Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Classics

3  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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गद्दार

गद्दार

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हम चार साथियों का लक्ष्य चिल्लीपोरा आर्मी कैंप पर बम बारी करके, वहाँ सेना के जवानों को बड़ी संख्या में मारने के था। हम इस लक्ष्य से वहाँ घुसे थे। वहाँ मौजूद सुरक्षा बल की सतर्कता ने हमें कामयाब नहीं होने दिया था। तब, उनकी फायरिंग से बचते हुए, हम भागे थे। 

हमारा भाग्य था कि हमें गोलियां नहीं लगीं थी, मगर सुरक्षा बल के जवान हमारे पीछे लग गये थे। जान बचा कर भाग रहे हम, शोपियां के हेफ शरीमल में इन सुरक्षा बलों से घिर गए थे। तब उनसे बचने के लिए, हम एक घर में घुस आये थे। हमने घर की चार औरतों को, बंधक बना लिया था। 

हमारे कमांडर ने घर के दो पुरुष एवं तीन छोटे बच्चों को बाहर भगा दिया था। ताकि सुरक्षा बलों को, ये महिलाओं के बंधक होने की जानकारी दे सकें। यह हमारी योजना का हिस्सा था। हमें पता था कि चार निर्दोष औरतों के घर में होने की जानकारी से सेना के जवान, घर को बारूद से ध्वस्त करने की कार्यवाही नहीं का सकेंगे। 

वास्तव में चिल्लीपोरा आर्मी कैंप को निशाना बनाने का काम, हमारे कमांडर को, पाकिस्तान से संचालित, हमारे संगठन द्वारा सौंपा गया था। यह ज़िम्मेदारी लेते हुए हमें मालूम था कि पिछले कुछ माहों से ऐसे काम को अंजाम देना, पहले से बहुत ज्यादा खतरनाक हो गया था।

हमारी तमाम सावधानियों के बावजूद हमारा मंसूबा, सुरक्षाबलों को पता चल गया था। शायद उन्होंने हमारे संगठन मुख्यालय और हमारे बीच के कम्युनिकेशन को इंटरसेप्ट कर लिया था। 

मैं अपने साथियों में सबसे नया था। हमारे साथ, हमारा कमांडर पाकिस्तान का था। उसे हमारे कश्मीर में आतंकवाद के पस्त होते हौसलों में नई जान फूँकने के लिए तैनात किया गया था। बाकी के हम तीन लड़के, दक्षिण कश्मीर के विभिन्न गाँवों के थे। 

कमांडर 30 साल का सबसे ज्यादा अनुभवी आदमी था। मैं सबसे छोटा, बीस की उम्र का था। 

मेरे लिए यह पहला मौका था जब हमारी, सेना से सीधी मुठभेड़ हो रही थी। 

कमांडर ने मुझे बंधक औरतों के ऊपर नज़र एवं नियंत्रण रखने के निर्देश दिए थे। कमांडर और बाकी दो साथी, घर की सभी तरफ की खिड़कियों पर से, बाहर सेना की गतिविधियों पर निगरानी कर रहे थे। 

अभी सूर्यास्त का धुँधलका छाया हुआ था। कमांडर की योजना रात के अंधेरे के, प्रतीक्षा करने की थी। तब तक हम सभी को सुरक्षित रहने के उपाय करने थे। बाद में अंधेरा होने पर अवसर देख कर, इन्हीं औरतों को कवर बनाते हुए, घने जंगलों में भाग निकलना था। 

कमांडर एवं शेष साथी खिड़कियों से, थोड़े थोड़े अंतराल में गोली दाग रहे थे ताकि सेना के जवान घर के बहुत करीब नहीं आ सकें। बीच बीच में, सामने से भी फायरिंग हो रही थी।

मुझे यह विचार परेशान कर रहा था कि जैसे जैसे समय बीतेगा वैसे वैसे, सेना जवानों की संख्या बढ़ जायेगी। तब उन के घेरे से हमारा जीवित बच निकलना, मुश्किल हो जाएगा। 

मैंने कमांडर से यह कहा भी किंतु उसने, यह कहते हुए मुझे चुप करा दिया कि ‘अपना दिमाग ना लगाओ। जैसा मैंने कहा है उसके अनुसार ही, इन औरतों पर निगरानी रखो’।

मैं घबराया हुआ था तब भी अपने भय पर नियंत्रण करते हुए, औरतों के तरफ ध्यान देने लगा। इनमें एक विधवा बूढ़ी, एक अधेड़, एक 40 के लगभग उम्र की शादीशुदा औरत थी एवं चौथी, एक कमसिन, मेरी उम्र की लड़की थी। 

लड़की के अतिरिक्त सभी घबरायी एवं सहमी हुईं थीं। लड़की मुझे दया भाव से निहार रही थी। 

मैंने, उससे पूछा - ऐसे क्या देखती है?

उसने कहा - तेरी उम्र मरने की नहीं, जीने की है। 

मैंने कहा - परतंत्र जीने को तू, जीना कहती है?

उसने कहा - तू काहे का परतंत्र है? जिस देश में पैदा हुआ, उसमें ही तो रहता है। तू पाकिस्तान का तो लगता नहीं?

मैंने कहा - मैं पाकिस्तान का होता तो स्वतंत्र होता। इस भारत ने देखती नहीं, हमारे सब विशेषाधिकार खत्म कर दिए हैं?

उसने जबाब दिया - मुझे तो लगता है भारत तो हमें, परतंत्र नहीं रखता लेकिन तेरे जैसों की सोच एवं करनी से, हम परतंत्र होने से बुरे जीवन जीने को बाध्य हैं। 

मैंने पूछा - मैंने, क्या किया है?

उसने कहा - तेरे जैसे लड़के और पुरुष, हम लड़कियों पर अनेक पाबंदी लगाकर, अपने सम्मान का प्रश्न बनाकर, हमें अपढ़ गँवार रख, आजीवन हमें घरों में बंद रखते हैं। ऐसे रह कर तू देख तो जरा! तुझे परतंत्र होना क्या होता है, समझ आ जायेगा। 

लगता है कमांडर के कानों में हमारी बातें पड़ गई थी। एकाएक वह आया। उसने लड़की के मुहँ पर एके47 की नोंक रख दी, बोला - अपनी चपर चपर बंद कर. मेरा दिमाग़ ख़राब कर रही है, अभी एक गोली से हमेशा को चुप कर दूँगा, समझी? 

फिर वह मेरे पर चिल्लाया - तुझे क्या लग रहा है, यहाँ बच्चों का खेल हो रहा है जो तू इसको मुहँ लगाये हुए है? सबके मुहँ और हाथ-पैर बाँध। मुझे सामने की फायरिंग से बचना है, इसकी बक़वास नहीं सुनना है, समझा?

फिर वह वापिस खिड़की पर से, बाहर नज़र रखने लगा। मैंने वहाँ रखी संदूकों में से, कुछ ओढ़निया निकालीं और सभी के हाथ-पैर एवं मुहँ पर बांधना शुरू कर दिया। 

मैंने चारों को बांध दिया था। हमारे पास के खतरनाक हथियारों से वे सब भयाक्रांत थीं। अतः ज्यादा प्रतिरोध नहीं किया था। 

मैंने दिखावे में कमांडर के आदेश का पालन किया था। वास्तव में मैंने, सभी को इस तरह ढ़िलाई से बाँधा था कि उन्हें ज्यादा असुविधा न हो।

वास्तव में, जब मैं लड़की को बाँध रहा था तो उसके रुआँसे हुए चेहरे को देख, मुझे अपनी मंगेतर, नबीहा की याद आ गई थी। छह माह पहले जब से मैं, घर से भाग आया था तब से मैंने, उसे देखा नहीं था। 

पता नहीं सब लड़कियाँ एक जैसा कैसे सोच लेतीं हैं। वह भी इसी लड़की की तरह ज़िंदगी की बात करती थी।

मुझे ज़िंदगी में नबीहा का साथ तो चाहिये था, मगर स्वतंत्र कश्मीर में। इसी विचार से प्रेरित मैं कश्मीर को स्वतंत्र करने की लड़ाई लड़ रहा था। 

इस बीच अंधेरा हो गया, साथ ही बाहर से फायरिंग बहुत बढ़ गई। तब मुझे लगने लगा कि आज मेरा बच पाना कठिन है।

तभी कमांडर ने कहा - इन के पैर खोल दो। हम सभी को इनमें से एक एक की आड़ लेते हुए बाहर निकल कर, जंगल में भागना है। जितनी संख्या जवानों की बढ़ रही है उसे देखते हुए, और देर करना अब हमारे लिए अच्छा नहीं होगा। 

बाहर सुरक्षा बलों के द्वारा अब स्पीकर से अनाउंस किया जाना लगा था - अपनी जान की खैरियत चाहते हो तो औरतों को मुक्त करो एवं सरेंडर कर दो। 

हमें ट्रेनिंग में बताया गया था कि आत्मसमर्पण करने के बाद की प्रताड़ना सहने से, मर जाना ज्यादा आसान होता है। आत्मसमर्पण कायरता एवं लड़ाई में मरना मज़हब की महान सेवा है। हमारा आज का ऐसे मरना, आगे के समय में स्वतंत्र कश्मीर के लिखे जाने वाले इतिहास में, हमें हीरो बताएगा, हमें यह सब बताया गया था। 

हमारे कमांडर सहित अन्य दोनों ने, एक एक औरत को साथ लिया था एवं बाहर निकले थे। कमांडर चिल्ला कर कह रहा था - अगर हम पर फायर किया गया तो हम, इन बंधक औरतों को मार देंगे। 

इसे सुन कर पहले, सामने तरफ से फ़ायरिंग कुछ थमी थी। मगर बाद में फिर एकाएक बढ़ गई। मैं डर रहा था, मुझे लग रहा था टॉर्चर होना बाद की मुसीबत है, मेरी जान पर तो अभी ही मुसीबत है। 

हमने बत्तियाँ बुझा रखी थी। कंदील के हल्के उजाले में, अपने अलावा घर में बच रही लड़की के चेहरे को मैंने देखा, उस पर मुझ जैसी दहशत नहीं थी। 

मैंने पूछा - यहाँ जान पर बनी है, तुझे घबराहट नहीं होती?

उसने कहा - तू डर, तू गद्दार है। मुझे कोई डर नहीं मैंने कोई अपराध नहीं किया है। 

मुझे उसका गद्दार कहना गड़ रहा था। फिर भी मैंने रिएक्ट नहीं किया था। उसमें मुझे, मेरी नबीहा के अक्स दिख रहे थे। 

तभी बाहर की फायरिंग में, दर्दनाक चीखें सुनाई पड़ी थीं। लगता था कमांडर को गोली लगी थी। फिर एकाएक भारी शोरगुल सुनाई पड़ा था।


गद्दार,,,,2


ऐसी मुठभेड़ के अवसरों पर जैसा पूर्व में होते आया था वैसा ही हुआ लग रहा था। 

लड़की ने मुझ जैसों को, जिस बात के लिए गद्दार कहा था, वैसे ही, गाँव से कुछ गद्दार निकले थे। उन्होंने हम आतंकवादियों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले जवानों पर, पत्थरों से हमला किया था।  

बाकी तीन मेरे साथी बच पाते हैं या नहीं मुझे पता नहीं, मगर अब मची अफरा तफरी में, मोर्चा खोले जवानों का ध्यान दो तरफ बँटा था। उसमें मुझे अपने बचने की उम्मीद दिखाई दी। 

मैंने लड़की का हाथ थामा एवं उसे अपने साथ बाहर आने को मजबूर किया। कोई सैनिक पास ही था उसने, हमारी आहट सुन फायर किया। गोली लड़की के माथे पर लगी। वह बेजान होकर मेरी बाँह में झूल गई। 

बिना किसी गलती और अपराध के मेरी जैसी युवा अवस्था में ही, उसके मारे जाने के लिए जिम्मेदार, मैं था। तब मगर दुर्भाग्यपूर्ण रूप से मैंने निपट स्वार्थ का परिचय दिया था। 

मैंने, उसके बेजान शरीर को परे धकेल दिया था। मुझे अब अपनी जान की पड़ी थी। 

यह प्रश्न आगामी जीवन में मेरे खोज का विषय होने वाला था कि दो भिन्न शरीर में, एक जैसे प्राण होने पर, हम अपने प्राणों की जिस तरह परवाह करते हैं वैसे, दूसरे के प्राणों की क्यों नहीं कर पाते हैं? 

अपने प्राण बचाने की चिंता में मगर अभी यह समय, इन बातों के सोचने का नहीं था। अपने जीवन पर संकट दूर करने के लिए मैं, अंधेरे में एक तरफ भागने लगा था। तब एक गोली, मेरी दाहिनी भुजा के मांसल भाग को चीरती हुई, आरपार हो गई थी। 

मेरे हाथ से एके47 छूट गई। इसकी परवाह नहीं करते हुए मैं, एक तरफ भाग निकला। बाँह में तीव्र पीड़ा हो रही थी, लेकिन अभी रुकने से मुझे जान से हाथ धो देने का खतरा लग रहा था। 

अत्यंत वेदना की हालत में भी, मैं, अंधेरे में अंधाधुंध भागा जा रहा था। फायरिंग एवं शोरगुल की आवाज पीछे छूटते जा रही थी। तभी भागते हुए मेरा पैर, हवा में रह गया। सामने शायद खाई थी, मैं उसमें गिरा था। 

फिर मैं सैकड़ों फिट फिसलता-लुढ़कता गया था। बाँह में लगी गोली एवं खाई में गिरने से लगे जख्मों ने, मेरे होश उड़ा दिए थे। 

कई घंटों बाद मुझे वापिस होश आया था। गोली के घाव से बहे खून ने, मुझे अत्यंत कमजोर किया था। मगर मुझे, पूरा माजरा ख्याल आ गया था। 

कमजोर हालत में मैंने, अपने से लिपटा एक कपड़ा अनुभव किया। वह शायद उस लड़की का हिजाब था। मैंने उसे, अपनी जख्मी भुजा पर, दूसरे हाथ के प्रयोग से जैसे-तैसे बांधा था ताकि खून बहना रुक सके। 

आश्चर्य जनक रूप से खतरे के इन पलों में भी मुझ पर भावुकता हावी हुई थी। मैं सोच रहा था कि अपने स्वार्थ में मैंने, उसे मर जाने दिया था। फिर भी, मर कर भी वह मेरे घाव से बहते खून को अपने वस्त्र से रोक रही थी। इस तरह सोचने से, मेरी आँखे नम हो गईं थी। 

फिर सिर झटक कर मैंने अपने भावुक हृदय पर काबू किया था। अपनी पूरी हिम्मत बटोर कर, मैं चलने लगा था। उजाला होने के पहले ही, वहाँ से अधिक से अधिक दूर निकल जाने में ही खैरियत समझते हुए, मैंने अपनी चाल तेज की थी। 

पतलून की जेब में हाथ डालने पर उसमें, मुझे चॉकलेट मिलीं। ताकत हासिल करने के लिए मैं, उन्हें खाने लगा था। 

मैंने मोबाइल में पहले गूगल मैप खोल कर, लोकेशन समझी थी। फिर उसमें से सिम निकाल कर तोड़ कर फेंक दी। आतंकी मुख्यालय से संपर्क न रखने के विचार से मैंने ऐसा किया था। 

यह अच्छी बात थी कि मेरे पास पावर बैंक पूरा चार्ज था। अब मैं, मोबाइल का प्रयोग जंगल में रास्ता ढूँढने के लिए रोशनी करने के लिए कर रहा था। उसकी रोशनी से कोई मुझे तलाश न कर ले इस हेतु मैं, उसे लगातार ऑन नहीं रख रहा था। मैं एक दिशा लेकर आगे बढ़ रहा था। 

मैं कमजोर लड़का था। यह बात लड़की के मेरी बाँहों में दम तोड़ देने से मुझे पता चली थी। मैं आतंक के काम से, अब छुटकारा चाहता था। 

रास्ते में मुझे एक सेब के बगीचे से लग कर बनाया गया एक अस्थाई आशियाना दिखा था। मैं उसमें भीतर घुसा था। इस समय वहाँ कोई नहीं था। 

वहाँ रखे एक संदूक में खोजने पर उसमें मुझे मेरे चाहे, मर्दाना कपड़े मिल गए थे। मैंने अपने कपड़े उतार कर, उन्हें पोटली की तरह बाँधा था। तब संदूक से निकले कपड़ों को अपने शरीर पर डाला था। ऐसा करते हुए मैं, अपनी आतंकवादी होने की पहचान छुपाना चाहता था। इन्हें पहन कर मैं वहाँ का साधारण निवासी दिखना चाहता था। 

अपनी पीठ पर टाँगे बेग में से, मैंने सारा गोला बारूद निकाल कर, अपने उतारे गए कपड़ों में बाँध दिया था। मैंने बैग में रखे, दोपहर में पैक कराये गये, खाने के पैकेट्स और एक चाकू को उसमें रहने दिया, साथ ही बाग से कुछ सेब तोड़कर रख लिए थे। 

चलते हुए तब तकरीबन 1 किमी आगे मैं, नदी किनारे पहुँचा था। 

कपड़े एवं गोला बारूद की पोटली के साथ एक बड़ा पत्थर रखते हुए उसे, मैंने नदी के बीच प्रवाह में फेंक दिया। 

फिर मैं, बहती नदी में, बहाव के विपरीत दिशा में उथली जल धारा में किनारे किनारे चलने लगा था। ऐसा मैंने सेना के प्रशिक्षित कुत्तों को झाँसा देने के लिए किया ताकि उनकी मदद से मुझे खोजे जाने पर, वे यहाँ आकर भ्रमित हो जायें। 

कुछ दूर ऐसा चल के अब मैं, खुद को सुरक्षा बलों की फायरिंग के साथ ही जल्दी खोज लिए जाने के खतरे से खुद को दूर अनुभव कर रहा था। 

नदी से निकलकर वापिस जंगल के रास्ते में आने पर मुझे रात के अंधेरे में जंगली जानवरों की जब तब गूँज रहीं डरावनी आवाजें डरा रहीं थीं। मैं अल्लाह को याद कर रहा था। दुआ कर रहा था कि इस बार की मुसीबत से वह, मुझे निकाल दे। 

मैंने मोबाइल में समय देखा रात के दो बज रहे थे। इससे अंदाजा हुआ कि शायद मैं करीब पाँच घंटे बेहोश रहा था। चलते हुए मैं सोच रहा था कि आगे यदि कोई अन्य मुसीबत नहीं आती है तो सुबह होने के पूर्व मैं, यहाँ से 10 किमी दूर पहुँच सकता था। 

मैं चाहता था कि आगे दो दिन मैं जंगलों में ही छुप कर रहूँ। तब तक मेरे जख्म कुछ भर जायें साथ ही मुठभेड़ का ज्यादा समय बीत जाने से मामला कुछ ठंडा पड़ जाये। 

तब समय बीतने के साथ ही मैं, घटना की जगह से अधिक दूर भी हो जाऊँगा। 

उस समय मेरा लोगों के बीच आकर, बस या अन्य साधन से अपने गाँव पहुँचना ज्यादा सुरक्षित हो जाएगा। 

इस तरह आगामी दिनों के लिए मेरी योजना तय कर लिए जाने के बाद, मुझे थोड़ी राहत अनुभव हुई। अब मुझे उस लड़की से संक्षिप्त रह गया, अपना साथ याद आ रहा था। मैं सोचने लगा उसकी छोटी सी उम्र, उसके मन में रहे अनेक सवाल और ऐसे में उसकी, बिना कोई भूल या अपराध के, उस मासूम की ज़िंदगी खत्म हो गई थी। 

यह सोचते हुए मुझे अपने भीतर अत्यंत ग्लानि अनुभव हो रही थी। हम अगर सुरक्षा बलों से बचते हुए उसके घर में जबरन दाखिल न हुए होते तो वह बेचारी यूँ नहीं मारी जाती। मैं सोचने लगा, नहीं, हमारा यह जूनून ठीक नहीं है। 

मैंने स्वयं अपने से प्रश्न किये कि - हम किसके लिए अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं? जिनके लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। उनके ही बेमौत मारे जाने का कारण हो रहे हैं। इस लड़ाई में हमारे निर्दोष एवं मासूम लोग ही नहीं बल्कि मेरे जैसे युवा भी, आतंकवादी बन कर असमय मारे जा रहे हैं। 

स्टेटिस्टिक्स बताती थी कि आतंकवादी होकर, औसत रूप से दो वर्षों के भीतर ही लगभग सभी जिहादी लड़ाके, जिंदगी गँवा रहे हैं। इस जिहाद से, किसे और क्या हासिल हो रहा है?

तब मैंने देखा कि मेरे भीतर से ही मेरे सामने, एक साये ने उस लड़की की आकृति ली थी। वह मुझे, मेरे सवाल के जबाब देते हुए बता रही थी कि - तुम्हें उकसा कर पड़ोसी देश, भारत में आतंक फ़ैलाने की कोशिश करता है। वहाँ के राजनीतिज्ञ, इस तरह वहाँ राज करते हैं। अपनी पहचान आतंकवादी की बनाकर, दुनिया की नज़र से छुपे बैठे लोग, वहाँ वीआईपी का दर्जा हासिल करते हैं। 

खुद अपनी पूरी ज़िंदगी मुकम्मल करते हैं। जबकि जिन्हें जिहादी बना, घाटी में भेजते हैं वे, असमय युवावय में ही मारे जाते हैं। ऐसी ही राजनीति यहाँ घाटी में कुछ लोग करते हैं। खुद रुतबेदार जिंदगी जीते हुए ऐशो-आराम में रहते हैं। अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए, विदेश में रखते हैं एवं तुम्हारे जैसे परिवार के युवाओं को ख़ूनख़राबे की फ़िज़ा बनाकर, ज़ाहिल ही रह जाने को मजबूर करते हैं। 

तुम्हारा ब्रेन वॉश करके, तुम्हारे ज़ेहन में मजहब के नाम पर विद्रोही विचार डालते हैं। जिससे उपजी हिंसा में तुम और मेरी तरह के मासूम अकाल मारे जाते हैं। भारत इस सब को नियंत्रित करने में अरबों-खरबों रुपया लगाता है। 

अगर यूँ भटकाये गए लोग, इस तथाकथित आज़ादी के लिए ना लड़ें तो कश्मीर में अमन के हालात हो सकते हैं। तब भारत का यही बजट, कश्मीर की उन्नति में लगाया जा सकता है। जिससे किये जा सकने वाले विकास से, हम घाटी के लड़के-लड़कियाँ, पर्याप्त रूप से शिक्षित हो कर, अच्छे रोज़गार का मौका हासिल कर सकते हैं। 

साथ ही धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले हमारे कश्मीर में, दुनिया के पर्यटक को पुनः आकर्षित कर सकते हैं। ऐसा होने पर हम सबका जीवन स्तर ऊँचा उठ सकता है।

इतना कह कर लड़की का साया ओझल हो गया। मेरे व्यथित मन में तब लड़की को लेकर काव्यरूप, एक हृदय अभिव्यक्ति यूँ आई थी -  


एक खूबसूरत ज़िंदगी की मौत देखी थी 

बाँहों में बड़े करीब से एक मौत देखी थी 

ज़िंदगी के लिए ख्याल बदल दिए जिसने 

मेरी बदकिस्मती मैंने वह मौत देखी थी 


मरना मुझे चाहिए था कि दोषी मैं था

मैं कायर मैंने मासूम की मौत देखी थी

जीवन की ललक आँखों में थी उसकी 

जी न सकी मैंने उसकी मौत देखी थी


हो जाए यदि मेरा सपना पूरा तो क्या

हो जाए कश्मीर अब आज़ाद भी तो क्या

झूल मेरी बाँहो में उसने ली अंतिम श्वाँस

न बचा जीवन उसका मिला कुछ तो क्या

(क्रमशः)


3. सपना और उसमें दुविधा 

तंद्रा में डूबे हुए चलते चलते मेरे विचारों में, वह मारी गई लड़की एवं नबीहा छाई हुईं थी। इसी से मेरे मन में एक भयानक प्रश्न, कल्पना बन कर उभरा। वह यह कि जिस प्रकार कल हम, उस लड़की के घर में जबरन दाखिल हुए थे, ऐसे ही कोई अन्य आतंकवादी मेरी नबीहा के घर में घुस जायें एवं नबीहा इस लड़की की तरह मारी जाये तो? 

इस कल्पना से मेरे शरीर में सिहरन पैदा हुई थी। तब मैं सोचने को बाध्य हुआ कि वह लड़की भी, मेरी नबीहा के तरह किसी की मंगेतर रही होगी। 

इससे मेरा अपराध बोध और भी गहरा हो गया था। यही अपराध बोध मेरे आगामी जीवन के लिए टर्निंग पॉइंट साबित होने वाला था। 

मेरी तंद्रा तब भंग हुई थी जब, बाजू से अचानक मेरे सामने, दो कुत्ते आ गए जो मुझ पर भौंक रहे थे। एक बारगी मुझे ऐसा लगा जैसे सुरक्षाबल के जवानों ने मुझे खोज निकाला है। लेकिन यह मेरी आशंका मात्र सिध्द हुई थी। वास्तव में ये जंगली कुत्ते थे।  

अंधेरे में इनकी भयावह रूप से चमकती दो जोड़ी आँखों ने, मुझे आतंकित कर दिया। मुझे पछतावा हुआ कि क्यूँ मैंने अपने बैग का गोला बारूद फेंक दिया था, अन्यथा इन कुत्तों से आसानी से निबटा जा सकता था। 

मेरे दिमाग में तभी एक युक्ति आई। मैंने, मेरे बैग में रखी बिरयानी एवं गोश्ताबा के पैकेट्स उनके सामने खोल कर ज़मीन पर रख दिए।

कौतूहल में उन्होंने भौंकना बंद किया एवं जब मैं वहाँ से थोड़ा हट गया तो वे उस खाने पर टूट पड़े। अब वे खाते हुए आपस में ही लड़ रहे थे बिलकुल ऐसे, जैसे कश्मीर को लेकर दो कौमों के खुदगर्ज लोग आपस में लड़ रहे थे।

कुत्ते तो लड़ भिड़ कर थोड़ा कम ज्यादा खाकर शांत हो गए थे। जबकि हमारी कौम ने संख्या में अधिक होने से कश्मीर से, पंडितों को पूरी तरह बेदखल कर दिया था। 

हमने कुत्तों से अधिक स्वार्थ लोलुप होने का परिचय दिया था। मैं सोचने लगा यदि ऐसा नहीं किया गया होता तो शायद आज कश्मीर में अमन चैन रहता। 

हम सब मिलकर ज़िंदगी मजे से जी रहे होते। ना मासूम लोग मारे जा रहे होते ना मेरे जैसे बरगलाये गए कश्मीर के लड़के मारे जा रहे होते और ना ही देश के सुरक्षा में तैनात जवान शहीद हो रहे होते।

तरह तरह के विचारों की तंद्रा तब भंग हुई थी जब मुझे, पक्षियों का कलरव सुनाई दिया। साफ़ था, जल्द ही अब नई सुबह का प्रकाश फैलने वाला था। मैंने अनुमान लगाया कि अब मैं, हेफ शरीमल से लगभग दस किमी दूर आ चुका था। बीच जंगल में, इस समय मैं अकेला इंसान था। 

यहाँ मुझे सेना से कोई खतरा नहीं था। दिन निकलने पर जंगल के जानवरों से भी खतरा कम हो जाएगा सोच कर मुझे तसल्ली हुई थी। 

घावों की पीड़ा, लड़की एवं नबीहा के विचार सहित अपनी जान की चिंता में पूरी रात जागते-चलते बीती थी। अब मैं कुछ घंटे सोना चाहता था। 

जब आकाश में सुबह की लालिमा दिखने लगी तब मैं, अपनी दृष्टि सब तरफ दौड़ाते चल रहा था कि कौन सा स्थान, मेरे सोने के लिए ज्यादा सुरक्षित होगा।

कुछ दूर पर मुझे एक ऊँची चट्टान दिखाई दी थी। इसकी ऊपरी सतह समतल थी। इस पर किसी साधारण व्यक्ति या जंगली जानवर का चढ़ पाना कठिन था। जबकि मैंने, मुझे मिली ट्रेनिंग से ऐसी चट्टानों पर चढ़ना सीखा था। मैं, थोड़े प्रयास में उस पर चढ़ गया था। फिर अपने हाथ पैर फैला कर चट्टान पर पसर गया था। 

अब मुझे गोली से घायल हुई अपनी बाँह एवं खाई में लुढ़कते-घिसटते हुए गिरने से, शरीर पर लगी चोट में, होते दर्द का एहसास हो रहा था। शरीर के पोर पोर में दर्द उठ रहा था। फिर भी थकान और रात्रि जागरण के कारण कुछ ही देर में, मेरी आँख लग गई थी। 

इंसान जैसे विचार करते हुए सोता है कई बार उसकी नींद में, वैसे ही सपने आते हैं। नींद लगते ही मैं एक सपना देखने लगा था -  

आज तारीख 5 जून 1391 है। सामने मंदिर के शिखर की, आँगन में पड़ती छाया से हरि प्रसाद को, अपराह्न 3.30 बजे होने का अनुमान हो रहा है। घर की महिलायें रसोई में आ गईं है ताकि दिन के प्रकाश में ही, रात्रि के भोजन की ज्यादातर सामग्री पका ली जा सके। 

बच्चे खेलने बाहर गए हुए हैं। हरि प्रसाद की 14 एवं 13 वर्ष की दो पोतियाँ, मंदिर में गाने के लिए, एक नये भजन का अभ्यास कर रहीं हैं। हरि प्रसाद का छोटा भाई, बेटा एवं भतीजा व्यवसाय के कामों में, दुकान तथा बाजार गए हुए हैं। 

हरि प्रसाद को बुखार-ताप होने से वे, सामने के कक्ष में पलंग पर लेटे हुए हैं। इस संयुक्त परिवार के इस पुश्तैनी घर में, हरि प्रसाद एवं उनके छोटे भाई के परिवार, साथ निवास करते हैं। 

हरि प्रसाद को तब बाहर अचानक हो-हल्ला सुनाई पड़ता है। हरि प्रसाद रोग से उत्पन्न कमज़ोरी में भी, आशंकित होकर पलंग से उठकर बाहर आते हैं। बाहर सुल्तान के आततायी सैनिक सामने मंदिर एवं आस-पड़ोस के घरों में घुसते दिखाई पड़ते हैं। यह देखते ही हरि प्रसाद को माजरा समझ आता है। 

खतरा भाँपते ही उनका मस्तिष्क एवं रोगी शरीर भी, तुरंत सक्रिय हो जाता है। वे बाहर खुलने वाले किवाड़ की साँकल लगा कर भजन गा रही दोनों पोतियों को चुप रहने का इशारा करते हैं और उन्हें अपने पीछे आने के लिए कहते हैं। 

फिर एक अंधेरी खोली के भीतर, गुप्त तह खाने का ढक्कननुमा द्वार उठा कर दोनों पोतियों को उसमें अंदर छुप जाने एवं चुपचाप रहने को कहते हैं। जब पोतियाँ भीतर चली जाती हैं तब वे ढक्कन ऊपर से, फिर बंद कर देते हैं। तह खाने का यह द्वार, एक तरह से गुप्त है। यह किसी नए व्यक्ति को आसानी से दिखाई नहीं देता है। 

यह करने के बाद हरि प्रसाद रसोई में काम कर रही घर की महिलाओं को बताते हैं कि सुल्तान के लोग मंदिर एवं घर घर घुस रहे हैं। मैंने बच्चियों को तह खाने में छिपा दिया है। आप भी कपड़ों एवं घूघँटों में व्यवस्थित रहो। महिलायें घबराहट से भर जाती हैं। 

इतना सब कर लिए जाने के बाद हरि प्रसाद वापिस पलंग पर आकर लेटते हैं। 

कुछ देर में उन्हें अपने घर के किवाड़ों पर, डंडे से खटखटाये जाने की आवाज़ आती है। हरि प्रसाद कहते हैं - कौन है, भाई? रुको आ रहा हूँ। 

फिर वे साँकल खोलते हैं। किवाड़ खुलते ही पाँच आदमी धड़धड़ाते हुए घर में प्रवेश करते हैं। उनके धक्के से हरि प्रसाद गिरते गिरते बचते हैं। तब किसी तरह संभल कर पलंग पर जा बैठते हैं और कहते हैं - बीमार हूँ भाई, आप लोग, मेरे घर में ऐसे क्यों घुसे चले आ रहे हो?

आततायियों द्वारा इसे अनसुना कर दिया जाता है।

आततायियों में से एक, घर में स्थापित भगवान की मूर्ति को देख कर, दूसरों से कहता है - काफिर का घर है। फिर हरि प्रसाद से कई प्रश्न एक साथ करता है - अभी तक इस्लाम स्वीकार नहीं किया है? सबक सिखाना पड़ेगा? तुम्हारी लड़कियाँ कहां हैं?

फिर वे सब घर के भीतर के कमरों में जबरन घुस जाते हैं। इधर उधर खोजते हुए घूमते हैं। फिर रसोई में घुसते हैं। वहाँ उपस्थित सभी औरतों के घूँघट, जबरन उघाड़ते हैं। जिससे वे सब अपमानित और क्रोधित हुई दिखती हैं। 

एक आततायी दूसरे से कहता है - नई जवान लड़कियाँ तो घर में, कोई दिखाई नहीं पड़ रहीं हैं। इन दो औरतों में अभी जवानी बाकी है। कहो तो इन्हें ही, उठा ले चलते हैं। 

दूसरा कहता है - तुझे काफिर की जूठन चाटने की पड़ी है। छोड़ इन्हें, किसी और घर में लड़कियाँ मिलेंगी उन्हें उठा लेंगे। 

फिर वह हरि प्रसाद के सामने कहता है - देख बुड्ढे! इस्लाम मान ले नहीं तो अगली बार आकर तुम्हारी इन औरतों को उठा ले जायेंगे। समझ कि औरतों के उठ जाने के बाद, फिर मुसलमान बनने से, तेरी क्या इज्जत रह जायेगी?

हरि प्रसाद के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना फिर वे सभी, घर के बाहर चले जाते हैं। 

जिन दो महिलाओं को उठा ले जाने की बात उनमें से एक ने की थी, उनमें एक, हरि प्रसाद एवं दूसरी हरि प्रसाद के भाई की बहुएं थीं। 

अभी ये सभी अत्यंत अपमानित अनुभव कर रहे थे। बहुएं तो क्षोभ में रो रहीं थीं। तभी हरि प्रसाद जी की पत्नी को तह खाने में बंद पोतियों का स्मरण आ जाता है। वे उन्हें तह खाने से बाहर लाती हैं। तब दोनों किशोरियाँ भयाक्रांत दिखती हैं। 

छोटी की ओर इशारा करते हुए बड़ी पोती सबको बताती है कि - डर के मारे इसने अपने कपड़े खराब कर लिए हैं। 

तब बच्ची की माँ, अपना अपमान एवं रोना भूल जाती है। बेटी को पीछे स्नानागार में ले जाती है। 

बच्ची की इस हालत से एवं घर की महिलाओं के किये गए अपमान को देखने की, अपनी विवशता से हरि प्रसाद का मुखिया हृदय द्रवित हो जाता है। वे पुरुष होकर भी रोने लगते हैं। उन्हें रोता देख, सभी पुनः रोते हैं। 

जब बाहर से छोटे बच्चे खेल कूद कर वापिस आयेंगे तब, उन पर बुरा प्रभाव ना पड़े, यह सोच कर, बड़ी बहू अपने को संयत करती है फिर, सभी को ढाँढस दिलाती है। 

उस रात्रि घटना से अनभिज्ञ, छोटे बच्चे जब भोजन उपरांत सो चुकते हैं तब, सभी बड़े भीतर के बड़े कक्ष में फर्श पर चटाइओं पर, मातमी हालत में बैठे, यूँ प्रतीत हो रहे हैं जैसे कि परिवार के किसी सदस्य की मौत हो गई हो।

हरि प्रसाद का बेटा कहता है - सुल्तान ने अपने लोगों को खुली छूट दे रखी है कि वे मंदिर लूटें और तोड़ें। हिंदुओं पर जोर जबरदस्ती से उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को बाध्य करें। जो हिंदू परिवार इसका प्रतिरोध करें, उनकी लड़कियों-औरतों को जबरन उठाकर उनसे निकाह करके, उन्हें मुसलमान बना लें।

इस बात पर हरि प्रसाद का भाई कहता है - भाग्य की बात है कि बुखार होने से आज भाई, घर में थे। जिससे भाई की सूझबूझ से हमारी बच्चियाँ, उठा लिए जाने से बच सकीं हैं। मुझे सुनने मिला है कि हमारे पास पड़ोस से आज, आततायी 12 बेटियों को उठा ले गए हैं। साथ ही मंदिर में भी तोड़ फोड़ एवं लूट की है। 

हरि प्रसाद कहते हैं - आज तो हमारा परिवार बच गया है लेकिन आगे बहुत दिनों बच पाना कठिन होगा। अब हमारे पास दो ही उपाय हैं- 

पहला, हम जेवरात एवं धन लेकर रातों रात अन्य रियासत के लिए, यहाँ से पलायन कर लें। 

या दूसरा, हम इस्लाम स्वीकार कर लें।

बेटा कहता है - इस्लाम भी बुरा धर्म नहीं। 

हरि प्रसाद कहते हैं - संध्या से ही मैं, इसी पर विचार कर रहा हूँ। निःसंदेह इस्लाम धर्म स्वयं में बुरा नहीं है, लेकिन इसके मानने वालों में, सुल्तान एवं उसकी तरह ही क्रूर, ये उसके आदमी भी तो हैं। 

बेटा फिर पूछता है - हम, धर्म बदलें तो हमें इस्लाम मानना है। उसके अन्य अनुयायियों से क्या लेना-देना है?

हरि प्रसाद उत्तर देते हैं - किसी में दुष्टता है तो वह कभी न कभी, खुद उसके अपनों पर खतरा हो जाती है।  


4. सपना ,,

हरि प्रसाद एवं अपने जेठ की पूरी बातें सुनने के बाद, छोटी बहू अपना घूँघट बड़ा करते हुए कहती है - 

यदि हम यहाँ से पलायन की कोशिश करें तब भी, हम लुट जाने से बचने या लाज बचा पाने में सफल हो सकेंगे, यह संभावना कम ही लगती है। इस रियासत से निकलने के लिए हमें लंबा रास्ता तय करना होगा और हमें, आततायी सारे रास्ते अत्याचार करने को मौजूद मिलेंगे। 

हरि प्रसाद बोले - 

बहू सही कह रही है। यह विकल्प कठिन है। अब बचे विकल्प में हम यहीं रहते हैं तो हिंदू तभी बने रह सकते हैं जब कि इसकी कीमत, अपनी बच्चियों का उठा ले जाना, स्वीकार करके अदा करें। और, यदि हम यह नहीं कर सकते हैं तो हमें, इस्लाम स्वीकार करना होगा। 

इस पर छोटा बेटा बोला - 

ताऊ, अपनी दुलारियों की उठा लिये जाने वाली दुर्दशा तो हम सहन नहीं कर सकेंगे। 

अब छोटे भाई ने कहा - 

मुझे तो यह भी अजीब लगता है कि सुल्तान और उसके आततायियों से अपनी बेटियों को बचाने के लिए, हम हिंदू से मुसलमान हो जायें। फिर मुसलमान में, इनका निकाह कर दें। ऐसी हालत में, हमारी बेटियों को अपहृत कर उनसे, उनका जबरन निकाह करना, या, हमारा मुसलमान बन कर, मुसलमानों में खुद ही इन्हें ब्याह देना, दोनों स्थिति में मुझे कोई अंतर तो नहीं दिखता है। 

तब बड़े बेटे ने अपना विचार यूँ रखा - अंतर यह है कि बेटियों पर, आततायियों द्वारा की गई जबरदस्ती, हमारे सम्मान एवं स्वाभिमान को आहत करेगी। जबकि हम मुसलमान परिवार में स्वेच्छा से बेटी सौंपेगें तो सम्मान कुछ बच रहेगा। 

यह सुन कर औरतों की रुलाई फूट पड़ी, बड़ी बहू बोलने लगी - ऐसा लगता है हम औरतेँ, अपनी बेटियों को मार कर स्वयं अग्नि कुंड में छलाँग लगा दें। 

हरि प्रसाद बोले - नहीं बहू, ऐसे बच्चों के जीने का अधिकार छीनना या अपना जीवन खो देना, दोनों ही ठीक नहीं हैं। सभी के जीवित रहते हुए ज्यादा उचित विकल्प क्या हो, आज हमें यह तय करना होगा। 

इस पर छोटी बहू ने कहा - ताऊ जी, आप ही तय करें कि अभी हम क्या करें? 

विचार पूर्वक तब हरि प्रसाद बोले - हम कल ही इस्लाम स्वीकार कर लेते हैं। मुसलमान होकर भी हम अपनी बेटियों को, उनमें ब्याहेंगे जो हमारी तरह विवश होकर ही हिंदू से मुसलमान हुए होंगे। 

फिर हम, ऐसे अत्याचारी सुल्तान की सल्तनत के अंत की प्रतीक्षा करेंगे। जब यह सुल्तान नहीं रहेगा तब हम मुसलमान से वापिस हिंदू हो जायेंगे। 

कहकर वे चुप हुए। परिवार के सभी सदस्यों को इस कठिन घड़ी में यही उपाय ठीक लगा। 

अगले ही दिन हरि प्रसाद के परिवार ने दिखावे के लिए, इस्लाम स्वीकार कर लिया। मगर संस्कार से मिले अपने धर्म का छिपे तौर पर वे पालन करते रहे। 

उन्होंने मस्जिद जाना शुरू कर दिया। वह पोतियाँ जो पहले, भजन सीखा और गाया करतीं थीं, उन्होंने मुस्लिम आततायियों से बचने के लिए भजन के साथ ही, कुरान की कुछ आयतें भी कंठस्थ कर लीं। 

हरि प्रसाद यह समाधान करने के बाद, ज्यादा वर्षों जी नहीं सके। सुल्तान के वंशज ने आगे डेढ़ शताब्दी और राज किया। इस बीच, नई पीढ़ियों ने यह विस्मृत कर दिया कि पूर्व में वे हिंदू थे। 

कहते हैं ना झूठ हजार बार बोला जाए तो सच लगने लगता है। ऐसे ही लाचारी में दिखावे को ग्रहण किया गया इस्लाम, हरि प्रसाद के वंश का सच बन गया। और जब, उस अत्याचारी सल्तनत का अंत हो गया तब भी कश्मीर की बाद की (हरि प्रसाद जैसे परिवारों की) पीढ़ियों का भ्रम, सच में ही मुसलमान होना हो गया। 

चट्टान पर सोते हुए ही मैंने तब, बेचैनी से करवट ली थी। करवट बदलने पर भी मेरा सपना जारी रहा था। मेरी करवट बदलने के साथ ही, सपने में, समय ने छह शताब्दियों की करवट ले ली। 

हरि प्रसाद के परिवार ने तो घाटी से पलायन का विकल्प नहीं चुना था, किंतु उनके समकालीन बहुत से हिंदू परिवारों ने धर्म परिवर्तन न करके, कश्मीर से पलायन किया था। उनमें से कुछ आततायी और दुर्गम रास्ते की कठिनाइयों से बच सके थे। ये परिवार दूसरी रियासतों में जा बसे थे।

सुल्तानी सल्तनत और भारत से मुगलों के साम्राज्य के पराभव के बाद, ऐसे परिवारों की बीसवीं से पच्चीसवीं पीढियाँ, कश्मीर वापिस लौट आईं थीं। 

भारत में अंग्रेजों के शासन के समय, कश्मीर में पंजाबी तथा डोगरा राजाओं का राज रहा। तब तक भारत से अधिकांश आक्रमणकारियों की पुश्तें, भारत को लूटकर लौट चुकीं थीं। 

यह भी हुआ कि समय के साथ, आक्रमणकारियों की जोर जबरदस्ती में, हिंदू से मुसलमान होने को विवश हुए परिवारों की बाद की पुश्तें, अपना मूल रूप से हिंदू होना विस्मृत कर चुकीं थीं।

अंग्रेजों से स्वतंत्र होते हुए 1947 में, भारत का एक हिस्सा, पाकिस्तान बना था। इसमें बसने वाले भी वही लोग थे जो पहले भारतीय ही पहचान रखते थे। पाकिस्तान नाम का देश बन जाने से यही लोग भारत से ही, प्रतिस्पर्धा में लग गए। विकास और शिक्षा में पिछड़ कर भारत से शत्रुता रखने लगे। 

खुद में बदहाल, जनता का ध्यान भटकाने के लिए वहाँ के असफल शासक और सेना के तानाशाह लोग भारत विरोध की सियासत करने लगे थे। ताकत से जीत नहीं सकने की खीझ में, यह लोग कश्मीर के नागरिकों को, मजहब के नाम पर उकसाने लगे थे। ऐसे लोगों ने कश्मीर में, युवकों को बरगलाने का काम किया। जो लड़के इनके बरगलावे में आतंकवादी बने वे, भारत के सुरक्षाबलों से जोर आजमाइश करने लगे। 

ऐसे अमन खत्म करने वालों ने, इस संघर्ष को कश्मीर की आज़ादी की लड़ाई बताकर जनता को भ्रमित किया। पाकिस्तान के साम्राज्य विस्तारवादी ख्यालों के लोगों के द्वारा, कश्मीर घाटी को पाकिस्तान में मिलाने की अपनी महत्वाकांक्षा के तहत, घाटी के मुसलमानों को, हिंदूओँ (पंडित) के विरुद्ध उकसाया जा रहा था। 

विडंबना यह थी कि मूल रूप से हिंदू होना विस्मृत कर, परिवर्तित मुसलमान, उन लोगों पर अत्याचार पर उतारू हुए, जो सुल्तानी एवं मुगल हुकूमत के अत्याचारों क्र चलते हुए भी हिंदू ही बने रहे थे। 

यह तारीख 19 जनवरी 1990 थी जब, कश्मीरी मुसलमान के, कश्मीरी हिंदुओं पर अत्याचार चरम पर पहुँचे थे। 

विडंबना यह भी थी कि छह सदियों में दूसरी बार कश्मीरी मूल के हिंदू पलायन को विवश हुए थे। 

सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि जिन परिस्थितियों में विवश होकर जो हिंदू, मुस्लिम बने थे वे परिवर्तित मुस्लिम भी, वही परिस्थिति अब के हिंदू पर उत्पन्न कर रहे थे। अर्थात उनके मुसलमान बनने को इंकार करने पर उन्हें लूट रहे थे। उनका घर जला रहे थे। उनकी बहन-बेटियों पर बलात्कार और उनकी हत्या कर रहे थे। 

क्रिया की प्रतिक्रिया में, कश्मीर का अमन चैन नष्ट हो गया था। भारत की सरकार अब मुगल सरकार तो थी नहीं जो, कौमी अत्याचार को पूर्व की भाँति बढ़ावा देती। नतीजा यह हुआ कि सरकार ने आतंक पर नियंत्रण करने के लिए, भारी संख्या में सुरक्षा बल तैनात कर दिया। 

जनता अब भी, अशिक्षित एवं दकियानूसी थी। इस्लाम को, सही अर्थ में जानती नहीं थी। जैसा मतलब परस्त भड़काने वाले लोग इस्लाम का गलत अर्थ इन्हे बताते, जनता उसे ही इस्लाम की शिक्षा मान लेती थी। 

कश्मीर में बाहरी दखल का खात्मा कर अमन कायम करने के इरादे से, भारतीय सरकार द्वारा तैनात सैन्य बल पर, भडकावों से भ्रमित लोग, पत्थर उठाने लगे। इस सब से फैली अशांति में, पर्यटकों ने कश्मीर आना बंद कर दिया। कश्मीर को पर्यटकों से मिलने वाली कमाई से हाथ धोना पड़ा। 

मैं, ऐसे हालातों में अब से बीस वर्ष पूर्व पैदा हुआ था। 

किसी का बीस वर्ष की छोटी उम्र में अपने भले- बुरे की पहचान कर पाना संभव नहीं होता है। ऐसे में जो भ्राँति पाकिस्तान और कश्मीर के सत्ता सुख के लोलुप राजनेताओं ने फैलाई उसके दुष्प्रभाव में, मैं भी आ गया। 

विभिन्न जघन्य कृत्य कर भारत से भागकर, भारत के कुछ गद्दार, पाकिस्तान में बस गए थे। इन भारत के अपराधियों को, पाकिस्तानी सरकार एवं सेना ने भारत में डिस्टर्बेंस पैदा करने के इरादे से आतंकवादी संगठन बनाने में मदद की। मैंने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में जाकर, इन्हीं संगठनों द्वारा दी जाने वाली आतंक की ट्रेनिंग ली। 


5. राष्ट्रनिष्ठा 


मेरा देखा जा रहा सपना अब अंतिम चरण में था। अब मैं देख रहा था कि मैं खुद हरि प्रसाद की इक्तीसवीं पीढ़ी का वंशज था। 

यह देखते हुए, मुझे बीती ज़िंदगी में, अपने सोच और करतूतों पर अत्यंत क्षोभ हुआ। मेरे तन बदन में आग सी लग गई। मैं नींद में ही हाथ पाँव पटकने लगा था। फिर मैंने होश खो दिया था। 

मुझे जब होश आया तो मैं, एक कच्चे घर में, फर्श पर बिछी चटाई पर लेटा हुआ था। मेरे शरीर में हुई हरकत ने वहाँ मौजूद लोगों का ध्यान आकृष्ट किया था। 

वे तीन लोग थे, एक नवयुवक मेरे बराबर का एवं बाकी दो उसके माँ और बाप प्रतीत हो रहे थे।

मुझे जागते देख कर उनमें से महिला से पूछा - बेटा, अब कैसा महसूस कर रहे हो ?

मैंने कहा - शरीर में बहुत पीड़ा हो रही है एवं कमजोरी लग रही है। 

तब उन्होंने बड़ी सी प्याली में, भेड़ के दूध से बनी चाय पीने को दी। 

मैं जब चुस्कियां लेते हुए चाय पी रहा था तब नवयुवक ने बताया - हम गुज्जर, बकरवाल लोग हैं। कल जंगल में, मैं भेड़ चरा रहा था तब मैंने एक चट्टान पर नींद में तुम्हारा हाथ पाँव पटकना देखा था। 

ऐसा देख जिज्ञासा में, मैं कठिनाई से चट्टान पर चढ़ा था। तुम अर्ध चेतना में अस्पष्ट रूप से कुछ चिल्ला रहे थे। साथ ही अपने हाथ पाँव पटक रहे थे। मैंने, छूकर देखा तो तुम्हारा शरीर बहुत गर्म हो रहा था। तुम्हारे शरीर पर कई घाव एवं रगड़े जाने के निशान थे। मैंने तुम्हें जगाने की कोशिश की थी, तुम आँख खोल और मींचते तो रहे थे मगर तुम होश में नहीं थे। 

तब भेड़ों के साथ लौटते हुए, मुश्किल से तुम्हें टाँग कर मैंने, अपने इस घर में लाया था। मेरी अम्मा, कल से तुम्हारी देखरेख कर रही है। तुम्हारा, बुखार-ताप मिटाने के लिए काढ़े बना बना कर पिलाती रही है, मेरे साथ मिलकर उसने, तुम्हारे गंदे हुए, कपड़े बदलें हैं। गर्म जल से तुम्हारा शरीर एवं घाव धोये हैं एवं जंगली जड़ी-बूटियों को पीस कर उन पर लेप लगाये हैं। 

यह सुनकर मैंने, अपने शरीर पर नज़र की तो मैंने पाया कि मेरे कपड़े नवयुवक की तरह किसी गुज्जर जैसे थे। मुझे अब पिछले दिनों की घटनाओं का स्मरण आ गया।

मुझे राहत महसूस हुई कि इस वेश में एवं इन लोगों के बीच में होना, इस समय मेरे लिए सर्वाधिक सुरक्षित है। 

मुझे स्पष्ट अनुभव हो रहा था कि दो दिन पूर्व की रात को हुई घटना के बाद अब मैं, ना सिर्फ सेना के निशाने पर होऊंगा, अपितु मेरे खोज खबर लेने की कोशिश, हमारा आतंकी संगठन भी कर रहा होगा।

मुझे पिछले दिन की नींद में देखा सपना याद आ गया था जो मुझे यथार्थ एवं सच्चा लग रहा था। मुझे, मेरी बाँहों में हुई लड़की की मौत भी याद आई थी। 

वेदनादायी घटना एवं सपने के कारण अब मैं, साथी आतंकियों से पीछा छुड़ाना चाहता था। मेरे इस विचार की भनक उन्हें होते ही, सुरक्षा बल से बढ़कर वे, मेरी जान के दुश्मन हो जाने वाले थे। ऐसे में अपने घर की तरफ मेरा, मुहँ करना मेरी मौत का कारण हो जाना था।

मैं यही सब सोच में डूबा था कि नवयुवक के पिता ने पहली बार मुहँ खोला एवं पूछा - कल से टीवी समाचार में, एक आतंकवादी की तस्वीर दिखाई जा रही है जिसकी तलाश में भारतीय सुरक्षा बल हैं। वह तस्वीर काफी कुछ, तुम्हारे हुलिये की है। क्या तुम वही आतंकवादी हो?

यह परिवार कल से मेरी देखभाल में रहा है, इनका यह एहसान अनुभव करते हुए मैं झूठ नहीं कह सका, मैंने कहा - आपका अनुमान सही है मैं वही आतंकवादी हूँ।

मेरी साफगोई ने उन्हें चकित किया, उन्होंने सोचते हुए कहा - फिर तो तुम्हें ले जाकर हमें, पुलिस को सौंपना होगा।

मैंने पूछा - आपको, मुझ पर घोषित इनाम की राशि का लोभ है?

उन्होंने जबाब दिया - 

इनाम की राशि मिलेगी यह भी अच्छा है। मगर उससे ज्यादा एक गद्दार को, पुलिस के हवाले करके अपना राष्ट्र के प्रति दायित्व पूरा करने की ख़ुशी ज्यादा होगी। तुम वह नीच काम करते हो जिसकी वजह से, घाटी की शांति खत्म हुई है। तुम्हारे (आतंकवादियों) द्वारा कर रखे खूनखराबे से यहाँ विकास अवरोधित हुआ है। यहाँ पर्यटक आने बंद होने से घाटी में जो कमाई आती थी वह नहीं आ रही है। घाटी की अभी हुई बदहाली की वजह तुम जैसे गद्दार हैं। तुम्हारी गद्दारी, हमारे दुश्मन देश के ख़राब मकसद को मदद करती है। 

मैंने कहा - आप सही कह रहे हैं। आप चाहें तो मुझे पुलिस के हवाले कर दीजिये। लेकिन मेरा अनुरोध है कि उसके पहले, मेरी सच्चाई जरूर सुन लीजिये। 

अब तक युवक और उसकी अम्मा भी पास गए थे। और हम दोनों में हो रही बातों को सुनने लगे थे। 

अधीर होकर अम्मा ने कहा- बताओ, क्या कहना चाहते हो? 

मैंने बताना शुरू किया - 

चच्चा ने मुझ पर जो आरोप लगाये हैं, वह सब दो दिन पूर्व तक मेरा सच था। मैं पड़ोसी मुल्क एवं उसके दुष्ट लोगों के उकसावे वाली बातों से दुष्प्रभावित, बहुत बुरा आदमी बन रहा था। 

मगर परसों रात, मेरे कारण से जब एक निर्दोष लड़की ने मेरी बाँहों में दम तोड़ा और मौत जिस तरह एक युवा लड़की को मेरी बाँहों से उठा ले गई, हृदय दहला देने वाली उस वारदात ने मेरा ह्रदय द्रवित कर दिया। 

उसकी मौत मेरे जीवन के लिए टर्निग पॉइंट है। मारी गई उस लड़की की अभी पूरी ज़िंदगी, जी जानी बाकी थी। इस अहसास ने मुझे बहुत पीड़ा दी है। 

शायद आप यह जानते हैं कि आपके बेटे को जब मिला हूँ, मेरे पास तब कोई हथियार और गोला बारूद नहीं था। मैंने जान बचा कर भागते हुए, यह सभी कुछ नदी में फेंक दिया है। यहाँ तक की मैंने, अपने मोबाइल से वह सिम निकालकर नष्ट कर दी है जिससे मेरे साथी रहे आतंकवादी, मुझसे संपर्क कर सकते थे। 

मैं स्वयं अब इन सबसे छुटकारा पाना चाहता हूँ और अच्छा एवं देश भक्त नागरिक होना चाहता हूँ। यह होना ही, मेरे में बदलाव प्रेरित कर रहा था। अगर आप मेरा विश्वास कर पा रहे हो तो एक और बात आपसे बताना चाहता हूँ। 

अब युवक बोला - 

तुम्हारी कही बात सच है। जब मुझे, चट्टान पर बुखार में तपते तुम, अचेत मिले तब तुम्हारे शरीर पर गोली का घाव तो था। मगर ऐसे कोई हथियार आदि नहीं थे। तुम्हारे मोबाइल में सिम नहीं थी। तुम्हें लगी गोली से तुम्हारा आतंकवादी होना संदिग्ध था। मगर अन्य बात तुम्हारे आतंकवादी होने जैसी नहीं थी। 

उस समय अगर मुझे तुम आतंकवादी लगते तो मैं, तुम्हें अपने घर नहीं लाता। तुम्हें पुलिस थाना पहुँचाता। तुम्हारी कही बातों पर, मैं विश्वास कर पा रहा हूँ अतः तुम बताओ, जो भी और बात, तुम बताना चाहते हो। 

युवक के पिता तब असमंजस में दिखाई पड़ रहे थे। फिर भी युवक एवं उसकी अम्मा को अपने प्रति नरम देख, मैंने फिर कहना शुरू किया - 

वस्तुतः जब तुमने मुझे चट्टान पर पाया उसके पूर्व तक, नींद में, मैं एक सपना देख रहा था। जो यद्यपि था तो एक सपना ही, लेकिन मुझे लग रही मेरी वास्तविकता थी। मुझे लगता है, यह सब सपने के माध्यम से दिखाने में, ईश्वर की कोई भूमिका है। 

ऐसा कहते हुए मैंने कुछ पल की चुप्पी ली, फिर सविस्तार अपने देखे सपने की एक एक बात उन्हें सुना दी। 

अंत में मैंने कहा - 

इस सपने से मुझे ज्ञात हो सका है कि मैं किस हिंदू परिवार का वंशज हूँ। अब ना तो मैं, आतंकवादी और ना ही मुसलमान रहना चाहता हूँ। मैं उस धर्म का अनुयायी हो जाना चाहता हूँ जिसे, छह शताब्दी पूर्व तक मेरे पूर्वज मानते रहे थे। 

तीनों लोगों ने मेरी एक एक बात ध्यान से सुनी थी। अब वे विचार करने वाली मुद्रा में थे। 

उन्हें विचार में डूबा देख मैंने ही पुनः आगे कहा - 

अब यह आप पर है कि आप, मुझे अभी पुलिस के हवाले करते हो या ऐसा करने के पूर्व मुझे कुछ समय दे सकते हो?

चच्चा ने इस पर पूछा - 

कुछ समय से तुम्हारा, आशय क्या है? क्यों, यह मोहलत तुम लेना चाहते हो?

मैंने कहा - 

मैं अपने बारे में नई जानी गई, अपनी यह सच्चाई, अपने परिवार एवं अपनी प्रियतमा नबीहा से कहना चाहता हूँ। फिर स्वतः ही सेना के समक्ष आत्मसमर्पण करना चाहता हूँ। मैं, दुश्मन देश के आतंकवादी संगठन की खुफिया जानकारी, उन्हें देकर वादा माफ़ गवाह होना चाहता हूँ। ऐसे अपने अपराध की (कम) सजा भुगत कर मैं, देश की मुख्यधारा से जुड़ कर, शेष जीवन जीना चाहता हूँ। 

अब युवक के पिता ने हँसते हुए कहा - 

पुलिस को सौंप कर जिस सही राह पर तुम्हें ले आने की अपेक्षा मैं कर रहा था, उस राह पर तुम स्वयं आना चाह रहे हो, यह ख़ुशी की बात है। परंतु पुलिस को सौंपने से तुम पर घोषित इनाम, जो हमें मिलना चाहिए उसका तो हमें नुकसान हो जाने वाला है। 

उनके यूँ हँसने से मुझे हौसला मिला मैंने कहा - 

चच्चा, मेरे परिवार एवं माशूका से मिल लिए जाने के बाद मैं, यह अवसर आपको ही दूँगा। तब आप ही मुझे पुलिस के हवाले करना एवं मुझ पर घोषित राशि प्राप्त कर लेना। 

मेरी इस बात पर अम्मा ने कठोरता से कहा - 

हम गुज्जर लोग दौलत के यूँ भूखे नहीं हैं। हम इस माटी, इस मातृभूमि से प्रेम करते हैं, इसमें हम जीवन जीते और मरते हैं। हम मातृभूमि के प्रति निष्ठावान जाति के हैं। तुम जैसी गद्दारी ना हम करते हैं ना ही किसी को करते देखना पसंद करते हैं। तुम्हारी बातों का विश्वास करके, हम तुम्हारा चाहा गया मौका देंगे। 

फिर नरमाई से आगे बोलीं - 

बस एक काम करना, तुम मेरे बेटे जैसे ही हो। एक माँ को झूठी बात कह कर दगा नहीं दे जाना। धरती के स्वर्ग हमारी धरती को अपनी गद्दारी वाली करतूतों से, और रक्तरंजित ना करना। 

अब मैंने अम्मा के चरण छूते हुए कहा - 

आपके, मुझे बेटा कहने के पूर्व ही, आपके द्वारा की गई देखभाल से मैं, आप में अपनी माँ ही देख रहा हूँ। अपनी माँ के साथ मैं कोई धोखा नहीं कर सकता। मैं जब अपने धर्म में ही वापसी कर रहा हूँ तब ऐसा दोगला नहीं रहूँगा, जो कहता कुछ और, करता कुछ और है। 

अब चच्चा ने कहा - 

तुम्हारा अभी परिवार से मिलना तुम पर, तीन तरह के खतरे आशंका उत्पन्न करेगा। तुम्हारे घर पर सुरक्षा बलों की ख़ुफ़िया नज़र होगी। जिस संगठन को तुम छोड़ना चाहते हो वह भी, तुम्हारे घर पर नज़र रखेंगे कि तुम्हें खत्म कर सकें। तुम्हारे मारे जाने से उनकी गुप्त साजिशें, भारतीय सेना तक नहीं पहुँच सकेंगी। तुम इश्तहारी आतंकवादी भी हो गए हो, इस कारण आम आदमी भी मुखबिरी करके इनाम पाने के लिए तुम्हारी जानकारी, पुलिस तक पहुँचाने को उत्सुक होगा। 

मैंने कहा - यह सब मैं भी समझ रहा हूँ। 

चच्चा ने कहा - 

इन खतरों से दूर रहने के लिए तुम्हें, अपने सभी घाव भरने तक का इंतजार करना होगा। हमारी गुज्जर वाले पहनावे में ही, अपने परिवार से मिलने की कोशिश करना होगा। 

यह तय कर लिये जाने के बाद अगली सुबह उजाला होने के पूर्व ही मैं, जंगल में उसी चट्टान पर रहने के लिए आ गया। ऐसा करना सावधानीवश आवश्यक था। उनके घर में मुझ अजनबी को रहते देख लेने पर, कोई पड़ोसी मुखबिरी कर सकता था। 




6. मातृभूमि 


जंगल में, मैंने अगले सात दिन और रातें गुप्त रूप से काटी थीं। युवक हर दिन भेड़ें चराने आया करता। 

घर से आते हुए मेरे लिए दिन भर का खाना एवं पीसी गई जड़ी बूटियों का लेप, घावों पर लगाने के लिए ले आया करता। 

यह समय काटना किसी के लिए कठिन होता लेकिन, आगामी जीवन के लिए अपने संकल्प को स्मरण करते हुए तथा उस पर दृढ़ता लाने के लिए मैंने यह समय, एक तरह से तपस्यारत रह कर काटा। 

इस बीच जब जब मुझे यह कठिन लगता मैं, ऋषि कश्यप का तपस्या करना स्मरण करता जिससे, अपने संकल्प के लिए मुझे आत्मबल मिलता। मेरे शरीर पर के सभी घाव ठीक हो गए। 

इन सात दिनों में यहाँ अवश्य कोई बुरी बात नहीं हुई थी, किंतु पाकिस्तान स्थित आतंकवादी मुख्यालय में मेरा कोई सुराग नहीं मिलने से हड़कंप मची हुई थी। संगठन प्रमुख अपने मातहतों से कह रहा था - 

शायद वह (मैं) सेना की लगी गोली से घायल होकर वीरान में, दूर कहीं दम तोड़ चुका है या फिर हमसे बच रहा है। 

वहाँ मौजूद एक अन्य ने कहा - 

मुझे, आपकी कही दूसरी बात ही सही लग रही है अन्यथा उसका मोबाइल मुठभेड़ वाली रात से ही हमें अनरीचेबल नहीं मिलता। 

प्रमुख बोला - 

अगर यह सच है तो वह, हमारे प्लान एवं वहाँ हमारे लिए काम कर रहे, हमारे लोगों के लिए बहुत बड़ा खतरा हो गया है। हमें, हमारे लोगों को उसके घर एवं करीब के रिश्तेदारों की निगरानी करने को बताना होगा। वह निश्चित ही घर के लोगों से संपर्क करेगा। 

तब दूसरे अन्य ने कहा - उसका सुराग मिलते ही हमें, उसको खत्म करवाना होगा। ताकि वहाँ सेना उसे पकड़, उससे हमारे राज ने उगलवा सके। 

प्रमुख - हाँ, हमें जल्द से जल्द ऐसा करना होगा। 

फिर उसने अपने मोबाइल से कोई नंबर मिलाया था। सामने से रिप्लाई मिलने पर, अपने उस आदमी को निर्देश देने लगा था।   

अपने पर इस मँडराने लगे खतरे का मुझे सिर्फ अनुमान ही था। अतः मैं सावधानी तो ले रहा था मगर उतनी नहीं जितनी मेरे जीवित बच पाने के लिए जरूरी थी। 

मेरे बाँह में गोली लगे वाले भाग में, भरते जा रहे घाव की बची गहराई एवं त्वचा पर गुलाबी रंगत, मुझे, गोली लगने की चुगली कर रही थी। यद्यपि उसमें पीड़ा नहीं रह गई थी। वह भाग कपड़ों में स्वाभाविक रूप से छिपता था। अतः यह, मेरी चिंता का विषय नहीं रह गया था। 

तब एक शाम युवक के साथ मैं चरवाहे की वेशभूषा में, वापिस उनके घर पहुँचा। रात के भोजन के बाद अब सबने मिल कर मेरे परिवार और मेरी नबीहा से, मेरे मिल सकने की योजना को अंतिम रूप दिया। 

मेरा इनमें से किसी को मोबाइल पर कॉल या कोई मैसेज करना खतरनाक हो सकता था। अतः उनसे मिलने के लिए, मेरा ऐसा ना करना तय किया गया। हमें उनसे मिलने का सहज कारण दिखाते हुए घर के बाहर ही कहीं मिलना था। 

तीनों ने इन सब बातों पर जिस गंभीरता से विचार करते हुए चर्चा में हिस्सा लिया, उससे मैं समझ सका कि उन्होंने, अपने से, मुझे आत्मीय रूप से जोड़ लिया है।  

यहाँ से मेरा गाँव 27 किमी था।

अगली सुबह युवक के साथ, (मैं) गुज्जर दिखते हुए, भेड़ों को लेकर, मेरे गाँव के लिए निकले थे। ख़ानाबदोश लोगों का ऐसा भ्रमण, किसी शक के दायरे में नहीं था। हम आपस में तो बात करते मगर रास्ते में, जहाँ भी कहीं किसी से बात करना होती या कोई चीज खरीदना होती तो, युवक ही यह करता रहा। 

हमें यह सावधानी रखनी थी, क्यूँकि मेरी ज़ुबान एवं लहजा गुज्जर जैसा नहीं था। 

हम जंगल के छोटे रास्तों से होकर, सूर्यास्त के समय, मेरे गाँव पहुँचे थे। संध्या के समय ही भेड़ों और हमारे, रात गुजारने के लिए, युवक ने एक पेड़ के नीचे प्रबंध किया था। 

रात को हमने, भोजन किया था। फिर मैं सोने की कोशिश करते हुए खुले आसमान के नीचे अपनी मातृभूमि की सुगंध की अनुभूति कर रहा था। आज के पूर्व, इस शिद्द्त से मैंने इस भूमि के प्रति ऐसा प्रेम अनुभव नहीं किया था। आज ऐसा कर पा रहा था उसका कारण, मन में मेरे विचारों का 180 अंश से घूम जाना था। 

मैं अब बरगलावों को भूल, इस देश एवं भूमि के प्रति, अपनत्व मानते हुए अपनी जिम्मेदारी अनुभव कर रहा था। 

अब मैं चाहता था कि अपनी पूरी आपबीती सुना कर, अपने परिवार और नबीहा को पूर्व में, अपने वंश के धर्म एवं आस्था के प्रति प्रेरित करूँ। फिर सेना के सामने अपने अपराध को स्वीकार करते हुए आत्मसमर्पण करूँ। मेरे अपराध की जो भी सजा मुझे मिले, उसे काटूँ। फिर आगे के जीवन में मैं, अपने राष्ट्र एवं अपनी मातृभूमि के प्रति निष्ठा से रहना सुनिश्चित करूँ। 

अगले दिन, घर के पास के बाज़ार में, मैं तीन भेड़ों को बेचने के बहाने बैठा था। मैं इंतजार कर रहा था कि घर से, कोई बाजार आये। मैं गुज्जर पहनावे में था। लोग मुझे पहचान नहीं रहे थे। जबकि मैं सबको पहचान रहा था। छह माह के बाद इन्हें देखना, मुझे अच्छा लग रहा था। 

तीन लोग, मेरी भेड़ की कीमत करने आये थे। मैंने, उन्हें इतनी ऊँची कीमत बताई जिससे लोग, हैरत से मेरी सूरत देखते हुए आगे बढ़ गए थे। अब मेरा इंतजार खत्म हुआ था मुझे सामने से आते अब्बू दिखाई पड़े थे। वे जब पास आये तो मैंने, उन्हें आकर्षित करने के लिए आवाज़ लगाई - भेड़ ले लो। 

इससे अब्बू के कदम ठिठके थे। उन्हें, मेरी आवाज़ परिचित लगी थी। 

मुझे देखते हुए जब करीब आये तो मैंने फुसफुसा कर कहा - अब्बू, मैं हूँ। 

वे घबड़ा गए थे। उन्होंने आसपास देखा कि हमें, कोई सुन-देख तो नहीं रहा है। जब उन्हें तसल्ली हुई कि किसी का ध्यान नहीं है, तब उन्होंने इशारा किया। मैं अपनी भेड़ लेकर सुनसान स्थान, जहाँ युवक ने डेरा डाल रखा था, की तरफ बढ़ गया। अब्बू कुछ देर करके, खोजते हुए वहाँ आये। 

चिंतित स्वर में उन्होंने, मुझे आगाह करने के लिए कहा - 

घर नहीं आना, पकड़े जाओगे। निगरानी हो रही है। टीवी में तुम्हारी तस्वीर दिखाई जा रही है। बहुत खतरा है। 

मैंने कहा - 

मैं, जानता हूँ। इसलिए कॉल नहीं किया है। आप बताइये मेरा, सबसे मिलना कैसे हो? 

उन्होंने कहा - 

रात में छुप कर शब्बीर भट के घर आओ, खतरा न लगा तो मै तुम्हारी अम्मी को लेकर वहाँ आने की कोशिश करूँगा। उनका घर थोड़ा अलग है इस कारण वहाँ मिलना सुरक्षित होगा।

मुझे मालूम था कि शब्बीर भट, अब्बू के जिगरी दोस्त हैं। मेरी ख़ुशी इसलिए ज्यादा थी कि नबीहा उन्हीं की बेटी होने से, मुझे नबीहा से अलग से मिलने की, जरूरत नहीं बचनी थी।

सिर हिलाकर मैंने, हामी भरी।

फिर उन्होंने मुझे कहा - 

चौकन्ना रहना नहीं तो पकड़े जाओगे। फिर खुद चौकन्ने होकर सब तरफ देखते हुए वे वापिस चले गये थे।

मैंने युवक को बताया और रात तक का इंतजार करने को मनाया, उसने सहमति दी। वह बाजार से दोनों के लिए खाना ले आया। फिर हमने, दिन भर भेड़ों को जंगल में चराते हुए दिन बिताया। मेरे लिए यह एक नया एवं सुखद अनुभव था। 

शाम को पिछली रात वाले स्थान पर हमने, फिर अपना डेरा जमाया एवं जब रात गहरा गई तब, मैं नबीहा के घर पहुँचा। 

अब्बू ने शब्बीर चचा को मेरे आने के बारे में, दिन में बता दिया था। अतः गुज्जर के रूप में मुझे, अपने दरवाजे पर देख उन्हें अचरज नहीं हुआ था। उन्होंने भीतर आने कहा था फिर दरवाजे वापिस बंद कर दिए थे। अंदर कमरे में नबीहा और उसकी अम्मी थी। बच्चों एवं बाकी मेंबर को चचा ने, उस कमरे में आने को मना कर दिया गया था।

नबीहा के चेहरे पर उदासी साफ़ झलक रही थी।

हम बात शुरू करते उसके पहले ही कॉलबेल बजने लगी थी। चचा ही दरवाजे पर गए थे। मेरे अब्बू एवं अम्मी आ गए थे। चचा, उन्हें इसी कमरे में ले आये थे।

अम्मी की ममता कई दिनों बाद मुझे देख कर एकदम उमड़ आई थी। मुझसे गले लग कर वे रो पड़ी थीं। उन्हें सम्हलने में कुछ मिनट लगे थे फिर गुस्से में प्रश्न किया - तुमने, यह क्यों किया? कैसे बचा पायेंगे हम, तुम्हें?

उनके पास जाकर अब मैंने प्यार से गले लगाया फिर उल्टा प्रश्न उनसे किया - उस मुठभेड़ में, मैं वहाँ से भाग निकला था। वहाँ बाद में, हुआ क्या था?

अम्मी भाव विह्वलता में बोल न सकीं तब उत्तर अब्बू ने दिया - 

तुम्हारे तीनों साथी मारे गए थे एवं उस घर की एक लड़की भी मारी गई थी। तीन महिलायें घायल हुईं थीं। उनका इलाज कर उन्हें बचा लिया गया था।

मैंने पूछा - 

सुरक्षाबल में से भी, कोई मारा गया था या नहीं?

अब्बू ने बताया - नहीं, उनमें कोई हताहत नहीं हुआ था।

मैंने चैन की श्वाँस लेते हुए कहा - 

तब मेरा अपराध हल्का हो गया है। मैं, यह चाहूँगा कि अब्बू आप खुद ही, मुझे कल थाने पहुँचा दें। मैं, वहाँ आत्मसमर्पण कर दूँगा।

अब्बू बोले - 

वे तुम्हारा बुरा हाल करेंगे, तुम्हें समझ नहीं आ रहा है। तुम सहन ना कर सकोगे। तुम्हें भाग कर पाकिस्तान नहीं जाना चाहिए था। सरेंडर करना, अब सही बात नहीं होगी।

मैंने कहा - 

सरेंडर नहीं किया तो मारा जाऊँगा। सेना नहीं मारेगी तो आतंकवादी मार डालेंगे क्योंकि मैं उनका साथ छोड़ देना चाहता हूँ। उससे वे, मेरा ज़िंदा रहना खुद के लिए खतरा मानेंगे।

अब तक अम्मी ने स्वयं को संयत कर लिया था, शिकायती लहजे में वे बोलीं - 

तुम्हें यही करना था तो तुम उनके साथ गए ही क्यों थे? तुम नहीं समझ रहे हो मेरे बेटे, माँ होकर तुम्हारे दिख रहे अंजाम से, मेरे जान पर आ रही है।

मैंने कहा -

मैं सरेंडर करने ख्याल से, उनमें शामिल नहीं हुआ था। मगर मुठभेड़ के वक़्त से दो घटनाओं ने मेरा हृदय परिवर्तन कर दिया।


7. ये रात - सितारों का मिलन


नबीहा ने पहली बार मुँह खोलते हुए पूछा - क्या हुआ था मुठभेड़ में?

तब मैंने कहा - 

सुनने के लिए आधा घंटा सबको इत्मीनान रखना होगा। मैं विस्तार से सब कहने जा रहा हूँ।

अब्बू ने कहा - 

जल्द बताओ, हमारा ज्यादा वक़्त यहाँ रुकना, निगरानी करने वालों में शक पैदा करेगा।

तब मैंने, सुरक्षा बलों के पीछे पड़ जाने के कारण, उस घर में घुसने से लेकर, बकरवाल युवक के घर में, मेरी सेवा किये जाने की, एक एक बात उन्हें बताई। मैंने यह बताने में भी संकोच नहीं किया कि मैं, लड़की की जगह, नबीहा को उस स्थिति में होने की कल्पना करता रहा था। 

चट्टान पर सोते हुए, अपने देखे सपने के जिक्र के साथ ही, मैंने यह भी बताया कि अब मैं वापिस हिंदू धर्म स्वीकार करते हुए अपना नाम हरिहर भसीन रखूँगा।

अंत में मैंने बताया कि - 

पाकिस्तान में दहशतगर्दों के अड्डे की जानकारी, भारत की पुलिस/सेना को बता कर मैं, वादा माफ़ गवाह बनने की कोशिश करूँगा। 

-ऑपरेशन मां-

तब चचा ने कहा - 

तुम्हारी योजना कारगर होगी, यह मुझे लगता है क्योंकि 370 समाप्त होने के बाद, अभी के गवर्नर, घाटी के भटके युवकों को वापिस मुख्यधारा में लाने के लिए “ऑपरेशन मां” के तहत प्रोत्साहित कर रहे हैं। इससे आत्मसमर्पण करने के बाद, उनकी कस्टडी में तो तुम शेफ रहोगे। लेकिन बाहर आने पर दहशतगर्दों के निशाने पर होगे। 

मैंने कहा - 

आप सभी निश्चिंत रहें, अब के बदले हालात में कश्मीर में, पाकिस्तान पोषित आतंक के दिन ज्यादा नहीं रह गए हैं। जो भी सजा मुझे मिलती है मैं, उसके काटने के बाद निशंक, अच्छे भारतीय नागरिक के रूप में अपना पूरा जीवन जी सकूँगा। 

मेरी बात से अम्मी की उम्मीद बनी। अब्बू ने भी मुझसे सहमति जताई, पूछा - 

फिर, कल के लिए कब और क्या, किया जाना होगा?  

मैंने कहा - 

कल आप, आज सुबह वाली जगह ही, मेरे लिए एक जोड़ा कपड़ों के साथ मिलिये। ये कपड़े बदलकर मैं आपकी बाइक पर, आपके साथ ही थाने चलूँगा। वहाँ आप मुझे पकड़वा दीजियेगा। इस तरह मैं, सरेंडर कर दूँगा।

यह तय कर लिए जाने के बाद अब्बा-अम्मी लौट गए थे। 

तब नबीहा ने, अपनी अम्मी से मुझसे, अकेले में बात करने की इजाज़त चाही थी। नबीहा के अम्मी-अब्बू जानते थे कि हममें, मोहब्बत है और आगे चलकर हम शादी करना चाहते हैं। उन्होंने इसे मंजूर कर लिया फिर वे दोनों, अन्य कमरे में चले गए। 

अब कमरे में हम दोनों ही थे। नबीहा ने रुआँसे स्वर में बताया - 

तुम्हारे आतंकवादी बन जाने के साथ ही मैंने, आशा छोड़ दी थी कि इस ज़िंदगी में मुझे, तुम्हारा साथ फिर मिल सकेगा। आज तुम्हें वापिस देख मुझे वह ख़ुशी मिल रही है जिसे, व्यक्त करने के लिए, मेरे पास शब्द नहीं हैं। 

मैंने मुस्कुराते हुए पूछा - मैं हिंदू हो जाने वाला हूँ, यह मंजूर है, तुम्हें?

नबीहा ने दृढ़ता से कहा - 

मुसलमान घर में पैदा होने से मेरी परवरिश, मुस्लिम की तरह हुई है तब भी, मुझे यह बात अजीब लगती आई है कि मुस्लिम पुरुष तो अन्य संप्रदाय की लड़कियाँ तो आसानी से ब्याह लेते हैं। जबकि मुसलमान लड़की के लिए ऐसा करने की इजाजत नहीं। मैं इस संकीर्ण तथा दोहरी मानसिकता से विद्रोह करुँगी। और तुमसे विवाह करना अपना सौभाग्य मानूंगीं। 

मैंने प्रशंसा करते हुए कहा - इतनी साहसी!

वह बोली - दो कौमों में हमारा ऐसा करना समाज का पक्षपाती विभाजन है, जिससे ही शताब्दियों से ये आपसी नफरत चल रही है। 

मैंने कहा - वाह नबीहा समस्या की जड़ की इतनी पहचान प्रशंसनीय है . मगर यह तो बताओ कि यदि मेरी सजा लंबी चली तो?

नबीहा ने लंबी श्वाँस लेकर कहा - 

तुम जीवित हो यह विचार, मेरी ज़िंदगी के लिए काफी है। मैं उतना इंतजार कर लूँगी जितनी, तुम्हें सजा काटनी होगी।  

मैंने पूछा - 

सजा काटने के बाद छूटने पर आतंकवादी मुझे, टारगेट कर सकते हैं। इससे तुम्हें भय नहीं लगेगा?

नबीहा ने कहा - 

मैंने तुमसे प्यार किया है। आतंकवादी से सामना होने पर उस लड़की की तरह, तुम्हारी बाँहों में मुझे, मर जाने में भी ख़ुशी होगी। 

मैंने कहा - 

नबीहा, यद्यपि मुझे विश्वास है कि ऐसे तुम्हें मरना नहीं पड़ेगा मगर, ऐसा कह कर बहुत हद तक तुमने, लड़की के मेरे कारण मारे जाने के मेरे ग्लानि बोध से मुक्त किया है। 

मैं तुमसे दुगुना प्यार करूँगा। एक तुम्हारे स्वयं के हिस्से वाला और एक, उस लड़की को लेकर मेरी संवेदना से, उसके प्रति मेरे हृदय में उपजा वाला। अभी के लिए तुमसे, मैं यह चाहूँगा कि तुम हमारे प्यार को गोपनीय ही रखना। अन्यथा आतंकियों की तरफ से तुम्हारी जान को खतरा होगा। 

नबीहा ने कहा - हाँ, मैं ऐसा ही करुँगी। 

तब मैंने उसके माथे पर एक चुंबन लिया था। उसके सिर एवं पीठ पर, प्यार से हाथ फेरा था और फिर घर से निकला था। 

तब नबीहा की आँखों में आँसू थे। मैंने अपना चेहरा अंधेरे की तरफ करके अपने आँसूं, उससे छिपा लिए थे। 

अपनी भेड़ों के साथ डेरे पर इंतजार कर रहे युवक से, वापिस पहुँच कर मैंने, पूरी पारदर्शिता के साथ, सभी बातें बताई थी। 

अंत में, मैंने कहा था कि -

मेरा, अपने अब्बू के साथ जाकर सरेंडर करना ज्यादा उचित होगा। तुम या तुम्हारे पिता के साथ जाकर ऐसा करना, पुलिस का तुम लोगों पर शक पैदा कर सकता है, जिससे अकारण ही वे तुम लोगों पर, सख्ती कर सकते हैं। 

मैं अपने अब्बू से कहूँगा कि उनके द्वारा पकड़वाने से उन्हें, मुझ पर की इनामी राशि मिलेगी वह, वे तुम्हारे परिवार को दे दें। 

युवक हँसा था, उसने कहा - 

दोस्त, तुम हमें पहचान नहीं पाये हो। हमें इनाम का लालच होता तो हम बहुत पहले ही, तुम्हारी जानकारी पुलिस को दे चुके होते। हमें तो तुम्हारे लिए सब करते हुए, ख़ुशी इस बात की है कि हम, एक भटके लड़के को सही मार्ग पर, आने में सहायक हुए हैं। 

गुज्जर युवक एवं उसके परिवार की राष्ट्र निष्ठा, मुझे प्रभावित कर रही थी। अपने आस पास के लोगों में ऐसी निष्ठा मैंने नहीं देखी थी। मैं अनुभव कर सका कि इन्हीं तरह के लोगों के होने से यह विशाल राष्ट्र अखंड हैऔर विकास की राह पर चल पा रहा है। 



8. कश्मीर - रच गया नया इतिहास 


रात में नींद आने के पहले, मैं आने वाले कल को लेकर विचार में मग्न था। तब 

पाकिस्तान में संगठन प्रमुख के मोबाइल पर इनकमिंग कॉल की रिंगटोन गूँज रही थी। 

प्रमुख ने कॉल लिया, दूसरी ओर से कहा गया - 

उसके अम्मा-अब्बू रात में घर से कब निकले यह तो हमें, पता नहीं चल पाया। मगर रात 12.30 बजे बाइक से दोनों अपने घर लौटे तब, हमें शक हुआ कि शायद वह, यही कहीं है और शायद ये, उसे मिलने ही कहीं गए थे। सामान्यतः इतनी रात गए इनका, बाहर से आना कभी होता नहीं है। 

प्रमुख के चेहरे पर नाराज़गी दिखाई दी, लेकिन उसने, अपनी आवाज में नरमी रखते हुए कहा - 

कल से ऐसी लापरवाही न करना। अब तुम, उसके अब्बू के पीछे साये की तरह लगे रहो। अगर वह यहाँ कहीं है तो उसका अब्बू, फिर उससे जरूर मिलेगा। 

दूसरी ओर से कहा गया था - जी साहेब, बिल्कुल दुरुस्त। अब ऐसी लापरवाही नहीं होगी। हम कल ही उसका सुराग लगा लेंगे। 

प्रमुख ने कहा - ठीक है। (फिर काट दिया था।)

सूर्योदय के साथ ही अगली सुबह युवक, अपनी भेड़ों को लेकर, वापिस अपने गाँव लौट गया था। 

निर्धारित किये गए अनुसार, अब्बू आये थे। मैंने कपड़े बदले थे एवं गुज्जर लोगों द्वारा पहने जाने वाली वेशभूषा उतार कर उस पर जलती तीलियाँ डाल दी थीं। मैं, इतना सतर्क इसलिए था कि मेरे सहायक हुए, गुज्जर परिवार को, मेरा राज छुपाने को लेकर, कोई परेशानी न झेलने पड़े। 

मैं ऐसा कोई निशान नहीं छोड़ना चाहता था जिससे समझा जा सके कि पिछले आठ दिन मैंने, बकरवाल परिवार की सहायता से छुप कर गुजारे थे। 

मैं अब्बू के साथ बाइक में बैठा था। हम 100 मीटर ही चले होंगे कि मुझे पास ही दूसरी बाइक की आवाज सुनाई दी। उस वीरान स्थान में यह अप्रत्याशित बात थी। मेरा माथा ठनका, मैंने अब्बू से कहा - अब्बू भागो। 

अब्बू ने सुनते ही स्पीड तेज की। पीछा करने वालों ने, पीछे से हम पर फायर किया मगर, उनका निशाना चूक गया था। मैंने पलट कर देखा तो बाइक पर दो लोग, हमारे पीछे लगे हुए थे। पीछे बैठे आदमी के हाथ में गन थी। वही मौका देख कर फायर करते जा रहा था। 

अब्बू, बाइक लहराते हुए चला रहे थे। इसलिए उसके निशाने चूक रहे थे। 

दोनों ही बाइक की स्पीड 100 से अधिक थी। आगे हमारी बाइक, मोड़ पर घूम कर बढ़ी ही थी कि तभी सड़क पर पीछे, जंगल की तरफ से भेड़ों का एक झुंड आ गया। 

पीछे के बाइकर को मोड़ होने से यह झुंड, अचानक दिखाई दिया था। गति ज्यादा होने से वह संभल नहीं सका जिससे उनकी बाइक, कुछ भेड़ों को टक्कर मारते हुए, साइड के गड्ढे में जा गिरी। 

मैंने देखा कि झुंड हाँक रहे बकरवाल ने, अपनी भेड़ों का यह हाल देखा तो वह, दहाड़े मार कर रोने लगा था। कोई और समय होता तो हम रुक कर, उसकी सहायता करते। 

बाइक सवारों को गंभीर चोटें लगीं लगती थी। वे खड़े नहीं हो पा रहे लगते थे। 

बाइक पर बैठे ये लोग निश्चित ही, हमारे आतंकी समूह के लोग थे। यह दूसरी बार था कि कुछ ही अरसे में, मेरे भाग्य में किसी गुज्जर द्वारा अनायास ही मुझे बचा लिया गया था। 

मुझे यह मालूम नहीं था कि पाकिस्तानी आतंक प्रमुख ने, मेरे पीछे लगे उन लोगों को रात ही, लापरवाही नहीं करने को कहा था। तब भी वे चूक कर गए थे। उन्हें, मुझे घेरना तब चाहिए था जब मैं, कपड़े बदल रहा था। चलती बाइक से निशाना साधना अपेक्षाकृत कठिन था। उसमें ऐसे हादसे के होने का खतरा होता ही है। 

अब हमारा काम आसान था। 5 मिनट बाइक पर आराम से चलते हुए, हम थाने पहुँचे थे। वहाँ मैंने आत्मसमर्पण कर दिया था। 

आगे के दिनों में मेरी आशा से, अत्यंत अधिक अच्छी बातें हुई थीं। 

पुलिस एवं सेना के पूछताछ में मैंने - 

निर्दोष लड़की की मेरी बाँहों में हुई मौत, होना बताया था। 

उस लड़की से अपनी प्रियतमा की तुलना से, मेरा हृदय परिवर्तन होना बताया था। 

मैंने, उसके बाद देखा गया अपना, सपना बताया था। 

यह भी बताया कि सपने से मुझे, छह शताब्दी पूर्व का, हमारा वंश एवं धर्म, हिंदू होना ज्ञात हुआ था। 

सपने से ही मुझे, सुल्तान प्रोत्साहित, आततायियों के अत्याचारों का पता चला था। इन अत्याचारों से पीड़ित होकर ही, हमारे पूर्वजों सहित अनेक कश्मीरियों की धर्म परिवर्तन करने की विवशता, मैंने देखे गए सपने अनुसार उन्हें, वर्णित करके बताई थी।

मैंने यह भी बताया कि अन्य कुछ कश्मीरियों सहित, ऐसे कुछ धर्म परिवर्तित किये गए लोगों के द्वारा भी, बीसवीं शताब्दी के अंत के वर्षों में, पुनः कश्मीरी हिन्दुओं पर अत्याचार किया गया था। यह, सुल्तान के समय जैसा ही अत्याचार था। इसे, इस रूप से देखकर, मैं व्यथित हुआ हूँ। इस कारण मैं, वापिस अपने मूल धर्म को स्वीकार करने को प्रेरित हुआ हूँ। मेरा आत्मसमर्पण करने का कारण भी यही है। 

मेरे आतंकवादी हुये, अधिक समय नहीं हुआ था साथ ही मैंने कोई जघन्य वारदात को अंजाम नहीं दिया था। अतः मुझ पर, कोर्ट में पेश किये गए आरोप पत्र में, वादा माफ़ गवाह बनाने के अनुशंसा की गई। 

मेरे बारे में सेना एवं पुलिस से मिली सूचना के आधार पर मीडिया ने, इस पूरी स्टोरी को बार बार प्रसारित किया।

इस प्रसारण का उनका उद्देश्य, भटक गये और लड़कों को, मेरे तरह ही आत्मसमर्पण करने को प्रोत्साहित करना था। मेरी आपबीती पर आधारित, वेबसेरीज़ भी बनाई गईं, जो भारतीय दर्शकों में अत्यंत लोकप्रिय हुई।

मेरा आत्मसमर्पण एवं मेरा हरिहर भसीन बनना, कश्मीर के इतिहास में, टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। 

प्रारंभ में, कश्मीर घाटी में, मेरे धर्म परिवर्तन कर लिए जाने से लोगों ने, मुझे एक खलनायक की तरह देखा। 

उनके हिंसात्मक प्रतिक्रिया की आशंका से, मेरे परिवार को सेना से मिली सुरक्षा में रहना पड़ा। जेल में मुझे भी, अलग कोठरी में रखा गया ताकि कैदी के भेष में आकर, कोई आतंकवादी मुझे मार ना दे। 

मुझसे जेल में ही, एक लोकप्रिय टीवी चैनल ने, साक्षात्कार लिया। इसमें मैंने बताया कि -

मेरा धर्म परिवर्तन करना इस्लाम मज़हब का विरोध नहीं है। इस मज़हब को हमारे खानदान ने छह पीढ़ी तक निभाया है। मेरा वापिस हिंदू होना मेरे, इस विश्वास से प्रेरित है कि हम पूर्व में हिन्दू थे। 

मेरा ऐसा कोई आह्वान नहीं कि कोई और मेरे जैसे ही धर्म परिवर्तन करे।

मेरी अपील यह है कि इस्लाम मानने वाले, इस्लाम की सच्ची शिक्षा पर चलें। सच्चा मुसलमान आतंकवादी नहीं होता। सच्चा मुसलमान, इस्लाम की इबादत करते हुए किसी अन्य पर, आतंक नहीं फैलाया करता है। 

वैश्विक समाज के नए समय में आज जरूरत है कि इस्लाम मानने वाले सभी लोग, अन्य नस्ल या कौम की तरह ही शिक्षित होने को प्राथमिकता दें। 

शिक्षित होकर ही वे कुरान पाक से सच्ची सीखें, सीधे हासिल करेंगे। उस अनुसार चल कर नेक इंसान हो सकेंगे। 

उच्च शिक्षित होकर मुसलमान, अनर्गल बरगलावों से स्वयं को बचा सकेंगे। इस्लाम के नाम पर बाहरी देश के एवं यहाँ के ख़ुदग़र्ज़ लोगों की, अपने मतलब के लिए प्रचारित की जा रही गलत शिक्षा के झाँसे में आत्मघाती करतूत करने से बच सकेंगे। 

ऐसा हो सकने से, घाटी एवं समाज में शांति-सौहार्द्र बढ़ेगा। 

इसमें मुसलमान की यही नहीं, आगामी पीढ़ियाँ भी अपने सपने को साकार करते हुए ज़िंदगी जी सकने के अवसर मिलेंगे। 

कुछ कट्टरपंथी लोगों के अलावा, साधारण मुसलमान पर, इस प्रसारण का अच्छा असर पड़ा। जब ज्यादा बड़ा वर्ग उनके बरगलावों में आने से बचने लगा तब कश्मीर में आतंकवाद का विषैला वृक्ष सूख गया। 

मुसलमान पर रहती आई देश की संदिग्ध दृष्टि में भी, बदलाव आने लगा। घाटी में कुछ परिवारों ने मेरी तरह, अपने पूर्वजों के मूल धर्म में वापसी की। 

जिन्होंने ऐसी वापसी नहीं की, उनके मन में भी संशय हुआ कि वे भी परिवर्तित मुसलमान तो नहीं! 

जो भी हो मगर इन सब बातों से मुसलमान में नरमाई आन परिलक्षित हुई। वे, अपने पूर्वाग्रह त्याग सके एवं हिंदुओं पर अत्याचार करने एवं दिल में नफरत रखने से विमुख कर हुए। 

घाटी में परिवर्तन की इस लहर ने, कश्मीर से विस्थापित हुए पंडितों को, कश्मीर वापिस आने का साहस दिया। पूर्व में विस्थापित हुये में से, अनेक पंडित परिवार कश्मीर लौटने लगे। 

फिर मुझे कोर्ट ने माफ़ी प्रदान कर मेरी रिहाई का आदेश पारित किया। कश्मीर के स्थानीय लोगों से सपोर्ट नहीं मिलने के कारण, पाकिस्तान से प्रायोजित किये जाने वाले, आतंक की जड़ें नष्ट हो गईं। 

अब मैं, कश्मीर के नये युग का आधार बन गया था। नबीहा का परिवार भी वापिस हिंदू हो गया था। 

इस तरह नबीहा को गैर कौम में विवाह करने का साहस नहीं करना पड़ा। 

मुझसे, विवाह करते हुए नबीहा गौरवान्वित अनुभव कर रही थी। नबीहा ने इसे अपना भाग्य माना कि जिसे खो दिया लगता था, उसका वह मंगेतर (मैं) उसे फिर मिल गया था।

मुझसे विवाह करते हुए उसे गर्व हो रहा था कि उसे मिला जीवन साथी कश्मीर ही नहीं, भारत का वास्तविक नायक था।     

नबीहा ने अपना नया नाम “मातृभूमि” पसंद किया था। अब मुझ पर दायित्व था कि उसके मन में मेरी नायक की छवि अपने कार्य से सिध्द करूँ। 

अब मुझे, इस मातृभूमि (भारत, कश्मीर) एवं इस मातृभूमि (मेरी अर्ध्दागिनी) दोनों ही मेरी अपनी की, मुझसे अपेक्षाओं पर सच्चा एवं अच्छा सिध्द करना था ..   






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