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Anita Bhardwaj

Abstract

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Anita Bhardwaj

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कच्ची रोटी

कच्ची रोटी

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"वो एक हाथ में बेटी को लिए, दूसरे हाथ से चूल्हे में फूंक मार रही थी कहीं चूल्हे की आग बुझ ना जाए। बच्ची को बार बार आंचल से ढक रही थी कहीं उसे कोई आग का पतंगा का ना छू जाए। "


बात जुलाई 2016 की है, किसी गांव की नहीं; अपने शहर दिल्ली की ही है।

उस वक़्त मैं और मेरे कुछ साथी अपने हेडक्वार्टर के कार्यालय के बाहर हड़ताल पर बैठे थे।


सरकार बदलते ही नियम बदल जाते हैं। फिर उसकी वजह से पिसते रहते है हम मीडिल क्लास लोग।

मुझे कोई शर्म नहीं आ रही ये लिखते हुए की मैं मीडिल क्लास फैमिली से हूं।

और 6-7 रातें रोड पर बिता दी, हड़ताल करते हुए।


बहुत से लोग जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी में सिवाय अपने मां बाप, या जीवनसाथी की कमाई पर ऐश करने के अलावा कुछ नहीं किया। उन्हें ये बातें बड़ी सुकून देंगी।

देखो !! क्या हालत हुईं थीं इसकी, रोड पर आ गई सिर्फ एक छोटी सी नौकरी के लिए!!!


जब मैं और मेरे दोस्त इस छोटी सी नौकरी के लिए रोड पर बैठे थे वो भी जुलाई कि गर्मी में।

कोई चंदा इकट्ठा नहीं किया था की खाने, पीने का कोई प्रबंध कर सके।

हां ये खुशकिस्मती थी कि जो भी साथी बैठे थे उनमें से कुछ के घरवाले वहां जरूरत का सामान लेकर आते थे।

जब हमें सफलता मिली तो जो लोग इस छोटी सी नौकरी के चक्कर में सड़क पर बैठने में अपनी तौहीन समझ रहे थे, सबसे पहले वही लोग पहुंचें इस छोटी सी नौकरी का ज्वाइनिंग लेटर लेने।

खैर, क्या ही कर सकते है। हमें तो अपने हक के लिए लड़ना था और लड़े भी, भिड़े भी और जीते भी।


उन दिनों मैं प्रेगनेंट थी, पर कोई मुझे बेचारगी की नजरों से ना देखे इसलिए मैंने किसी को बताया भी नहीं था।

मन में एक डर था कि कहीं मेरे हक की ज़िद्द में, मैं अपने गर्भ में पल रहे जीव के साथ कोई अन्याय ना कर बैठूं।

हम जिस बिल्डिंग के बाहर धरने पर थे उसके कुछ दूरी पर पब्लिक टॉयलेट के पास कुछ झुग्गियां बनी हुई थी। और कुछ दूरी पर था दिल्ली का सबसे बदनाम एरिया जी बी रोड।

झुग्गियों की तरफ रोज मुझे एक लड़की दिखती, जिसकी उम्र 14-15 साल ही रही होगी।

उसकी एक बेटी भी थी, और इतनी भरी दोपहरी में वो रोज लोहे के चूल्हे पर रोटियां सेंकती और बेटी को भी अपने से चिपकाए रहती।

जो लोग इस दौर से नहीं गुजरे वो शायद अंदाजा न लगा पाए।

एक तो इतनी गर्मी, ऊपर से प्रेग्नेंसी। इसलिए मुझे बार बार शौचालय की तरफ जाना ही पड़ता।


वैसे तो कोई भी सरकारी या प्राइवेट बिल्डिंग किसी महिला को शौचालय के प्रयोग से नहीं रोक सकती।

फिर भी हमें बिल्डिंग में जाने से मना किया जा रहा था।

हमने महिला पुलिस अधिकारियों से भी कहा, पर उन्होंने उनकी भी नहीं मानी।

राजनीति का गंदा चेहरा वहां देखा मैंने, कैसे नियम, कानून की धज्जियां उड़ाई जाती है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया।


फिर उन महिला पुलिस अधिकारियों ने पुलिस स्टेशन के शौचालय में हमें जाने की परमिशन दी।

वो लड़की मुझे बार बार अपनी तरफ खींच रही हो जैसे,

मैंने एक दिन उससे पूछ ही लिया। तुम्हें कल मार क्यूं पड़ी थी?


उसने अपना फटा हुए दुप्पटा सिर पर ढक लिया ताकि मुझे उसकी चोट ना दिखाई दे।

जैसे सी दुप्पटा हटा उसकी नीली पड़ी कमर से उसकी बेबसी के निशान झांक रहे थे।

मैंने उससे कहा भी चलो पास में थाना है, फिर भी वो नहीं मानी।

बस इतना कह गई, आप तो पढ़ी लिखी हो फिर भी अपने बच्चों के लिए दिन रात रोड पर बैठे हो।


मेरा तो जन्म ही यही हुआ है। अगर इनकी मार ना खाई तो पास वाली रेड लाइट एरिया में बेच देंगे हम मां बेटी को।

उसकी बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था।


मैंने पुलिस को भी कहा तो उन्होंने बोला "बेटा, इनका रोज का यही काम है। थोड़ी सी लड़ाई में इनको छोड़ आते है ये वहां, फिर शाम की पेट्रोलिंग में हम छुड़ा कर लाते है। अब तो इनकी किस्मत में यही रह गया है या तो दिन रात इनकी रोटियां सेंको या फिर बाज़ार।


और रोटियां भी अगर कच्ची रह गई, तो मार और बाज़ार।।


उस लड़की की हिम्मत मुझे और हिम्मत दे रही थी, मैं भी बेबस थी, वो भी बेबस थी और पुलिस भी बेबस थी।

ये कोई कहानी नहीं सच्ची घटना है। अपनी बेटियों को सशक्त करना ही होगा। 



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