घर और बच्चे तो स्त्री की ही जिम्मेदारी हैं!!
घर और बच्चे तो स्त्री की ही जिम्मेदारी हैं!!
मनीषा और नेहा बहुत अच्छी दोस्त हैं। मनीषा स्त्री-पुरुष समानता की वकालत करने वाली एक बहादुर और आत्मनिर्भर लड़की है। मनीषा को उसके घर परिवार में दिमाग वाली लड़की कहा जाता है। अपने मुखर विचारों के कारण उसे कई बार फेमिनिस्ट कहकर भी चिढ़ाया जाता है। लेकिन मनीषा को इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसका तो सपना इस दुनिया को एक ऐसी जगह बनाना है, जहाँ चाहे लड़की हो या लड़का, दोनों को समान रूप से सपने देखने और पूरे करने की आज़ादी हो। समानता नारों में ही नहीं, वास्तविक धरातल पर देखने को मिले। स्त्री या पुरुष से पहले सभी को इंसान समझा जाए।
मनीषा के पति समीर भी उसी की तरह से सोचने वाले हैं। समीर हमेशा मनीषा और उसके निर्णयों का सम्मान करता है, इस कारण समीर को भी उसके दोस्त और परिवार वाले 'जोरू का ग़ुलाम 'कहकर चिढ़ाते हैं। दोनों मिलजुलकर अपनी गृहस्थी को चलाते हैं।
लेकिन मनीषा भी इसी समाज का हिस्सा है। तो एक बार जब समीर बालकनी की झाड़ू निकाल रहा था तो मनीषा ने कहा कि, "यार, बाहर झाड़ू मत लगाओ। लोग क्या कहेंगे ?"
तब समीर ने कहा, "क्या कहेंगे ?अपने घर का काम कर रहा हूँ, और क्या ? जब तुम बाहर काम करने जाती हो, तब कुछ नहीं कहते तो मेरे अपने घर का काम करने से क्यों कुछ कहेंगे? देखो मनीषा, जब तक बदलाव देखेंगे नहीं, तब तक स्वीकार करना कैसे सीखेंगे ?"
तब मनीषा ने बस इतना कहा, "तुम सही कह रहे हो।"
अभी तक मनीषा और समीर ने बच्चा भी प्लान नहीं किया है। समीर का कहना है कि, "तुम तो बच्चे के लिए तैयार हो। लेकिन थोड़ा सा वक़्त मुझे और चाहिए ताकि मैं भी बच्चे को सम्हाल सकूँ। केवल फीडिंग ऐसा काम है, जो मैं नहीं कर सकूँगा। बाकी बच्चे के काम तो मैं भी कर ही सकता हूँ। तुम जब ऑफिस टूर पर जाओ, तो बच्चे को मैं ही तो रखूँगा। "
नेहा ने अपनी इसी सबसे अच्छी दोस्त से कॉफ़ी शॉप में मिलने का प्लान किया है। उसे कुछ महत्वपूर्ण बात डिसकस करनी थी।
"मनीषा,मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी यार। नौकरी के साथ घर मैनेज नहीं कर पा रही। " नेहा ने निराशा भरे शब्दों में कहा।
"क्यों ?क्या तू पागल हो गयी है, नेहा? तुझे एक महीने के भीतर प्रमोशन मिल रहा है। यह नौकरी तो तेरा सपना थी । तू नौकरी छोड़ने की बात सोच भी कैसे सकती है ?कितनी मेहनत के बाद तुझे यह नौकरी मिली थी। तू हमेशा से ही एक आत्मनिर्भर लड़की बनना चाहती थी। ",मनीषा ने आश्चचर्य मिश्रित रोष भरे स्वर में कहा।
" तू बिलकुल सही कह रही है। इसीलिए तो अभी तक इस्तीफ़ा नहीं दिया। भारी द्वंद्व में हूँ। जब मैं घर लौटती हूं तो, हमेशा एक ग्लानि सी महसूस करती हूं।सासु माँ तो हैं नहीं। मेरे ससुरजी की ठीक से देखभाल नहीं कर पा रही। खैर वे तो कभी कुछ नहीं कहते हैं। लेकिन मुझे ही लगता है, घर पर रहती तो उनका ज्यादा ध्यान रख पाती। मेरी एक साल की बेटी को मेरे हाथ का बना खाना नहीं मिल पाता। उसे क्रेच में छोड़ना पड़ता है । वह हमेशा मुझे याद करती रहती है। कभी-कभी जब मुझे अपने काम की वजह से घर पहुंचने में देर हो जाती है, तो मेरी छोटी सी राजकुमारी मेरा इंतज़ार करती -करती सो जाती है ।मैं स्वयं को अपराधी महसूस करती हूँ। ",नेहा ने अपने द्वंद्व और अपराध -बोध के बारे में मनीषा को बताया।
"ओह, तू भी डाटेरली गिल्ट से गुजर रही है। नौकरी छोड़ना इस समस्या का समाधान नहीं है।नौकरी छोड़ने से तेरी समस्या और बढ़ जायेगी। कुछ समय बाद तेरी बेटी बड़ी हो जाएगी और फिर उसकी अपनी दुनिया होगी । तू उसकी दुनिया का एक हिस्सा मात्र होगी। तू चाहे तो कुछ दिन की छुट्टी ले ले और थोड़ा समय अपनी बेटी के साथ बिता ले । तुने कभी सोचा है कि इस तरीके के द्वन्द्व और अपराधबोध से हम औरतें ही क्यों गुजरती हैं ? क्या तुने कभी भी अपने पति तुषार से ऐसे शब्द सुने हैं ? मुझे यकीन है कि तुने तुषार से कभी ऐसा कुछ नहीं सुना होगा ।वास्तव में, किसी भी पुरुष से नहीं सुना होगा। " मनीषा ने नेहा को अपना नज़रिया बताया।
"मनीषा, क्योंकि घर हमारी ज़िम्मेदारी है।यह पुरुषों की ज़िम्मेदारी नहीं है " नेहा ने कहा।
"यह ज़िम्मेदारी का बंटवारा किसने किया ?यह किसने तय कर दिया ? घर भी दोनों की ही जिम्मेदारी है। अगर स्त्री बाहर की ज़िम्मेदारी उठा रही है तो पुरुष को भी घर की ज़िम्मेदारी उठानी होगी न। लेकिन बचपन से हम जिस वातावरण में पलते बढ़ते हैं, उसके कारण हमारी मानसिकता ऐसी हो जाती है कि घर, बुजुर्गों और बच्चों की देखभाल करना एकमात्र हमारी यानि स्त्री की जिम्मेदारी है। उसमें थोड़ी सी भी ऊंच -नीच होने पर हम अपराध -बोध से घिर जाते हैं। ”, मनीषा ने पानी के घूँट पीने के लिए विराम लिया ।
"लेकिन हम भी ह्यूमन हैं, सुपर ह्यूमन नहीं ।हम हर काम में परफेक्ट नहीं हो सकते हैं। हमारी कुछ सीमाएं हैं। इसलिए अपने आपको अपराधी मत समझो । तू अपना सर्वश्रेष्ठ दे रही है । तुझे अपनी जिम्मेदारियों को तुषार के साथ साझा करना चाहिए। अगर तू भी अपनी बेटी की परवरिश के लिए नौकरी छोड़ देगी तो उसे भी जाने अनजाने में यही सीख देगी न कि घर और बच्चे तो स्त्री की ही जिम्मेदारी है। ”मनीषा ने नेहा की तरफ देखते हुए कहा।
" तू शायद सही कह रही है ।मैं बचपन से जो देखते आ रही हूँ, उसी के प्रभाव में आकर नौकरी छोड़ने का विचार करने लगी थी। मेरी मम्मी ने मुझे यही सिखाया और शायद मैं अपनी बेटी को भी यही सिखाने जा रही थी। लेकिन अब मैं अपनी बेड़ियाँ अपनी बेटी को नहीं दूँगी। मेरी बेटी को एक बेहतर दुनिया देने की कोशिश करूंगी ",नेहा ने आत्मविश्वास से कहा.
"और एक बात तो सुन। क्या तुषार को अपनी बेटी और अपने पापा से प्यार नहीं होगा ?क्या वह अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझता होगा ?निश्चित तौर पर होगा, लेकिन फिर भी वह कभी अपराध -बोध से नहीं गुजरता होगा। कोई भी पुरुष नहीं गुजरता, जो अपनी परिवार की आर्थिक जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाते, वह पुरुष भी नहीं गुजरते। तू तुषार से बात करेगी, तब ही तो उसे पता चलेगा। जब हम बात ही नहीं करेंगे तो, कैसे कोई जान सकता है कि हम किसी समस्या का सामना कर रहे हैं। ",मनीषा ने कहा।
"हाँ, तू सही कह रही है। हम कभी अपने मन की बात बताते नहीं हैं, सोचते हैं कि पति अपने आप समझ जाएँगे। अगर बता दे तो कई समस्याएं सुलझ जाएँ। ",नेहा ने कहा।
