गेरुआ प्रेम
गेरुआ प्रेम
"मम्मी, मम्मी चलो बाहर, देखो कोई आया है।" रूपा का पाँच साल का पुत्र कुछ ऐसा कहते हुए रसोई की तरफ दौड़ा।
"अरे! अरे! त्रिशु, ऐसे क्यों दौड़ रहे हो? मैंने सुन लिया है तुमने क्या कहा। कौन आ गया बाहर दरवाजे पर।" रूपा ने त्रिशु से कुछ ऐसा कहा। अभी रूपा रसोई से बाहर आती ही कि त्रिशु दौड़कर दरवाजे पर चला गया। रूपा साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती हुई बाहर आई। उसने देखा कि बाहर एक साधु घर घर भीक्षा मांग रहा है। त्रिशु ने उस साधु की तरफ इशारा किया और कहा,"माँ, देखो इन्हें। इन्हें भूख लगी है। इनके पास खाना नही। तुम इनको कुछ दे दो ना।"
रूपा को अपने लाडले पर उस समय प्यार आया। उसने त्रिशु को गले लगा लिया और बड़े स्नेह से सर सहलाया। रूपा ने कहा,"अभी उन साधु महाशय को हमारे घर के पास आने दो। वो जैसे ही आयेंगे मैं उन्हें जरूर कुछ दूँगी खाने को।"
रूपा पीछे पलटकर अपनी सास से कुछ बात करने लगी। अभी बात करते कुछ पाँच मिनट ही हुए थे कि त्रिशु चिल्लाया,"माँ, वो इस तरफ आ रहे हैं।"
वह साधु शायद त्रिशु की इन बातों को देख चुका था। वह बिना किसी के बुलाए ही रूपा के दरवाजे पर जा रुका और त्रिशु को एकटक देखने लगा। रूपा दरवाज़े पर गई और उसने साधु की तरफ एक नज़र दौड़ाई। उसे कुछ बहुत ही अजीब लगा। कुछ ऐसा अजीब जो उसने कुछ वर्षों पहले ही पीछे छोड़ दिया था। रूपा ने त्रिशु का हाथ पकड़ा और उसे दरवाज़े से थोड़ा अंदर किया।
रूपा कुछ संदेह में थी। त्रिशु कुछ कह रहा था लेकिन वह उसे सुन नही रही थी। उसकी नज़र अभी भी साधु पर थी।
फिर साधु ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कुछ खाने का माँगते हुए इशारा किया। रूपा तब अंदर गई और कुछ खाने के समान को लाने लगी। इधर त्रिशु वहीं अपनी दादी माँ के साथ दरवाज़े पर खड़ा साधु को देख रहा था। साधु ने त्रिशु को एक मुस्कान दी। त्रिशु भी थोड़ा डरते हुए मुस्काया। तभी रूपा की सास ने साधु से बातचीत शुरू की। क्योंकि रूपा अभी साधु के खाने की व्यवस्था में थी इसलिए शायद थोड़ा समय मिलने से उन्होंने बात करना उचित समझा।
उन्होंने साधु से पूछा,"कहाँ रहते हो?" साधु मुस्कुराता हुआ बोला,"यहीं बगल के एक मठ में। अभी यहीं ठिकाना हुआ है। आगे का कुछ ज्ञात नही।"
"अच्छा।" रूपा की सासु माँ ने हामी भरी।
"क्या मैं एक बार इस बच्चे को गोद ले सकता हूँ? मैं इसके प्रयास को बहुत लम्बे समय से देख रहा था। यह बालक बहुत परेशान था मेरी क्षुधा से। अगर आपकी अनुमति हो तो बस एक बार क्या मैं......" साधु ने रूपा की सास से पूछा।
सासू माँ ने पीछे पलटकर देखा। उन्हें शायद रूपा की भी अनुमति लेनी थी। उनके मन में शायद थोड़ा भय था।
"डरिए मत। मैं कुछ नही करूँगा। यहीं आपके सामने ही हूँ। बस बहुत दिनों बाद किसी पर प्रेम लुटाने की इच्छा हुई।" साधु ने भरी आँखों से यह कहा।
सासू मां मान गईं और उन्होंने अनुमति दे दी।
साधु ने बच्चे को गोद में उठा लिया। उसकी आँखें भरी हुई थी। वह मुस्कुरा रहा था और रो भी रहा था।
रूपा को साधु का एक अनजान बच्चे के लिए यह भाव समझ नही आया। साधु को बच्चे को प्यार करते देख रूपा भी आश्चर्य में थी। पता नही क्यों मगर साधु उसे कहीं न कहीं जाना पहचाना सा लग रहा था। मगर फिर उसे लगा कि उसके पहचान में भला साधु कहाँ से आएगा। वह खाना लेकर आ ही रही थी तभी उसने साधु को त्रिशु से बात करते और प्यार करते सुना।
"तुम बहुत प्यारे हो बेटा और तुम प्यार करने के लिए ही बने हो।" साधु त्रिशु को पुचकारते हुए यह कहता है।
रूपा स्तब्ध खड़ी पीछे मुड़कर साधु को देखती है। रूपा की आँखों में आसूँ थे। उसके हाथ से पानी का गिलास छूट जाता है। इधर साधु की नज़र रूपा पर जाती है। दोनो की आँखें एक दूसरे को देख रही होती हैं। और तब यकायक रूपा के मुँह से निकलता है, "आशु।"
रूपा अतीत में जाती है। उसे याद आता है कि कैसे एक बार आशु ने रूपा की प्रशंसा में यह कहा था कि,"रूपा तुम थोड़ी निष्ठुर हो लेकिन मैं फिर भी कहूँगा कि तुम प्यार करने के लिए ही बनी हो।"
आशु जो रूपा से एकतरफा प्रेम करता था और जिसे रूपा ने कभी स्वीकार नही किया था। आशु ने कभी बातों ही बातों में कहा था कि," कि ठीक है तुम चली जाना रूपा जहाँ तुम्हे जाना हो। अभी वर्तमान में ना सही लेकिन कभी सुदूर भविष्य में मैं तुम्हे जरूर दिखुँगा। भले तब मेरा जीवन बदल चुका होगा। मेरे कपड़े गेरुआ हो चुके होंगे और हाथ में एकतारा होगा। और तुमसे भीख माँगने मैं एक बार तुम्हारे पास जरूर आऊँगा। मुझे यकीन है कि तुम मुझे जरूर पहचान लोगी।"
आशु ऐसा कहकर रूपा के जीवन से चला जाता है फिर कभी ना वापस आने के लिए। इधर रूपा की भी दुनिया बसा दी जाती है लेकिन आशु का कहा सच हो जायेगा इस बात का रूपा को अंदाज़ा भी न था।
"मम्मी, मम्मी।" ऐसा कहकर त्रिशु रूपा के पास आना चाहता है। रूपा स्तब्ध थी।
साधु रूपा के हाथ से भोजन ले लेता है। उस भोजन को वह अपने हृदय से लगाता है, अपना एकतारा हाथ में लेता है, अपने गेरुआ झोले में उस भोजन को डालता है और त्रिशु के सर पर हाथ फेरते हुए कहता है,"प्रेम असीमित है। प्रेम को किसी परिधि में नही बाँधा जा सकता। मेरे प्रेम का अक्स सदा तुम्हारे साथ रहेगा। खुश रहो।" ऐसा कहकर साधु चला जाता है। ( यह वो बात है जो आशु रूपा से संवाद के दौरान अक्सर कहा करता था।)
