संतोष
संतोष
"आपके पास जो है उसके लिए हमारे जैसे लोग सपना देखते हैं! हमारे पास जो है वो भी किसी के लिए सपना है। तो इच्छाएं तो कभी खत्म नहीं होती। तो इच्छाओं की वजह से हम अपनी खुशियां क्यों खत्म करें।" - राखी ने अपनी मालकिन सौम्या को कहा।
सौम्या और हरीश के बीच कुछ दोनों से झगड़ा चल रहा था।
सौम्या अपनी समस्या किसी को बताना भी नहीं चाहती थी क्योंकि आज के वक्त में समस्या को सुनकर उसे बढ़ाने वाले लोग ज्यादा है, या तो लोग हमारी समस्या को उत्सव समझकर मनाने लग जाते हैं। पर उसका हल कोई कोई ही बताता है।
राखी 6 साल से सौम्या के यहां ही काम करती थी। राखी का पति रामू भी सौम्या के पति के ऑफिस में ड्राइवर था। राखी अपने काम से काम रखती थी, और कभी कभार जब सौम्या को देर हो जाती तो बच्चों के पास भी रुक जाती थी। उसने कभी बच्चों के पास रहने का कोई एक्स्ट्रा पैसा नहीं मांगा सौम्या से।सौम्या भी जो भी अपने बच्चों के लिए खाने पीने के लिए मंगवाती जाते वक्त राखी के बच्चों के लिए भी जरूर भेजती थी।
लॉकडाउन के बाद हालात वैसे ही बिगड़ गए।
जिन लोगों को लॉकडाउन की वजह से थोड़ा सुकून मिला था, अब काम धंधे, महंगाई की चिंता ने सारे सुकून को तबाह कर दिया था।
सौम्या बैंक में कर्मचारी थी, वो अब भी घर से अधिकतर काम कर रही थी। हरीश की छोटी सी फैक्ट्री थी, जिसमें काम काफ़ी कम हो गया था।
सौम्या चाहती थी की वो भी अब बैंक की नौकरी छोड़ कोई अपना छोटा सा स्कूल ही शुरू कर ले ताकि बच्चों को भी वक्त दे पाए। पर हरीश ने कहा अभी मेरी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है तो अभी तुम जॉब मत छोड़ो।
सौम्या के ऑफिस की साथी ने नौकरी छोड़ अपना बुटीक खोल लिया था और काफी तरक्की कर ली थी इस लॉकडाउन के बाद शादियों के सीजन में।
सौम्या को हर वक्त बस यही तनाव रहता की ये परिस्थितियां कब सुधरेगी। एक दिन सौम्या और हरीश के बीच झगड़ा बढ़ गया और हरीश बिना नाश्ता किए ही घर से चला गया।
सौम्या को भी गुस्सा आया और उसने भी खाना नहीं खाया। सौम्या बहुत टूटा हुआ महसूस कर रही थी, सोचते सोचते उसकी आंखों में आंसू आ गए।
राखी कॉफी बनाकर लाई -" दीदी! ये लो, आप उदास बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही।"
सौम्या को पता था राखी बिल्कुल भी कभी उनके घर के किसी मामले में ज्यादा ताक झांक नहीं करती थी, आज मन भी भारी था तो सौम्या बोल ही पड़ी -" हो जाता है राखी कभी कभी मन भारी। तुम भी अपनी चाय ले आओ। आओ बैठो थोड़ी देर।"
राखी भी अपनी चाय ले आई और वही लॉन में बैठ गए दोनों।
सौम्या ने पूछा - और बताओ बच्चे ठीक हैं तुम्हारे। कोई परेशानी तो नहीं। "
राखी -" नहीं दीदी। सब बढ़िया है। जब तक आपके यहां काम नहीं करती थी तो एक की कमाई से थोड़ा गुजारा करना मुश्किल हो रहा था। इसलिए पड़ोस की औरतों की तरह मैंने भी काम करना शुरू कर दिया !"
सौम्या -" अच्छी बात है। हमें आगे बढ़ने के लिए मेहनत तो करनी ही पड़ती है!"
राखी ने कहा दीदी एक बात बोलूं। छोटा मुंह बड़ी बात बुरा तो नहीं मान जाओगी।
सौम्या ने कहा -" नहीं नहीं। बोलो।"
राखी -" दीदी पहले मैं अपनी पड़ोसन को देखकर सोचती थी काश इसकी तरह मैं भी काम करूं। अपनी पसंद के कपड़े ला सकूं अपने बच्चों के लिए।
फिर काम शुरू किया। तो अब सोचती हूं काश ! मेरे पास भी एक छोटी सी कार हो। मोहल्ले से दूर अपना घर हो। फिर सोचती हूं मां कहती थी कभी इच्छाओं के कुएं में ना गिरना। कितनी भी सीढ़ी बनाओ। बाहर नहीं आ पाओगी। इसलिए अब खुश रहती हूं की जो मिला है वो भी बहुत है। बहुत से लोग उतना पाने के भी सपने देखते है। आपके पास सब कुछ है, जिसके सपने देखना भी हमारे लिए एक सपना है तो आप दुखी क्यों है।"
सौम्या को उसके मन के सारे सवालों के जवाब मिल गए थे।
साधारण सी राखी ने वो कर दिया जो 2 महीने से वो काउंसलर नहीं कर पाया जिसके पास सौम्या मोटी फीस देकर आती थी।
सौम्या ने राखी को देखा और उसके हाथ पर हाथ रखा। राखी डर गई की आज पहली बार तो कोई बात की थी अब तो दीदी मुझे धक्के मार कर बाहर निकल देगी। सौम्या कुछ कहती उससे पहले ही राखी बोल पड़ी -दीदी माफ कर दो। गलती हो गई।"
सौम्या ने कहा -" अरे राखी। तुमने तो मेरी सारी उलझन ही मिटा दी। तुम माफी क्यों मांग रही हो तुम तो इनाम की हकदार हो।"
सही कहा तुमने। जो प्राप्त है वही पर्याप्त है। मैं पहले खुश रहती थी! अब जबसे दूसरों के सुख की होड़ लगाई है अपनी पहले की खुशियां भी खो दी।
अब ऐसा नहीं करूंगी, अब मैं अपनी खुशी दोबारा मनाऊंगी।
ये सुनकर राखी के दिल को तसल्ली हुई की मेरी नौकरी बच गई।
दोनों ने चाय पी और अपनी खुशियों को फिर से घर बुला लिया।
दोस्तों! जो मिला है वही सच्ची खुशी है। खुश रहिए, खुशियां बांटिए।
धन्यवाद।