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Dr. Vijay Laxmi"अनाम अपराजिता "

Abstract Inspirational

4.0  

Dr. Vijay Laxmi"अनाम अपराजिता "

Abstract Inspirational

मन की जंजीरें

मन की जंजीरें

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ससुराल में सब ठीक होने के बावजूद साक्षी का मन किसी अधूरे स्वप्न सा बेचैन रहता ।रात को जब सब सो जाते, उसकी डायरी व कलम जैसे आवाज़ बन जाते । 

"मन की जंजीरें टूटेंगी कब? मैं कब अपने लिए जी पाऊंगी?"


साक्षी के पुराने कॉलेज की सहेली लेखिका रीमा, अचानक रास्ते में मिल गयी , उसने उसे भी लेखन के लिए प्रोत्साहित किया। 


साक्षी ने डरते-डरते कुछ कविताएँ रीमा को भेज दीं। एक स्थानीय पत्रिका ने साक्षी की कविता प्रकाशित कर दी। यह उसकी पहली जीत थी।


 उसके पति, रोहन, को भी यह बात नागवार गुज़री। 

साक्षी का मन चटक गया, लेकिन इस बार वह चुप नहीं रही। उसने कहा,

"मैंने हमेशा दूसरों के लिए जिया है। अब मैं अपने लिए जीना चाहती हूँ।"


धीरे-धीरे साक्षी की कहान

ियाँ और कविताएँ लोगों के दिल छूने लगी। उसके शब्द जैसे हजारों महिलाओं की आवाज़ बन गए।


एक दिन, उसने अपने भाषण में कहा,

"हमारे मन की जंजीरें असल में हमारे डर और समाज की बनाई बंदिशें हैं। अगर हम खुद पर विश्वास करें, तो इन जंजीरों को तोड़कर आज़ादी पा सकते हैं।"


हमारी कहानी उस अभ्यस्त बंधे शक्तिशाली हाथी की तरह है  ,जो बांधे बिना भी अंकुश के डर से उसी तरह खड़ा रहता , इसी तरह हर इंसान में कुछ खास करने की ताकत होती है, बस ज़रूरत है अपने डर और बंदिशों से आज़ाद होने की।


थोड़ा सा साहस करने से उसकी किताब "मन की जंजीरें" बेस्टसेलर बनी और हजारों लोगों की प्रेरणा बनी।

                 



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