ए चाँद क्या बात करूं
ए चाँद क्या बात करूं
चांँद भी गवाह तुम में वो बात थी
प्यार के मोती धरा पर
बिखेरती थी तुम
प्रेम की पहली पाती थी तुम
शबाब रूमानियत में
डूबी सी लगती थी तुम
पीपल के पत्ते पर
मोर पंख की कलम से
लिखे प्रेम पत्र सी लगती थी तुम।
हर क्षण हरसिंगार के फूलों सा
झरता मैं रहता था नसीम थी तुम
चांद की चाँदनी में
वह गोरा सा तुम्हारा तन
गुलशन में बिछा हुआ
रूपहला सा इक पलंग
इधर तो हुस्नेबाग
उधर चांद की झलक
देता था बोसा प्यार के
चांद की बादामी रात में
करती थी तुम इजहार
ओढ़ के चुनरिया प्यार की।
ढल गई रात
बिखर गई चांदनी
दे गई तुम्हारी जुदाई
छाई मन में रुसवाई
कर गई ऱंजीदा
मुझको तुम्हारी बेवफाई
अब ज़ुबान खामोश
आंखों में नमी है
यही दास्तां ए-जिंदगी है
शरद की धवल रात्रि में
प्
रश्नाकुल मन उदास
कहता है मुझसे
उठो चांद से बात करो
चांद बरसाता अमृत
मुझे लगता था
वह तप्त हलाहल
नितांत अकेले
मैं उससे क्या बात करूं।
कांटा लगे मुद्दत हुई
फिर भी दर्द है हरा घाव है हरा
इस तन्हाई का
कांटा निकाला किसीने
मेरे सीने में प्यार का अंकुर
उगाया किसी ने
चोट भी खाता रहा
अश्क भी पीता रहा
फिर भी सिला वफ़ा का
दिया किसी ने
मैंने रो-रोकर
जमीं -आसमां है एक किया
कभी मेरे घाव को
सहलाया किसी ने
ए चांद तू ही बता
आरजू का ये तलबगार बेजार
अंश के चांद की अगवानी
क्यों कर करें
आज भी तेरी बिखरी
चांदनी की ठंडक
तपती रेत सी लगती
फिर तेरी जरूरत कहां रह जाती
बता तुझ से क्या बात करूं
ए चाँद क्या बात करूं ?