धुंध के साये
धुंध के साये
सर्दियों की सुबह, पहाड़ों के बीच बसा एक शांत कस्बा। चारों ओर घनी धुंध ने सब कुछ छिपा दिया था। आरव अपने दादा-दादी के पुराने घर लौट आया था। बचपन का हर कोना यहाँ यादों की गलियों में छिपा था, पर आज ये जगह उसे अजनबी लग रही थी।
घर के पीछे वाले बगीचे में टहलते हुए, आरव को धुंध के बीच किसी की धीमी आवाज़ सुनाई दी। वह ठिठक गया। कुछ दूरी पर एक धुंधला साया दिखा। डर और जिज्ञासा के बीच, वह उस ओर बढ़ा।
“कौन है?” उसने कांपती आवाज़ में पूछा।
साया धीरे-धीरे करीब आया। यह एक बूढ़ी महिला थी—उसकी दादी। पर दादी तो कई साल पहले गुजर चुकी थीं। आरव ने देखा, वह कुछ कहना चाहती थीं।
“आरव,” दादी की आवाज़ में ममता थी। “तुम यहाँ लौटे हो, यही अच्छा किया। पर इस घर को फिर से जिंदा करना होगा। तुम्हारे दादा का सपना अधूरा रह गया। यहाँ जो स्कूल बनना था, वो अब तुम्हारे भरोसे है।”
आरव कुछ बोल पाता, उससे पहले ही साया धुंध में विलीन हो गया।
वह घर लौट आया। कमरे के एक कोने में रखी पुरानी तिजोरी से उसे दादा की लिखी एक फाइल मिली—स्कूल का नक्शा और योजना। उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
धुंध ने अतीत की परछाई दिखाकर उसे उसकी जिम्मेदारी का रास्ता दिखा दिया था। आज आरव को लगा, वह खाली नहीं लौटा है। आज हम अपने बुजुर्गो की मन में दबी रह गई अनकही इच्छाओं को पूरा कर उनके ऋण से मुक्ति का प्रायश्चित कर सकते हैं।
