Anita Bhardwaj

Tragedy

4.8  

Anita Bhardwaj

Tragedy

प्रेम और स्त्री

प्रेम और स्त्री

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"जब तक आपको अपना मनपसंद साथी नही मिलता, ये दिल आखिरी धड़कन तक उसके इंतजार में रहता है!पर स्त्रियों के लिए ये बात खुलेआम स्वीकार करना कहां संभव है। उसके लिए तो प्रेम में होने की बात तक स्वीकारना मुश्किल है फिर अगर शादी के बंधन में भी प्रेम ना मिले तो प्रेम की तलाश की बात स्वीकारना तो पत्थर तोड़ उसके बीच रास्ता निकालने जैसा मुश्किल काम है!!"

मृदुला गर्ग जी का उपन्यास पढ़ा; उसके हिस्से की धूप। 1975 में लिखी इस कहानी से पता चलता है कि उस वक्त भी प्रेम स्त्री की सिर्फ कल्पना में था और आज भी वही हाल है।

पुरुष शादी से पहले भी कई प्रेम कर सकता है और शादी के बाद भी।

स्त्री से तो प्रेम का विषय जैसे छीन ही लिया हो किसी ने !

"उसके हिस्से की धूप" पढ़कर गांव की कहानी याद आई। पड़ोस में एक दीदी की शादी आनन फानन में तय हो गई थी।

तब इतनी समझ भी नही थी। उनकी माता जी को कहते सुना -"औरत के लिए प्रेम उस संपति जैसा है जो उसे एक परीक्षा के बाद ही मिलती है और वो परीक्षा है विवाह। अपने पति के लिए प्रेम नाम की चीज को संभाल कर रखो; ये उसकी अमानत है। उससे पहले किसी को दी तो ईश्वर नरक में भेज देंगे तुम्हें!!

अगर कोई लड़की शादी से पहले प्रेम में पड़ भी जाती है तो परिवार को जो पहला लड़का मिलता है उसी से उसकी शादी करवाकर लड़की को विदा कर दिया जाता है। कोई नही पूछता लड़की की उम्र, उसकी इच्छा, उसके सपने, उसकी सहमति।

उसके बाद पति के हाथ में है की वो अपनी अमानत को जबरदस्ती लड़की से ले या उसका दिल जीत कर!!

अगर लड़की फिर भी किसी और के बारे में ख्याल में भी सोचती पाई जाती है तो घरवाले ईश्वर से प्रार्थना करते हैं की उसे जल्दी से संतान सुख की प्राप्ति हो ताकि उसका ये प्रेम भाव अपनी संतान को देखकर स्नेह में बदल जाए; और वो भूल जाए प्रेम को भी और खुद को भी !

मृदुला जी की कहानी से मैं बहुत प्रभावित हुई, उसमें शादी के बाद भी किसी स्त्री का अन्य पुरुष के प्रति आकर्षण दिखाया गया है । और अंत इस मोड़ पर लाकर छोड़ दिया गया की आखिर उसे वो प्रेम अपने पति से ही मिल सकता है जो सिर्फ उसका रहे !

खैर जो भी हो!! सबकी अपनी अपनी कहानी, अपनी अपनी सोच !

फिर भी किसी स्त्री ने ये स्वीकार करने की हिम्मत तो की कि अपने पति के अलावा भी वो किसी से प्रेम का इजहार कर सकती है।

उस पुस्तक को पढ़कर मेरा नजरिया लेखक के नजरिए से बिलकुल अलग था !

प्रेम हमेशा से स्त्री का दूसरा छोर रहा है। जैसे समुंद्र के किनारे साथ होते हैं पर पास नही होते,कभी भी एक नही होते!!! यूंही स्त्री को भी प्रेम की मूर्ति लिखा गया, कहा गया। पर उस प्रेम को कभी समर्पण,कभी स्नेह,कभी जिम्मेदारी का चोला पहना दिया गया। स्त्री को कभी न तो खुद से प्रेम करना सिखाया गया और ना ही अपनी मर्जी से किसी से प्रेम करना उसके हिस्से आया।

उसे हर रिश्ते ने सिर्फ बांधना चाहा, कभी रिश्तों की दुहाई देकर, कभी इज्जत की पोटली बनाकर, कभी मां का बलिदान दिखाकर !

प्रेम करना इंसानी गुण है। प्रेम में किसी का हो जाना तो ठीक है पर प्रेम में खुद के वजूद को नकारना गलत है।

स्त्री ने हमेशा प्रेम में खुद के वजूद को खत्म कर दिया । जब भी किसी स्त्री ने अपने वजूद को भी जिंदा रखने की बात की या एहसास कराया। उसे घमंडी, स्वार्थी जाने कितनी उपमाएं मिली। और अंत में उसने अपने मन को समझाकर या तो खुद को पति प्रेम में झोंक दिया या संतान के सुख में !

असल प्रेम औरत के हिस्से कभी आया ही नहीं ! उसे खुद से प्यार करना किसी ने सिखाया ही नहीं !


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