इंसानियत

इंसानियत

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काम खत्म कर घड़ी पर उसने नज़र डाली। आठ बजते देख फटाफट निकली तो आखिरी जाती हुई बस पकड़ कर भगवान का शुक्रिया अदा किया। लगभग खाली बस में उसने एक खिड़की पकड़ जंगले पर माथा टेक आँखे मूँद ली। ठण्डी हवा ने आँखों को झपकाया ही था की उसे अपनी दाहिनी बाजू पर कुछ स्पर्श महसूस हुआ। लगा कि कोई पैसेंजर बैठा होगा आकर, सोचते हुए उसने फिर से झपकी लेनी शुरू कर दी। थोड़ी ही देर में उसने फिर वही स्पर्श कंधे से थोड़ा नीचे बाजू पर महसूस किया.... क्रमशः दो तीन बार जब ऐसा हुआ तो उसने जबरन आंखे खोली और देखा बगल की सीट पर बैठा वो शख्स चोर नजरों से इधर-उधर देखते हुए फिर से स्पर्श करने की कोशिश कर रहा है। उसके थोड़ा सजग हो सिमट कर बैठते ही शख्स को अपनी तरफ सरकते देख घबरा कर बस में बैठे लोगों की तरफ नजर घुमाई.... कुछ अपनी सीटों पर बैठे ऊँघ रहे थे तो कुछ की नजरें उसी पर टिकी थी और वो उसके साथ होने वाली हरक़तों का आनंद ले रहे थे। किसी दुर्घटना की आशंका से ही उसका मन कांप उठा और देखा बगल में बैठा वो शख्स एक कुटिल मुस्कान लिए उसी की तरफ देख रहा है। बाहर से आती ठंडी हवा में भी अब सुकून नही लग रहा था की तभी उसने देखा कि कन्डक्टर उसी की सीट की तरफ बढ़ रहा है.... वो घबरा कर पसीने-पसीने हो गई। उसने चीखने की कोशिश करी लेकिन आवाज़ ने भी डर के मारे साथ ना दिया।

कन्डक्टर को अपने एक नज़दीक आया देख वो कुछ बोलने को हुई ही थी कि कन्डक्टर की आवाज़ उसके कानों में पड़ी.... 

"बस में इतनी जगह होते हुए भी यहीं बैठना जरूरी है क्या, कहते हुए उस शख्स को वहां से उठा दूसरी खाली सीट पर बैठा दिया और उसकी तरफ घूम कर बोला दीदी चिंता ना करो, आपको सही सलामत आपके स्टॉप पर उतारने की जिम्मेदारी मेरी है।" बोलते हुए वो फिर से बस के दरवाज़े की तरफ बढ़ गया और जो लोग अब तक नयन-सुख ले रहे थे कोई ऊँघ रहा था तो कोई बगलें झांक रहा था।



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