार, बोलता क्यों नहीं। क्या तू रह पाएगा अपनी हेमा के बिना।‘‘
जस्सी, ‘‘तो तुझे क्या लगता है कि मैं रह पाऊंगा तेरे बगैर। पगली तू चिंता मत कर। ट्रेनिंग ख़त्म होते ही वापस आकर तुझे अपने साथ ही ले जाऊंगा। अब तो मुस्कुरा दे मेरी प्यारी हेमा।‘‘
१९ अगस्त, १९४१ को उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल जनपद बीरोंखाल ब्लाक के ग्राम बांड़ियू में जसवंत सिंह रावत का जन्म हुआ था। उनके अंदर देशप्रेम इस कदर भरा था कि १७ साल की उम्र में ही सेना में भर्ती होने चले गए, लेकिन कम उम्र के चलते उन्हें नहीं लिया गया। हालांकि, वर्ष १९६० में जसवंत को सेना में बतौर राइफल मैन शामिल कर लिया गया। १४ सितंबर, १९६१ को उनकी ट्रेनिंग पूरी हुई।
आज जस्सी कुछ दिनों की छुट्टियों पर अपने गाँव लौटा था। जब ये ख़बर हेमा को पता चली तो उसके पांव जमीं पर नहीं पड़ रहे थे। खुशियों के आसमान को सर पर उठाकर झूम रही थी। जिस घड़ी का इतनी बेसब्री से इन्तजार कर रही थी आख़िर वह घड़ी आ ही गई थी। उसने जब जस्सी को फौजी वर्दी में देखा तो उसकी ख़ुशी का कोई पारावार न था। वह जस्सी से लिपट जाना चाहती थी लेकिन पहाड़ों की शर्म हया ने उसके क़दम रोक दिए थे।
दूसरे दिन दोनों शिवालय में शिव के दर्शन के बाद ख़ूब देर तक बातें करते रहे। अब हेमा का अधिक समय जस्सी के साथ ही बीत रहा था। पहले की तरह आज जस्सी और हेमा गायों को चराने जंगल गए हुए थे। इधर हेमा गायों को घास चराने में व्यस्त थी तो उधर जस्सी बांसुरी पर कोई सुरीली पहाड़ी धुन बजा रहा था।
जस्सी की बांसुरी से ये धुन सुनकर हेमा ख़ुद को रोक न पाई और थिरकने लगी। बांसुरी बजाते हुए जस्सी भी उसे देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। बांसुरी की धुन की लहरों में डूबकर हेमा अब जस्सी की बाहों में समा गई थी। जस्सी भी उसके घने रेशमी बालों को सहलाने लगा था।
मतवाली पौन अपने शीतल झोंको से बर्फीली वादियों को पुचकारते हुए अपनी तरुणाई का इजहार कर रही थी, सामने पहाड़ की ऊंची धवल बर्फीली चोटी अपनी चमक से पहाड़ों के केसरिया आंचल में मोतिया पिरोते हुए इतरा रही थी। आकाश में घने काली घटाएं भी ठुमक ठुमक कर अठखेलियां कर रही थी। पहाड़ों की शीतल पौन भी देवदार की टहनियों की बाहों में समाकर से ईश्क फरमा रही थी।
इसी दौरान जस्सी के चाचा का लड़का आनंद हांफता हुआ जस्सी के पास आया और एक कागज का टुकड़ा थमाते हुए बोला, ‘‘दादा, अभी-अभी डाकिया आपके नाम की एक चिठ्ठी देकर गया है।‘‘
जस्सी ने देखा वह चिठ्ठी नहीं बल्कि भारतीय सेना की ओर से भेजा गया एक टेलीग्राम था जिसमें लिखा था........
‘‘चीन के साथ भीषण युद्ध छिड़ गया है, सभी छुट्टियाँ रद्द, यूनिट में तुरंत रिपोर्ट करो‘‘। टेलीग्राम पढ़कर जस्सी हेमा की ओर चिंता भरी नजरों से देखने लगा।
चुप्पी तोड़ते हुए हेमा ने पूछा, ‘‘जस्सी इतना शांत क्यों है? क्या लिखा है इस चिट्ठी में जो तू इतना उदास हो गया है?‘‘
जस्सी, ‘‘हेमा यह चिट्ठी नहीं टेलीग्राम है। इसमें लिखा है कि भारत और चीन के बीच अरुणाचल प्रदेश में भीषण युद्ध छिड़ गया है।‘‘
‘‘तो क्या तुझे अब तुरंत सीमा पर लौटना होगा।‘‘ आश्चर्य भरी नजरों से जस्सी की तरफ देखते हुए हेमा ने पूछा।
जस्सी, ‘‘हाँ हेमा, मुझे तुरंत माँ भारती की सेवा में सीमा पर जाना ही होगा। माँ भारती ने मुझे बुलाया है।‘‘
हेमा, ‘‘यदि माँ भारती ने बुलाया है तो मैं तुझे रोकूंगी नहीं। काश इस युद्ध में मैं भी तेरे साथ होती।‘‘
जस्सी, ‘‘मेरी एक बात आज ध्यान से सुन। युद्ध में मेरे साथ दो बातें हो सकती हैं। या तो मैं युद्ध जीत कर जिंदा वापस लौट कर आऊंगा या वीरगति को प्राप्त करके तिरंगे में लिपटकर आऊंगा।‘‘
‘‘जस्सी तू ऐसा क्यों बोल रहा है। तू तिरंगे में लिपटकर नहीं बल्कि हाथ में तिरंगा लहराते हुए लौटेगा।‘‘ अपनी बात ख़त्म करते ही हेमा की आंखों से आंसू टपकने लगे थे।
जस्सी, ‘‘अगर मैं देश की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया तो तू आंसू मत बहाना। बल्कि गर्व महसूस करना कि तेरा दोस्त भारत माँ की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया।‘‘
हेमा, ‘‘जस्सी, मुझे तुझ पर पूरा विश्वास है कि अपनी अंतिम सांस तक तिरंगे को झुकने नहीं देगा, फिर परिणाम चाहे कुछ भी हो।‘‘
मुस्कुराते हुए जस्सी ने कहा, ‘‘यह हुई ना बात तूने सही कहा है कि अपनी आखिरी सांस तक तिरंगे को झुकने नहीं दूंगा।‘‘ इसके बाद हेमा जस्सी से लिपटकर बहुत देर तक रोती रही।
फौज की वर्दी में गर्व से सीना ताने जस्सी आज देश सेवा के लिए चीन सीमा पर जा रहा था। उसे विदा करने उसके माता पिता के साथ पूरा गाँव उमड़ पड़ा था। लेकिन जस्सी की बेताब नजरें जिसको तलाश रही थी वह कहीं भी नजर नहीं आ रही थी। जस्सी जानता था कि हेमा विदाई के इन क्षणों को अपनी आंखों से देख नहीं पायेगी इसीलिए आई नही।
राइफलमैन जसवंत सिंह ज्यों ही रिपोर्ट करने अपनी यूनिट में पहुँचे तो तत्काल अरुणाचल सीमा पर जाने के आदेश दिए गए जहाँ उनकी टुकड़ी गढ़वाल राइफल्स की डेल्टा कम्पनी तैनात थी। यहाँ चीनी सैनिक पहले से ही युद्ध की पूरी तैयारी के साथ मौजूद थे। इस दौरान सेना की एक बटालियन की एक कंपनी नूरानांग ब्रिज की सेफ्टी के लिए तैनात की गई, जिसमें जसवंत सिंह रावत भी शामिल थे।
१९६२ का भारत-चीन युद्ध अंतिम चरण से गुजर रहा था। १४,००० फीट की ऊंचाई पर करीब १००० किलोमीटर क्षेत्र में फैली अरुणाचल प्रदेश स्थित भारत-चीन सीमा युद्ध का मैदान बन चुकी थी। हांड मांस जमा देने वाली ठंड और दुर्गम पथरीले इलाके में चीनी सैनिक भारत की जमीन पर कब्जा करते हुए हिमालय की सीमा को पार करके आगे बढ़ रहे थे। चीनी सैनिक अरुणाचल प्रदेश के तवांग से आगे तक पहुँच गए थे जहां भारतीय सैनिक भी चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला कर रहे थे।
कहते हैं कि सुबह के करीब ५ बजे चीनी सैनिकों के एक खूंखार दस्ते ने अरुणाचल प्रदेश पर कब्जे के इरादे से सेला टॉप पहाड़ी पर अचानक से धावा बोल दिया। उस वक्त वहाँ तैनात गड़वाल राइफल्स की तेज तर्रार डेल्टा कंपनी से उनकी खतरनाक मुठभेड़ हुई। जसवंत सिंह रावत डेल्टा कंपनी का हिस्सा थे। मौके की नजाकत को देखते हुए जसवंत सिंह तुरंत सतर्क हो गए और भारत माता की जय के नारे लगाते हुए अपने साथियों के साथ चीनी हमले का जवाब देने लगे।
चीनी सेना हावी होती जा रही थी। लड़ाई के बीच में ही संसाधन और जवानों की कमी का हवाला देते हुए भारतीय सेना ने गढ़वाल यूनिट की चौथी बटालियन को तत्काल वापस आने का आदेश दिया, लेकिन रणभूमि की उस पल की परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए राइफलमैन जसवंत सिंह रावत ने इस आदेश को नहीं माना और आखिरी सांस तक अपने साथियों लांस नायक त्रिलोकी सिंह नेगी और गोपाल गुसाई के साथ वहीं रह कर चीनी सैनिकों का मुकाबला करने का अद्भुत फैसला किया और दुश्मन को ईट का जवाब पत्थर से देते रहे। ये तीनों सैनिक एक बंकर से गोलीबारी कर रही चीनी मशीनगन को छुड़ाना चाहते थे।
तीनों जवान चट्टानों और झाड़ियों में छिपकर भारी गोलीबारी से बचते हुए चीनी सेना के बंकर के करीब जा पहुँचे और महज १५ यार्ड की दूरी से हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए दुश्मन सेना के कई सैनिकों को मारकर मशीनगन छीन लाए। इससे पूरी लड़ाई की दिशा ही बदल गई और चीन का अरुणाचल प्रदेश को जीतने का सपना मानो चकनाचूर हो गया। इस भीषण गोलीबारी में लांस नायक त्रिलोकी सिंह नेगी और गोपाल गुसाई वीरगति को प्राप्त हो चुके थे।
चीन के इस भीषण युद्ध के दौरान एक क्षण ऐसा भी आया था, जब चीन ने अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर आक्रमण करके अपने नापाक इरादों को उजागर कर दिया था। मगर चीनी सेना को अंदाजा नहीं था कि वहाँ उनका सामना भारतीय सेना में तैनात उत्तराखंड के एक ऐसे लाल से होने वाला था, जो उनके लिए काल बनकर उनका इन्तजार कर रहा था। भारत का वह जांबाज सपूत कोई और नहीं बल्कि राइफलमैन जसवंत सिंह रावत थे।
कहा जाता है कि भारतीय सेना के इस वीर सपूत ने अपनी वीरता, अदम्य साहस और शौर्य का अद्भुत परिचय देते हुए अकेले ही करीब ३०० से अधिक चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतारा था। जशवंत सिंह रावत चीनी सैनिकों को अरुणाचल की सीमा पर रोकने में पुरी तरह कामयाब तो हो गए थे मगर उन्हें पीछे नहीं धकेल सके।
सच्चाई ये थी कि उनके पास मौजूद रसद और गोली-बारूद लगभग ख़त्म हो चुके थे, लड़ते भी तो कैसे। उस समय के हालात को देखते हुए दुश्मन के सामने खड़े होने का सीधा-सा मतलब था, काल को निमंत्रण देना। पर जसवंत तो जसवंत ठहरे, सर पर देश सेवा का जुनून जो सवार था। यहाँ ये कहना भी गलत होगा कि उन्हें दुश्मन की ताकत का कोई अंदाजा नहीं था, पर मन में ये भरोसा भी था कि जंग कितनी भी बड़ी क्यों न हो, विजय नामुमकिन नहीं होती अगर बुलंद हौंसले और दृढ़ संकल्प हों।
चीनी लड़ाकों से लड़ते हुए जब उनके लगभग सभी साथी वीर गति को प्राप्त हो गए तो उन्होंने अपनी रणनीति को बदलने का निर्णय लिया। उन्होंने लगातार दुश्मन को इस भ्रम में डाले रखा कि वहाँ तैनात सभी भारतीय सैनिक ख़त्म हो चुके है।
वीर जवान जसवंत की शौर्यगाथा के सुनहरे पन्नों में अरुणाचल प्रदेश की मोनपा जनजाति की दो लड़कियाँ नूरा और सेला नामक दो बहनों का जिक्र भी अक्सर शान से किया जाता है। राइफलमैन जशवंत सिंह रावत ने नूरा और सेला बहनों की मदद से फायरिंग ग्राउंड बनाया और तीन स्थानों पर मशीनगन और बारूद रखे। उन्होंने ऐसा चीनी सैनिकों को भ्रम में रखने के लिए किया ताकि चीनी सैनिक यह समझते रहें कि भारतीय सेना बड़ी संख्या में है और तीनों स्थान से हमला कर रही है।
नूरा और सेला के साथ-साथ जसवंत सिंह तीनों जगह पर जा-जाकर हमला करते। इससे बड़ी संख्या में चीनी सैनिक मारे गए। इस तरह वह ७२ घंटे यानी तीन दिनों तक चीनी सैनिकों को चकमा देने में कामयाब रहे। लेकिन दुर्भाग्य से जशवंत सिंह रावत को राशन की आपूर्ति करने वाले शख़्स को चीनी सैनिकों ने पकड़ लिया। उसने चीनी सैनिकों को जसवंत सिंह रावत के बारे में सारी बातें बता दीं।
एक तरफ, चीनी सैनिकों ने १७ नवंबर, १९६२ को चारों तरफ से जसवंत सिंह को घेरकर हमला किया। इस हमले में सेला मारी गई लेकिन नूरा को चीनी सैनिकों ने जिंदा पकड़ लिया। जब जसवंत सिंह को अहसास हो गया कि उनको पकड़ लिया जाएगा तो उन्होंने युद्धबंदी बनने से बचने के लिए एक गोली ख़ुद को मार ली। सेला की याद में एक दर्रे का नाम सेला पास रख दिया गया है।
दूसरी तरफ, भारतीय सेना और जसवंत की खैरियत के लिए आज हेमा अपने गाँव के शिव मंदिर में दीया जलाकर प्रार्थना कर रही थी कि तभी हवा के एक तेज झोंके से जलता हुआ दिया अचानक से बुझ गया। इसे अपशकुन मानकर हेमा का दिल फड़फड़ाने लगा। जाने क्यों उसे लगा कि उस क्षण उसके बचपन का दोस्त जस्सी जरूर किसी बहुत बड़ी मुसीबत में था। उसकी आंखों से मानो भागीरथी बह रही थी। भगवान शिव के चरणों में नतमस्तक होकर फफक-फफक कर गिड़गिड़ा रही थी मगर होनी को भला कौन टाल सकता है।
कहा जाता है कि चीनी सैनिक राइफलमैन जसवंत सिंह रावत के सिर को काटकर ले गए। युद्ध के बाद चीनी सेना ने उनके सिर को लौटा दिया। अकेले दम पर चीनी सेना को टक्कर देने के उनके बहादुरी भरे कारनामों से चीनी सेना भी प्रभावित हुई और पीतल की बनी उनकी प्रतिमा भारतीय सेना को भेंट की।
जैसे ही यह ख़बर जसवंत के गाँव में पहुँची तो हेमा का चेहरा पीला पड़ गया था, नयनों के आंसू सूख गए थे, गुलाबी चेहरा मुरझा गया था। उस दिन पहाड़ों पर मूसलाधार वर्षा हो रही थी, नदी नाले सब भर गए थे। चारु को लगा पल भर में उसकी हसीन दुनिया उजड़ गई थी।
भारी बारिश के बीच उसने जसवंत की एक पुरानी तस्वीर संदूक से निकाली और अपने सीने से लगाते हुए एक ऊंची पहाड़ी पर पहुँच गई। पहाड़ी के नीचे एक नदी बह रही थी जिसने बारिश के कारण विकराल रूप धारण किया हुआ था। हेमा कुछ देर तक गरजते बादलों को देखते रही, फिर जसवंत की तस्वीर को अंतिम बार प्रणाम किया और पलक झपकते ही जसवंत की तस्वीर के साथ ऊफान खाती नदी में छलांग लगा दी और फिर अंत हुआ एक अनूठी प्रेम कहानी का।
राइफलमैन जशवंत सिंह रावत को १९६२ के युद्ध के दौरान उनकी वीरता, अदम्य साहस और कुशल रणनीति के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था।
जिस चौकी पर जसवंत सिंह ने आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम अब जसवंतगढ़ रख दिया गया है और वहाँ उनकी याद में एक मंदिर बनाया गया है। मंदिर में उनसे जुड़ीं चीजों को आज भी सुरक्षित रखा गया है।
पांच सैनिकों को उनके कमरे की देखरेख के लिए तैनात किया गया है। वे पांच सैनिक रात को उनका बिस्तर करते हैं, वर्दी प्रेस करते हैं और जूतों की पॉलिश तक करते है। सैनिक सुबह के ४.३० बजे उनके लिए बेड टी, ९ बजे नाश्ता और शाम में ७ बजे खाना कमरे में रख देते हैं।
भारतीय सेना के शौर्य को दुनिया इसलिए सलाम करती है कि विपरित परिस्थितियों में भी वे विजय पताका फहराना जानती है। साथ ही दुश्मनों में भारतीय जाबांजों के अद्मय साहस ख़ौफ पैदा करती है। दुश्मन चोटी पर हो या मैदानी क्षेत्र में हमारे जाबांज माकूल जवाब देना जानते हैं।
