माटी
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मगध में बेरोजगारी बड़ी है। लोगों का मन अब यहाँ रहने का नहीं करता है । सामाजिक व्यवस्था और मान्यताएं बदल रही हैं । लेकिन जाएँ तो जाएँ कहाँ। बाहर जाने के बाद अपनों की याद आए तो क्या करना है। सोचकर मन व्यथित हो उठा। बड़ी मुश्किल से हिम्मत जुटाकरअपनों के समक्ष प्रस्ताव रखा। वहाँ परदेश में अपना कौन है ? "नहाने के बाद अपनी चड्डी बनियान तक नहीं धोनेवाला परदेश जाएगा।"
व्यंग्य और उलाहना भरे लहजे में माँ ने कहा। यहाँ रहना भी खतरे से खाली नहीं है। तटस्स्थ होकर रह नहीं सकते। या तो समानान्तर सरकार चलाने वाली पार्टी के साथ मिल जाऊँ और इस प्रदेश से उस प्रदेश तक भटकता और अवांछित घटनाओं को अंजाम दूँ। निर्दोष और निरीह लोगों की हत्या का पाप अपने सर ले लूँ। या फिर दूसरी तरफ धर्म का धंधा करनेवालों के साथ मिल जाऊँ। दोनों ही परिस्थितियाँ मन को स्वीकार नहीं । मन में एक द्वंद्व चल रहा था। निराशा, कुंठा और अवसाद से मन भरा हुआ था। बचपन में तो दो बातें लगभग रटा दी गई थी-
मैं तो बड़ा होकर डॉक्टर बनूँगा या इंजीनियर बनूँगा । दसवीं कक्षा मे आने पर एक नया शब्द सुना - आई. ए .एस, तो सोचा आई. ए .एस ही बन लेंगे। लेकिन इतना सरल थोड़े न है -आई. ए .एस . बनना। हाई स्कूल में एक समस्या और थी। सारा समय तो लड़ने झगड़ने में ही व्यतीत हो गया। पहले तो कोंच, मोक और मुड़ेड़ा की लड़ाई चली।
सबकी सीट आरक्षित है। ट्रेन में तो आप किसी आरक्षित व्यक्ति के साथ मनुहार कर थोड़ी दूर तक अपना काम चला सकते हैं, गांधी हाई स्कूल में यह सब नहीं चलता है। यहाँ तो अध्यापक और छात्र सभी गाँव और जातियों के नाम पर लोग बटे हुए हैं। आपसी झगड़े तो सामान्य बात है, कभी- कभी इनके झगड़े में बड़े भी भाग लेते हैं। इनका भी जुटान हो जाता है। लाठी, भाला और गंडासा इनके आभूषण हैं। सकलद्वीपियों की संख्या यहाँ कम है। उनके नेता रामेश्वर दत्त मिश्र जी हैं। उनका वश चले तो वे केवल सकलद्वीपियों को ही पढ़ाए।
वे उन्हें अपने घर पर पर बुलाकर मुफ्त में कट्टरता का पाठ पढ़ाते हैं। अपने प्रिय विद्यार्थियों से वे अक्सर कहते हैं कि बाभन और अहीर की लड़ाई में ही हमारा अर्थात सकलद्वीपियों का भला है। उनके चेले चपाटे हमेशा उनका गुणगान करते रहते थे। बड़े गर्व से कहते हमारे पंडित ने स्वामी सहजानन्द सरस्वती से शास्त्रार्थ कर यह प्रमाणित कर दिया था कि बाभनों को पूजा पाठ कराने का अधिकार नहीं है। हालाँकि बाभन लोग इस शास्त्रार्थ को कपोल कल्पित और मिश्र जी द्वारा मनगढ़ंत तथा उनके चेलों द्वारा फैलाये गए झूठ का हिस्सा बतलाते थे।
मिश्र जी किसी के हाथ का छुआ पानी नहीं पीते और इसे वैज्ञानिक भी बताते। लेकिन यह बात सकलद्वीपियों पर लागू नहीं होती। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में स्थिति पूरी तरह से बदल गयी है। मिश्र जी रिटायर हो गए हैं । उनका भगीना दिल्ली में गार्ड साहब हैं। पिछली बार आए थे तो मुझे दिल्ली ले जाने का प्रस्ताव भी दिया था। कह रहे थे कि दिल्ली में उनका बड़ा सम्मान है। एक बड़ी कोठी पर काम करता हूँ। सभी लोग बड़ा सम्मान करते हैं। हाथ देख लेता हूँ, टिप्पण भी बना देता हूँ और उपाय भी बताता हूँ । मैंने पूछा- खाने का क्या करते हैं ?
दूसरे के हाथ का बनाया खाना तो खाते नहीं होगे? बोले बाहर मे सात खून माफ है। यजमान लोग जो बना देते हैं, खा लेता हूँ। मिश्र जी का 'भतीजा 'गोपी' पटना में सुलभ शौचालय में काम करते हैं। उनके कुछ प्रशंसक छात्र दिल्ली में आटो चलाते हैं। जब संस्कृत के जन्मजात धुरंधरों का यह हाल है तो मेरा क्या होगा ? रात में ही अपनी पत्नी से बात की । उसने तो साफ साफ कह दिया कि पहले एक से दो हुए, फिर दो से तीन और अब भी घर पर ही रहेंगे तो आगे चल कर हमारा क्या होगा ? मेरा सिर ऐसे ही दर्द करता रहता है । आपके बारे में सोच- सोच कर मेरे सिर में दर्द हो गया है।
डॉक्टर कह रहा था - " माइग्रेन" अर्थात अधकपारी वाली बीमारी हो गई है। जब आपको मेरे पिताजी देखने आए थे तो पूरे गाँव में बड़े गर्व से बताया था - लड़का पढ़ने में बहुत तेज है। कुछ- न -कुछ जरूर बनेगा। मैं आपको अपने सारे गहने दे देती हूँ। इसे गिरवी रखकर कोई चालीस- पचास हज़ार रुपए मिल जाएंगे। दिल्ली में जब नौकरी लग जाएगी तो मैं भी आपके साथ चलूँगी। मेरी सहेली तो चार पाँच साल पहले ही दिल्ली गयी थी।
आज दिल्ली में उसका अपना घर है। कहिए तो मैं उसके पति से बात करूँ। मैं सोच रहा हूँ, कल बताऊंगा । यहाँ से बाहर जाकर दिल्ली, मुंबई और कलकते में लोग कैसे रह रहे हैं, पता है मुझे। इतना बड़ा घर पाँच कट्ठे में बना हुआ तो दिल्ली के मंत्रियों को भी नसीब नहीं। वहाँ जाऊंगा तो कहाँ रहूँगा , कैसे रहूँगा, किस के भरोसे रहूँगा।
यहाँ माँ, बाबूजी की देखभाल कौन करेगा ? पढ़ाई तो हिन्दी और इतिहास से बी. ए किया है लेकिन इससे क्या होता है ? पता नहीं कल क्या होगा। कल निर्णय का दिन होगा। परीक्षा की घड़ी है, ये सब जो बड़े बड़े लोग हैं न- अपनी कहानी में बताते हैं कि पहले वे इतने बड़े नहीं थे। सुबह चार बजे उठा हूँ। भिनसरे पाँच बजे गया के लिए बस पकड़ कर एक अनिश्चित यात्रा के लिए निकल पड़ा हूँ। अपना ख्याल रखिए। मैं भी दिल्ली पहुँचकर आगे की कहानी बता सकूँगा, ऐसी संभावना है।