बारात की बस
बारात की बस


पहाड़ों पर घूमने फिरने का आनंद कुछ और ही है। वहां की वादियां, झरने रंग-बिरंगे धरती पर बिछे फूलों के कालीन, विशेष रूप से सर्दी में प्रकृति यहाँ खुलकर अपना सौंदर्य दिखाती है। उन नजारों को देख घर लौटना अच्छा ही नहीं लगता।ये नजारे ईश्वर की इस रचना को मुंह से बाह निकालने पर मजबूर कर ही देते हैं। दिल को सुकून और तसल्ली भी मिलती है।
पहली बार ऐसे ही एक पहाड़ी क्षेत्र में जब हम अपने चाचा जी के यहां घूमने फिरने के लिए गए। दो दिन बाद ही ऑफिस से कॉल आ गया। "सुबह बॉस आने वाले हैं जरूरी मीटिंग है।" अब रात को ही निकलना पड़ेगा। चाचाजी ने समझाया अभी रात में जाना ठीक नहीं है, पहाड़ी इलाका होने के कारण रात में बस भी इक्का-दुक्का आती है सुबह चले जाना, ज्यादा से ज्यादा अनुपस्थिति ही तो लगेगी।
हमें मालूम था पहाड़ी लोग बड़े ही सीधे साधे और सहायक होते हैं। इसलिए जाने का मन बना ही लिया। चाचा जी हमें छोड़ने बस स्टैंड तक आना चाहते थे, पर उनकी वृद्धावस्था देखकर हमने उन्हें साथ चलने के लिये मना कर दिया।
पहाड़ी रास्ता ऊंचा नीचा सुनसान, रात के अंधेरे में इक्का-दुक्का मकानों की डिम डिम रोशनी, ऊपर से अनजानी जगह हमें डरा रही थी। थोड़ी दूर चलने के बाद पक्की सड़क दिखाई दी। जान में जान आई चलो पार हो गए।
काफी देर इंतजार के बाद बस आई। हम उस में बैठ गए। मैंने बस कंडक्टर को अपना शहर बताते हुये टिकट के पैसे पूछे। उसने सर हिला दिया बोला कुछ नहीं।
आधी रात होने के बावजूद भी यात्री गण कुछ हँस बोल रहे थे ,कुछ अंताक्षरी खेलते हुए खूब शोर मचा रहे थे। मैंने सोचा शायद कोई बारात जा रही है। हमारी बगल वाली सीट पर एक छोटी बच्ची बैठी थी जो मुझे देख कर हौले से मुस्कुराई, बोली कुछ भी नहीं। मैंने पूछा"
बेटी तुम्हारा नाम क्या और यह बारात कहां जा रही है?" उसने सर हिलाते हुए होंठों पर उंगली रख कर चुप रहने का इशारा किया।
बस चल पड़ी थी हमारा शहर चालीस किलोमीटर दूरी पर था। मैंने महसूस किया। ड्राइवर ने बस चलानी तो शुरू की, रोकी कहीं नहीं। जबकि थोड़ी थोड़ी दूर पर स्टॉपेज थे ।सोचा फास्ट बस होगी रफ्तार भी तेज थी। उनके गाने मन को आनंद पहुंचा रहे थे। नींद भी कोसों दूर थी।
हमारा शहर अभी आया भी नहीं था। बस रुक गई। मुझे ड्राइवर ने उतरने का इशारा किया मैंने कहा "भाई पैसे तो ले लो" उसने ना में सिर हिलाया" पर भाई अभी हमारा शहर भी तो नहीं आया" उसने मुड़कर देखा पता नहीं उसकी नजर में क्या था, बिना हुज्जत किए हम उतर गए।
बस चलने लगी तभी छोटी बच्ची ने हाथ हिलाकर बाय किया। मैंने हाथ उठाया ही था लेकिन यह क्या बस खाई में गिर गई?
हम कुछ समझ ही नहीं पाए। होश आया तो रात की कालिमा में तीन चार छाया को अपने इर्द-गिर्द खड़े देख मुख से चीख निकल गई फिर बेहोशी छा गई। मैंने महसूस किया कोई जोर जोर से मुझे हिला रहा है और कह रहा है पानी लाओ जल्दी से देखो बेहोश है।
आवाज सुनते ही देखा कुछ लोग खड़े हुए थे और चाय पी रहे थे। मैंने कहा "देखा आप लोगों ने बस कैसे खाई में गिर गई। चलो उनकी सहायता करते हैं?" मेरी तरफ देखते हुये उनमें से एक ने कहा" लगता है तुम लोग यहां नये आए हो"
"हांजी" मैंने कहा "इसलिए आपको पता नहीं है यहां जो भी नया आता है। इस बस की सवारी करने के बाद यही देखता बस खाई में गिर गई है। उसके यात्री किसी को नुकसान भी नहीं पहुंचाते। नई सवारी को बस यहां तक ही छोड़ती है। अब तुम भी जल्दी से यहां से जाओ "
हम कुछ समझ पाते जब तक चारों तरफ सन्नाटा छा गया। वहां आसपास दूर-दूर तक हमारे सिवाय कोई नहीं था।