तन रंगा, मन रंगा
तन रंगा, मन रंगा
तीन वर्ष हो चुके थे तनु की विवाह के. अभिषेक और तनु के मध्य कभी झगड़ा तो क्या, ऊंची आवाज में बोलना भी न था लोग उदाहरण देते उनके प्यार का--
तभी घटी थी वो मनहूस घटना। दीवाली पर,वयप्राप्त सास बीमार चल रही थी। पेट भी खराब- तनु ने उन्हें कचौड़ी,पूड़ी देने से इनकार किया परन्तु उनके लिए सादा, स्वादिष्ट खाना बनाया था।दोपहर में जब वो किचन में गई तो 'अम्माँ 'एक कचौड़ी खा रही थी।
अनजाने में ही तनु की आवाज ऊंची हो आई थी,
ओफ्फो ! मना किया था न आपको ? और तब से उसके और अभिषेक के बीच मतलब भर की बातें रह गई थी।
तनु का मन करता, वो चिल्लाकर वजह पूछे,
"ऐसा क्या कर दिया मैंने ? अपनी मम्मी होती तो भी मैं क्रोधित हो जाती। उन्हें टोक देती",पर आत्माभिमान ऐसा न करने देता। वो अभिषेक का ख़्याल रखती और अभिषेक उसका पर शायद सतही--- सास, खुद को अपराधी महसूस करती। चार महीने हो गए थे। आज होली थी।अनमनी सी वो काम निपटा रही थी।
सास को चाय, नाश्ता देने उनके कमरे में पहुंची।
सास के मुँह से "तनु" निकल ही था कि पीछे से आये अभिषेक ने, उसे पकड़, रंगों से नहला दिया
रोकर तनु अभिषेक के सीने से लग गई, और 'तन रंगा, मन रंगा था।'
स्वच्छ, धुला आकाश----तनु की आंखें बरस रही थीं और उसे अभिषेक के बाहुपाश में देख सास मुस्कुरा दी, और कहा, "होली मुबारक मेरे बच्चों"। तनु की आंखें बरस रही थीं।