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स्वतंत्र लेखनी

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कोहबर की शर्त

कोहबर की शर्त

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विषय - समीक्षा

पुस्तक - कोहबर की शर्त

लेखक - केशव प्रसाद मिश्र

पुस्तक का शीर्षक जितना अनूठा है उतना ही अनूठा इस पुस्तक का हर पात्र है, हर वाक्य है।

सही मायने में मैं इसे एक प्यारी पुस्तक कहा जा सकता है।

विदित हो कि इस पुस्तक की कहानी की सहायता से ही "नदिया के पार" और "हम आपके हैं कौन" जैसी लोकप्रिय फिल्में बनाई गई हैं लेकिन यकीं मानिए इस पुस्तक को पढ़ना फिल्म देखने से कहीं ज्यादा रोचक है।

पुस्तक में उत्तर प्रदेश के छोटे से गाँव बलिहार और दुबेछपरा की बात की गई है। उपन्यास जिस तरह से शुरू होता है वह शुरुआत ही रोमांच पैदा करने वाली है।

आगे, पुस्तक की भाषा इस पुस्तक को और भी रोचक और मनोरंजक बनाती है। शुद्ध उत्तर प्रदेशी गाँव की भाषा। अहा! आनंद ही आ जाता है। प्रथम खंड से लेकर द्वितीय खण्ड तक पुस्तक पढ़ने में आपके चेहरे पर एक मुस्कुराहट बनी रहेगी।

इस पुस्तक में काका, ओंकार, चंदन, रुपा, गुंजा, बैद जी, बैदाइन, नाउन, दशरथ, गुंजा और चंदन के दोस्त आदि हैं।

सभी अपने आप में रोचक हैं, मज़ेदार हैं।

प्रथम खंड के भाग 2 में काका और ठकुराइन के मध्य जो चुहेलबाजी या यों कहें तो काका का रंगदार स्वभाव दिखाया गया है वह पढ़ते ही बरबस हँसी छूट पड़ती है।

काका हैं तो वैसे विधुर लेकिन आज की भाषा में कहें तो 'फ्लर्ट' करने की आदत गई नही है। यह सब पढ़कर आनंद ही आ जाता है।

इस पुस्तक की भाषा इसका श्रृंगार है। कुछ शब्दों जैसे टिकुली, गोदना गोदवाना, पलानी, चोन्हा, नौटंकी देखना, पचबज्जी, पहुना, बबुआ, लजकोंकर, अंजोरा, अन्हार, मानुष, मलिकार, भौजाई, चिन्हना, ददरी मेला, घाम आदि उत्तर प्रदेश की भोजपुरी का समर्थन करते बेहद प्यारे शब्द आए हैं। आधा मन तो यहीं प्रसन्न हो जाता है।

दिखाई गई फिल्म निश्चित ही उपन्यास से कुछ अलग है। बनाई गई फिल्म इस उपन्यास का आधा भाग है। फिल्म में गुंजा की शादी चंदन से ( नदिया के पार ) या फिर निशा की शादी प्रेम से ( हम आपके हैं कौन ) हो जाती है। लेकिन "कोहबर की शर्त" यहीं खत्म नहीं होती। यह शर्त और आगे तक है।

इस उपन्यास का नायक है चंदन और नायिका है गुंजा। दोनों ही अपने आप में शेर हैं। अगर चंदन पुरुष होकर निडर, साहसी, बेबाक है तो उधर गुंजा भी चंदन के इस स्वभाव का पूरा साथ देती है। बहिनिया के गर्भवती होने पर उसे अपनी बहिनियाकी जिम्मेदारी संभालने उसके ससुराल जाना पड़ता है और कहानी असली मोड़ यहीं लेती है।

गुंजा बहिनिया के घर जाते ही पूरी जिम्मेदारी संभाल लेती है।

उपन्यास में गुंजा और चंदन के मध्य हुए वार्तालाप को जिस चुलबुलेपन के साथ दिखाया गया है वह निश्चित ही प्रशंसनीय है।

वह जिस तरह से एक-दूसरे को परेशान करते हैं, मस्ती मजाक करते हैं, निःसंदेह ही मनोरंजक है।

यदि तीसरे व चौथे खंड की बात करें तो दोनों ही खंड बहुत मार्मिक हैं। पूरा दृश्य ही बदल जाता है। चेहरे की हँसी अचानक गायब हो जाती है और मन में पीड़ा एवं चेहरे पर उदासी छा जाती है। कई घटनाएँ होती हैं, बहुत कुछ होता है जिसमें टूटता सिर्फ़ चंदन है, घटता सिर्फ़ चंदन है। नियति उसके साथ भद्दा मज़ाक करती है जिसके प्रत्युत्तर में वह सिवाय रोने और परेशान रहने के कुछ नही कर पाता।

काका छूट जाते हैं, भौजी छूट जाती हैं, भइया चले जाते हैं और अंत में उसकी गुंजा ; वह भी निष्प्राण हो जाती है।

लेखक केशव प्रसाद मिश्र ने प्रेम का एक अलौकिक, मार्मिक, सुंदर, सरल और निर्मल चित्रण किया है। गुंजा और चंदन निःसंदेह प्रेम के सटीक उदाहरण की पराकाष्ठा को छूते हैं।

इतनी सरलता एवं स्वच्छता से आज का युग प्रेम कर ही नही सकता। वे दोनों समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

कुल मिलाकर, उपन्यास में गाँव, गाँव के लोगों का, वहा के जीवन का, आचरण का, नियमों का, संस्कारों का जो वर्णन किया गया है वह देखते ही बनता है।

यह उपन्यास दुखांत है। मन में एक प्रश्न छोड़ जाता है, मन वेदना से भर जाता है।


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