Moumita Bagchi

Abstract Drama

2.7  

Moumita Bagchi

Abstract Drama

कूड़ेदान

कूड़ेदान

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"मम्मी, आप कल से मुझे स्कूल छोड़ने मत जाना। मैं और बबलू साथ में चले जाएंगे।" अनुराधा का नौ साल का बेटा मयंक बोला। 

 

"हाँ मम्मी, मैं भी डांस क्लास खुद ही चली जाया करूंगी। स्कूल तो मैं अकेली ही जाती हूँ।" मीशा भी मानो भाई की हाँ में हाँ मिलाते हुए बोली।

 

"ऐसा क्यों भला ? आप दोनों को स्कूल पहुंचाना तो मेरा काम है न ?" उनके इस अकस्मात सुझाव पर ज़रा शक्की बनकर अनु ने पूछा।

 

"हो न हो दोनों भाई - बहन में जरूर कोई खिचड़ी पक रही है !" अनु मन ही मन सोचने लगी।

 

ये थे अनुराधा के दो अनमोल रतन। जिनके इर्द- गिर्द अनु की ज़िंदगी उपग्रह की भांति सुबह से रात तक चक्कर लगाया करती थी। मीशा बड़ी थी। उसका चौदहवां बरस लग चुका था। और उससे पांच साल छोटा भाई मयंक था तो नौ बरस का लेकिन उसके तेवर कुछ ऐसे थे कि जैसे वही बड़ा हो और मीशा उसकी छोटी बहन ! बड़ी होने पर भी मीशा को उसकी दादागिरी स्वीकारने में कोई तकलीफ न थी। वह अपने वय के हिसाब से थोड़ी अपरिपक्व थी।शायद इसलिए हमेशा भाई की हाँ में हाँ मिलाया करती थी।

 

"मम्मी आप दिनभर काम करके थक जाती होगी। थोड़ा आराम भी कर लिया करो कभी -कभी।"

दोनों बच्चों ने माँ से बनावटी प्यार जताते हुए कहा। फिर अपने कमरे में भागकर चले गए।

 

"होगा कुछ। अब बच्चे बड़े हो रहे हैं ! मम्मी से ज़्यादा उन्हें दोस्तों का साथ अच्छा लगता है।" अनु भी कंधे उचकाकर अपने घरेलू काम में लग गई।

 

थोड़ी देर बाद अनुराधा दूध लेकर आई; परंतु बच्चों के कमरे में दाखिल होने ही वाली थी कि मयंक के मुँह से "मम्मी" शब्द सुनकर कमरे के चौखट के बाहर ही रुक गई।

" देखूॅ तो दोनों मेरे बारे में क्या कह रहे हैं।"

 

" दीदी, मेरे दोस्त मुझे चिढ़ाते हैं, मम्मी के मोटापे के कारण !"

 

" अब उनका क्या दोष? मम्मी इतनी मोटी जो हैं। देखो तो, दिनभर कूड़े दान की तरह ठूंसती रहती हैं। फिर दोपहर को पड़ी - पड़ी कुंभकर्ण सी सोती भी हैं। कोई वार्क आउट नहीं करती,एक्सरसाइज भी नहीं । कितनी बार उनसे कहा कि पड़ोस की अंटियों के साथ सुबह वाॅक पर जाया करो !" मयंक की दीदी ने कहा।

 

 थोड़ी देर रुककर मीशा फिर से बोली--

"मुझे भी उनके साथ चलने में बड़ी ही शर्म आती है। डांस क्लास वाली लिलि हम दोनों माँ-बेटी को साथ देखते ही --'लाॅरल और हार्डी ' कहकर चिढ़ाने लगती है। फिर हँसते – हँसते बेदम हो जाती है। मन करता है कि उसका मुँह नोच लूं।

पर मम्मा को तो इन सब बातों से कोई फर्क ही नहीं पड़ता।"

 

अनुराधा से इससे आगे न सुना गया। वह दूध देने आई थी परंतु यू-टर्न लेकर किचन वापस चली गई। किचन पहुंचने से पहले ही उसकी आँखों से मोटे-मोटे आँसू झरने लगे थे। गले में वेदना की एक हूक - सी उठने लगी। उसकी आँखें अपने इस भयंकर अपमान से जलने लगी। अपने मोटापे के कारण आस-पड़ोस और परिवार वालों से तरह-तरह के ताने वह पहले ही सहन कर चुकी थी, यहाँ तक कि पति के तीखे व्यंग्य भी उसने बर्दाश्त कर लिए थे परंतु उसके अपने कोखजायों की ये चुभती बातें वह बर्दाश्त न कर पाई ! जिनको पालने - पोसने में उसने दिन को दिन न माना था, न रात को रात। उनकी ज़रूरतों को ही अपने ज़िंदगी में उसने सर्वोपरि समझा था। घर के सब लोगों के होते हुए भी उसने अकेले ही इन दोनों बच्चों को पाल - पोसकर इस काबिल बना दिया कि वे अब मम्मी के वज़न को लेकर औरों की तरह ही हँसी - ठिठोली कर सकें !!

 

कितने ही अनायास दोनों बच्चे उसे मोटा कह गए। याद है मयंक जब उसके पेट में था तब उसे एक ट्यूमर हुआ था। उसने नौ महीने तक मयंक और ट्यूमर, दोनों को अपने अंदर पाला था। क्योंकि सर्जरी करने का कोई उपाय न था। परिवार वालों को भी बेटा चाहिए था। फिर डिलीवरी के बाद उसका शरीर इतना भारी - भरकम बन गया। पिछले साल से उसे थाइरोयड की भी शिकायत होने लगी है। उसके बाद से तो उसके वज़न में इज़ाफा ही होता चला गया। दिनभर काम करके वह इतना थक जाती है कि कसरत के लिए वक्त कहाँ से निकालेगी ? एक दो बार कोशिश की थी परंतु हर बार परिवार वालों ने उसे हर समय कोई न कोई काम पकड़ा दिया जिससे कि उसे अपनी परिकल्पना स्थगित करनी पड़ी।

 

रात को सब खाकर सो चुके थे। अनुराधा अपने पति के घर आने की प्रतिक्षा कर रही थी। उसको भूख तो लग रही थी परंतु एक पतिव्रता स्त्री की भांति वह मयंक के पापा मनोहर को और घर भर को खिलाए बिना न खा सकती थी। इसलिए इंतज़ार करने लगी।

 

लगभग बारह बजे मीशा - मयंक के पिता, और अनुराधा के पति नशे में झूमते हुए घर लौटे ! घर में कदम रखते ही उन्होंने ऐलान किया कि दोस्तों ने उन्हें ज़बरदस्ती इतना खिला दिया कि वे अब और रात्री भोजन न कर पाएंगे और सीधे पलंग पर जाकर ढेर हो गए।

 

पति की पोशाक बदलाकर, जूते निकालकर और उसे सीधा लिटाकर जब अनु किचन में आई तो उसकी भूख मर चुकी थी। खाने के तरफ ताकने की भी इच्छा न हो रही थी। परंतु सास ने पहले दिन समझा दिया था कि घर का अन्न नष्ट न हो, वर्ना भयानक पाप होने की संभावना है।


अब रोज़ का यह नाटक था। मनोहर अकसर अपने यारों के साथ बाहर से खाकर आते थे, पर उसे रोज उनके लिए स्वादिष्ट व्यंजन बनाना ही पड़ता था। घर में सबकी पसंद भी अलग-अलग थी इसलिए ढेर सारे पकवान रोज बनाने होते थे। फिर किसी के खाने का भी कोई परिमाण न होता था। किसी दिन पूरा खाना खतम हो जाता था और कभी ढेर सारा भोजन बच जाता था। दोनों ही हालत में खामियाजा अनु को ही चुकाना पड़ता था।

 

अब अनु इतने बचे हुए खाने का क्या करे? इस वक्त तो गली के कुत्तों का भी रात्रि - भोजन हो चुका था। इसलिए एक भी इस समय नज़र नहीं आ रहा है। शाम से गली की पगली जो भोजन पाने की अपेक्षा में उसके चौखट पर बैठी थी, वह भी इस समय जा चुकी थी। तो अब?

 

थोड़ा सा अपने नाश्ते के लिए फ्रिज में बचाकर शेष दो आदमियों का भोजन अर्धरात्रि के समय अनुराधा किसी तरह अपने मुँह में ठूंसने लगी।



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