गुलिस्तां के उल्लू
गुलिस्तां के उल्लू
प्रसिद्ध और मेरे पसंदीदा शायर रहे शौक़ बहराइची साहब ने एक मिसरा लिखा था जो मेरा प्रिय है, जो कि इस प्रकार है:
बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी है,
हर शाख़ पे उल्लू बैठे हैं अंजाम-ऐ-गुलिस्ताँ क्या होगा!
शौक़ साहब इशारों में बहुत कुछ कह गए हैं मगर इस शेर के पश्चात क्या होता है उल्लुओं का वो बताना भूल गए! ख़ैर! कुछ उल्लू एक होकर के राजनैतिक दल बना लेते हैं और अपने काम में लग जाते हैं! उस गुलिस्तां में मौजूद तोतों से मिर्ची के आजीवन वितरण का समझौता कर उन्हें पूरे गुलिस्तां में प्रचार के काम में लगा देते हैं! तोतों को रटवा दिए कि पक्षियों को घोंसले बनवा के दिए जाएंगे और चुग्गे की "सप्लाई" सीधे घोंसले में की जाएगी! चुनाव होते हैं और उल्लू जीतते हैं! चुनाव के बाद उल्लू कुम्भकर्णी नींद में सोते हैं और जितने भी पक्षी है वो स्वयं को उल्लू बना हुआ महसूस करने लगते हैं!
बाकी बचे गुलिस्तां के उल्लुओं में से कुछ कला का क्षेत्र चुनते हैं और कुछ पत्रकारिता को पेशे के तौर पे चुनते हैं! कला के क्षेत्र के उल्लुओं में से कुछ चलचित्र क्षेत्र में जाते हैं और कुछ लेखन के! इन उल्लुओं से राजनैतिक उल्लू मित्रता करते हैं और गुलिस्तां में मौजूद पक्षियों को उनके खान-पान, रंग, बोली के आधार पे लड़वाना शुरू कर देते हैं और इसी चक्कर में गुलिस्तां दो पाट हो जाता है!
जिसका फायदा उठाते हैं पत्रकार उल्लू और फिर एक राजनैतिक "ट्रेंड" चलाया जाता और धीमी पड़ती आग को फिर भड़काकर चंद पक्षियों को और हलाल करवाया जाता है!
गर कहूँ तो गलत न होगा कि:
वो गुलिस्ताँ आज भी धू -धू कर के जल रहा है,
अंजाम क्या होगा गुलिस्ताँ का पता चल रहा है!
उल्लू तो अभी भी शाख़ों पे आराम से सो रहे हैं,
घोंसले तो पंछियों को बेतहाशा तबाह हो रहे हैं!
तो उपाय एक ही है कि उल्लुओं को अँधेरे में ही रखो कि वो उजाला न देख पाएं और गुलिस्तां बर्बाद न कर पाएं!