अंगीठी का ताप
अंगीठी का ताप
जनवरी का महीना चल रहा है। हड्डी कपा देने वाली सर्दी पड़ रही है। ऊपर से दिल्ली की सर्दी तोबा। कितना भी रूम हीटर लगा लो पर गर्माहट नहीं मिलती। ऐसे में याद आ रही है अपने बचपन की अंगीठी। पहले तो अंगीठी ही होती थी वह चाहे बुरादे की हो या कोयले की हो। ठंड से ठिठुरते सुबह होती थी। कोहरा इतना होता की हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता था। उन दिनों सुबह ही लीप पोत कर अंगीठी दहका कर कमरे में रख दी जाती थी। सर्दियों में वह कमरा ही रसोई होता था। लाल दहकत अंगीठी के चारों ओर आसन और चटाई बिछा दिए जाते थे। बच्चे मंजन करके अंगीठी के चारों ओर बैठ जाते थे, अंगीठी की दहेक मैं सभी के चेहरे लाल दिखाई देते थे। अंगीठी पर पतीले में चढ़ी चाय से उठती भाप से मीठी सी सुगंध आती थी। दूध या चाय के साथ सभी का नाश्ता होता था। हाथ गर्म करते करते खूब गपशप हंसी मजाक और बातें चलती थी। पूरा कमरा गर्माहट और हंसी खुशी से भर जाता था। खा पीकर सभी अपने अपने काम पर निकलते, पर जाने से पहले अंगीठी की राख में आलू और शकरकंद दबा दिए जाते थे।
शाम से रात तक फिर वही क्रम चलता था। चाय , खाना बनता रहता था। चारों तरफ बैठकर गरम गरम खाना खाया जाता था। पके आलू और शकरकंद निकाले जाते थे। छीलकर गरम-गरम खाया जाता था। वाह! क्या स्वाद होता था। आज भी याद करके मुंह में पानी भर आता है। उसी दौरान पूरा कमरा गर्माहट से भर जाता था। वहीं बैठ कर पढ़ाई करते थे। रजाई में घुसने तक अंगीठी की खूब गर्माहट होती थी।
आजकल रूम हीटर कमरे को गर्म तो कर देते हैं पर अंगीठी के चारों तरफ बैठकर खाना, वह आग तापना, वह हंसी ठिठोली, अंताक्षरी खेलना, वह अपनापन, वह गर्माहट कहां है? हां अब थोड़ा लोगों में शौक जागा है अंगीठी जलाने का। बाजार में छोटी-छोटी अंगीठी बिकने लगी हैं जिन पर खाना तो नहीं बन सकता पर गर्माहट तो मिलती ही है और वह बचपन के कुछ क्षणों को लौटा लाती हैं। वह बचपन को जीवंत कर देती हैं। पूरी ना सही पर बचपन की थोड़ी खुशी के पल यह है अंगीठी लौटा ही देती हैं।