Prafulla Kumar Tripathi

Abstract Action Inspirational

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Prafulla Kumar Tripathi

Abstract Action Inspirational

समय पंखों की उड़ान!

समय पंखों की उड़ान!

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       समय पंख लगाकर उड़ता जा रहा था। पत्नी का डिप्रेशन भी उसी गति में अपने पंख फैला रहा था। डिप्रेशन के दुष्प्रभाव से मैं भला कैसे बच पाता ? इसलिए उनकी हर इच्छा को पूरा करने में जुटा रहता (हालाँकि इस पर भी वे संतुष्टि नहीं हुआ करतीं )|

        इस बार योजना बनीं की रांची चलना है....वहां योगदा सत्संग का आयोजन था। दिक्क़त यह हुआ करती थी कि आयोजन में सहभागिता के लिए ईमेल करने, रिमाइंडर भेजने, रिटर्न और वहां ठहरने आदि का रिजर्वेशन कराने आदि की झंझटों से जूझना पड़ता था। खैर, किसी तरह हमलोग 3 नवम्बर को कानपुर से चलकर अगले दिन 10 बजे रांची पहुंचे। रेलवे स्टेशन के पास ही योगदा का आश्रम था और हालांकि मेरे मनोनुकूल नहीं था फिर भी वहीं ठहरने की व्यवस्था भी हो गई। मुझे आबंटित कमरे में तीन साधकों का साथ मिला।

       यहाँ यह बताना चाहूँगा की मेरी कतई रूचि योगदा या उनके क्रियायोग में नहीं थी किन्तु “मरता क्या ना करता” के अनुपालन में मैं भी यहाँ की गतिविधियों में “शामिल बाजा” था। लगभग एक सप्ताह के इस आयोजन में सम्मिलित होने के उपरान्त एक दिन हमनें रांची और उसके आसपास के दर्शनीय स्थलों को देखने में बिताया।

        हीरानी फाल, दशम जल प्रपात, जोन्हा जल प्रपात, जगन्नाथ मंदिर, राक गार्डेन, देवड़ी मंदिर, रांची से लगभग 20 कि.मी.दूर अनगड़ा स्थित हुडरू जल प्रपात , पहाडी मंदिर, बिरसा जू, एक अन्य मंदिर , कानके डैम, सूर्य मंदिर, रांची लेक, आदि। 10 नवम्बर को दिन में 3-10 बजे हमने रांची को गुड बाय किया और हटिया-आनन्द विहार स्वर्णजयन्ती एक्सप्रेस से अगले दिन सुबह9 बजे के आसपास कानपुर पहुंचे|

       कानपुर से लखनऊ की बस से यात्रा बहुत ही झेलाऊ रही और हम लखनऊ लगभग रात में पहुंचे। एक रोचक प्रसंग आपको सुनाने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। इस सत्संग में पत्नी के बार बार यह कहने पर कि आप भी क्रिया योग की दीक्षा के लिए अपना नाम लिखा लीजिये , मैं टालता ही रहा। असल में मैं आनन्द मार्ग में पहले से दीक्षित था और यह अलग बात थी कि साधना में नियमित नहीं था। लेकिन जब भी ये लोग ध्यान लगाते तो मैं भी अपनी साधना में संलग्न हो उठता था।

       एक दिन दोपहर बाद हम दोनों आनन्द मार्ग के रातू रोड स्थित मुख्यालय गए और वहां संगठन के एक ग्रुप के वर्तमान पुरोधा आचार्य विश्वदेवानन्द अवधूत से मिले। उसी परिसर में पिताजी के दीक्षा भाई अवधूत आचार्य गणाधीशानन्द अवधूत से भी मिले। वहां घंटों बिताते हुए मैं हमेशा उन कल्पनाओं में डूबा रहा कि जब बाबा यहाँ रहे होंगे तो कैसा माहौल रहा होगा। बाबा का कमरा भी हमने देखा। वापसी में हमने अपने उन अवधूत को कुछ आर्थिक मदद दी जिसे लेकर रास्ते भर ऑटो में पत्नी जी से किचकिच का भी रसास्वादन हुआ। 

      उसी रात की बात है। मेरे साथ रह रहे एक भक्त को अगली सुबह क्रियायोग की दीक्षा लेनी थी। शाम को ही उन्होंने पुष्प, अगरबत्ती, आदि सामग्री जुटा लिया और मेरे साथ ही रात्रि भोजन करने पंडाल गए|

        भोजन के बाद दूध का गिलास भी उन्होंने मुझे लाकर दिया और मैंने उन्हें इसके लिए धन्यवाद दिया। तब तक पत्नी महिलाओं के पंडाल से आकर मुझे पुकारीं और मैं उनकी ओर चला गया। मैं अपने बिस्तर पर अभी सोने की तैयारी में था ही कि खबर मिली कि वे साधक लौटते समय अचानक गिरे और उन्हें जबरदस्त हृदयाघात हो गया। हम सभी भाग कर जब तक गए उन्हें हास्पिटल ले जाया जा चुका था। देर रात पता चला कि वे नहीं रहे। मैं एकदम अवाक !


         ऐसा लग रहा था कि मानो यम देवता मेरे पास से, मुझे लगभग छूते हुए  गुज़र गए हों। मेरे अंत:करण में जाने क्यों यह बात उठी कि “ यह मेरे ईष्ट का सन्देश है, एक प्रकार की परोक्ष चेतावनी भी कि तुम गुरुमन्त्र के परित्यागी मत बनो ! ” महीनों तक मैं इस घटना से विचलित रहा लेकिन मेरी अर्धांगिनी इससे सहमत नहीं थीं और इसे महज़ एक संयोग मानती रहीं। मैंने अपने “बाबा” का आभार व्यक्त किया और संकल्प लिया कि जो भी हूँ , जैसा भी हूँ अब आजीवन अपने” बाबा “का ही होकर रहूंगा।

        समय के पंख वैसे दिखाई तो नहीं देते हैं लेकिन समय उन पर उड़ता रहता है। मेरा जीवन भी उन्हीं के पंखों पर सवार था। नवम्बर की 27 से दिसंबर की पहली तारीख तक मै गोरखपुर में रहा। यह जाते हुए वर्ष 2014 का आखिरी महीना था और मैं भी अपनी आयु की 62 वीं पायदान पर पहुँच चुका था। लेकिन अभी एक यात्रा और होनी थी और वह थी वाराणसी की।

       इस बार पारिवारिक मित्र अविनाश जी और उनकी पत्नी किरन भी थीं। हमलोगों ने 27, 28, और 29 दिसम्बर वाराणसी में बिताये। वाराणसी लगभग घूमा ही हुआ था फिर भी सारनाथ की शान्ति और गंगा की लहरों पर कौन नहीं मुग्ध हो जाएगा ! जयपुरिया धर्मशाला का निरामिष सुस्वादु भोजन इस बार का एक मूल्यवान attraction था। लेकिन, एक कसक मन में रह ही गई और वह यह कि योगावतार लाहिणी महाशय के आवास का हम दर्शन नहीं कर सके जो बनामल्ली लहरी , 31/58 मधुनौरा, गरुदेश्वर मुस्लिम मार्केट, चौसत्ती घाट पर स्थित था।

       खैर, जीवन इसी का नाम है। कहां सभी कुछ अपने मन का हो पाता है ? वर्ष का आखिरी महीना जाने को उतावला है , इसलिए ओ.के., गुडबाय वर्ष 2014 ।

        एक बार फिर नीरज जी को साभार याद करते हुए, ...

“क्या शबाब था कि फूल, फूल प्यार कर उठा ,

अक्श क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा ,

इस तरफ जमीं उठी तो आसमान उधर उठा ,

थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नजर उठा ,  

एक दिन मगर यहाँ , ऎसी कुछ हवा चली ,

लुट गई कली कली कि घुट गई गली गली ,

और हम लुटे लुटे , वक्त से पिटे पिटे ,

सांस की शराब का खुमार देखते रहे ....!”


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