जीवन को दुबारा जीना !
जीवन को दुबारा जीना !


इस बीच पहले गोरखपुर विश्वविद्यालय में बी.ए. में पोलिटिकल साइंस और अंग्रेजी विषयों में और फिर एल. एल. बी. में साथ साथ पढ़ने वाले मेरे एक मित्र श्री प्रभाकर पाण्डेय के दुर्घटना में घायल होने और उनके इलाहाबाद आने की सूचना पाकर मैं इलाहाबाद 9 मार्च 2014 की दोपहर पहुंचा।
वहां अपने फुफेरे भाई श्री हरिनंदन पाण्डेय उर्फ कंचन को लेकर उनके पुत्र धनंजय से फोन पर घर का पता पूछते हुए मीरापुर मुहल्ले में पहुंचा ।
बुरी तरह जख्मी और लगभग मरणासन्न स्थिति में मित्र प्रभाकर को देख कर मैं हतप्रभ रह गया।प्रभाकर के चेहरे पर पीड़ा और दुःख झलक रहा था।बेटा –बहू उनकी देखरेख कर रहे थे।उनकी हालत देखकर कुछ अप्रत्याशित होने का आभास हुआ।
मैं भरे - भरे मन से वापस आ गया।कर ही क्या सकता था ? हाँ, बेटे को आश्वस्त किया कि यदि उनकी दवा दारु में कोई आर्थिक आवश्यकता हो तो निःसंकोच मुझे बताना।
अब इस घटनाक्रम का एक टर्निंग प्वाइंट सुनिए। कुछ दिनों बाद प्रभाकर के बेटे का फोन आया , उसने कुछ लाख रूपयों की मांग की लेकिन उसका प्रयोजन प्रभाकर के इलाज का नहीं बल्कि उसका अपना निजी कुछ मकसद था। वह अपनी कोकाकोला की कम्पनी छोड़कर किसी और कम्पनी को ज्वाइन कर रहा था और कुछ आवश्यक सिक्योरिटी एमाउंट तुरंत जमा करना था। मैं प्रभाकर के बेटे की इस हरक़त से एक बार फिर हतप्रभ हो उठा और मैंने इस बाबत रूपये देने से साफ मना कर दिया ।
वकील प्रभाकर पाण्डेय मरणासन्न स्थित में थे और उनका इलाज लगभग खत्म हो चुका था। कुछ ही महीनों बाद उन्हें बेटे ने देवरिया स्थित उनके अपने बनवाये हुए मकान पर भेज दिया, जहां वे गुजर भी गए। बेटा मुझसे रुपए न मिलने के कारण इतना नाराज़ था कि उसने मुझे यह दुखद सूचना भी नहीं दी। मुझे यह सूचना एक अन्य मित्र अखिलेन्दु कुमार श्रीवास्तव एडवोकेट से मिली। प्रभाकर के बेटे ने मुझे फोन करना तक उचित नहीं समझा। शायद वह मेरे रूपये ना देने से नाराज़ था।
यह वही बेटा था जिसने गोरखपुर के म. मो. मा. इंजी.कालेज से पढ़ाई की थी और उस दौरान मेरे पास आकर प्राय: प्रभाकर के फोन या पत्र का हवाला देकर रूपये ले जाता था। हालांकि बाद में प्रभाकर उसे लौटा दिया करते थे| जाने कहाँ से उसके मन में यह बात समा गई थी कि मैं उसके कैरियर के लिए लाख दो लाख भी उसे दे सकता हूँ !
रूपये पैसे के मामले में अकेले इन धनंजय ही नहीं इन जैसे कई लोगों ने मुझे छलने की कोशिश की , बार बार की।
इलाहाबाद के एक फुफेरे भाई ने (जिसने लगभग चार साल गोरखपुर में साथ रह कर अपनी माध्यमिक पढ़ाई की थी और आगे चलकर इलाहाबाद में बिजली विभाग में लेखाकार के रूप में खूब धन कमाया था जब मैं रिटायर हुआ और मुझे पी.एफ.आदि के एकमुश्त पैसे मिले तो जाने कहाँ से प्रकट हो उठे।
बोल उठे “भैया मकान खरीद रहा हूँ।कुछ तो सहयोग के मद में और कुछ उधार के मद में ,यही कोई डेढ़ दो लाख दे दीजिये।”
मैं चौंक गया और एक बार फिर अपने स्वभाव के विपरीत उसकी हठधर्मिता को ध्यान में रखकर उसे साफ मना कर दिया। तभी से उनकी भी सलाम दुआ लगभग समाप्त ही हो गई। इतना ही नहीं इन नई पीढी के ऐसे “ काकदृष्ट सूरमाओं" में एक नाम और गिनाना चाहूँगा- पाण्डेय एस. का जो पहले दुबई में कमाते थे और अचानक जाने क्या हुआ कि भारत में आकर टाटा बिरला बनने का मुंगेरी सपने मन में पाल बैठे थे। सपने देखना और उसे सच करना अच्छी बात है लेकिन उसमें किसी की आहुति दिला देना कितना उचित है ? .........वही हुआ जिसका डर था। संयोग ये भी अपनी बुआ के ही इकलौते लड़के थे ।
एक दिन अचानक ऑफिस में हड़बड़ाहट में पहुंच कर बोले- “भैया, मुझे अपने प्रोजेक्ट के लिए लोन सैंक्शन हो गया है ,आपको गारंटर बना रहा हूं। ये , ये इस पेपर पर अपना हस्ताक्षर कर
दीजिये। “ मैं हड़बड़ा उठा। एकबारगी को संकोच हुआ , उसके कैरियर की बात है। लेकिन तुरंत अपने रिटायरमेंट का ध्यान आया जो कुछ ही महीनों बाद था।
मैंने साफ साफ मना कर दिया और कहा कि
” भाई मैं गारंटर बनने लायक नहीं हूँ क्योंकि मुझे अब रिटायर होना है।” उनके लिए चाय आ चुकी थी , वे उठे और चल दिए। बुरा मान गए।
लेकिन कुछ लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता है।वही सज्जन लगभग एक साल बाद फिर एक लाख उधार मांगने घर तक आ गए।
मैंने दस-बीस हजार देने का आफर दिया वे ठुकरा कर यह जुमला फेंकते हुए चले गए –“इतने से क्या होगा ?” मैं भी मन ही मन बुदबुदाया – “अच्छा हुआ नहीं ले गए इतने से मुझ रिटायर आदमी के लिए तो बहुत कुछ हो जाता है |”
इन प्रसंगों का उल्लेख इसलिए आवश्यक समझ रहा हूं क्योंकि आपके जीवन में भी ऐसे (कु) पात्र आते ही होंगे और ऐसे अवसरों पर अक्सर अगर आप थोड़ा सा चूक जाएं तो ठगी के शिकार भी जाते होंगे।
जीवन को पीछे मुड़कर देखना यानि कि जीवन को दुबारा से जीना होता है| मैं उसी दौर से गुज़र रहा हूँ| मेरे संग साथ आप हैं।
वर्ष 2014 की डायरी।अपने पिता श्री आचार्य प्रतापादित्य के मई वर्ष 2012 में देहावसान के बाद अम्मा की देखभाल करने मैं प्राय: हर महीने गोरखपुर जाने लगा था। 16 मई, 2014 की रात में चलकर 17,18,19 तक गोरखपुर था और 19 की रात में लखनऊ के लिए वापसी थी। अम्मा को वैसे मेरे उनके पास जाने या ना जाने का जाने क्यों उन दिनों कोई प्रभाव नहीं हो रहा था क्योंकि अम्मा रिश्ते में एक दीदी के जादुई आकर्षण में बंधती चली जा रही थीं। उन दीदी का कुछ "हिडेन एजेंडा " था जिसकी ओर उनके पति हम सभी को बार - बार आगाह किया करते हैं लेकिन हम लोग कुछ जान नहीं पाए।
समय ने जब छलांग लगाई तो हम कुटिल दीदी के चाल में फंस चुके थे।एक बहन ने अपनी माँ की देखरेख के लिए बहुत बड़ी सौदेबाजी कर डाली थी जिसका प्रसंग आगे कभी।
हाँ तो मेरी यात्राएं कम हो चली थीं। मई-जून में श्रीमती जी के साथ अवश्य ही कहीं न कहीं जाना हुआ करता था। इस बार 13 जून से 17 जून तक हमलोगों ने मथुरा वृन्दावन की धार्मिक यात्रा की। साध्वी ऋतम्भरा के वात्सल्य ग्राम स्थित M.M.M. रिसोर्ट के मीरा माधव निलयम में प्रवास रहा।परिसर में यद्यपि कोई नियमित धार्मिक आयोजन नहीं था लेकिन फिर भी भरपूर शान्ति थी।सर्व मंगला मंदिर,गुरुकुलम,शहीद संग्रहालय,कृष्ण ब्रम्ह रत्न विद्यामंदिर,नन्हीं दुनिया,आनन्द अनुभूति एवं संस्कार केंद्र आदि आकर्षण के केंद्र रहे।
यहीं प्रवास करते हुए हमलोग मथुरा और वृन्दावन सुविधानुसार आते - जाते रहे। संस्कार केंद्र में नन्हे शिशुओं की देखरेख करने वाली यशोदा माताओं से मिले। अच्छा लगा कि साध्वी ने 24 घंटे का एक पालना केंद्र तुरंत जन्में अवैध शिशुओं के लिए खोल रखा है जहां लोग अनचाहे शिशु छोड़ जाते हैं और यहां उनकी पर्याप्त देखरेख होती है।
मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और वृन्दावन में नये बने प्रेम मन्दिर में हमलोग घंटों बैठा करते थे। वापसी के बाद फिर जीवन यथावत हो चला।
जाने क्यों गोरखपुर मुझे खींचता रहता है और मैं उसके वशीभूत होकर एक बार फिर 19 जुलाई की रात ट्रेन से गोरखपुर के लिए निकल पड़ा।इस बार दस दिनों तक यहां रहा।दिनचर्या में अपने श्वसुर श्री के.सी.मिश्र के यहां अशोकनगर, बशारतपुर जाना,मित्र और रिश्तेदार रत्ननाभ पति त्रिपाठी एडवोकेट के यहां जाना और अम्मा के लिए उनके प्रिय डाबर की हिंगोली ,ढोकला, और कुछ फल आदि लाना हुआ करता था।
गोरखपुर अब जाने क्यों मुझे खींचता तो था लेकिन जैसा मैं उम्मीद करता था वैसा मुझे देता नहीं था।घर में भी अम्मा के किचेन से खाना खाता था और कुछ बंधा - बंधा सा जीवन लगता। फिर भी अम्मा के जीवित रहने तक तो मुझे वहां आना जाना ही था।