Prafulla Kumar Tripathi

Horror Action Thriller

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Prafulla Kumar Tripathi

Horror Action Thriller

क्या गोरखपुर, क्या मिर्जापुर !

क्या गोरखपुर, क्या मिर्जापुर !

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उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक लगभग एक ही राजनीतिक पार्टी के वर्चस्व के चलते सभी ओर भारत में एक नये कल्चर की नींव पड़ चुकी थी। कमीशन,भ्रष्टाचार, घूसखोरी, अत्याचार,  शोषण और भाई भतीजावाद की नई - नई कहानियां लिखी जा रही थीं।   जे.पी.आंदोलन सम्पूर्ण क्रांति ने छात्रों को अगुवाई करने का अवसर दे दिया तो उस एकमात्र राजनीतिक दल को अपना सिंहासन डोलता नज़र आया। उसी क्रम में देश में आपातकाल लगा और एक नये  प्रजातांत्रिक  देश को तानाशाही शासन का भी स्वाद चखना पड़ गया। पटना,दिल्ली, मुम्बई, पांडिचेरी... हर  जगह  एक नया नेतृत्व  उभरने लगा।  

पहली  बार जनता दल गैर कांग्रेसी जनतांत्रिक  गठबंधन  की सरकार ने केन्द्र में सत्ता संभाली।  लेकिन इसे क्या कहा जाय ? इन नये अनुभव विहीन शासकों द्वारा अपनी - अपनी ढपली अपना अपना राग अलापा जाने लगा और साल डेढ़ साल में फिर बैतलवा उसी डाल पर !हाँ, एक बात यह उल्लेखनीय रही कि अब संसद भवन या राज्यों के विधान सभा भवनों में नये नये गुट की लामबंदी की आमद हो गई। कुछ सफेदपोशों के रूप में तो कुछ अपराधियों के रूप में।  हर कोई अपने वर्चस्व को कायम करने के लिए अपना उल्लू सीधा करने लगा। गोरखपुर, मुंगेर,पटना,मिर्ज़ापुर,धनबाद ...हर तरफ एक नई ताकत उभरनी शुरू हो गई जिसे राजनेताओं का भरपूर संरक्षण मिल रहा था। भारतीय समाज और उसकी राजनीति में  कई ट्वीस्ट और टर्न आने लगे। नए गिरोह को पुराने गिरोह से उसकी नई नई चुनौती का सामना करना पडा और राजनीतिक लोग भी उनका भरपूर लाभ लेने - देने लगे। वर्चस्व की राजनीति शुरू हो गई।  

डा.अग्रवाल के यहाँ जो मिस्टर शर्मा के.के.से अचानक मिले थे वे यद्यपि एक संयोग से मिले थे लेकिन उन्हें जब और गहराई से के.के.ने जानना चाहा तो उनके होश उड़ गए। यह सच है कि वे जीनियस थे लेकिन यह अब तक अदृश्य था कि उन्होंने यकायक यह चकाचौंध,सम्पन्न और समृद्धि की दुनिया त्याग कर क्यों साधु जीवन अपना लिया है ?साल में उसका भी एक गंभीर कारण था।  

असल में जाने अनजाने उनका सम्बन्ध गोरखपुर के एक बाहुबली गिरोह से हो गया था।

गोरखपुर में उस वक्त. जेपी का आंदोलन चल रहा था और उन्हीं दिनों में गोरखपुर में इटली से आया शब्द गैंगवार बड़ा ही प्रचलित हुआ था.यह उन्नीस सौ अस्सी का दशक में था जब छात्रों की एक दुकानदार से बहस हुई थी. बहस में दुकानदार ने पिस्तौल निकाल ली और धडाधड फायरिंग शुरू ! .... वो दौर था तिवारी और शाही का जब गोरखपुर के गैंगवार की खबरों को बीबीसी रेडियो पर रोज सुनाता था. यूपी गोरखपुर की वजह से सीधा विश्व के पटल पर आ गया था. अपने आप में  ये अद्भुत घटना थी कि जब जेपी देश में इंदिरा की सत्ता बदल रहे थे, उस वक्त कुछ नौजवान गोरखपुर के चिल्लूपार में बैठकर बंदूक की नाल साफ कर रहे थे?.........जब देश में जेपी का आंदोलन चल रहा था, गोरखपुर इटली बन रहा था !उन दिनों  भोजपुरी में लोग जब धमकी देते हैं तो कहते हैं कि मारब त दक्खिन चल जइबा. चिल्लूपार वही वाला दक्खिन है. एक वक्त में यूपी की राजनीति इस छोटी सी विधानसभा से तय होने लगी थी. शाही और शुक्ला जैसे लोग यहीं से आते थे. शाही को तो शेरे पूर्वांचल भी कहा जाता था. ये वो तमगा है जो यूपी में जनता की पसंद को बताता है. ये बताता है कि जब आप देश में इंडस्ट्री नहीं लाएंगे और सब कुछ सरकारी ठेके से करेंगे तो लोग अपराध को इज्जत से देखने लगेंगे.

 थोड़ा पीछे लौटते हैं. 1970 के दशक में देश में जेपी का आंदोलन चल रहा था. छात्र नेता देश को बदलने जा रहे थे. पर गोरखपुर के छात्र वर्चस्व कायम करने में जुटे थे. गोरखपुर यूनिवर्सिटी के छात्रनेता बी. सिंह हुआ करते थे. दूसरी तरफ थे तिवारी. सिंह को एक नया लड़का मिला. अपनी जाति का. शाही. अब जोड़ का तोड़ मिला था. तिवारी ब्राह्मणों का वर्चस्व बना रहे थे. शाही ठाकुरों का. वर्चस्व मतलब जमीन हड़प लेंगे. खरीदेंगे नहीं. पेट्रोल भरा के पैसे नहीं देंगे. कोई आंख मिला के बात नहीं करेगा. सुनने में ये बड़ा रोचक लगता है. पर इस वर्चस्व से जुड़ गया पैसा. रेलवे स्क्रैप की ठेकेदारी मिलने लगी. बहुत पैसा था इसमें. बिना कुछ किये. कहते हैं कि दोनों ने लड़के जुटाए. हथियार जुटाया. और इटली के माफियाओं की तर्ज पर गैंग बना लिये. दोनों माफियाओं के बीच जारी वर्चस्‍व की जंग में पूरा शहर हिल गया था. जनपद मंडल के चार जिलों में कहीं न कहीं रोज गैंगवार में निकली गोलियों की तड़तड़ाहट सुनाई देती थी. आए दिन दोनों तरफ के कुछ लोग मारे जाते थे. कई निर्दोष लोग भी मरते थे.|

तभी लखनऊ और गोरखपुर विवि के छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुके एक युवा सफेदपोश विधायक की हत्या हो गई. कहते हैं कि इसके बाद ठाकुरों के गुट ने शाही को अपना नेता मान लिया. गोरखपुर माफियाराज से पूरी तरह रूबरू हो चुका था. सरकारी सिस्टम पूरी तरह फेल हो चुका था. प्रदेश की राजधानी में इन दोनों गुटों ने अपनी-अपनी एक समानांतर सरकार बना ली थी. दरबार लगने लगे. जमीनों के मुद्दे इनके दरबार में आने लगे. लोग कोर्ट जाने से बेहतर इनके दरबार को समझने लगे. कहते हैं कि इन दोनों के आशीर्वाद से तमाम छोटे-बडे़ माफियाओं का उदय होने लगा. इसका प्रभाव यहां के सबसे बड़े शिक्षा केंद्र गोरखपुर विवि पर रहा. दखलदांजी यहां की छात्र राजनीति में भी रही|उसी दौर में शर्मा तिवारी जी से अपनी नियुक्ति के सिलसिले में मिले थे।

  आगे 1985 में गोरखपुर के ही एक ठाकुर जब यूपी के मुख्यमंत्री बन गये तो उनके लिए प्रदेश संभालने से ज्यादा महत्वपूर्ण माफियाओं को संभालना था. जनता इसी बात से उनको नाप रही थी कि वो संभाल पाते हैं कि नहीं. वो इसके लिए गैंगस्टर एक्ट लाए. मतलब गुंडा एक्ट. लेकिन दूसरी तरफ दोनों को समाज और राजनीति में स्वीकार कर लिया गया था. तिवारी छह बार और शाही दो बार विधायक चुने गए थे. इन पर आरोप लगता रहा कि ये कानून तोड़ रहे हैं, पर इनके दर पर आकर लोगों को ‘न्याय’ मिल जाता था. नये लोग भी जुड़ने लगे थे और जनता के नुमाइंदे बन लोगों के न्यायदाता बन चुके थे. कहते हैं कि 90 का दशक आते-आते अपराध राजनीति और बिजनेस में तब्दील हो चुका था. ये लोग कितने ताकतवर थे इस बात का अहसास एक घटना से हो जाता है. कोयला माफियाओं के सरताज कहलाने वाले पर जब गाज गिरी तो एक प्रधानमंत्री तक उनके पक्ष में खड़े दिखाई दिए थे.  1997 की शुरुआत में एक नई ताकत बन रहे  शुक्ला ने लखनऊ शहर में शाही को गोलियों से भून दिया। श्रीप्रकाश ने अपनी हिट लिस्ट में और भी कई नाम रखे थे जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री तक शामिल थे। यूपी में पहली बार STF बनाई गई श्रीप्रकाश को मारने के लिए ही. मार भी दिया गया|

 शर्मा जी ने इन सब घटनाओं को देखकर अपना रास्ता बदल लिया और उसके आगे की कहानी अब फिर कभी .....! 


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