Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Abstract Drama

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Abstract Drama

हेतल और मेरा दिव्य प्रेम.. (6)

हेतल और मेरा दिव्य प्रेम.. (6)

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करीब करीब निर्जन उस स्थान से लगभग डेढ़ किमी दूर तक चलने पर मुझे, एक अर्ध विक्षिप्त प्रौढ़ महिला, एक वृक्ष के नीचे बैठा मिली। वह भूखी है। मैंने उसके पास बैठ, अपने बैग में रखी भोज्य सामग्री डिस्पोजल प्लेट्स में उसको दी हैं। जिन्हें, उसने सब बड़े चाव से खाया है। उसकी भूख मिटी, तब मैंने उसे जल पिलाया है। वह हिंदी समझ नहीं सकती है। किन्तु उसे किसी के अनुग्रह की समझ है। कृतज्ञ वह अतः मेरे संकेतों का अनुसरण करते हुए, मेरे पीछे महात्मा जी की कुटिया तक चली आई है।


जहाँ महात्मा ने, अपने सामने दोनों तरफ हम दोनों को आमने सामने बैठने के लिए आसन दिया है। फिर कुछ मिनट, अपने में लीन हुए है। मेरे देखते देखते उस प्रौढ़ महिला में परिवर्तन हुआ है। तब वह बोल ऐसे पड़ी है- यह मैं किस शरीर को अनुभव कर रही हूँ। (फिर मेरे तरफ इशारा करते हुए) बोली, जबकि मेरा शरीर तो यह सामने है। उसके हिंदी बोलने और शालीन व्यवहार से मुझे समझ आ गया है कि महात्मा ने विक्षिप्त महिला की आत्मा, हवा में करते हुए अभी उस शरीर में हेतल की आत्मा को ला दिया है। अब हेतल के शरीर में, मैं उसका पति, सामने महिला में हेतल, एवं महात्मा ऐसे तीन के बीच आगे के वार्तालाप ऐसे हो रहा है-


महात्मा- आपके पति कश्मीर में आतंकियों से मुठभेड़ में, जब शहीद हो रहे थे तब, मेरी दी गई शक्ति से, उन्होंने आत्मा की अदला बदली की थी और मृत्यु के समय आपकी आत्मा उनके शरीर में होने से, आपकी आत्मा आगे की यात्रा पर चली गई है। अभी आपकी आत्मा को मैंने, एक अन्य महिला के शरीर में बुलाया है। सामने, आपके पिछले जीवन का शरीर है, उसमें आपके पतिदेव की आत्मा होने से, वह जीवित शरीर है।


इतना परिचय कराते हुए महात्मा चुप हुए, आगे मैंने हेतल को संबोधित किया-

मैं- हेतल तुम मेरी मौत सहन नहीं कर पातीं, अतः मुझे यह करना पड़ा, मुझे क्षमा कर दो (फिर महात्मा की तरफ मुखातिब होते हुए), महात्मन क्या यह संभव है कि आप हेतल की आत्मा ही, इस हेतल शरीर में कर दें, ताकि हेतल अपना जीवन जी सके ?


हेतल- ना महात्मन, ऐसा संभव भी अगर है तो यह नहीं कीजिए मेरे इन पतिदेव ने अत्यंत भला काम किया है। मेरे शरीर को जीवन दे रखा है एवं स्वयं उसमें रहते हुए, बच्चों की परवरिश में उनकी माँ एवं पापा दोनों की भूमिका निभा रहे हैं। उन्होंने खुद मरते हुए भी, मुझे अनाथ वाले दुखद अहसास से बचाया है।

यह सब करना उनका, मुझसे अगाध एवं अनुपम प्रेम का होना जतलाता है। वास्तव में प्रेम कैसे निभाया जाता है, इसकी ये साक्षात मिसाल हैं। 


महात्मा- आप सही कहती हैं। मृत्यु से आत्मा को कोई हानि नहीं होती है। वह तो अनंत परिणमन शील है। उसके किसी शरीर से संयोग और वियोग तो एक सामान्य घटना ही है। 


जहाँ तक बात जीवन की है, तो आपके पूर्व शरीर को, जीवन अभी भी मिला हुआ है। प्रत्येक आत्मा निराकार एवं अनश्वर रूप से सदा अस्तित्व में होती है। शरीर के बिना, सभी आत्मायें एक सी हैं। उनमें ज्ञान की भिन्नता होती है। साथ ही किसी शरीर में रहते हुए, उसके द्वारा किये कर्मों एवं रहे भावों से उसकी आगे की गति, नियत होती है।


आपके पतिदेव के द्वारा किया कार्य ऐसे, आपकी आत्मा को कोई हानि नहीं पहुँचा सका है। यद्यपि उसमें अच्छा अभिप्राय होने से, आपके पतिदेव के सद्कर्म खाते में वृध्दि ही हुई है।  


आप देखिये आप (आत्मा) आगे की यात्रा पर निकल चुकी हैं लेकिन इस विलक्षण घटना के कारण, आपके पिछले जीवन के शरीर में, अभी भी प्राण हैं। उसे आपके ही पति की आत्मा ने जीवित रखा हुआ है। ऐसा होना आप दोनों और आपके बच्चों के लिए, किसी वरदान से कम नहीं है। 


हेतल- जी, महात्मन मगर मेरे पतिदेव इसे, अपराध बोध जैसा क्यों अनुभव कर रहे हैं? इन्होंने तो मुझ पर कितने ही उपकार किये हुए हैं। मैं हमेशा इनकी ऋणी रहूँगी। और यह आपकी प्रदत्त शक्ति से, मेरे पिछले जीवन के सारे कष्ट सहते आये हैं, इस हेतु मैं आपकी भी ऋणी हूँ। 


महात्मा- (हेतल की ओर देखते हुए) मुझे, आपको इसलिए ऐसे बुलाना पड़ा है कि आप जिसे उपकार कह रही हैं, आपके पतिदेव उसके लिए ग्लानि अनुभव कर रहे हैं। ये मुझसे कहने आये हैं कि मैं रूह की अदला बदली की शक्ति आगे किसी मनुष्य को न दूँ। मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए इसका दुरुप्रयोग करता है। 


यह सुन मैं चकित हुआ, मेरे महात्मा के पास वापिस आने का प्रयोजन तो यही था, मगर मैंने उनसे अब तक ऐसा कहा नहीं है। महात्मा अत्यंत दिव्य संत हैं, जो किसी के बताये नहीं जाने पर भी उसकी, हृदय-भावनायें पढ़ लेते हैं। मैं चुप ही था तब हेतल कह पड़ी-


हेतल- महात्मन पतिदेव सही कहते हैं। आप ऐसी शक्ति किसी को न दीजिये। हर मनुष्य, मेरे पतिदेव जितना महान नहीं होता है। इन्होंने कभी मुझे बताया नहीं तब भी, मुझे इनकी शक्ति का एहसास रहा था। इन्होंने यद्यपि कभी दुरूपयोग नहीं किया। इन्होंने जब जब शक्ति प्रयुक्त की, मेरी वेदनायें खुद सहन कीं, मुझे पीड़ाओं से बचाया है, लेकिन मुझे संदेह है कि अन्य कोई व्यक्ति भी ऐसा ही करेगा।


हेतल और महात्मा के बीच वार्तालाप मैं साक्षी भाव से सुन रहा हूँ।


महात्मा कहते हैं- जैसा आप दोनों चाहते हैं, वैसा मैं बार बार नहीं करता और आगे भी नहीं करूंगा। मैं हर किसी को ऐसी शक्ति नहीं दूँगा। मगर आगे भी कभी कभी मुझे यह करना होगा।


हेतल- मगर महात्मन, इस कभी कभी में तो, किसी अन्यायी को ऐसी दिव्य शक्ति मिल जाने की संभावना बनी रहेगी।


महात्मा- हेतल, आपको समझना होगा कि आपकी, इनकी और मेरी आत्माओं की अनंत यात्रा में फिर ऐसे अवसर आएंगे, जब मैं फिर कोई सिध्द पुरुष और आप दोनों फिर पति पत्नी होंगे। तब फिर ऐसी ही कोई दिव्य शक्ति, आपको दूँ तो बुरा कुछ नहीं होगा। क्यों कि आप दोनों भव्य जीव हैं। जिनकी आत्मिक यात्रा मोक्ष प्राप्ति की दिशा में है।


मुझे आप और आप जैसे ही कुछ भव्य जीवों को, उनके मोक्ष मार्ग में सहायता करनी होगी। ऐसी मेरी आत्मिक यात्रा की ताशीर एवं गुण हैं।


हेतल- जी महात्मन, मुझे आपकी बातें समझ आ गई हैं। निश्चित ही आप दिव्य संत हैं, जो सदा ही मनुष्य की भलाई के ही निमित्त रहेंगे।


अतः आप के कार्य में हमारी रोक टोक, हमारा अनावश्यक एवं प्रभावहीन प्रयास ही होगा। मुझे आप से या पतिदेव से कोई भी शिकायत नहीं है। 


मैं धन्य हूँ कि मेरा पिछला जीवन थोड़ा छोटा तो रहा लेकिन, अत्यंत सुखद रहा है। जिसमें मेरे पतिदेव और आपके माध्यम से रही उनमें शक्तियों की, छत्र छाया मुझ पर रही है। 


अतः पतिदेव के चाहे गए अनुसार अगर मैं वापिस, अपने पूर्व शरीर में जाती हूँ तो पति के बलिदान दे दिए जाने से, उनकी दिव्य छत्र छाया मुझ पर नहीं रहती है। जीवन में ऐसा वरदहस्त रहने के बाद, उससे वंचित होना मुझे गवारा नहीं है।


महात्मा- वास्तव में आपके पति और आपको इन बातों का सानिध्य, आपकी आत्माओं की पात्रता से मिला है। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। यह पात्रता ही, आप दोनों को मुझ तक लेकर आती रही/ आई है। अन्यथा आप देख रहे हैं, इस निर्जन में कोई मुझ तक आता नहीं है। 


मैं- महात्मन आपने, हेतल से यह ऐसी भेंट कराई है जिसमें, मुझे हेतल की निच्छल, निर्मल भावनाओं की, पुनः पुष्टि मिली है। इससे मेरा ग्लानि बोध मिट गया है।


हेतल- (मेरी ओर देखते हुए) नियति ने अब, अपने बच्चों के प्रति मेरे कर्तव्यों का बोझ भी आप पर डाला है। आप जितने महान हैं, इन कर्तव्यों को मुझसे भी बेहतर तरह से निभायेंगे, मुझे पूरा विश्वास है। 


महात्मा- हेतल आपको, अब यहाँ से मैं वापिस भेज रहा हूँ। आगे के किसी काल में, किसी अन्य रूपों में हमारी आत्मायें फिर मिलेँगी, तब तक के लिए, शुभ विदाई। 


ऐसा कहने के साथ महात्मा, कुछ क्षण स्वयं में लीन हुए। बाद में सामने महिला के शरीर से, हेतल की आत्मा चली गई एवं महिला की आत्मा वापिस आ गई।

तब मैं उस महिला को, पूर्व स्थान तक छोड़ने गया और उसे छोड़ कर कुछ और जिज्ञासा के निराकरण हेतु, वापिस महात्मा के समक्ष आया।


महात्मा से, मैंने पूछा - हे महात्मन, आपने मेरी आत्मा में भव्यता होना बताया है। जबकि मैं तो, उस आत्मा को भव्य जानता हूँ जो किसी के साथ, हिंसा से पेश नहीं आती है। जबकि मैं तो अपने सैन्य दायित्वों में, शत्रुओं का संहार करता रहा हूँ। 


महात्मा- आप सही कहते हैं, हिंसा प्रवृत्ति आत्मा की भव्यता की दृष्टि से हानिकर है। परन्तु आप उन को मारते रहे हैं, जो मासूम की हत्या कर रहे हैं। उनकी हिंसा प्रवृत्ति बुरी है। जिसके प्रतिफल में आपके द्वारा उनका अंत करना उनके कर्मों का फल है। आप उनके ऐसे हश्र में, निमित्त हैं। यह हिंसा प्रवृत्ति नहीं अपितु किसी की हिंसकता से, भोले नागरिकों का बचाव है। 


बुरे शत्रुओं का ऐसा संहार, आपके राष्ट्र और समाज के प्रति दायित्व में आता है। आपने जीवन यापन के लिए जो सैन्य सेवा ग्रहण की है ,

उनका निष्ठापूर्वक पालन का शुभ फल, आपके द्वारा की गई हिंसा को आपकी आत्मा के खाते में प्रभावहीन कर देता है। 

अहिंसा, अनुकरणीय है लेकिन राष्ट्र निष्ठा, सैनिक होने से आप का परम कर्तव्य होता है, यह किसी भी सैनिक से अपेक्षित ही होता है। 

एक सैनिक के रूप में आपसे शत्रुओं के वध के रूप में अनायास हिंसा ही नहीं हुई है, अपितु -

आपने कच्छ भूकंप आपदा एवं कश्मीर में बाढ़ के, पीड़ितों की जीवन रक्षा भी की है। आपका अंतिम लक्ष्य भला है। आपके ऐसे कार्यों एवं बलिदान को राष्ट्र ने सम्मानित किया है। 


इस तरह से आप भव्य हैं। आगे के अपने जीवन में परोपकारी कार्यों से आप, अपनी आत्मिक भव्यता में और वृध्दि करेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। 

कुछ काल के लिए शुभ विदाई!

इस तरह दिव्य महात्मा ने, मेरी सभी मानसिक उलझनों का बहुत सुंदर विवेचन किया था। जिसे स्मरण करते हुए, अब मैं लद्दाख से प्रसन्न चित्त लौट रहा हूँ ...

(नोट इस कहानी में दिव्य महात्मा पूर्णतः कपोल कल्पित है, इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। कृपया लद्दाख या कहीं और कोई ऐसे महात्मा की खोज न करे)  


(समाप्त)


   





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