नृत्यशाला
नृत्यशाला
आँधी और झंझावात ने विकर्ण के मार्ग को अवरुद्ध कर रखा था, लेकिन झंझावात का वेग कुछ कम होते ही वो अपने मार्ग पर आगे बढ़ चला। वट के विशाल वृक्ष के नीचे रखी पालकी को देखकर उसने अपने अश्व को रोका और पालकी चालकों से पूछा, "पालकी चालकों; प्रचंड वायु वेग से चलने वाले झंझावात में तुम इस पालकी को लेकर कहाँ जा रहे हो? क्या पालकी में कोई राजसी परिवार की महिला है?"
पालकी चालकों ने योद्धा वेश में आये अश्वारोही की तरफ देखा सकुचाते हुए बोले, "योद्धा; ये पालकी वीर भद्रबाहु ने नगर की परिक्रमा से बाहर रहने वाली सुश्री ईर्या को लेने के लिए भेजी है, हम उन्ही को लेने आये है।
"तो यह पालकी यहाँ क्यों रोक रखी है, ईर्या का आवास तो यहाँ से थोड़ा दूर है; तुम वहीँ क्यों नहीं चले जाते?" विकर्ण ने थोड़े आश्चर्य के साथ कहा।
"योद्धा हमें यही पहुँचने के निर्देश दिए गए है, उन्हीं निर्देशों का हम पालन कर रहे है।" कह कर पालकी चालक चुप हो गया।
एक बार पालकी की और देखकर विकर्ण ने अपना अश्व पश्चिम दिशा की और बढ़ा दिया, उसे पूर्व दिशा से नगर की परिक्रमा से बाहर जाना था लेकिन उसने ईर्या से सामना होने से बचने के लिए एक जलप्लावित तालाब के किनारे से जाने वाली पगडंडी पर अपने अश्व को बढ़ा दिया।
वो तत्काल स्वर्ण पुरी से निकल जाना चाहता उसे आज शाम तक देवदुर्ग के शासक दुर्मुख से मिलकर एक अनजान अभियान पर निकल जाना था, दुर्मुख के दूत उसे तलाश करते हुए काली नदी के बीहड़; जो उसका वर्तमान प्रश्रय थे, तक जा पहुँचे और दुर्मुख का प्रस्ताव उसके समक्ष रखा था और उसकी हाँ सुनकर कुछ अग्रिम धनराशि भी दे दी थी।
एक कोस दुरी के समाप्त होते-होते प्रचंड हवाएं फिर बहने लगी और उसका मार्ग अवरुद्ध करने लगी। झंझावात के मध्य उसे स्वेत वस्त्रो में एक स्त्री आकृति उसकी विपरीत दिशा में जाते दिखाई दी, उसके वस्त्र वायु के वेग के साथ उड़े जा रहे थे लेकिन वो वस्त्रो को लपेटे हुए आगे बढ़ती जा रही थी। विकर्ण सामान्य गति से चलते हुए आगे निकल जाना चाहता था लेकिन उस स्त्री ने अपनी भुजा को ऊपर कर रुक जाने का संकेत दिया।
"प्रणाम, किसी सहायता की आवश्यकता है भद्रे? इस सुनसान मार्ग से क्यों जा रही आप, मुख्य मार्ग इस मार्ग की अपेक्षा अधिक सुरक्षित रहता।" विकर्ण उस स्त्री के निकट अश्व से नीचे उतरते हुए बोला।
स्त्री ने अपना घूंघट ऊपर किया और बोली, "इस मार्ग से आवागमन कम ही रहता है इसलिए इस मार्ग से जा रही हूँ, मैं ईर्या हूँ योद्धा, योद्धा बनने से पूर्व कदाचित मेरे विषय में ज्ञात था तुम्हे?" वो स्त्री रुकी नहीं वो मार्ग पर आगे बढ़ते हुए बोली।
"अब भी ज्ञात है मुझे, कदाचित तुम्हें भी मेरे योद्धा बनने का कारण ज्ञात होगा, मैं तो सामान्य कृषक पुत्र था........." विकर्ण अपने अश्व की लगाम पकडे हुए उसके साथ चलते हुए बोला।
"तुम जरा भी नहीं बदले; आज भी जताना नहीं भूले कि मेरी वजह से तुमने भद्रबाहु के हत्यारों सैनिकों से युद्ध किया था………" ईर्या तीक्ष्ण स्वर में बोली।
"नहीं कारण मैं स्वयं था, तुम्हारे स्थान पर कोई भी निर्बल व्यक्ति होता तो मैं युद्ध अवश्य करता।" विकर्ण उसके मन मस्तिष्क में उठे झंझवात का दमन करते हुए बोला।
विकर्ण के मन मस्तिष्क में राजसी सामंत भद्रबाहु के वो अशालीन शब्द गूँज उठे जो उसने ईर्या पर कुदृष्टि डालते हुए बोले थे, परिणति विकर्ण का सामंत के सैनिकों से युद्ध उनकी पराजय और भद्रबाहु का भाग जाना।
"तुम्हें अपने प्राणों का भय नहीं है, भद्रबाहु के हत्यारे अब भी तुम्हें तलाश कर रहे है।" ईर्या उपहास भरे स्वर में बोली।
"ये सूचना तुम्हें भद्रबाहु से ही मिली होगी……..उसकी पालकी तुम्हारी प्रतीक्षा में है।" सामान्यतः शांत रहने वाला विकर्ण क्रोध के साथ बोला।
"कितनी घृणा भरी है तुम्हारे अंतर्मन में, मैं शाही नृत्य शाला जा रही हूँ, वहाँ भद्रबाहु भी आमंत्रित है तो उसने मेरे लिए पालकी भेज दी, लेकिन तुम कौन हो जिसे मैं अपना स्पष्टीकरण दूँ?" दूर वटवृक्ष के नीचे रखी पालकी की और देखते हुए ईर्या क्रोधित स्वर में बोली।
"मैं अब कोई नहीं हूँ लेकिन कभी सब कुछ था, तुमने आभासी तरक्की का एक मार्ग चुना और मुझे पीछे छोड़ उस मार्ग पर बढ़ गई l भद्रे, तुम अपने मार्ग पर चलती रहो मेरा मार्ग तुम्हारे मार्ग से विपरीत दिशा में है; मैं अपने मार्ग पर जाता हूँ; प्रणाम ।" कहकर विकर्ण अपने अश्व पर सवार होकर अपने मार्ग पर आगे बढ़ गया; उसके मन का झंझावात बाहरी झंझावात से तीव्र हो चला था।