हमारी दुनिया
हमारी दुनिया
सबके साथ रहते-रहते एक दिन हम उनसे दूर हो जाएँगे। कदम जो साथ चले थे वो रुक जाएँगे। पर यह सुखद होगा। साथ छूट जाने से उस छूटे हुए साथ पर दुख करना कोई बुद्धिमानी नही होगी। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है और यह पँक्ति यहीं सटीक बैठेगी।सबसे छूटकर, जीवन की राहों में जब हम आगे बढ़ते चले जाएँगे तो निःसंदेह हम खुद को पाएँगे। जो समय, महत्व और सम्मान हम दूसरों को देते थे वो हम खुद को देना शुरू करेंगे। उनसे बात करने की पराकाष्ठा को हम पार कर जाएँगे और डूब जाएँगे ख़ुद में। जब हम ख़ुद से बात करना शुरू करेंगे तब जानेंगे कि हम वास्तव में क्या हैं? दूसरों की दृष्टि से तो पूरी ज़िंदगी ख़ुद को देखा अब हम खुद को ख़ुद की नज़र से देखेंगे और आँकेंगे कि हम मनुष्य के तौर पर कितने सफ़ल हैं!
शायद तब हमें यही महसूस होगा कि हमसे बेहतर हमें कोई जानता ही नही था। तब शायद हमें यही लगेगा कि हम स्वयं ही स्वयं के बेहतरीन मित्र हैं। तब एक अकेला बंद कमरा, कुछ किताबें और गीतों के धुन हमारे अन्य मित्र होंगे और यही हमारी दुनिया।
