Rashmi Sinha

Abstract

4.5  

Rashmi Sinha

Abstract

एक पत्र, फेसबुक के नाम

एक पत्र, फेसबुक के नाम

2 mins
272


प्रिय फेसबुक,

       आज मेरा ये इज़हारे मोहब्बत का दीवानगी भर पत्र, सिर्फ तुम्हारे नाम। चौंको मत, मेरी इस बेबाकी पर और न ही मैं हैरान हूं अपनी इस स्वीकारोक्ति पर, वजह? चलो बता ही देती हूँ ,तो मुझे पता है कि मैं तुम्हारे लाखों, करोड़ों गोपियों और गोपों में से एक हूँ जब वो नही झिझकते अपना प्यार दिखाने से तो मैं क्यों संकोच करूँ?मुझे उनमें से किसी से ईर्ष्या नही है, इतने खुलमखल्ला लिखने का कारण बता रही हूँ बस---

 पता है! मैं तुम्हारी इतनी विस्तारित आगोश में सामने से पहले, एक किशोरी सी ही भयभीत था।पर प्रवेश करते ही मंत्रमुग्ध सी चारों तरफ, हड़बड़ाई सी देखती ही जा रही थी।

एक के बाद एक पट खुलते ही जा रहे थे। कहीं वक्र भूभंगिमा वाली सास , कहीं उपहास उड़ाती ननद तो कहीं बहकाते मुस्कुराते देवर----संबंधों का महासमुद्र।संबंधों ही क्यों चारों तरफ बिखरी असंख्य एप्स, यूट्यूब, गूगल , साहित्यिक ग्रुप , हर किसी की रुचि की सामग्री परोसता, आत्मविश्वास भरता फेसबुक,गोया कि आप नाम लीजिये आपकी हर समस्या का समाधान हाजिर---

क्या अब तुम समझ पा रहे हो इस "आत्मविश्वासी" 

रश्मि के इस नए रूप को?और उसके कारणों को?

हां! हां!! चलो माना कि तुम कारक हो पर बिना प्रतिभा हुए, बिना हीरा बनने के गुण लिए कोई कोयला तराशा जा सकता है क्या?

 अब मैं इतनी भी मूर्ख नही थी कि " मरा", "मरा" कह कर राम सीखूँ या विद्योत्मा से बहस करने वाले,जिस डाल पर बैठूं उस को काटने वालेकी तरह की शिष्य बनूँ।

भौचक्की जरूर थी, कभी आकर्षक छलावे की तरह के मार्ग पर भी कदम रखे पर सिर्फ एक--,

पांवों तले की जमीन ने फौरन चेतावनी दी ठहरो!!!

और मैं पुनः सही मार्ग की ओर, बहुत जल्दी अपने अंदर निहित शक्तियों को पहचाना भी, और उनको तराशने वाले सही लोगों को भी---

बिना गलतियों के सही की पहचान करती भी कैसे मैं?और क्या करती?वही जो अब कर रही हूँ कलम उठाई और गलत को शून्य दे, सही को योग्यता अनुसार अंक दे,अपने आस-पास एक प्यार का इकलौता नही पूरे का पूरा साम्राज्य ही खड़ा कर डाला  स्वीकार करती हूँ तुम वृक्ष के मजबूत तने हो जिसके कोटर में छुपे अनेक गृहों का अवलोकन कर, न जाने कितनी कलाओं में, अधकचरे ज्ञान से उबर, खुद को पारंगत करने वाली राह पर बढ़ चली। दिल का आकार विशाल होता गया, प्यार के असंख्य झरनों को खुद में समाहित करता चला गया और दिमाग? मानो ज्ञान के विशाल अथाह गगन को अपनी बाहों में समेटने को उत्सुक---

 जब भी तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना करती हूँ,कांप ही जाती हूँ। बहुत कुछ अभी भी शेष है कहने को पर एक पुरानी पंक्ति के साथ समाप्त करती हूँ।

'थोड़े को बहुत समझना' और विमुख होने की कल्पना भी मत करना।

तुम्हारी

रश्मि सिन्हा



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract