एक पत्र अज्ञात को
एक पत्र अज्ञात को
प्रिय अज्ञात,
तुम सही कहते थे कि ये जो प्राणहीन रिश्तों में तुम ख़ुद से प्राण डालने की कोशिश करती हो, ये जो तुम उन लोगों को अपना पूरा समय देती हो जो तुम्हारे एक क्षण के भी पात्र नहीं हैं, ये जो तुम उन्हें अपने अनमोल शब्दों से भाग्यशाली बनाती हो जो शायद तुम्हारे एक शब्द के भी काबिल नहीं...देखना एक दिन तुम्हें वो ख़ुद की नज़र में दोषी बनाकर चले जायेंगे। तुम समय देना बंद करो, रिश्ते में वो कशिश खत्म हो जाएगी। और ये तुम्हारी तरफ़ से बिलकुल नहीं होगा। ये तो उनकी सच्चाई है जो तुम्हें उस वक्त के लगाव के कारण दिखेगी नहीं लेकिन एक दिन तुम्हें महसूस होगा कि तुमने अपना वक्त उन भावनाहीन साथियों पर खर्च कर दिया।
तुम बिल्कुल सही कहते थे कि इस दुनिया में सब झूठ है, केवल कुछ ही अपने हैं जो तुम्हारे लिए हमेशा समर्पित रहेंगे लेकिन मैंने कभी माना ही नहीं। तुम हमेशा कहते थे कि एक दिन मैं चला जाऊँगा लेकिन देख लेना मेरी कही हर बात सच होगी और मैं हँसते हुए कहती थी कि तुम ज्यादा सोचते हो। आज समझती हूं, महसूस करती हूँ कि तुम सब सही कहते थे। हर रिश्ता अब शर्त के साथ चलने लगा है। बिना शर्त के रिश्ते निभाने वाले और प्यार करने वाले बड़े कम हो गए हैं। तुम थे जो बिना शर्त मुझे चाहते थे और उस चाहत को तब मैं समझ न सकी। अब तुम तो नहीं हो लेकिन तुम्हारा अक्स, तुम्हारी बातें और तुम्हारी चाहत फिर भी मेरे साथ है। तुम मेरे हमसफ़र तो नहीं लेकिन तुम्हारी बातें मेरी हमसफर ज़रूर रहेंगी। मुझे पता है कि आज नहीं तो कल तुम्हारी समझाई हर बात सही साबित होगी और तब मैं ख़ुद से यही कहूँगी कि लो तुम जीत गए। खुद की नासमझी पर हँसी आएगी और तुम्हारी जीत पर आँखें भीग जाएंगी। दिल में बस एक ही तमन्ना होगी कि काश! ये जीत हम साथ देख पाते।
