मिस्टर इंडिया का अमर पात्र मोगैंबो
मिस्टर इंडिया का अमर पात्र मोगैंबो
"मोगैंबो खुश हुआ।"-शाबाशी देते हुए मैंने कहा।
गौरव ने हतप्रभ हुए कहा-" सर, बड़े आश्चर्य की बातहै कि खुशी व्यक्त करने और शाबाशी देने के लिए आपने जिस डायलाग का चयन किया है वह तो एक खलनायक अमरीश पुरी का फिल्म 'मिस्टर इंडिया' का प्रसिद्ध डायलॉग है।खलनायक फिल्म के नकारात्मक और घृणित पात्र के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। उनकी अधिकतर बातें और कार्य-व्यवहार नकारात्मक होते हैं। जैसा कि आप अक्सर कहते हैं कि हमें हमेशा ही सकारात्मक बातें और अच्छे लोगों के विचार ही एक दूसरे से साझा करने चाहिए और उनका अनुसरण करना चाहिए।बुरे लोगों से, बुरे विचारों से और हर तरह की बुराइयों से हमेशा बच के रहना चाहिए।"
मैंने समझाने की कोशिश की-"शब्दों में निहित मूल भावना को समझना चाहिए न कि परिस्थितियों, व्यक्तियों के संदर्भ में इसे लिया जाना चाहिए। इस डायलॉग में निहित मूल भावना प्रसन्नता का प्रदर्शन करना है और जिस व्यक्ति ने यह प्रसन्नतादायी कार्य किया है उसकी खुले दिल से प्रशंसा करना। वे अभिनेता जिसने जो खलनायक की भूमिका निभाने का जो साहस जुटा पाते हैं। खलनायक की भूमिका निभाने की हिम्मत जुटाना और अपने अभिनय द्वारा उस पात्र को जीवंत करना भी अपने आप में एक दुष्कर कार्य है। जो अभिनेता रंगमंच पर या बड़े पर्दे पर कोई नकारात्मक भूमिका निभाते हैं सचमुच प्रशंसा के अधिकारी हैं।"
"मिस्टर इंडिया फिल्म में 'मोगैंबो' की भूमिका निभाने वाले सिनेमा कलाकार अमरीश पुरी जी के जीवन के बारे में आप मुझे कुछ जानकारी दें ऐसा मेरा आपसे निवेदन है।"- गौरव ने अपने मन की गठरी खोलते हुए अमरीश पुरी के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त की।
अमरीश पुरी के जीवन के बारे में मैंने गौरव को बताना शुरू किया-"अमरीश पुरी बॉलीवुड की दुनिया में खलनायक की भूमिका निभाने वाले सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में से एक हैं। उनका जन्म 22 जून 1932 को पंजाब के जालंधर में हुआ था। उनका पूरा नाम अमरीश लाल पुरी था।लाला निहाल सिंह उनके पिता और वेद कौर उनकी माता थीं। उनके चार भाई-बहन थे।चमन पुरी,मदन पुरी बड़ी बहन चंद्रकांता और छोटे भाई हरीश पुरी। अपनी शुरुआती पढ़ाई उन्होंने पंजाब से की लेकिन उसके बाद वे शिमला चले गए जहां से उन्होंने बीएम कॉलेज से पढ़ाई करके अभिनय की दुनिया में कदम रखा। शुरू में वह रंगमंच से जुड़े और बाद में फिल्मों में काम किया। वे रंगमंच से जुड़े रहे।रंगमंच पर बेहतर प्रस्तुति के लिए उन्हें 1979 संगीत नाटक अकादमी की तरफ से पुरस्कार दिया गया जो उनके अभिनय करियर का पहला बड़ा पुरस्कार था।अपने फिल्मी करियर की शुरुआत उन्होंने 1971की प्रेम पुजारी फिल्म से की थी।अपने पूरे करियर में उन्होंने 400 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया। उन्होंने हिंदी के अलावा कन्नड़, पंजाबी,मलयालम, तेलुगु और तमिल फिल्मों के साथ-साथ बॉलीवुड फिल्मों में भी काम किया था।
खलनायक के अलावा कुछ फिल्मों में सकारात्मक भूमिका वाले पात्रों का भी अभिनय किया।उनके अंदर अभिनय की ऐसी अद्भुत क्षमता थी कि वे जिस पर उनको करते वह सार्थक हो उठ जाता था। 'मिस्टर इंडिया' में उनके 'मोगैंबो' के रोल में देखकर उनके प्रति नफरत की भावना जागती थी तो उनकी दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे में सिमरन का पिता बन कर उन्होंने सबके दिल को छू लिया था। इसके अलावा 'घायल' और 'विरासत' में सकारात्मक भूमिका उन्होंने से लोगों के दिल को जीत लिया। वर्ष 2005 में आई फिल्म 'किसना' उनके जीवन की अंतिम फिल्म थी। 12 जनवरी 2005 को ब्रेन ट्यूमर की वजह से उनका निधन हो गया। उनका निधन सिनेमा जगत की अपूरणीय क्षति थी।आज अमरीश पुरी हमारे बीच में सशरीर नहीं है लेकिन अपनी फिल्मों के माध्यम से आज भी बने अमर बने हुए हैं।
गौरव ने उनकी कुछ फिल्मों के डायलॉग जब इच्छा जाहिर करते हुए कहा-" उनकी कुछ फिल्मों में उनके मशहूर डायलॉग्स में से आपको कौन कौन से पसंद है ?"
मैंने मुस्कराकर कहना शुरु किया-"चलिए,अब ध्यान से सुनिए।"
'फिल्म एतराज; आदमी के पास दिमाग हो तो अपना दर्द भी बीच सकता है।
'फिल्म शहंशाह ;टिप बाद में देना एक रिवाज है, पहले देना सर्विस की गारंटी होती है।
'फिल्म करन अर्जुन ; मैं तो समझता था कि दुनिया में मुझसे बड़ा कमी ना और कोई नहीं है लेकिन तुमने मौके पर मैं साथ मीना पर दिखाया कि हम तुम्हारे कमीनापन के गुलाम हो गए हैं।
'फिल्म दामिनी ; यह अदालत है,मंदिर या दरगाह नहीं, जहां मन्नतें और मुरादें पूरी होती हैं। यहां धूपबत्ती और नारियल नहीं, बल्कि ठोस सबूत और गवाह पेश किए जाते हैं।
"फिल्म शोले का भी एक मशहूर डायलाग है 'जो डर गया, वह मर गया'। शोले फिल्म का यह डायलॉग भी हमें डर से बचने के लिए प्रेरित करता है। वास्तव में भय मुक्त जीवन ही सुखमय जीवन है। अगर हमें सुख पूर्वक जीना है तो हमें हर प्रकार के भय से मुक्त होना ही होगा तभी हम अपने सुखी जीवन का वास्तविक आनंद ले सकेंगे।"-गौरव ने मेरे मन के भावों को ठीक समझकर भाव के महत्त्व से अपनी सहमति व्यक्त करते हुए कहा।
"यह हुई ना समझदारी वाली बात।"-मैंने गौरव की समझदारी की प्रशंसा की तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आ गए।
"इस संसार में हर व्यक्ति अपनी एक प्रभावी भूमिका संसार के सामने प्रस्तुत करना चाहता है हर कोई चाहता है कि उसका वर्चस्व हो उसके प्रभुत्व को सभी के द्वारा सराहा जाए। अपने प्रभुत्व की स्थापना के लिए कई बार तो व्यक्ति एक मुखौटा भी लगा लेता है। अपनी वास्तविक जिंदगी में वह भले ही प्रभावहीन हो लेकिन वह अपने को एक प्रभावी व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है। फिल्मों में ऐसे भी लोग भी पर्दे पर दिखाए जाते हैं जो अपनी छवि सभी समाज में एक धर्मात्मा की प्रस्तुत करते हैं जबकि वह अंडरवर्ल्ड के डॉन, माफिया या आम जनता के लिए कल्याणकारी नहीं बल्कि बुरे लोग होते हैं। फिल्मों में कुछ पद ऐसे भी होते हैं जो समाज के सामने ऐसे कार्य करते हुए देखते हैं जो प्रशंसनीय नहीं होते लेकिन आंतरिक रुप से वे अच्छे व्यक्ति होते हैं।"-गौरव ने एक अच्छे दार्शनिक की भांति अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा।
मैंने गौरव के विचारों से सहमति जताते हुए कहा-"गौरव, बिल्कुल सही कह रहे हो तुम और अब वास्तव में साहित्य का सृजन अधिकतर कल्पनाशीलता लिए हुए होता है किन्तु साहित्य का सृजन आदर्शवाद की स्थापना को लिए हुए ही किया जाता है।इसका मूल भाव समाज में उत्कृष्टता की स्थिति बनाए रखने के भाव से प्रेरित होता है। समाज में जो परिस्थितियां हैं उन में से कुछ ऐसी भी होती हैं जिन्हें उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसी ही अनुचित परिस्थितियों में बदलाव के लिए प्रेरित करना साहित्य का काम है।नाटक, रंगमंच के अभिनय, छोटे पर्दे अर्थात टीवी के धारावाहिक और बड़े पर्दे पर प्रदर्शित की जाने वाली फिल्मों के माध्यम से उन कहानियों को समाज के सामने प्रस्तुत किया जाता है जो समाज में फैली बुराइयों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करें।
लोग उन बुराइयों को समझ कर उन बुराइयों से दूर रहें और उनके सम्मुख और जहां भी इस तरीके की बुराइयां समाज में नजर आती हैं। उन सारी बुराइयों को दूर करने के लिए अपना अमूल्य योगदान दें ताकि हमारा समाज एक सभ्य, सुसंस्कृत और आदर्श समाज बन सके।इस कारण प्रत्येक साहित्यकार चाहे जो किसी भी विधा का साहित्यकार हो उसका यह पूरी कर्तव्य और परमधर्म हो जाता है कि वह अपने साहित्य के माध्यम से आम जनमानस को समाज की वास्तविकता से अवगत कराते हुए कुछ समाधान भी प्रस्तुत कर सके। व्यंग्य भी साहित्य की ऐसी ही विधा है जो लोगों को रुचिकर लगते हुए अपनी बात को सही लक्ष्य तक पहुंचाने में सक्षम होता है। कुछ कार्टून भी ऐसी स्थिति में परिस्थिति की गंभीरता को संक्षिप्त मगर सटीक तरीके यह समझाने में काफी सहायक सिद्ध होते हैं।