नहोली का विज्ञा
नहोली का विज्ञा
होली का नाम लेते ही एक मस्ती सी छा जाती है। रंग पुते चेहरे, हवा में उड़ता गुलाल, रंगों की बौछार, होली के गीत, ढोलक की थाप, उमंग उल्लास, फागुन के गीत और नृत्य यह चारों ओर दिखाई देते हैं। रंगों का त्योहार तो है ही पर सामाजिक सद्भावना का, आपसी मतभेद दूर करने का गले मिलने का त्यौहार है। होली में कोई छोटा बड़ा दोस्त दुश्मन नहीं होता , होती है तो मस्ती, उमंग और गले मिलकर प्यार की बरसात। होली फागुन मास की पूर्णमासी को होती है, चारों ओर रंग बिरंगे फूल खिले होते है मानो प्रकृति भी होली खेल रही है।
होली आ गई है पिछली बार की तरह थोड़ी डरीसी, वजह वही कोरोनावायरस। पर कोई भी वायरस होली की मस्ती को कम नहीं कर पाता है। हमारे धर्म में हर त्योहार के पीछे एक वैज्ञानिक कारण होता है जिसको हम भूलते जा रहे हैं और होली का रूप विकृत होता जा रहा है। सही अर्थों में होली का त्यौहार तो वातावरण की शुद्धि और सद्भावना बढ़ाने का त्योहार है। होली की बात करें तो सर्दी के बाद मौसम बदलना शुरू होता है, अपने लगते हैं चलने लगती हैं, कभी कभी बादल भी आ जाते हैं, ऐसे में बीच का काल होता है यह बीमारियों को बढ़ाने वाला होता है। होली के समय पर काफी वायरस बैक्टीरिया हवा में होते हैं इस ही लिए होली जलाई जाति है!
आज के समय में होली का वह रूप नहीं रहा जो पहले हुआ करता था। पहले समय में फागुन शुरू होते ही घरों में मूंग उड़द की दाल की बढ़िया, आलू के पापड़ चावल के पापड़, कचरिया बनाकर पूरे साल के लिए रख ली जाती थी। करेले सुखाए जाते थे और भी न जाने कितनी चीज सुखाकर रख ली जाती थी। यह फूड प्रिजर्वेशन का एक तरीका था क्योंकि इस समय धूप तेज और हवा सुखी होती है और हर चीज अच्छी तरह सूख जाती है और साल भर तक चलती है।
इसके अलावा गोबर के छोटे-छोटे गोले बनाए जाते थे जिन्हें सुखा कर उनकी मालाएं बनाई जाती थी ! इन्हें एक के ऊपर एक रख चुनकर होली बनाई जाती थी। बिल्कुल एक पिरामिड की तरह उसका आकार होता था। यह यह होली हर घर के आंगन में और हर चौराहे पर रखी जाती थी। होली वाले दिन महिलाएं आटा, गुड, हल्दी से होलिका पूजन करती थी और कच्चा धागा के चारों तरफ लपेटा जाता था। होली की परिक्रमा करके होली के चारों तरफ जल डाला जाता था। जल डालने का उद्देश्य शायद यही रहा होगा चींटी कीड़े मकोड़े आदि होली से दूर है ताकि होली जलने पर उन्हें नुकसान ना हो। शुभ मुहूर्त में एक ही समय पर होलिका दहन होता था। सभी लोग बच्चों के साथ होलिका के पास इकट्ठे होते थे उसके परिक्रमा करते थे । होली में कपूर सामग्री आदि डाली जाती थी और सभी लोग जलती होली में गेहूं की बाली चने की डालियां और गन्ने बोलते जाते थे यह सभी लोग खाते थे। यह नए अन्न का प्रतीक है। बच्चों को सच्चे मोती खिलाए जाते थे जो उन्हें बीमारियों से बचाते थे। गोबर के उपलों की होली जब सामूहिक रूप से जलती थी तब वातावरण में गर्मी भी बढ़ती थी और वायरस बैक्टीरिया नष्ट होते थे और वातावरण शुद्ध होता था।
अगले दिन रंग खेला जाता था उसके लिए रात भर टेसू के फूल पानी में भिगोकर गरम किए जाते थे, उसी टेसू के रंग से होली खेली जाती थी, वह रंग प्राकृतिक होता था और गुलाल भी बिना केमिकल का और प्राकृतिक होता था। होली के दिन से ठंडे पानी से नहाने की शुरुआत हो जाती थी। होली का मुख्य उद्देश्य ही वातावरण की शुद्धि और प्रेम और भाईचारा बढ़ाना था।
होली आज भी होती है चौराहों पर जलती भी है, पूजन भी होता है, बोल भावना भी वही है पर थोड़ा सा रूप बिगड़ गया है। होली जलाने के लिए कबाड़ पुरानी पुरानी दरवाजे आदि जलाते हैं या पेड़ काट लाते हैं जो सही नहीं है। रंगों में और गुलाल में केमिकल्स हैं जो तरह तरह की एलर्जी पैदा करते हैं!
पर होली तो होली है आज भी उस में वही मस्ती वही रंग वही गीत वहीं ढोलकी की थाप है और है ढेर सारा उल्लास और प्यार। होली पर सब कुछ माफ। बुरा ना मानो होली है। उसकी आत्मा तो अभी भी वही है पूरे जोश के साथ होली मनाइए।