इंसानियत
इंसानियत
वो एक ठिठुरती सर्दी की रात थी। मुग्धाऔर उसकी विडो मां एक ही रजाई में कांपते हुए घुसे हुए थे। बेचैनी में कभी रजाई के अंदर ही हाथ मलते तो कभी सर पर टोपी ठीक करते। पर चैन न था।
ऐसे में ही उसे मां की कराह सुनाई दी, आह!
क्या हुआ मां? कुछ नही तू सो जा मुग्धा।धीरे-धीरे मां की आवाज़ तेज होने लगी, लगभग चिल्लाते हुए, "आह!! मर गई ----मुग्धा!!"
"माँ, माँ, क्या हुआ?"
" बहुत दर्द है पेट मे--"
दर्द के कारण वो कभी उल्टा लेटती कभी उठ कर बैठ जाती।एक पल तो मुग्धा को समझ मे न आया क्या करे फिर जल्दी से हॉट वॉटर बोटल में पानी गर्म करके दिया इस बीच उसे याद आ चुका था कि पार्क के कोने वाले मकान में डॉ वर्मा का घर है। हिम्मत करके उठी कोट सर पर टोपी और मफलर बांध वो घर से निकली डॉक्टर के घर भागी। मार्ग में उससे एक कुत्ता टकराया किसी ने उसे भी स्वेटर पहना दिया था।
डॉक्टर उसे देख पहचान गए। "अरे मुग्धा तुम इतनी रात में, क्या हुआ?"
"अंकल मां के पेट मे असहनीय दर्द है।"
"तुम चलो में भी तुम्हारे साथ ही चल रहा हूँ।"
घर लौटते समय अनायास उसकी नज़र एक भिखारिन पर पड़ी जो पार्क में एक पेड़ के नीचे अपने दो बच्चों को चिपकाए हुए थी और उन्हें अपनी धोती से ढकने का असफल प्रयास कर रही थी।
डॉक्टर माँ को इंजेक्शन और दवाएं देकर जाचुके थे। मां सो रही थी। मुग्धा एक बार फिर दरवाजा उढका कर बाहर निकली। अपना कोट,आधी बाजू का स्वेटर, मफलर टोपी सब उस भिखारिन को सौंप अब वो एक तृप्ति का अहसास लेकर घर लौट रही थी।