मुझे फिर से गुलज़ार करे
मुझे फिर से गुलज़ार करे
कुछ समय तक पहले मैं भी बड़ी गुलज़ार थी। समाज कंटकों की नज़र न मुझ पर पड़ती और न ही मैं भुतिया हवेली बनती।
मैं, लाल हवेली, जब मेरा निर्माण हुआ था, तब लोग दूर-दूर से मेरी वास्तुकला देखने आते थे और दाँतों तले अंगुली दबा लेते थे। मेरा निर्माण इस रियासत के दीवान साहब ने करवाया था।
दीवान साहब की तीन पीढ़ियाँ मेरी ही बाँहों में खेली -कूदी और बड़ी हुई। इस हवेली में पहले दावतों की रौनकें लगा करती थी, महफिलें जमा करती थीं, गाना-बजाना होता था, दीवान साहब तो सितार बजाते थे ?
वैसा संगीत सुने, मुद्दतों गुजर गए। देश स्वतंत्र हुआ, राजे -रजवाड़े ख़त्म हुए, दीवान साहब हवेली तक सिमट गए। परिवार की आय कम होने लगी, काम -धंधे की तलाश में लोग हवेली छोड़कर जाने लगे। वो कहते हैं न देश चोरी, परदेस भीख बराबर।
धीरे -धीरे सभी लोग मुझे तन्हा छोड़कर चले गए। कभी -कभी चौकीदार आकर झाड़-पोंछ कर देता था। फिर कुछ समाज कंटकों की नज़र मुझ पर पड़ी, उन्हें मैं छुपने और रहने के लिए बहुत ही बेहतरीन जगह महसूस हुई।
सुनसान हवेलियाँ समाज कंटकों की पहली पसंद होती हैं; अपने काले धंधों को छिपाने के लिए। उन्होंने मेरे शापित और भुतिया होने की अफवाह उड़ा दी और चौकीदार तथा जो बच्चे यहाँ आते थे, उन्हें जब यहाँ अजीब सी आवाज़ें सुनाई दी और रोशनी दिखाई दी, तब उन्हें यही लगा कि इस हवेली में भूत-प्रेत हैं ।तब से लोगों ने इस हवेली के पास से गुजरना तक बंद कर दिया ।
मैं रोज़ दुआ करती हूँ कि, काश कोई तो इंसान अपने दिमाग का इस्तेमाल कर, सुनी -सुनाई कहानियों की तह तक पहुंचकर इन समाज कंटकों का पर्दाफाश करे और मुझे फिर से गुलज़ार करे।
