जस्ट चिल !
जस्ट चिल !
कथा सम्राट प्रेमचन्द का कहना है कि “ लिखते तो वह लोग हैं जिनके अन्दर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग - विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया , वह क्या लिखेंगे ?" आज जब मैं इन पन्नों पर अपने आप को उतार रहा हूँ तो लगता है कि उस दौर की मेरी परेशान ज़िंदगी में सब ‘चिल’ हो जाएगा किसको पता था , मुझे भी तो नहीं ! सोचिए,अगर मुझ जैसा साहित्यिक रूचि वाला नौजवान सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने की जद्दोजहद वाली कोर्ट - कचहरी के फेर में पड़ जाता तो उस पर क्या बीतती ? इसलिए भगवान ने जो किया उसका लाख- लाख शुक्रिया अदा करते हुए मैंने आकाशवाणी की अपनी मनचाही नौकरी शुरू कर दी थी। कुछ लोग ‘नान गजेटेड’ और ‘क्लास थ्री’ की इस नौकरी पर नाक - भौं सिकोड़ रहे थे उसका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। नौकरी मेरी योग्यता पर मिली थी , उस दौरान मेरा चयन हुआ था जब इंदिरा और संजय गांधी की तूती बोलती थी और सूचना प्रसारण मंत्रालय का पत्ता भी उनकी मर्ज़ी के बगैर नहीं हिलता था। हाँ, इसे दिलाने में भगवान के बाद अगर किसी का हाथ था तो वे सिर्फ़ दो लोग थे – श्री मुक्ता शुक्ल ( आकाशवाणी में सहायक निदेशक) और महान कथाकार शिवानी जी।
सभी जानते हैं कि सिर्फ़ इंटरव्यू के आधार पर नियुक्तियों में धांधली की भरपूर सम्भावनाएं रहती हैं।1975 की 25 जून को देश में इमरजेंसी लगाई जा चुकी थी और उस समय आई.के.गुजराल आई.बी. मिनिस्टर थे।28 जून 1975 को विद्याचरण शुक्ल ने यह पद सम्भाला। मेरे प्रसारण अधिशाषी पद के लिए भी इसी दौरान आकाशवाणी लखनऊ में इंटरव्यू के आधार पर नियुक्तियों का पैनल बना था। दावे के साथ मैं यह कह सकता हूँ कि ढेर सारी नियुक्तियां कांग्रेसी सांसदों की सिफ़ारिश पर हुई थीं। इसके कुछ ही महीने पूर्व मैं आकाशवाणी गोरखपुर के सहायक सम्पादक पद के एक ऐसे ही इंटरव्यू में जा चुका था और मुझे साफ़ - साफ़ पता चल गया था कि चयन समिति के हेड आकाशवाणी गोरखपुर के तत्कालीन निदेशक इंद्र कृष्ण गुर्टू ‘कमिटेड’ हैं किसी एक ख़ास व्यक्ति (रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ़ जुगानी भाई ) के चयन के लिए। शिवानी जी उस बोर्ड में भी थीं और मेरे लिखने पढ़ने से बेहद प्रभावित थीं लेकिन उनकी बिल्कुल नहीं चली थी इसीलिए अगली नियुक्ति के इंटरव्यू में मानो उस ‘देवी’ ने मेरे चयन के लिए ‘वीटो’ ही लगा दिया था। इंटरव्यू आपातकाल में हुआ था,पैनल भी बन गया था लेकिन ज्यादातर नियुक्ति पत्र जनता सरकार में बांटने शुरू हुए। मेरे एक प्रतिस्पर्धी मित्र (प्रदीप गुप्त) ने भी इंटरव्यू दे रखा था। उनका भी कांग्रेसी सोर्स तगड़ा था और जब घर आते बता जाते कि उनका बस अब एप्वाइन्टमेंट लेटर आ ही रहा होगा। मैं और भी मायूस हो जाता था क्योंकि मेरे पास तो ऐसा कोई सोर्स नहीं था। लेकिन यह देखिये कि उनका सुपर आत्मविश्वास धरा का धरा रह गया और उनका तो नहीं हाँ हमारा अवश्य नियुक्ति पत्र आ गया।
बहरहाल मैं अब धीरे -धीरे इलाहाबादी होने की कोशिशें कर रहा था।लेकिन मन हमेशा गोरखपुर में लगा रहता था।अब मेरी सिर्फ़ यह ख्वाहिश थी कि कब, कैसे मेरा स्थानान्तरण गोरखपुर हो जाय ! इलाहाबाद की खूबसूरत सिविल लाइंस की शाम और वहां उतरती परियां भी मेरा मन नहीं बाँध पा रही थीं। ननिहाल का कठोर अनुशासन अलग से ! कार्यालयीन कामकाज मैंने अब समझ लिया था। सपनों को पंख लग गए थे क्योंकि मुझे यह समझाया गया था कि बस, अब तो तुम एक के बाद एक पदोन्नति पाते हुए कम से कम स्टेशन डाइरेक्टर तो बन ही जाओगे।
इस नौकरी को ज्वाइन करने के पहले मैंने यू.पी.एस.सी. की मुन्सफी की लिखित परीक्षा भी दे रखी थी। नौकरी ज्वाइन करने के एक महीने के अन्दर इंटरव्यू हेतु मेरा चयन हो गया। इस पर मित्रों ने सुखद आश्चर्य भी जताया कि हिन्दी में लिखकर मैंने यह कठिन परीक्षा भला कैसे उत्तीर्ण कर ली। हांलाकि इसके लिए मुझे उर्दू भी सीखनी पड़ी थी। लगभग दो महीने घर आकर एक मुल्ला जी ट्यूशन करते रहे। जब रिजल्ट आया तो मुझे ऐसा लगा कि अब इन्टरव्यू निकाल लेना आसान है। मैंने कोई तैय्यारी नहीं की और मेरा अनुमान गलत निकला। इंटरव्यू में जो सवाल पूछे गए उनके सटीक उत्तर मैं नहीं दे सका। इसके साथ एक और मज़ाक़ मेरे साथ यह हुआ कि इलाहाबाद के उसी घर से मैं एक परीक्षार्थी के रूप में जा रहा था और मेरे नाना जी (जज साहब) एक एक्सपर्ट के रूप में। इंटरव्यू के पहले ग्रुप बना तो उसमें भी मेंबर के रूप में मेरे नानाजी मेरे ही ग्रुप में रखे गए लेकिन वे अपने सम्मान के प्रति इतना सतर्क थे कि उन्होंने अपना ग्रुप बदलवा लिया। बरसों बाद एक शाम उन्होंने अफ़सोस जताया कि अगर उन्होंने थोड़ी सी भी व्यावहारिकता दिखाई होती तो मेरा चयन हो गया होता। असल में उनके सभी पुत्र मेधा सम्पन्न थे और उनको यह विश्वास था कि मैं भी क्वालीफाई कर जाऊंगा| बहरहाल मुझे इस असफलता से कतई कोई असंतोष उत्पन्न नहीं हुआ क्योंकि मैं केन्द्रीय सेवा में आ चुका था और उससे संतुष्ट भी था। हाँ, यह बता दूँ कि पी.सी.एस.(जे.) के इस अंतिम रिजल्ट के आने तक मेरी ‘मार्केट हाई’ हो चली थी और अच्छे अच्छे परिवार के लोग शादी के लिए आना शुरू कर दिए थे।
वह दिसम्बर का महीना था। गोरखपुर से मेरे मित्र और ममेरे भाई ओमप्रकाश उर्फ़ रत्ननाभ पति त्रिपाठी इलाहाबाद अपने मामा के यहाँ आये हुए थे। उनके ममेरे हम उम्र भाई सुव्रत त्रिपाठी उन दिनों इलाहाबाद में आई. पी. एस. की तैयारी कर रहे थे। दो चार दिन उन दोनों के साथ घूमने के बाद यह तय हुआ कि क्यों ना मुम्बई घूम आया जाय। मुम्बई में एक नजदीकी रिश्तेदार सुदर्शन पति उर्फ़ सूदन गुरु का मुम्बई आने का बुलावा भी था। हम दोनों लोग इलाहाबाद से मुम्बई के लिए रवाना हो गए। पहली बार किसी अनजान जगह, इतनी दूर की यात्रा। भरोसा दिलाया गया था कि ट्रेन के अंतिम पडाव पर सूदन गुरु हमें मिल जायेंगे। लेकिन यह क्या सूदन गुरू तो कल्याण स्टेशन आते आते ही ट्रेन में हमें खोजते हुए पहुँच गए। बहुत ही संतोष हुआ कि अब हम मुम्बई में सुरक्षित हैं। उन दिनों वे वहां किसी फैक्ट्री सुपरवाइजर के पद पर काम करते थे। उनके शब्दों में सेठ(मालिक) उनको बहुत मानता था।असल में उन दिनों एक दौर ऐसा आया था जब मुम्बई की फैक्ट्रियों में वर्कर यूनियन की राजनीति चरम पर थी।सूदन गुरु तेज तर्रार,शार्प माइंडेड और हृष्ट पुष्ट थे और अपने सेठ के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। उन्होंने अपनी वाक्पटुता से सेठ की कम्पनी को लेबर यूनियनों के दबाव से बचा लिया था। उसी का यह प्रतिफल था कि सेठ उनको अपना विश्वासपात्र मानने लगा था। सूदन गुरु हमें भांडुप अपने एक कमरे के घर में ले गए। एक कमरा जिसमें उनका किचेन, बेडरूम सब कुछ था। वहां उनकी सद्यः विवाहिता पत्नी पुष्पा भी थीं। दोनों ने खूब आतिथ्य सत्कार किया। उनके कहने पर हम दोनों ने लोकल ट्रेन का पास बनवा लिया जिससे पूरी मुम्बई आसानी से घूम सकें। चर्च गेट के पास ही मेरे मामा जी प्रकाश चन्द्र त्रिपाठी उन दिनों आयकर अधिकारी के रूप में पदस्थ होकर रह रहे थे। उनकी भी जल्द ही शादी हुई थी| एक दोपहर उनके यहाँ हमने लंच भी लिया।गोरखपुर का एक कामन फ्रेंड आलोक शुक्ला भी उन दिनों वहीं पर फ़ोर्ब्स कम्पनी में इंजीनियर थे। वर्किंग मैन हास्टल में रहते थे। उनके साथ भी हमने मस्ती की।उसने मुम्बई के सिनेमा स्टारों के मकान ,स्टूडियो आदि दिखाए। समुंदर और उसके किनारे के नजारे भी हमने लिए जो हमारे लिए एकदम नया था। पुरबिहा लोगों द्वारा बेंची जा रही भेलपूरी खाई। उस दौरान की एक मजेदार बात भी बताना चाहूँगा।
मेरे उक्त मित्र जाने क्यों अपने दोनो नाम का अलग अलग स्थानों पर सुविधानुसार इस्तेमाल करते थे।
लोकल ट्रेन का पास उन्होंने रत्ननाभ के नाम से बनवाया था और जब चर्चगेट रेलवे स्टेशन पर टी.टी.ने नाम पूछा तो उनके मुंह से ओमप्रकाश निकल गया। बस ! टी.टी. ने उनका झूठ पकड़ लिया और डरा धमका कर पैसे वसूलने के मकसद से हमें जी.आर.पी. ले गया। वह तो अच्छा हुआ कि हम लोग वहां से किसी तरह भाग निकले। यह वाकया उसी दिन का है जब हमलोग इनकम टैक्स वाले मामा जी के घर लंच पर जा रहे थे। उनकी इस हरकत से उनको तो कुछ फर्क नहीं पडा हां, लेकिन मुझे शर्मिंदगी हुई।
उनकी यह आदत आज तक नहीं जा सकी है और इसीलिए लोगों ने उनको‘फ्राडियर’ तक कहना शुरू कर दिया है। सूदन गुरु की पत्नी की सेवा की याद आज तक है। जब हमलोग घूमने निकल जाते थे तो वे हमारे कपड़े तक धो डालती थीं। हाँ,यह तो बताना भूल ही गया कि उनके यहाँ सुबह पानी के डिब्बे लेकर कामन शौचालय की लाइन लगानी पड़ती थी।वहां जाकर हमें मालूम हुआ कि मुम्बई तो रातभर सोती ही नहीं है। बहरहाल हम दो मित्र लगभग एक सप्ताह मुम्बई घूम करके वापस अपने अपने ठिकानों के लिए रवाना हुए। रास्ते में जाने किस बात पर हम दोनों में ठन गई और मुम्बई में हुए खर्च का हिसाब किताब होने लगा। कुछ रूपये मेरे ऊपर ओमप्रकाश के निकल रहे थे जिसे उन्होंने ट्रेन में ही जिद करके मुझे अदा करने को विवश कर दिया। शायद मेरे और उनकी मैत्री सम्बन्धों में दरार पड़ने का यह संकेत था जो आगे चलकर सचमुच सही भी सिद्ध हुआ।
मुम्बई से वापस आकर मैं एक बार फिर उसी इलाहाबाद में था। इलाहाबादी गर्मी में जब लू के थपेड़े उठते थे तो बाहर निकलना मुश्किल होता था। लेकिन नौकरी तो करनी ही थी। कभी- कभार जब वीकली ऑफ़ में इलाहाबाद रुका रहना पद जाता था तो मैं दो शिफ्टों में घूमता रहता था। कभी चन्द्रशेखर आज़ाद पार्क,कभी घंटाघर... एक बार तो मीरगंज की बदनाम गलियों में भी घूम आया। वहां अजीब - अजीब इशारे करती वेश्याएं मिलीं। वेश्याओं को नजदीक से देखने का यह मेरा पहला और अंतिम रोमांचकारी अनुभव था।
इलाहाबाद में मेरी छुट्टी की एक ऐसी ही दुपहरी में नाना जी से मिलने के लिए हिन्दी के विद्वान डा.विद्यानिवास मिश्र आये। मैं ही गेट पर उनसे मिला , दोनों को एक दूसरे का चेहरा कुछ जाना पहचाना सा लगा और परिचय होते ही ऎसी आत्मीयता हो गई कि वह उनके जीवनांत तक बनी ही रही।वे नाना जस्टिस त्रिपाठी का बहुत ही सम्मान करते थे और बातचीत के क्रम में नाना जी ने उनको मेरी आकाशवाणी की सेवाओं का संरक्षक बना दिया। पंडित जी ने आगे चलकर मुझे जब- जब उनकी सिफारिश की आवश्यकता हुई वे तत्पर मिले।एक अभिभावक की तरह वे हमारी मदद करते रहे।
उन दिनों रेडियो में अंदरुनी राजनीति और उसके चलते घटिया हरकतें कुछ ज्यादा ही हुआ करती थी। मैं तो गोरखपुर का भुक्तभोगी था लेकिन उस समय मैं स्टाफ नहीं था और अब स्टाफ में था। फिर भी नर्मदेश्वर उपाध्याय,विनोद रस्तोगी आदि जैसे नामचीन प्रोड्यूसर रिकार्डिंग के लिए टेप या स्पूल तक छूने नहीं देते। वे अपने ज़माने के मशहूर समाचार वाचक हुआ करते थे लेकिन एक अवधि के बाद उन्हें लगा कि साहित्यिक शहर इलाहाबाद में प्रोड्यूसर बनकर उनको ज़्यादा मान मिलेगा इसलिए वे हिंदी उच्चरित शब्द के प्रोड्यूसर हो गए थे।अपने काम में किसी को हाथ नहीं लगाने देते थे।कोशिश करते कि प्रसारण के समय उद्घोषणा भी वे स्वयम करें , टेप बजाएं और वापस अपनी झोली में रखकर स्टूडियो से बाहर आ जाएं। ऐसे में मुझ जैसे नौसिखिया को इलाहाबाद में कुछ भी सीखने का अवसर नहीं मिला। हाँ,बड़े बड़े साहित्यकारों , राजनीतिज्ञों आदि को नजदीक से देखने सुनने का अवश्य अवसर मिला। सुमित्रा नन्दन पन्त,महादेवी वर्मा, इलाचंद जोशी, आदि स्टूडियो में आते रहे।
एक मेरे वरिष्ठ सहयोगी थे तारा सिंह ग्रोवर। वे बहुधंधी थे। उन्होंने मेरे ज्वाइन करते ही अपनी किसी एक चिट फंड कम्पनी में खाता खुलवा दिया|एकाध महीना तो ठीक रहा लेकिन एक दिन अचानक वह कंपनी गायब हो गई। ग्रोवर साहब कुछ हफ्ते तो सवाल जबाब से बचने के लिए गायब रहे और जब आए तो बहाने बनाने लगे। अंततः मेरे भी लगभग पांच सौ रूपये डूब ही गए। गनीमत रही कि एक सौ रूपये की पांच किश्तें ही मैंने जमा की थीं। इसी तरह ग्रोवर और एक चपरासी मिलकर एक और धंधा करते थे जो आगे चलकर उनके सस्पेंशन का भी कारण बना। उन दिनों कलाकारों /वार्ताकारों को मानदेय में ‘बियरर चेक’ मिला करता था। ये लोग चेक मिलते ही कलाकार से चेक पर दस्तखत करवा कर उसे कुछ कमीशन काटकर नकद रूपये दे दिया करते थे। जब वे ड्यूटी पर होते तो इस काम को शत- प्रतिशत अंजाम दिया करते। एक प्रकार से चेक देने वाले भी वही होते और लेने वाले भी वही। उसी उगाही में कुछ अनुपस्थित कलाकारों के चेक भी बंटने और कैश होने लगे। इस अंदरुनी जालसाजी के काम से मैं भी अनजान था और मैंने भी अनेक कलाकारों के हस्ताक्षर गुड फेथ में चपरासी के कहने पर वेरीफाई किये थे। गनीमत रही कि वे सब सही निकले। इस घोटाले का खुलासा उस समय हुआ जब मैं इलाहाबाद से स्थानांतरित होकर गोरखपुर चला आया था। ऐसे घोटाले के प्रकरण में उस चपरासी और ग्रोवर साहब की नौकरी चली गई थी।
इलाहाबाद आने जाने के क्रम में एक बार का वाकया याद आ रहा है। इतिहास के एक प्रोफेसर ने मुझे बंद लिफ़ाफ़े की एक किताब इलाहाबाद ले जाकर अपनी किसी प्रेयसी को देने का आग्रह किया। रात की ट्रेन थी और जाने क्या शरारत सूझी कि मैंने इनका लिफाफा खोलकर पहले रस ले लेकर उनका प्रेम पत्र पढ़ा और फिर किताब पढ़ी।वह युवती रेडियो आती- जाती थी। वहां जाकर मैंने उस युवती को उसे सौंप दिया। आगे चलकर उस युवती के दाम्पत्य जीवन में इतनी दिक्कतें आईं कि उसने आत्मदाह तक कर लिया था। ज़िन्दगी की रंगीनियां और उसकी तल्ख दुश्वारियां अब मुझे दिखाई दे रही थीं। मैंने समझ लिया कि ज़िंदगी का गणित उतना आसान नहीं है जितना लोग समझ लेते हैं।फिर भी मेरी ज़िंदगी ने मुझसे कहा-“ जस्ट चिल !”
मैंने उन दिनों अपनी डायरी के एक पृष्ठ पर कुछ लिखा था।संयोगवश आज वह मुझे मिल गया है और उसे मैं आप तक पहुंचा रहा हूँ। पढ़ना तो चाहेंगे ही !
“ बाहर खुला नीला आकाश था,
और भीतर एक पिंजरा लटका हुआ था।
बाहर मुक्ति का डर था ,
और भीतर सुरक्षित जीने की थकान।
उसे उड़ने की भूख थी ,
और पिंजरे में खाना रखा हुआ था ! ”