Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Abstract Classics Inspirational

4.5  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Abstract Classics Inspirational

मेरे पापा (6) ..

मेरे पापा (6) ..

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654


लौट कर सुशांत ने, मुझे घर के बाहर ही नहीं छोड़ा था। अपितु वे, माँ से मिलने घर में भीतर आये, फिर चरण छूकर आशीर्वाद लेकर लौटे थे। 

माँ और मैं, दोनों ही आज बहुत खुश थे। बार बार सुशांत की चर्चा छेड़ बैठते थे। ऐसे में रात को सारिका ऑन्टी का, कॉल आया था। मैंने, कॉल स्पीकर पर कर दिया था। 

माँ से उन्होंने कहा - सुशांत का अवकाश, 8 दिनों में खत्म हो रहा है। अगर आप सहमत हों तो 3-4 दिनों में, सुशांत के रमणीक से विवाह की तिथि तय करते हुए इन्हें परिणय सूत्र में बाँधने की रस्म कर दी जाए। 

माँ ने कहा - भाभी जी, यह तो बहुत जल्दबाजी होगी। 

ऑन्टी ने कहा - कोविड19 का समय है। 20 लोगों में ही विवाह होना है। इसे देखते हुए 4 दिन, तैयारी के लिए बहुत होंगे। अन्यथा विवाह, सुशांत के अगले अवकाश तक टालना होगा। सीमाओं पर जैसे हालात चल रहे हैं, उसमें कह नहीं सकते कि आगे सुशांत को अवकाश कब मिल पाता है। 

माँ ने कहा - मैंने बड़ी बेटी एवं दामाद जी को, अब तक कुछ बताया नहीं है। उनसे बात कर, मैं कल शाम तक, आपको अवगत कराती हूँ। 

ऑन्टी ने कहा - ठीक है, भाभी जी, शुभ रात्रि। 

माँ के भी, शुभ रात्रि कहने के बाद, फिर उन्होंने कॉल डिसकनेक्ट कर दिया था। 

माँ ने अब, जीजू को मोबाइल पर कॉल किया था। मैं, उठकर अपने कमरे में चली गई थी। कोई 10 मिनट बाद, माँ ने आकर बताया कि तुम्हारे जीजू ने कहा है - ये बातें, फोन पर तय करने वाली नहीं हैं। कल सुबह चर्चा हेतु वे, यहीं आ रहे हैं। 

फिर सुबह जीजू ने आते ही कुहराम मचाया था। माँ से गुस्से में कहा - आपने, मुझे बिलकुल पराया कर दिया, बात विवाह तक आ गई और हमें पता ही नहीं। 

माँ ने निरीह दृष्टि से मुझे देखा था। कहा, कुछ नहीं था। 

जीजू फिर कहने लगे - लड़के के जो विवरण आपने दिए हैं उससे मुझे, दाल में कुछ काला लगता है कि कोई इतना योग्य लड़का, सब लड़की छोड़ निक्की पर इस कदर क्यों मर रहा है। जबकि स्वयं निकी, औसत लड़की और हमारा घर भी साधारण ही है । (फिर निष्कर्ष सा निकालते हुए) अक्सर लड़के, उतने अच्छे होते नहीं जितना, स्वयं को दिखाते हैं। 

माँ और मैं, जीजू की बातों से, सहमत न होते हुए चुप ही रहे। 

जीजू ने फिर कहा - जरा पूछिए तो! लड़के से कि निकी में, उसने क्या देख लिया, जिससे इस जल्दबाजी में विवाह को मरा जा रहा है?

जीजू के, चयन किये जा रहे शब्द, अत्यंत कटु थे। 

मैं सोच रही थी कि जीजू, अपने ज्ञान से, ऐसा नहीं कह रहे थे बल्कि, जैसे वे स्वयं थे वैसा ही सुशांत का होना देख रहे थे। 

फिर दीदी ने, मेरे मोबाइल से सुशांत को कॉल मिलाया था। कॉल, स्पीकर पर किया था। सुशांत के - हेलो, कहे जाते ही, दीदी ने बताया था - मैं, रमणीक की दीदी बोल रही हूँ। 

फिर उन्हें बधाई दी थी। सुशांत के हँस कर - धन्यवाद, दिए जाने के बाद दीदी भी, हँसी थी। हँसते हुए उन्होंने कहा -

सुशांत एक बात ऑनेस्टी से बताओ कि रमणीक में वह कौन सी विशेष बात लगी है, जिससे तुमने, उसे पसंद किया है?

सुशांत ने (मनगढ़ंत बात न होने से) देर नहीं लगाई थी, कहा - रमणीक, मेरे पापा में, अपने पापा की छवि देखती है। और लडकियाँ, सुंदर तो ज्यादा होंगी, मगर उनकी, मेरे पापा-मम्मी के लिए, ऐसी दृष्टि शायद नहीं होगी। यह बात, रमणीक में विशेष है।  

इस जबाब से, दीदी निःशब्द हुई थी। फिर भी उन्होंने कहा - बहुत अच्छा कारण है, लड़की को पसंद करने का। 

फिर, शुभ दिन! सुशांत! कहते हुए, दीदी ने कॉल, डिसकनेक्ट करना ही उचित समझा था। 

सुशांत कुशाग्र बुध्दि थे। मैं सोचने लगी, उन्हें, इस कॉल से समझते देर ना लगी होगी कि यहाँ, चल क्या रहा है। 

जीजू, सुशांत की बातें सुनकर खिसिया गए थे, खंबा नोच रहे जैसे होकर उन्होंने कहा - यह तो बॉलीवुड के नायकों की तरह डॉयलाग मार रहा है। मुझे आश्चर्य नहीं होगा कि इसका चरित्र भी, उन्हीं जैसा ही देखने मिले। 

इससे मैं भी, बॉलीवुड की सोचने लगी थी। जीजू से, संबंध का लिहाज करते हुए प्रकट में, मैं चुप रही, मगर सोच रही थी कि जीजू भी, बॉलीवुड हीरो जैसे बने जा रहे हैं। उनकी पोल, मैं कह दूँ अगर तो, जीजू, या तो अपने बचाव में, मेरे ही चरित्र पर लाँछन लगाने लगेंगे, या विषय भटकाने के प्रयास करने लगेंगे। 

उत्तर माँ ने दिया - "नहीं बेटा, सुशांत ही नहीं उनका परिवार भी, कुछ माह से, हमारे संपर्क में है। हमें, इन लोगों की भलमनसाहत पर कोई संदेह नहीं है। "

अपनी चलते नहीं दिखी तो, जीजू ने, बचा रखा तुरुप का पत्ता भी खेल दिया, बोले -" माँ जी, चलो यह आपकी मान लेता हूँ। लेकिन सुशांत आर्मी में है। क्या आप देख नहीं पा रही हैं कि रमणीक भी, आपके जैसे अकेले जीवन को विवश होगी? "   

जीजू की बात की, कड़वाहट माँ, दीदी एवं मैं, तीनों ने अनुभव की थी। अब मुझे लग रहा था कि कदाचित इस घर को मिल रहे होनहार दामाद से, उन्हें, अपनी हीनता पसंद नहीं आ रही थी। 

माँ ने दामाद को दिए जाने वाला आदर रखते हुए कड़वा घूँट पी लिया, प्रकट में संयत रह कर कहा था - 

"बेटा, यही तो मैं भी कह रही हूँ। रमणीक के पापा तो, आर्मी में नहीं थे। तब भी तो मुझे, अकेले रहने की विवशता मिली। जीवन के क्षणभंगुर स्वरूप से कौन अछूता है? कई फौजी भी, पूरा जीवन सगर्व जीते हैं। हम इसी, आशावाद से यह विवाह करना चाहते हैं।" 

जीजू अपना हल्कापन छोड़ ही नहीं पा रहे थे, उत्तर में उन्होंने कहा -" जब आप तय कर ही चुकीं हैं तो मैं क्या कहूँ। कीजिये शादी, मैं मेहमान की तरह इसमें, सम्मिलित हो जाऊँगा।"

मुझे लग रहा था कि जीजू, जैसे चाह ही नहीं रहे थे कि मेरा विवाह हो। अच्छी बात यह रही कि माँ ने, जीजू के भावनात्मक भयादोहन की उपेक्षा कर दी। उन्हें शायद यह विश्वास था कि जीजू की नाराज़गी, समय के साथ मिट जायेगी। 

मुझे अब सुशांत एवं उनके परिवार का संबल मिल जाने वाला था। अब मैं असहाय नहीं रहने वाली थी। मैं मगर, परिवार में होने की ज़िम्मेदारी समझ रही थी। मैं अवसरवादी भी नहीं थी कि हैसियत का घमंड करते हुए, शीघ्रता में, बिना कुछ सोचे समझे, अपनी मनमानी करने लगूँ। 

आज चाहती तो मैं, जीजू को, सबके समक्ष उनकी बात कह कर उनकी कलई खोल कर, उन्हें घटिया पुरुष साबित कर सकती थी। मुझे दीदी के जीवन के लिए समस्या खड़ी नहीं करनी थी। मैंने स्वयं को कुछ तय करते हुए, चुप ही रख लिया था। 

मैंने तय किया था कि मेरा विवाह हो जाने के बाद, किसी अन्य अवसर पर कभी, जीजू से अकेले में सीधे, उनकी काउंसलिंग करुँगी। ताकी उनके रसियापने को नियंत्रित कर, उन्हें, अन्य किसी नारी से हल्के प्रस्ताव करने से रोक लिया जाए। यही, किसी भी स्त्री, दीदी एवं स्वयं जीजू की भलाई की दृष्टि से उचित था। मैंने तय किया कि जीजू की तरह निम्न स्तर पर, मैं नहीं उतरूँगी। अपितु मैं, आदर्श एवं नैतिकता के ऊँचे प्लेटफार्म पर आने को, उन्हें प्रेरित करुँगी। फिर तसल्ली से उनसे स्वस्थ चर्चा करुँगी। 

उस दिन बाद में, जीजू ने सुखद रूप से अपेक्षित समझदारी दिखाई थी। उन्होंने फिर और कोई चुनौती नहीं पेश की थी। माँ ने, उसी दिन शाम को सारिका ऑन्टी को कॉल करके, तीन दिन बाद, सुशांत एवं मेरे विवाह हेतु स्वीकृति दे दी। 

फिर निर्धारित किये अनुसार चौथे दिन, गिने चुने मेहमान/रिश्तेदारों की उपस्थिति में, मैं, सुशांत से परिणय सूत्र में बँध गई। 

विदाई पर, रुआँसी मेरी माँ को सांत्वना देते हुए सर (अब से पापा) ने कहा - "भाभी जी, आप को रमणीक बिना का, सूनापन पसंद नहीं आएगा। रमणीक है ही, इतनी प्यारी। मेरा आपसे आग्रह है कि आप भी रमणीक के, घर को ही, अपना घर समझें और वहीं आकर रहें। आपको, अकेला एवं उदास देखना, रमणीक ही नहीं, हम सबको भी पसंद नहीं आएगा।" 

कोई ने ध्यान दिया था या नहीं मगर मैंने, ‘रमणीक के घर’ कहे जाने पर ध्यान दिया था। ससुराल (वर) पक्ष से अक्सर दंभ में, इसे वधु का घर निरूपित नहीं किया जाता है। पापा, अपनी सरलता में यह सहज ही कह पा रहे थे।  

माँ ने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा था - रमणीक को आपके परिवार में सौंपते हुए मुझे गर्व है। मैं, निःसंकोच आपके परिवार और घर को अपना ही समझूँगी। जब भी मन करेगा या ऐसी आवश्यकता होगी, मैं आ जाया करूँगी। 

सुखद रहा कि जीजू ने, सुशांत, पापा एवं मम्मी जी से, गर्मजोशी एवं गरिमामय व्यवहार किया था। इससे, ख़ुशी मुझे इस बात की हुई कि पापा के ना रहने से विषाद में, युवा हुई दीदी एवं मैं, आगे हमारे दोनों के परिवार में, मधुर संबंध होने के सुख को पा सकेंगे।  

ऐसे, मैंने प्रवेश कर लिया, अपने प्रियतम के घर, परिवार एवं जीवन में। सर, अब सर नहीं रहे, मेरे पापा हो गए। शायद ऐसी मैं, इकलौती लड़की ही होऊँगी, जिसने 11 वर्ष बाद अपने खो दिए पापा को, अपने श्वसुर में पुनः पाया था। 

सुशांत को चार दिन बाद वायुसेना की अपनी सेवा पर, पुनः उपस्थिति देनी थी। उन्होंने, चार दिन के हर क्षण में, मुझे हर वह सुख प्रदान करने के प्रयास किये, जिसे कोई पूरे जीवन में पाना चाहता है। 

फिर पाँचवें दिन उन्होंने, सेना मुख्यालय में अपनी उपस्थिति दी। लद्दाख सीमा पर अभूतपूर्व संकट के हालात के मद्देनज़र, उन्हें वहाँ तैनाती के आदेश मिले थे। 

उसी दिन अपराह्न, सुशांत ने, हमसे, वहाँ जाने के लिए विदा ली थी। सभी के आशा के विपरीत मैंने, सुशांत को सगर्व एवं ख़ुशी के साथ विदा किया। 

यह मुझे भलिभाँति ज्ञात था कि जैसा दायित्व सुशांत का, हम सब के प्रति था वैसा ही, दायित्व मातृभूमि की रक्षा का भी, उन पर था। ऐसा साहस मुझ में, होने का एक कारण यह भी था कि मैं पति से तो दूर हो रही थी लेकिन ऐसे समय में मेरे साथ, ‘मेरे पापा’ थे।

अपने पापा के होने, ना होने, दोनों के ही (कटु एवं प्रिय) अर्थ जीवन ने मुझे, अनुभव करवाये थे। मैं, सुशांत के विदा लेने से दुःखी होकर, पापा के होने के महत्व को, भूल जाने की गलती नहीं करना चाहती थी।  

अच्छाइयों में, मम्मी जी भी, इन तीनों में, कोई कम नहीं थीं। मुझे पता नहीं था कि किस के कारण, कौन अच्छा था। 

मम्मी जी के साथ से, पापा या पापा के संग से, मम्मी जी। 

मुझे ऐसा नहीं लगता था कि मैं, इस परिवार में बहू हूँ। मुझे यही लगता कि मैं, इनकी ही बेटी हूँ। मैं यह भी जानती थी कि सुशांत, स्वयं भी इनके बेटे नहीं थे। 

पापा-मम्मी जी, दोनों ही ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति थे जो, किसी के भी बेटे-बेटी को, अपना बेटे-बेटी जैसा ही देख लेते थे। 

मैंने एक दिन मम्मी जी से प्रशंसा में कहा कि - आप अनुभव नहीं होने देतीं कि मैं बहू हूँ। कई परिवारों में तो बेटियाँ भी ऐसा प्यार, आदर और स्वाभिमान अनुभव नहीं करतीं हैं जैसे अपने, स्नेह-आशीष की छत्रछाया में, इन सबके साथ आप, मुझ बहू को, रखती हैं।

उन्होंने आत्मीयता से उत्तर दिया - 

बेटी, मैं, माँ हूँ ना, जानती हूँ, कैसे कोई बच्चा, बड़ा होता है। तुम भी, दो जीवन के समर्पित त्याग और दुलार से बड़ी हुई होगी। तुम ही नहीं हर कोई, ऐसे ही, बच्चे से बड़े हो पाते हैं। मैं भी स्वयं, हमारे माता पिता के द्वारा ऐसे ही पाली-बड़ी की गई थी।

मेरे पेरेंट्स, मुझ में, मानवता साकार होते देखना चाहते थे। उनकी उस अभिलाषा का बोध मुझे है। उनके ना रहने के बाद, उनका अस्तित्व में होना, मुझे स्वयं अपने में अनुभव होता है। ऐसे में मुझे लगता है, मुझसे ऐसा कोई कार्य न हो जिससे उनका दिल दुखे। 

वाह! मेरी मम्मी जी! वाह, यहाँ के माता-पिता की भव्य मानवीय विचारधारा, मैं निशब्द थी। मैंने कुछ नहीं कहा था। बस यह अनुभव किया था कि 

मम्मी जी जैसी नारी ही, देवी कही जाती हैं। और देवी भी, इन जैसी माँ से, माता रानी कही जाती हैं।  सुशांत ड्यूटी के बाद के खाली समय में कॉल किया करते थे। जब मैं, पापा, मम्मी जी की प्रशंसा करती तो वे प्रसन्न हो कहते - 

"पापा, मम्मी को तुम्हारे और तुम्हें, उनके हवाले कर देने से, मैं, निश्चिंत हो स्वयं को राष्ट्र रक्षा कर्तव्यों के, हवाले करता हूँ। "

फिर उन्होंने कहा था - "रमणीक, यह गोपनीयता हमसे अपेक्षित होती है कि हम अपनी ड्यूटीज् किसी से ना कहें, लेकिन मैं तुमसे ताकि तुम गर्विता अनुभव कर सको, इस विचार से बता रहा हूँ कि मैं, फ़्रांस में प्रशिक्षण प्राप्त, राफ़ेल पॉयलेट हूँ। इन दिनों मैं, राफ़ेल उड़ाया करता हूँ। "

मैंने कहा - 

"यह जिम्मेदारी आपको, सेना में अत्यंत महत्वपूर्ण बनाती है तब भी सर्वाधिक रूप से गर्वित तो मुझे, मेरी यह वास्तविकता करती है कि मैं, आपकी पत्नी हूँ। मैं समझती हूँ, ऐसा होने से, मेरी जैसी सौभाग्यशाली पत्नी कोई और नहीं है। आपने, मुझ से जो सीक्रेट शेयर किया है वह मैं चाह कर भी किसी से नहीं कह सकूँगी। मैं जानती हूँ जिस बात को, राज रखना है, उसे अपने अलावा किसी और से, नहीं कहना होता है। "

सुशांत ने हँसते हुए कहा -" रमणीक, मुझ में तो इतनी बुद्धि थी ही नहीं कि मैं, मेरे लिए योग्य पत्नी खोज पाता। ये तो पापा हैं जिनकी दृष्टि ने तुम्हें परखा था। और अपने लिए सर्वाधिक योग्य जीवनसंगिनी के रूप में मैं, तुम्हें पा सका हूँ।"

हँसता हुआ कोई भी चेहरा प्यारा होता है मगर -उन्हें, हँसता देखने से, मुझे, ऐसा प्रतीत होता कि हँसी तो प्यारी, सुशांत से होती है। इधर पापा ने सेवा निवृत्ति के बाद, एन जी ओ आरंभ किया था। उन्हें, उसमें व्यस्त देखती तो मैं, कहती कि - पापा इस उम्र में, यह व्यस्तता ठीक नहीं। 

वे कहते - अगर मैं दसरत्न तेल का विज्ञापन कर रहा होता तो मैं, तुम्हारी बात मान लेता कि तुम ठीक कहती हो। रमणीक, व्यस्त रहने की मेरी प्रेरणा, एपीजे अब्दुल कलाम सर, के काम से है। तुम जानती होगी कि उन्होंने अंतिम श्वास भी, उस स्टेज से ली थी, जहाँ उनकी व्यग्रता, हमारी नई पीढ़ी में, राष्ट्र निर्माता होने की चेतना देने की थी।

मुझे इस बात से, मेरे दिवंगत हुए पापा, इन पापा में, सजीव हुए लगते थे। मेरे, वे पापा और ये पापा, दोनों के विचार और शक्लें एक ही थीं। 

मैंने पूछा - पापा, आपके विज्ञापन को लक्ष्य करते हुए, अपनी बात कहने का प्रयोजन क्या है? 

पापा ने उत्तर दिया - महँगे सेलेब्रिटी के किये गए विज्ञापन का, असर तुम जानती हो? इस पर मेरी प्रश्नवाचक निगाहें पढ़ते हुए, वे स्वतः ही आगे बोले -

हमें, ऐसी सामग्री के दाम 25% ज्यादा देने होते हैं। जो इन्हें धनी (सेलेब्रिटिज) से विश्व के अति धनाढ्य लोगों के क्लब का हिस्सा बना देता है। इसके विपरीत, अभाव में जीवन यापन करने वालों का अभाव बढ़ जाता है। 

फिर ये अधिकांश सेलेब्रिटिज (धनाढ्य), समाज को लेट नाईट पार्टीज़ का आडंबर एवं चलन देते हैं। इन पार्टीज में ड्रग्स प्रयोग किये जाते हैं। ऐसे, ड्रग्स का व्यापार फलता-फूलता है। ड्रग्स के अवैध व्यापार में लिप्त लोग, ज्यादा कमाई के लालच में, हमारे युवाओं को, अपनी चपेट में लेते हैं। 

ये व्यसन, हमारे बच्चों के जीवन के अनमोल समय को व्यर्थ तो करते ही हैं। उनके स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव डालते हैं। इस तरह से, अब्दुल कलाम साहब की, भारत के आधुनिक एवं उन्नत राष्ट्र बनाने की कल्पना एवं मेहनत पर, पानी फिर जाता है। 

मैंने, बॉलीवुड सेलेब्रिटीज की राष्ट्र के प्रति दायित्व हीनता पर, कभी ऐसा गहन विचार नहीं किया था। मुझे लगा कि यही, अनुभवी होना होता है। राष्ट्र निर्माता होना भी, यही होता है। 

राष्ट्र के प्रति निष्ठावान ऐसा व्यक्ति, तथाकथित (छद्म) नायकों के गलत दिशा में प्रशस्त किये गए, समाज प्रवाह से दुष्प्रेरित हो, नकलची, व्यक्तियों की तरह, उस दिशा में बहता नहीं है। अपितु सीनियर सिटीजन हो जाने पर भी, अपने दायित्वों के प्रति संपूर्ण सजगता का परिचय देता है। वह अपनी क्षीण हो गई शक्ति का प्रयोग भी, गलत दिशा के प्रवाह की, दिशा बदल देने में करता है। 

मैं यह सोच रही थी कि पापा ने, एक डायरी मुझे दी। उन्होंने बताया कि - कभी कभी मन में चलते विशेष तरह के विचार मैं, इसमें लिखा करता था। उन्होंने आगे कहा - खाली समय में तुम, इसे पढ़ना। 

मैंने - जी पापा, कहते हुए, डायरी, आदर के साथ उनसे ली थी।   माँ कभी कभी कुछ दिनों के लिए हमारे साथ रहने आतीं थीं। एक संध्या चाय पर उन्होंने पापा से कहा - भाई साहब, निकी तो आप लोगों की प्रशंसा करते नहीं अघाती, कहती है, मुझे मेरे पापा, फिर मिल गए हैं। 

पापा ने कहा - "यह रमणीक की आत्मीय दृष्टि का, निर्दोष होना दर्शाता है। "

माँ अपनी बेटी की प्रशंसा से पुलकित हुईं थीं फिर उन्होंने, पापा से कहा - भाई साहब, मगर रमणीक, आपकी शिकायत में कहती है कि आप अपनी शक्ति से बड़े कार्यों में लगे रहते हैं। 

पापा ने कहा -" यह शिकायत नहीं, मुझसे रमणीक का स्नेह है। "

मेरी माँ, बेटी (मुझे) को ससुराल में मिलते, बेटी से बढ़कर लाड़-दुलार से गदगद होतीं थीं। पापा के बिना किये, अपने जीवन संघर्ष की विवशता से, उन्हें फिर शिकायत नहीं बचती थी। एक रात्रि मैंने डायरी के पन्ने खोले एक पेज पढ़ने लगी, लिखा था - 

सैटेलाइट लॉन्च करने की हमारी क्षमता, अब विश्व में पहचानी जाती है। हमारी भव्य रही संस्कृति भी कभी दुनिया की प्रेरणा स्त्रोत रही है। 

अब हमें सैटेलाइट लॉन्च करने के क्रम में, एक जीव विज्ञान आधारित सैटेलाइट लॉन्च करना चाहिए। जिससे दुनिया भर में सभी नस्ल के मानव मनो-मस्तिष्क को, हर क्षण तार्किक सिग्नल्स, मिल सकें। इन सैटेलाइट सिग्नल्स का प्रभाव ऐसा हो, जो उत्कृष्ट मानव संस्कृति को, विश्व भर में व्याप्त कर सके।

ऐसे मिशन के लिए टीम में, अगर संस्कृति विशेषज्ञ की कमी रहे तो हमें, उसका हिस्सा होना चाहिए जो प्रयास को कमजोर ना पड़ने दे। हमारे भव्य भारत द्वारा, यह संस्कृति उपग्रह, उसकी कक्षा में बनाये रखना कठिन ना हो, इस हेतु मैं भी उस टीम का हिस्सा होना चाहता हूँ।

मैं अपने अल्प शेष रहे जीवन में, यह देखने को उत्सुक हूँ कि भारतीय संस्कृति का सैटेलाइट अपनी कक्षा में घूमता रहे और दुनिया को उसका लाभ मुहैय्या कराया जाता रहे। मानव सभ्यता के इस दौर में, विश्व भर में मानवता ध्वज, फहराता दिखे। 

मैं मंत्र मुग्ध थी। मैंने इस पेज पर लिखी, दिनाँक देखी। यह, 24 सितंबर 2014 थी। मैं समझ गई कि पापा की चेतना में, यह भावना आने का नैमित्तिक कारण क्या रहा था। 

दरअसल, इस दिन, भारत के मंगल यान को मंगल पर पहुँचने में, सफलता मिली थी। पापा ने इस सफलता से अभिभूत होकर ही, डायरी का यह पेज लिखा होगा। 

उत्कृष्ट थी उनकी भावनायें और उत्कृष्ट ही थी उनकी अभिव्यक्ति भी।

यह पढ़ते हुए, मैं भी राष्ट्र प्रेम में अभिभूत हुई थी। मुझे लग रहा था कि इस जीवन का कोई महत्व नहीं, यदि यह जीवन, मानवता और राष्ट्र दायित्वों के लिए काम ना आ सके। 

वाह! यह परिवार जिसका हर सदस्य इन दायित्वों को, अपने अपने तरह और शक्ति अनुसार निभा रहा था। मुझे भी अब, इन भावनाओं और दायित्वों में ओत प्रोत हो, जीवन के सुनहरे अवसर उपलब्ध थे। जिन्हे मैंने, व्यर्थ नहीं करने थे। 

हमारी सीमाओं पर युध्द के बादल छाये हुए थे। उन बादलों के मध्य में भी, सुशांत का मुझसे, ‘प्रेम का सूरज’ स्पष्ट दर्शित होता था। जो प्रखरता से मुझे, जीवन ऊष्मा प्रदान कर रहा था। 

मैं, प्रतीक्षा कर रही थी कि यह खतरे के बादल छँटें। ताकी यह प्रेयसी, अपने प्रियतम से संसर्गरत हो, मानवता को एक नया, सूरज प्रदान करे। जिसके आलोक में, दुनिया में व्याप्त व्यर्थ भेदों का, तिमिर मिट जाए। और प्रत्येक मनुष्य, अपने मिले मनुष्य जीवन का, वास्तविक एवं संपूर्ण आनंद का वरदान, सुलभ ही प्राप्त कर सके। 

पढ़ने वालों को यह एक काल्पनिक उपन्यास सा लगेगा मगर, यह जीवन और यह भावनायें मेरी वास्तविकता थीं। 

    



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