HARSH TRIPATHI

Others Tragedy Classics Drama Thriller

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HARSH TRIPATHI

Others Tragedy Classics Drama Thriller

दस्तूर - भाग-15

दस्तूर - भाग-15

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जब फरीद की सुनवाई चल रही थी, करीब उसी वक़्त जहाँआरा हर बार की तरह ही अपने अब्बू से मिलने आयी हुई थीं, और हर बार की तरह ही ज़ीनत के साथ अपने अब्बू के कमरे में बैठी हुई थीं. लेकिन आज वहाँ सिर्फ वे तीन लोग ही नहीं थे, बल्कि एक चौथा शख्स भी था. उन तीन लोगों के साथ उस कमरे में आज आँसू बहाती हुई नादिरा भी बैठी थीं.

हालात कुछ ऐसे थे कि नादिरा उन सभी से अपने शौहर फरीद की ज़िंदगी की भीख माँग रही थीं, और वे तीनों उनकी हर मुमकिन मदद करने की पुरज़ोर ख्वाहिश रखते हुए भी, नादिरा से नज़रें मिला नहीं पा रहे थे. सैयद साहब अपने पलंग पर, अपने दोनों ओर मसनद रखे बैठे थे और बेबस, बुझी हुई सी, आँसुओं से भरी अपनी लाचार नज़रों से कभी छत की ओर देख रहे थे, कभी ज़मीन की ओर, कभी खिड़कियों की ओर, कभी जहाँआरा की ओर तो कभी ज़ीनत की तरफ, लेकिन उनकी ज़बान से एक लफ्ज़ तक नहीं फूट सका था. उनकी उँगलियाँ चादर को मसल रही थीं, लेकिन इससे ज़्यादा वे कुछ कर भी नहीं सकते थे. इस घर की सबसे बड़ी बहू, अपने ससुर के आगे फूट-फूट कर रो रही थी और अपनी झोली यह सोचकर फैलाये हुए थी कि "काश!....मेरा देवर अपने बुज़ुर्ग, बीमार बाप की कुछ तो बात मान लेगा, और फरीद को छोड़ देगा...." लेकिन आज सैयद साहब के लिये, अपनी बहू की इस उम्मीद पर खरा उतरना नामुमकिन ही लग रहा था. उनकी हैसियत अब इतनी भी नहीं रह गयी थी कि वह अपने बेटे मिर्ज़ा हैदर को कुछ भी कह सके. नादिरा के सवालों का जवाब सैयद साहब की मायूस, बेबस और लाचार निगाहें साफ तौर पर दे रही थीं.

घर में सभी भाई-बहन अपनी बड़ी आपा जहाँआरा की बातें ज़रूर मानते थे, यही सोचकर नादिरा उनसे भी रोते हुए इल्तजा कर रहीं थीं "आपा!....आप तो जानती हैं सुलेमान के अब्बू को.....आज तक किसी के साथ दग़ा नहीं की उन्होनें, कोई भी बुरा या गलत काम नहीं किया उन्होने........न तो अपने कारोबार में, न ही अपने रिश्तों में........अपने सभी छोटे भाईयों को जान से भी ज़्यादा प्यार करते हैं वो.......लेकिन आज देखिये आपा!....किस्मत उन्हें किस मुक़ाम पर ले आयी है!...."

नादिरा रोये जा रही थीं. जहाँआरा चुपचाप उनके बगल बैठी उनके कंधे पर हाथ थपथपाते हुए उन्हें दिलासा देना चाह रही थीं, लेकिन यह बात जहाँआरा भी जानती थीं, कि दिलासा देने की इस अदनी सी कोशिश के अलावा वह और कुछ कर भी नहीं सकती थीं. मिर्ज़ा को राज़ी करने की उन्होनें हर मुमकिन कोशिश की थी लेकिन उनकी सभी कोशिशें बेकार हो गयीं थीं.

नादिरा ने उनसे और सैयद साहब से रोते हुए कहा "अब्बू!!, आपा!!.....हमें कुछ भी नहीं चाहिये......कारोबार में कोई भी हिस्सा नहीं चाहिये......मिर्ज़ा को सब कुछ दे दिया जाये......हमें सिर्फ हमारा बच्चा सुलेमान और सुलेमान के अब्बू लौटा दीजिये.........हम कसम खाते हैं, हम सब सौघरा से बहुत दूर चले जायेंगे......किसी अनजानी सी जगह जाकर कुछ और काम शुरु कर देंगे, कोई मजदूरी कर के खा लेंगें, लेकिन सौघरा की ओर देखेंगे भी नहीं.........हमें बस एक दफा हमारे बेटे और शौहर से मिलवा दीजिये...."

सैयद साहब आँसुओं से भीगी अपनी आँखें भींचकर अपना सिर झटकने के अलावा कुछ न कर सके. उनके आँसू आँख से उछलकर बिस्तर की चादर, और उनके कपड़ों पर बिखर गये.

बेहद मायूस जहाँआरा ने नादिरा के कंधे पर थपकी देते हुए धीमी आवाज़ में कहा "भाभी, हम बात करेंगे मिर्ज़ा से.......हमें यकीन है कि अल्लाह के करम से फरीद और मिर्ज़ा भी हम सभी के पास वापिस आयेंगे, और हम सभी पहले की तरह ही रह सकेंगे." लेकिन हकीकत में यह बात वह भी जानती थीं, कि मिर्ज़ा को रोका नहीं जा सकता है.

लेकिन सबसे बुरी हालत ज़ीनत की हो गयी थी. वह सब कुछ सुन सकती थी, जो वहाँ हो रहा था, वह सब कुछ देख सकती थी, लेकिन उसके पास बोलने के लिये कुछ भी नहीं था. ज़ीनत अपने कानों से एक ऐसे इंसान के लिये बुराइयाँ और गालियाँ सुनने के लिये मजबूर थीं, जिसे वह दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार करती थीं. शौहर से जुदा होने के बावजूद मिर्ज़ा को ज़ीनत दिल-ओ-जान से चाहती थीं. जब मिर्ज़ा ने उन्हें छोड़कर कुलसूम से शादी करने का फैसला किया था, तब ज़ीनत के माँ-बाप ने उन्हें मिर्ज़ा से तलाक़ लेने की सलाह दी थी, लेकिन उस वक़्त भी ज़ीनत ने यही कहा था "वह मेरे हैं......और उन पर सबसे पहला हक़ सिर्फ मेरा है, और यह हक़ मैं किसी और को कभी नहीं दे सकती हूँ. मैं तलाक़ नहीं लूँगी.......चाहे वह दूसरी शादी ही क्यों न कर लें.......वह जो आयेगी, वह हमेशा 'दूसरी' ही रहेगी, कभी 'पहली' नहीं बन सकती....." मिर्ज़ा की इस बेवफाई के बाद भी ज़ीनत उन पर मरतीं थीं......लेकिन आज ज़ीनत एक ऐसा ज़हर पीने को मजबूर थीं, जो न तो उनसे निगला जा रहा था, न उनसे उगला ही जा रहा था. आज उन्हें बेहद प्यार करने वाली उनकी नादिरा भाभी, ज़ीनत को बेटी की तरह मानने वाले उनके ससुर सैयद साहब और ननद जहाँआरा, उनके शौहर मिर्ज़ा को जी भरकर कोस रहे थे, और ज़ीनत बिल्कुल नज़र नीची किये, गर्दन झुकाये ये सब कुछ सुन रही थीं. वह देख सकती थीं कि कैसे बदहवास और डरी हुई, रोती हुई नादिरा हर किसी से फरियाद कर रही थी, हर एक से फरीद और सुलेमान की जान की भीख माँग रही थीं…….और तो और, अपने से कितनी छोटी ज़ीनत के आगे भी वह बार-बार हाथ जोड़ रही थीं, कि क्या पता ज़ीनत ही मिर्ज़ा को समझा सकें.......लेकिन ये कहाँ मुमकिन था?........अगर ये मुमकिन होता तो क्या ज़ीनत, मिर्ज़ा को कुलसूम से शादी करने से रोक नहीं लेतीं?......क्या उस वक़्त ज़ीनत मिर्ज़ा को समझा नहीं सकती थीं?......खैर.

रुखसार, मिर्ज़ा के सूरजगढ़ वाले फार्महाउस पर उस रात अपने कमरे में आईने के आगे खड़ी परेशान थीं. काफी देर तक खुद को आईने में देखती खामोश खड़ी रहीं. फिर अचानक ही बेहद गुस्से में आकर आईने के बगल में रखे एक फूलदान को उठाया और चीखते हुए सामने शीशे पर दे मारा. उनकी साँसे काफी तेज़ चल रही थीं. उनके नथुने फुफकार रहे थे और आँखों से अंगारे बरस रहे थे. दिल ज़ोर से धड़क रहा था और उँगलियाँ और होंठ काँप रहे थे. 

 पहले दिन की सुनवाई पूरी करके, फरीद को मिर्ज़ा के आदमी जिस गाड़ी में दिल्ली ले गये थे, उसी गाड़ी से वापिस सूरजगढ़ ले आये थे और वापस आकर फरीद को उसी कैदखाने में बंद कर दिया था.

रुखसार भी वापस आकर नहा-धो कर बैठक में सोफे पर आ कर बैठीं. वह काफी गुस्से में लग रहीं थीं. उन्हें ऐसे खामोश और गुस्से में तमतमाया देखकर सामने के सोफे पर बैठे मिर्ज़ा ने मुस्कुराकर पूछा "क्या हुआ आपा?....कैसी रही पहले दिन की सुनवाई?".

मिर्ज़ा का यह कहना था कि रुखसार आग-बबूला हो गयीं. किसी ज्वालामुखी सा फटते हुए वह गुस्से में दाँत पीसकर, चिल्लाकर मिर्ज़ा की तरफ देखते हुए बोलीं "ये कमीना, सुअर कहीं भी चुप नहीं रह सकता!!!!......इसे हर जगह अपनी हिम्मत दिखानी होती है!!!!"

हैरान मिर्ज़ा ने पूछा "क्या हुआ आपा?....इतने गुस्से में क्यों हैं आप?"

"वह नालायक, निकम्मा फरीद!!!!...." रुखसार गुस्से से चीखीं. "....वह आदमी वहाँ सुनवाई में भी चबर-चबर बोले पड़ा था!!......कमीना वहाँ भी खामोश नहीं रहा ये!!!" रुखसार की तेज़ साँसे उस कमरे में साफ सुनी जा सकती थीं.

मिर्ज़ा उन्हें देख रहे थे.

"....नामालूम इसे आदमी को इतनी हिम्मत कहाँ से मिल जाती हैं?" रुखसार ने सामने रखी मेज की ओर देखते हुए कहा. मिर्ज़ा खामोश बैठे अभी भी अपनी आपा को देख रहे थे.

उनकी ओर देखकर रुखसार ने फिर कहा "इस आदमी का कुछ करना ही पड़ेगा मिर्ज़ा.......इसे तोड़ना बहुत ज़रूरी है......वहाँ सभी मौलवियों और ईमामों के आगे भी इसकी ज़बान कैंची की तरह चलती ही जा रही थी."

मिर्ज़ा सुन रहे थे.

"मिर्ज़ा, कैसी भी करके इसकी ये हिम्मत तोड़नी ही होगी." रुखसार ने कहा.

मिर्ज़ा कुछ देर तक खामोश बैठे, अपने दायें हाथ की उँगलियाँ अपनी ठोढ़ी पर रखे, सामने की मेज की ओर देखते रहे.

"…..सुनवाई में जो कुछ भी ये आदमी वहाँ बोल रहा था, अगर वह बातें बाहर आ गयीं, तो तमाशा खड़ा हो जायेगा." रुखसार बोलीं

मिर्ज़ा अभी भी चुप थे और पहले की तरह ही मेज की ओर देख रहे थे.

रुखसार भी कुछ वक़्त तक उन्हें देखती रहीं. फिर उन्होने कहा "क्या सोच रहे हैं मिर्ज़ा?"

मिर्ज़ा उनकी ओर देख कर, लम्बी साँस छोड़ते हुए मुस्कुराकर बोले "खाने का वक़्त हो चला है आपा.......आइये, चलते हैं."

फिर दोनों ही सोफे से उठ कर खाने की मेज की ओर बढ़ गये.

इधर पहाड़गंज के अपने होटल के कमरे में डॉ. ज़ुल्फिक़ार अगले दिन की सुनवाई की तैयारियों में तल्लीन थे, लेकिन उसी कमरे में मौजूद क़ाशनी साहब आज कुछ परेशान लग रहे थे. वह कमरे के एक सिरे से दूसरे सिरे की ओर बार-बार आ-जा रहे थे. उन्हें देखकर ज़ुल्फिक़ार साहब ने कहा "क्या बात है काशनी साहब?.....कमेटी के दफ्तर से वापिस आकर आप कुछ खोये हुए से क्यों लग रहे हैं?"

क़ाशनी साहब ने कहा "आज सुनवाई में जो कुछ भी दिखा डॉक्टर साहब, उसे देखकर बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. ऐसा लगा......ऐसा लगा कि जैसे वे लोग पूरी तरह से मन बनाकर आये हैं कि चाहे फरीद या आप कुछ भी जवाब दें, कोई भी सबूत निकालकर दिखायें, वे लोग इस बात के लिये बिल्कुल वाबस्ता हैं कि फरीद को गुनहगार साबित करके ही रहेंगे."

ज़ुल्फिक़ार साहब ने कोई जवाब नहीं दिया, बस 'हाँ' में सिर हिलाया और फिर से अपनी तैयारी में डूब गये.

खाने की मेज पर बैठते हुए मिर्ज़ा ने वहाँ मौजूद दीवान से पूछा "आज खाने में क्या है दीवान?"

"वही जो आपने शाम को कहा था जनाब!.......आज राजमा-चावल है." दीवान ने जवाब दिया.

"हाँ.....मैं तो भूल ही गया!.......आज तो हमारे प्यारे भतीजे सुलेमान का पसंदीदा खाना बना है, राजमा-चावल." मिर्ज़ा ने हँसते हुए दीवान और फिर रुखसार की ओर देखा. रुखसार के चेहरे पर कोई फर्क नहीं आया था. शायद उन्होनें यह बात सुनी भी नहीं थी.

"खाने में कुछ मीठा भी है क्या आज?....." मिर्ज़ा ने दीवान से आगे पूछा. ".......हमारे भतीजे को खाने के बाद स्वीट-डिश बहुत ज़्यादा पसंद है.........सौघरा में इनकी अम्मी, इनका खाना खत्म होते ही बिना कुछ कहे एक मिठाई इनकी थाली पर रख दिया करती थीं..........बिल्कुल नवाबी शौक हैं जनाब के!"

"जी जनाब!...खीर है आज."

"बहुत अच्छे!!!" मिर्ज़ा ने बहुत खुश होकर कहा. ".....तभी इतनी शानदार खुशबू आ रही है चावल की.......इसी बहाने हम भी आज खीर खायेंगे."

रुखसार अब भी यह सब नहीं सुन रहीं थीं.

मिर्ज़ा ने दीवान से कहा "सुनो दीवान, सुलेमान के कमरे में आज रोज़ की बजाय थोड़ा ज़्यादा राजमा-चावल, और थोड़ी ज़्यादा खीर ले जाना.........सुलेमान को बहुत पसंद है राजमा-चावल."

"जी, बिल्कुल जनाब!" दीवान ने जवाब दिया.

उस रात, अगले दिन की सुनवाई की पूरी तैयारी करके, पहाड़गंज में होटल के अपने कमरे में करीब 1 बजे डॉ. ज़ुल्फिक़ार सो गये थे. मगर बगल वाले बिस्तर पर लेटे क़ाशनी साहब की आँखों से आज नींद गायब थी. उनके दिल-ओ-दिमाग में बवंडर सा मचा हुआ था, लेकिन इस बवंडर में फरीद कहीं नहीं थे.

आज क़ाशनी साहब एक रिश्ते के बारे में सोच रहे थे. वह एक ऐसा बेइंतेहा खूबसूरत रिश्ता था जिसे क़ाशनी साहब बेहद खुशी से जीना चाहते थे. एक ऐसा रिश्ता जिसे उन्होनें और डॉ. अखिलानंद ने बड़ी मेहनत से, बड़े प्यार से तिनका-तिनका करके बुना था. वह क़ाशनी साहब की ज़िंदगी का एकमात्र ऐसा रिश्ता था जो उन्होनें पूरी तरह से, सिर्फ अपनी मर्ज़ी से तैयार था. एक ऐसा रिश्ता जो उनके ऊपर किसी का थोपा हुआ नहीं था. एक ऐसा रिश्ता जो उन्हें बेशुमार खुशी और सबसे ज़्यादा सुकून दिया करता था, लेकिन ज़माने की रवायत ऐसी थी कि वह बहुत चाहकर भी किसी को अपने इस रिश्ते के बारे में बता नहीं सकते थे. वह एक ऐसा रिश्ता था जिसे लाख चाहने के बावजूद भी वह कोई नाम नहीं दे सकते थे. इस ग़म में, अकेले में कभी-कभी वह छिप-छिप कर रोया भी करते थे. तन्हाई में जब कभी वह डॉ. अखिल के साथ होते थे, तब वह रोते हुए उनसे माफी ज़रूर माँगते थे "...हमें माफ कर दीजिये अखिल!.....गुनाह-ए-अज़ीम कर दिया हमनें अखिल!.....मोहब्बत में धोखा दिया आपको हमने."

"........पता नहीं क्यों? लेकिन हम आप जैसे बहादुर और दिलेर नहीं हो सके.......पता नहीं क्यों? लेकिन हम आपकी तरह इस ज़माने से लोहा नहीं ले सके......टकरा नहीं सके. पता नहीं क्यों? लेकिन हम अपने घर वालों को अपनी शादी करने से रोक नहीं सके........पता नहीं क्यों हमने बीच मझधार में आपको अकेला छोड़ दिया?.......पता नहीं क्यों हमने इस भेड़िये जैसे बेरहम ज़माने के चुभते हुए सवालों का सामना करने के लिये आपको आगे कर दिया, और खुद आपके पीछे छिप गये?. पता नहीं क्यों? लेकिन हम कभी सबके सामने इस बात का इज़हार ही नहीं कर सके कि हम आपसे कितनी शिद्दत से मोहब्बत करते हैं.........बड़े-बड़े वादे किये थे अखिल हमने आपसे कि आपको कभी तन्हा नहीं छोड़ेंगे......आपके साथ आखिरी साँस तक खड़े रहेंगे.........लेकिन अखिल, हमें माफ कर दीजिए!!......अपने माँ-बाप, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और इस पूरे माशरे के सामने हम एक पल भी टिक नहीं सके अखिल!!.......हमारी मोहब्बत इतनी कच्ची, इतनी घटिया और कमज़ोर, इतनी खोखली निकली अखिल!!.......कहाँ तो हमें हर हाल में आपके साथ रहना था, और कहाँ तो हम बिल्कुल भग़ोड़े साबित हुए.......और आज तक भाग ही रहे हैं अखिल!!!......आज भी हम मुँह खोलकर किसी से कह नहीं पाते कि हम आपसे कितना प्यार करते हैं!!.....जिस मोहब्बत पर हमें बहुत नाज़ होना चाहिये था, बहुत फख्र होना चाहिये था........उसी मोहब्बत को हमें ज़माने की नज़रों से छिपा कर जीना पड़ रहा है.........और एक तरफ आप हैं अखिल!!!.....हम दोनों में अगर किसी ने मोहब्बत का सही हक़ अदा किया है, तो वो आप हैं अखिल!!....ज़माने भर के तंज सहे आपने.....क्या माँ-बाप, क्या रिशेदार-नातेदार, लेकिन आपने आज तक किसी को भी अपनी मोहब्बत के रास्ते में आने नहीं दिया!!!......और बदले में हमने क्या किया अखिल?.....ये हमने क्या किया?.......पूरी कायनात का सबसे पाक रिश्ता होता है, मोहब्बत का रिश्ता.....और हमनें इसी पाक रिश्ते को बदनाम और बरबाद कर दिया."

फिर डॉ. अखिल उन्हें बहुत प्यार से समझाते थे "....आप उदास न हों, आप रोयें नहीं हशमत!!....हर एक इंसान की तरह आपकी भी कुछ मजबूरियाँ थीं, कुछ ज़िम्मेदारियाँ थीं......आपने जो कुछ किया, उन्हीं के मद्देनज़र किया........शायद आपकी जगह हम होते तो मुमकिन था कि हम भी ऐसा ही कुछ करते........और आपको ऐसा क्यों लगता है कि मोहब्बत का सही हक़ आपने अदा नहीं किया है?......अरे हशमत!!....आप अब भी हमसे इतनी मोहब्बत करते हैं, यह क्या कम है?......हमारे रिश्ते को चालीस बरस से ज़्यादा हो चुके हैं हशमत, लेकिन हम दिल पर हाथ रख कर कहते हैं, कि इन बीते चालीस-पैंतालीस सालों में हमने एक दिन भी अपने लिये आपकी मोहब्बत में रत्ती भर भी कमी नहीं पायी है.......और हशमत, एक बात ज़रूर याद रखिये......हमारा इश्क़ किसी क़ाज़ी के कलमे या किसी पंडित के मंत्रों का मोहताज नहीं है."

डॉ. अखिल आगे मुस्कुरा कर कहते थे "...कुछ रिश्तों की खूबसूरती ही यही होती है हशमत, कि उन्हें बेपर्दा नहीं किया जाना चाहिये."

आज रात क़ाशनी साहब यही सब सोच रहे थे. इस वक़्त वह खुद को कितना कमज़ोर, कितना लाचार और बेसहारा महसूस कर रहे थे, इसका उन्हें खुद भी अंदाज़ा नहीं हो रहा था. उन्होनें दूसरे बिस्तर पर डॉ. ज़ुल्फिक़ार साहब को देखा. वह सो रहे थे. "अगर डॉक्टर साहब को यह पता लग गया तो क्या वह इसी तरह मेरा साथ देंगे?"….."मेरे बेटे-बेटियाँ जब इस बात से वाक़िफ होंगे तो क्या सोचेंगे?"......."अनीसा क्या सोचेगी?"……"लोग क्या सोचेंगे?" इसी तरह के तमाम सारे सवलात क़ाशनी साहब के दिमाग में उमड़-घुमड़ रहे थे. मिर्ज़ा के लफ्ज़ उनके कानों में आज रात गूँज रहे थे "…..कैसे हैं आपके 'डियर अखिल'……….क़ाशनी साहब?....", "……आप तो जानते ही होंगे न जनाब......सी.आर.पी.सी. सेक्शन 377?......", "….लाइफ इम्प्रिज़नमेंट है.....", "…..डॉ. ज़ुल्फिक़ार साहब जानते हैं यह बात?......", "…..इस्लाम में भी क़ुफ्र है ये!....." , "……ठीक है जनाब!.....यही बात कोर्ट में कह दीजियेगा.......".

करीब पैंतीस-चालीस मिनट में खाना खत्म करके और फिर अपनी आपा से कुछ इधर-उधर की गप्प करके मिर्ज़ा खाने की मेज पर से उठे और दीवान से कहा "दीवान, चलो थोड़ा फरीद भाई से मिल आते हैं."

रुखसार ने हँस कर कहा "अरे!!!......अचानक आपको क्या सूझी मिर्ज़ा?.....जो आप अपने बिस्तर की बजाय फरीद के कमरे में जा रहे हैं?"

"बस ऐसे ही आपा, सोचा थोड़ा मिल आऊँ भाईजान से." मिर्ज़ा ने मुस्कान के साथ जवाब दिया.

रुखसार अपने कमरे में चली गयीं, और मिर्ज़ा ने दीवान के साथ फरीद के कमरे की राह ली.

उन दोनों के फरीद के कमरे के सामने पहुँचते ही वहाँ तैनात उनके एक हथियारबंद आदमी ने दरवाज़े का ताला खोला, और कुण्डी खोलकर उन्हें अदब से अंदर जाने का इशारा किया. मिर्ज़ा और दीवान भीतर दाखिल हुए. फरीद बायीं ओर करवट लेटे हुए थे और उन्हें नींद आ रही थी, दरवाज़े की खड़कन सुनकर नींद टूट गयी और उन्होनें गर्दन पीछे की ओर घुमाकर देखा तो मिर्ज़ा नज़र आ रहे थे. फरीद धीरे-धीरे उठ कर बैठ गये, और आँखें मींज रहे थे. दीवान ने कमरे की एक आरामदायक कुर्सी उठाकर बिस्तर के पास फरीद के सामने रखी जिस पर मिर्ज़ा अब बैठ गये थे. कुर्सी पर बैठे मिर्ज़ा ने फिर से पूरे कमरे का मुआयना किया. ट्यूबलाईट अच्छी जल रही थी और छत पर लगा पंखा भी तेज़ चल रहा था. खिड़की वाला कूलर भी कमरे को ठंडा किये हुए था. फ्रिज की भी भारी आवाज़ आ रही थी. बिस्तर के पास रखी बड़ी मेज पर खाने की खाली, जूठी थाली रखी थी जिस से साफ लग रहा था कि फरीद को आज रात बहुत भूख लगी थी और बहुत ज़ायकेदार राजमा-चावल और खुशबूदार चावल की खीर देखकर वह खुद को रोक नहीं पाये थे.

मिर्ज़ा ने खाली, जूठी थाली देखते हुए फरीद से मुस्कुराकर कहा "मालूम होता है कि आज का खाना काफी अच्छा लगा आपको?"

फरीद कुछ नहीं बोले, और मिर्ज़ा को देखते रहे.

"चिड़िया के लिये एक दाना भी नहीं छोड़ा आपने तो!" मिर्ज़ा अभी भी हँस रहे थे.

फरीद खामोश थे.

"सुलेमान को बहुत पसंद है न राजमा-चावल भाईजान?.......खासतौर पर उसी के लिये बनवाया था आज." मिर्ज़ा ने कहा.

फरीद ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

"......और खीर भी थी आज......जैसे नादिरा भाभी हर खाने के बाद इसे कुछ मीठा दिया करतीं थीं, इसीलिये आज खीर भी बनवाई थी."

फरीद वैसे ही बैठे थे.

"चलिये भाईजान, सुलेमान से मिलकर आते हैं.......मैं भी कई रोज़ से नहीं मिला और शायद आपको भी उसे देखे काफी वक़्त हो गया है." कुर्सी से अचानक उठते हुए मिर्ज़ा बोले.

फरीद ने नज़र उठाकर मिर्ज़ा की ओर देखा और मन में सोचा "ये कौन सा नया शिगूफा छेड़ा है मिर्ज़ा ने?"

"आइये भाईजान!!......बच्चे से मिलकर आते हैं."

वाकई में सुलेमान से मिले फरीद को काफी दिन बीत गये थे. वह अपने बेटे से मिलना, उसे देखना-छूना चाहते थे, वह अपने बेटे को गले लगाना और उसका माथा चूमना चाहते थे. इसलिये फरीद बिना कुछ बोले अपने बिस्तर से उठे और अपनी चप्पल ज़मीन पर से ढूँढ़ कर पहनी. फिर मिर्ज़ा के पास आकर उन से बस इतना कहा "चलिये."

दीवान उन दोनों को लेकर सुलेमान के कमरे की ओर जाने लगा. उन तीनों के सुलेमान के कमरे के सामने पहुँचते ही वहाँ तैनात उनके एक हथियारबंद आदमी ने दरवाज़े का ताला खोला, और कुण्डी खोलकर उन्हें अदब से अंदर जाने का इशारा किया. बेटे से मिलने की बेताबी में फरीद जल्दी से अंदर दाखिल हुए, उनके पीछे-पीछे मिर्ज़ा और दीवान भी धीमे कदमों से कमरे के अंदर गये.

लेकिन कमरे के भीतर फरीद ने जो मंज़र देखा, उनके तो मुँह से आवाज़ ही न निकल सकी और बे-ऐतबारी से उनका मुँह खुला का खुला ही रह गया. वह अपने प्यारे बेटे से मिलने आये थे, उसे गले लगाने, उसे चूमने आये थे और यहाँ उन्होनें क्या देखा?.......यहाँ उन्होनें देखा कि उनके ठीक सामने ज़मीन पर उनका नौजवान बेटा औंधे मुँह गिरा पड़ा है, उसके जिस्म में कोई हरक़त नहीं है और उसके मुँह से बहुत सारा सफेद झाग निकल कर ज़मीन पर चारों तरफ फैल रहा है. सुलेमान के लिये भेजी गयी राजमा-चावल और खीर की थाली पास ही सफाचट हो कर पड़ी हुई 

फरीद को कुछ वक़्त तक यकीन ही नहीं हुआ कि वह क्या देख रहे हैं. वह धीमे-धीमे कदमों से, डरते हुए और सुलेमान का नाम पुकारते हुए आगे बढ़े "सुलेमान!!....बेटा सुलेमान!!.." सुलेमान की ओर से कोई आवाज़ नहीं आयी. फरीद अब ज़ोर से चिल्लाये "सुलेमान!!!...." और तेज़ी से भागकर सुलेमान के पास पहुँचे और घुटने के बल, औंधे मुँह गिरे सुलेमान के सिरहाने बैठ गये. उन्होनें झट से उसका चेहरा अपनी गोद में ले लिया और गालों पर थपकियाँ देकर उसे उठाने की कोशिश करने लगे "सुलेमान!!....उठ जा बेटा!!!....उठ जा मेरे बच्चे!!....देख हम तुझसे मिलने आये हैं.......तेरे अब्बू तुझसे मिलने आये हैं बेटे!!....मेरे बच्चे!!....मेरी जान, सुलेमान!!....उठ जा बेटे!!...." अब सुलेमान के मुँह से निकलता सफेद झाग फरीद के कपड़ों पर गिर रहा था. अब धीरे-धीरे फरीद कि आवाज़ का दम भी खत्म हो रहा था, और उनकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे. रोते हुए फरीद, सुलेमान के गालों पर थपकियां दे रहे थे "सुलेमान!!....आँखें खोल बेटे!!....देख हम तुझसे मिलने आये हैं, मेरे बच्चे!!.......सौघरा चलेंगे बेटा हम लोग.....आपकी अम्मी के पास चलेंगे बेटे!!....सुलेमान!!....उठ जा बेटे!!...." और अब फरीद सुलेमान के गालों पर थपकियाँ भी नहीं दे रहे थे. फरीद जो अब तक घुटनों के बल बैठे थे, अब ज़मीन पर धम से पालथी लगाकर बैठ गये, और सुलेमान का सिर अपनी गोद में रखकर, उसे अपने सीने से लगाये ज़ार-ज़ार रोये जा रहे थे "सुलेमान!!!...मेरे बेटे!!!....मेरे बच्चे!!!.....मेरे जिगर के टुकड़े!!!...मेरे लाडले!!!....सुलेमान!!,,,,,,नादिरा को क्या जवाब देंगे हम?......तेरे दादाजी को क्या मुँह दिखायेंगे हम?.....सुलेमान!!..." फरीद के रोने की आवाज़ आज रात पूरे फार्महाउस को डरा रही थी, दहला रही थी. फरीद के रोने की आवाज़ को बर्दाश्त करने के लिये बहुत मज़बूत जिगर चाहिये था, और शायद ऐसा मज़बूत जिगर, वहाँ मौजूद सभी लोगों के पास ज़रूर था. फरीद के पीछे खड़े मिर्ज़ा और दीवान ये सब कुछ ऐसे देख रहे थे मानों कुछ हुआ ही नहीं है. उस कमरे से दूर एक दूसरे कमरे में, जहाँ रुखसार अपने बिस्तर पर लेटी हुई थीं, उन तक भी फरीद के रोने की आवाज़ बराबर पहुँच रही थी.

फरीद फूट-फूट कर रोये जा रहे थे. सुलेमान का सिर उनकी गोद में था. फरीद के आँसू सुलेमान के चेहरे पर गिर रहे थे, और अब सुलेमान के मुँह से सफेद झाग का निकलना भी बंद को चुका था. सुलेमान के सिर को अपने सीने से लगाये, फरीद ने ज़ोर से रोते हुए कहा "क्यों मिर्ज़ा क्यों?.......अब इस बच्चे की क्या गलती थी?......क्या किया था इसने?..."

दरवाज़े के पास खड़े मिर्ज़ा, चुप ही रहे. उन्होनें कोई जवाब नहीं दिया.

फरीद ने अब मिर्ज़ा की ओर देखकर बिलखते हुए कहा "....आपकी लड़ाई तो हमसे थी न मिर्ज़ा?......आप जो भी सज़ा देते, वह हमें दे सकते थे न!!!.......मगर सुलेमान?.....क्या आपको इस बच्चे से भी खतरा महसूस हो रहा था?........क्यों किया मिर्ज़ा आपने ऐसा?.....क्यों मिर्ज़ा?.....क्यों?....." फरीद बुरी तरह से बस रोये जा रहे थे.

मिर्ज़ा कुछ वक़्त तक खामोश खड़े रहे, फिर गम्भीर आवाज़ में कहा "कभी-कभी कुछ कदम उठाने ज़रूरी होते हैं भाईजान......."

फरीद, सुलेमान का सिर अपनी गोद में रखकर रोये जा रहे थे.

"......न चाहते हुए भी ऐसा करना पड़ता है."

फरीद ने मिर्ज़ा की ओर देखा. मिर्ज़ा के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी.

फरीद ने मिर्ज़ा की ओर देखकर बिलखते हुए कहा "मिर्ज़ा!!!......मिर्ज़ा!!!......अब हम जीकर क्या करेंगे?........मार दीजिये हमें!!!........अब तो मार ही दीजिये हमें!!!......बार-बार मरने से अच्छा है कि एक बार में ही मर जायें हम........हम अब जीना नहीं चाहते मिर्ज़ा!!!........हमारे प्यारे बच्चे सुलेमान के पास ही भेज दीजिये हमें!!!........अब मार ही दीजिये हमें मिर्ज़ा!!!" फरीद अब अपने सामने, अपनी गोद में पड़े सुलेमान के सिर को चूम रहे थे.

मिर्ज़ा, फरीद की बात सुनकर बिल्कुल खामोश खड़े रहे. फिर उन्होनें कहा "हर इंसान का वक़्त तय होता है भाईजान!!"

रोते हुए फरीद फिर से मिर्ज़ा की ओर देखने लगे.

".....आपका भी वक़्त तय है....."

फरीद की सिसकियाँ कमरे में साफ सुनाई दे रहीं थीं. वह मिर्ज़ा को ही देख रहे थे.

".....मेरा भी वक़्त तय है....."

फरीद मिर्ज़ा की ओर देख रहे थे.

".....और ये जो है न दीवान........इसका भी वक़्त तय है....." दायाँ हाथ उठाकर उसके अंगूठे से, अपने पीछे खड़े दीवान की ओर इशारा करते हुए मिर्ज़ा ने फरीद से कहा.

सुलेमान का सिर गोद में लिये, ज़मीन पर बैठे फरीद खामोश थे.

"....हम में से हर एक का वक़्त तय है भाईजान........और अपने तय वक़्त पर हम सभी इस दुनिया से रुख्सत हो जायेंगे."

फरीद चुप बैठे थे.

".....सुलेमान का वक़्त आ गया था....."

फरीद मिर्ज़ा को देख रहे थे.

".......अभी मेरा या आपका वक़्त नहीं आया है."

फरीद चुपचाप बैठे थे, और आँखें नीचे करके रोते हुए, अपने बेटे सुलेमान को देख रहे थे. वह सुलेमान को जितना देख रहे थे, उतनी ही ज़्यादा रोये जा रहे थे. एक बाप के लिये इस से ज़्यादा खौफनाक़ और दर्दनाक़ कुछ नहीं हो सकता कि उसकी गोद में उसके एकलौते जवान बेटे का सिर पड़ा हो.

"कमेटी में कल सुनवाई है आपकी........ज़्यादा रात तक यहाँ मत रहियेगा....." और फिर मिर्ज़ा ने अपने पीछे खड़े दीवान को बिना देखे कहा "......दीवान, कुछ देर के बाद भाईजान को उनके कमरे में ले जाना."

"जी जनाब." फरमानबरदार नौकर ने कहा.

फरीद ने रोते-रोते मिर्ज़ा से इल्तजा की "मिर्ज़ा, अपने प्यारे बेटे के लिये, कम से कम नमाज़-ए-जनाज़ा तो पढ़ने दीजिये हमें!!.......अपने हाथों से कब्र में दफन तो कर सकें इसे हम!!!"

मिर्ज़ा ने इजाज़त दे दी. उन्होनें दीवान को ज़रूरी बातें समझायीं और लाश को दफन करने में फरीद की मदद करने को कहा. इतना कहकर मिर्ज़ा कमरे से बाहर चले गये.

फरीद ने बेटे के लिये नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ी और फिर मिर्ज़ा के आदमियों की मदद से अपने बेटे को वहीं फार्महाउस की खाली पड़ी ज़मीन के एक हिस्से में कब्र खोदकर दफन कर दिया. उसके बाद करीब रात के 12 बजे फरीद फूट-फूट कर रोते हुए अपने कमरे में वापिस आये. वह उस रात सोये नहीं. वह पूरी रात बस रोते ही रहे थे.

अगले रोज़ सुनवाई के लिये पहले की तरह वह सब-कमेटी एक बंद कमरे के अंदर बैठी थी, साथ में मुल्ज़िम फरीद, उनके वकील डॉक्टर ज़ुल्फिकार और विरोधी पक्ष के वकील जनाब ज़फर अली मौजूद थे. बगल वाले कमरे में पहले दिन की तरह ही रुखसार, कई और क़ाज़ी, इमाम और मौलवी और साथ में क़ाशनी साहब भी सामने रखी टी.वी. स्क्रीन पर नज़रे गड़ाये बैठे थे, जिस पर उस सुनवाई की वीडियोग्राफी चलायी जा रही थी.

सुनवाई शुरु करते हुए सब-कमेटी के एक मेम्बर ने फरीद से सवाल किया ""फरीद अली बेग़, आप पर इल्ज़ाम है कि आपने कई सारे इस्लामी मौलवियों, इमामों और क़ाज़ियों का मज़ाक उड़ाया है, और उनकी बे-इज़्ज़ती की है........और ये काम आपने बार-बार, कई दफा किया है, और पूरे होशो-हवास में, जानबूझकर किया है. क्या यह सही है?"

फरीद कुछ वक़्त तक चुप रहे और उन जनाब को देखते रहे , फिर उन्होनें जवाब दिया "जनाब, थोड़ा मुझे बतायें कि क़ुरान-ए-पाक में कहाँ लिखा है कि मौलवियों, इमामों और क़ाज़ियों का मज़ाक नहीं उड़ाया जा सकता है?.....बल्कि जहाँ तक मैं जानता हूँ, क़ुरान-ए-पाक में तो मौलवियों, इमामों और क़ाज़ियों का ज़िक्र तक नहीं है......"

कमरे में खामोशी थी.

".....और यह बात तो हम सभी बहुत अच्छी तरह से जानते-समझते हैं, कि हमारे पैगम्बर हुज़ूर सलल्लाहु-अल्लाई-वसल्लम हज़रत मुहम्मद साहब, इस्लाम में किसी भी मौलवी, इमाम या फिर क़ाज़ी जैसे किसी भी इंसान के होने के सख्त खिलाफ थे. क़ुरान-ए-पाक में साफ-साफ लिखा है जनाब कि "".....बहुत सारे ऐसे धोखेबाज़ मौलवी, क़ाज़ी और इमाम होते हैं, जो सीधे, भोले-भाले इंसानों से सिर्फ पैसा लूटते हैं, और उन्हें अल्लाह के बताये सही रास्ते से हटाकर किसी गलत रास्ते पर ले जाते हैं..........ऐसे मौलवियों, क़ाज़ियों और इमामों से हमेशा ही हर कोई तक़लीफ में ही रहता है, और यहाँ तक कि पैगम्बर और सूफी भी इनसे बच नहीं सकते...." तो जी हाँ जनाब!! आप बिल्कुल सही फरमा रहे हैं........मैं सिर्फ क़ुरान-ए-पाक का हुक्म ही मानता हूँ, और मैं किसी भी मौलवी, क़ाज़ी और इमाम का हुक्म नहीं मानता.......और ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ इस्लाम के ही मौलवी, क़ाज़ी और इमामों के खिलाफ हूँ, बल्कि हर मज़हब में ऐसा कोई भी ओहदा रखने वाले किसी भी मौलवी, क़ाज़ी, पुजारी की सख्त मुखालफत करता हूँ जो ये कहते हैं कि सिर्फ वे लोग ही अल्लाह के सच्चे नुमाइंदे हैं, और सिर्फ वे ही लोग इस्लाम या किसी मज़हब के बारे में दूसरों से ज़्यादा बेहतर जानते हैं."

कमरे में मौजूद सभी इमाम और मौलवी बिल्कुल चुप थे और एक-दूसरे की ओर देख रहे थे.

फरीद ने आगे कहा "मैं यह समझता हूँ कि एक आम सा आदमी ही अल्लाह का सबसे सच्चा और सबसे अच्छा नुमाइंदा होता है, कोई मौलवी, क़ाज़ी या इमाम नहीं......"

कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था.

फरीद ने अब उन सबसे सवाल किया "......मुझे अब आप लोग यह बतायें जनाब, कि क़ुरान-ए-पाक में, या फिर हमारी किसी भी मज़हबी तालीम के तहत, ऐसा कहाँ लिखा गया है कि अल्लाह की नुमाइंदगी करने का हक़ सिर्फ और सिर्फ इमामों, क़ाज़ियों और मौलवियों को ही मिला है?......आप लोग जानकार लोग हैं, मुझे आप लोग बतायें कि क्या कोई ऐसा लाइसेंस इन मौलवियों, क़ाज़ियों और इमामों को मिला है?.....और अगर मिला है तो क्या क़ुरान-ए-पाक या हदीस में कहीं इस बात का कोई ज़िक्र है?"

फरीद के इस सवाल से उस बंद कमरे में मौजूद लोगों में खलबली मच गयी. सब-कमेटी के कुछ मेम्बरान चुपचाप एक-दूसरे की ओर देखने लगे, कुछ लोग इधर-उधर दरवाज़े, खिड़कियों और छत की ओर देखने लगे, जबकि कुछ लोग ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे "....कितना कमीना है ये आदमी!!!!.........ये कभी मुसलमान नहीं हो सकता है!!!!........हरामखोर है ये!!!........क़ाफिर है ये, क़ाफिर!!!........गद्दार है ये, गद्दार!!!!......"

बगल वाले कमरे में भी जहाँ टी.वी स्क्रीन रखी हुई थी, वहाँ भी खुसुर-पुसुर तेज़ हो गयी थी. क़ाशनी साहब ने अपनी तेज़ नज़रों से वहाँ मौजूद सबके हाव-भाव पढ़ने की कोशिश की. उस कमरे के मौलवियों, इमामों की बत्तियाँ गुल हो चुकी थीं. उनके चेहरे पीले पड़ चुके थे. काशनी साहब को काफी ताज्जुब यह देखकर हो रहा था कि फरीद की बहन रुखसार अपना सिर नीचे किये, सिर पर हाथ रखकर बैठी हुई थीं. क़ाशनी साहब ने इस ओर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और मुस्कुराते हुए फिर से टी.वी. स्क्रीन की ओर देखने लगे. उन्हें बेहद खुशी इस बात की हो रही थी कि उनके पढ़ाये शागिर्द फरीद, आज उनकी दी गयी तालीम का बेहतरीन इस्तेमाल कर रहे थे. एक उस्ताद के लिये इस से बढ़कर खुशी नहीं हो सकती कि उसके ही सामने उसका शागिर्द अपने उस्ताद की सिखायी गयी बातों से लोगों को लाजबाब कर दे.

सुनवाई वाले कमरे में माहौल बिगड़ता जा रहा था, और कुछ मौलवी, इमाम तो गाली-गलौच तक पर उतर आये थे. किसी तरह से सब-कमेटी के हेड, और वहाँ मौजूद सबसे उम्रदराज़ मौलवी ने कमरे में मौजूद सभी लोगों को शान्त करवाया. उसके बाद उन मौलवी ने फरीद से फिर से सवाल किया "फरीद, आप पर इल्ज़ाम है कि आप हमेशा अपनी तकरीरों में खासतौर पर बच्चों, और नौजवानों से बार-बार यह अपील करते पाये गये हैं कि उन्हें 'सिर्र-ए-अकबर' और ''मजमा-उल-बहरीन' जैसी किताबें पढ़नी चाहिये. क्या यह सही है?........इस पर आपका क्या कहना है?"

डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार ने तब टोका "ये इल्ज़ाम कैसे हो सकता है जनाब?........किसी से कोई किताब पढ़ने की अपील करना कौन सा गुनाह है?"

इस बात पर एक नयी उम्र के मौलवी ने चिल्ला कर कहा "इल्ज़ाम है तो है, बस!!!"

मुस्कुराते हुए फरीद ने डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार को चुप रहने का इशारा किया और फिर उन उम्रदराज़ मौलवी की ओर देखकर बड़े अदब से कहा "जनाब!!, पहली बात तो यही है कि ये कोई इल्ज़ाम नहीं बनता है......लेकिन अगर आपको यह लगता है कि यह भी मेरे ऊपर इल्ज़ाम है और इसके लिये भी मुझे अपनी सफाई देनी है, तो मै तैयार हूँ."

कमरे में फिर से चुप्पी छा गयी.

फरीद ने अपनी बात रखी "जनाब, 'मजमा-उल-बहरीन' किताब मुगल शहज़ादे दारा शिकोह ने लिखी थी. यह बहुत छोटी सी, पचपन-साठ पेज की किताब है. हिंदी में इन किताब का नाम है 'समुद्र संगम'. दरअसल 'मजमा-उल-बहरीन' का हिंदी मतलब है 'दो समुद्रों का मिलना'………..इस किताब में, इस मुल्क के दो सबसे बड़े मज़हबों, हिंदू मज़हब और इस्लाम के बीच बुनियादी समानताएं बताई गयीं हैं. इस किताब में यह कहा गया है जनाब, कि ऊपर से देखने में बेशक ये दोनों मज़हब रात और दिन, या पूरब और पश्चिम जितना फर्क रखते हों, लेकिन गहराई में जा कर देखने पर यह पता चलता है कि असल में इन दोनों ही मज़हबों में बहुत सारी बातें, बहुत सारे खयालात बिल्कुल एक जैसे हैं."

कमरे में बैठे लोग फरीद को गौर से देख रहे थे.

".....शहज़ादे दारा शिकोह, मुगल बादशाह अकबर के 'सुलह-ए-कुल' के तसव्वुर से काफी मुतासिर थे.......'सुलह-ए-कुल' का मतलब होता है, 'सबके साथ अमन-चैन बनाकर रखना'. बादशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के इसी तसव्वुर को जाँचने-परखने के लिये दारा शिकोह ने हिंदुस्तान में कुल जमा 14000 किलोमीटर से भी ज़्यादा सफर किया और तमाम सारी जगहों पर जाकर, तमाम लोगों से मिले, और 'सुलह-ए-कुल' को समझने की कोशिश की. अपने सफर में शहज़ादे दारा शिकोह अजमेर, दिल्ली, आगरा, बनारस, इलाहाबाद, यहाँ तक कि कश्मीर और गुजरात तक भी गये. इन सभी जगहों से दारा शिकोह को जो बुनियादी बातें पता चलीं वह यही थी कि सूफी इस्लाम और हिंदू मज़हब के वेदांत दर्शन में बहुत ज़्यादा बुनियादी यकसानियत है. यह यकसानियत कहीं-कहीं पर इतनी ज़्यादा है जनाब कि यह समझना मुश्किल हो जाता है कि हम इस्लाम के बारे में पढ़ रहे हैं, या हिंदू मज़हब के बारे में. 

"मसलन?" उन बुज़ुर्ग मौलवी साहब ने पूछा.

"मसलन अगर हम चारों वेदों को गहराई से पढ़ें तो हम बहुत साफ देख सकते हैं कि इन किताबों में जिस वाहदानियत का ज़िक्र है, ठीक वही बात हमें कुरान-ए-पाक में नज़र आती है."

"तो आपका मतलब यह है कि हिंदू मज़हब और इस्लाम में कोई फर्क नहीं है?" मौलवी साहब ने सवाल किया.

"बुनियादी तौर पर कोई भी फर्क नहीं है जनाब....."

फरीद के इतना कहते ही एक बार फिर से कई मौलवी और इमाम फट पड़े और चिल्ला-चिल्ला कर फरीद को गालियाँ देने लगे. उन बुज़ुर्ग मौलवी साहब ने एक दफा फिर से सबको चुप करवाया और फरीद से अपनी बात पूरी करने को कहा.

 फरीद को इसी वक़्त अपने बेटे सुलेमान की याद आ गयी थी. उनका प्यारा बेटा सुलेमान भी इसी तरह से सवालात अपने वालिद और अपने दादाजी से पूछा करता था और फरीद और सैयद साहब हँसते हुए उसके मासूम से मगर मुश्किल से सवालों का जवाब दिया करते थे. अपने उसी प्यारे बेटे सुलेमान को फरीद ने पिछली रात मरते देखा था. फरीद ने खुद अपने हाथों से अपने बच्चे सुलेमान को बीती रात फार्महाउस में दफन किया था. बुज़ुर्ग मौलवी साहब की बात शायद फरीद को सुनाई भी नहीं दी. वह चुपचाप ही बैठे रहे.

उन्हें इस तरह से गुमसुम बैठा देखकर अब डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार साहब ने आगे मोर्चा सम्भाला और कहा ".....और जहाँ तक 'सिर्र-ए-अकबर' किताब का सवाल है जनाब, तो यह किताब भी शहज़ादे दारा शिकोह की लिखी गयी सबसे मशहूर किताब है. दरअसल यह किताब हिंदू मज़हब के 52 उपनिषदों का संस्कृत ज़बान से फारसी ज़बान में किया गया तर्जुमां है. इस किताब का दर्जा इतना ऊँचा, और इतना मकबूल है जनाब कि 'मजमा-उल-बहरीन' की तरह ही दुनिया की तमाम ज़बानों में इसका भी तर्जुमां किया जा चुका है. यहाँ तक कि दुनिया के तमाम बड़े फलसफी, जिनमें विलियम जोंस, यीट्स जैसी शख्सियतें भी शामिल है, वे भी इस किताब का नाम बड़े ही इज़्ज़त से लेते हैं, और यह किताब उन सभी दिग्गज फलसफियों के लिये हमारे मुल्क हिंदुस्तान की सोच और तहज़ीब को बहुत करीब से, बहुत अच्छी तरह से जानने-समझने का एक बेहद अहम ज़रिया है."

"यह सब बकवास हमें नहीं सुननी है!!!.....समझे आप!!" एक दूसरे मौलवी ने गुस्से से फुफकारते हुए चीखकर कहा.

"मैं आगे बता ही रहा हूँ जनाब....." यह कहकर डॉक्टर साहब ने आगे अपनी बात बढ़ाई ".....फरीद अपनी तकरीरों में बच्चों और नौजवानों से खासतौर पर इस किताब को इसलिये पढ़ने के लिये कहते हैं, क्योंकि हिंदुओं और हम मुसलमानों में एक दूसरे के लिये जो गलतफहमियाँ हैं, यह किताब उनको दूर करती है." 

"कैसे?" उन उम्रदराज़ मौलवी साहब ने फिर से पूछा.

"जनाब अगर आप इस किताब को पढ़ेंगे तो आप पायेंगे कि असल में हिंदुओं के उपनिषदों में जो भी कुछ बातें कही गयी हैं, और हमारी क़ुरान-ए-पाक में जो कुछ कहा गया है, असल में इन दोनों में ही कोई भी फर्क नहीं है....."

डॉक्टर साहब का इतना कहना था कि एक बार फिर से उनके और फरीद के लिये उस कमरे में मौजूद मौलवियों और इमामों की ज़बान से लानतें निकलने लगीं "......कितने नीच, बेशर्म और बद्ज़ात हैं ये दोनों!!!!.........ये तो इस्लाम के दुश्मन हैं, दीन के दुश्मन हैं!!!!.........हरामखोर हैं ये!!!........क़ाफिर हैं ये, क़ाफिर!!!........गद्दार हैं ये, गद्दार!!!!......इनका तो सिर कलम होना चाहिये!!!!" और भी न जाने क्या-क्या फरीद और डॉक्टर साहब के लिये कहा जा रहा था.

इन सब से बेखबर डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार ने आगे कहा ".....जनाब, अगर आप हमारे क़ुरान-ए-पाक को पढ़ें तो उसमें एक और पाक किताब 'किताब-अल-मक़नून' का ज़िक्र आता है. बोलिये आता है कि नहीं?"

"बिल्कुल आता है." मौलवी साहब ने कहा.

"जनाब, अगर आप 'सिर्र-ए-अकबर' में लिखे गये उन 52 उपनिषदों को पढ़ें तो आप पायेंगे कि उन 52 उपनिषदों में ठीक वही बातें लिखी गयी हैं, जो कि 'किताब-अल-मक़नून' में भी लिखी हुई मिलती हैं. इसी बात को समझाते हुए शहज़ादे दारा शिकोह ने लिखा है कि 'किताब-अल-मक़नून' और कुछ नहीं बल्कि ये 52 उपनिषद ही हैं. इस तरह से 'किताब-अल-मक़नून' और 52 उपनिषदों में भी कोई फर्क नहीं है जनाब."

डॉक्टर साहब के यह कहने पर एक दफा फिर से उस कमरे में अफरा-तफरी मच गयी. कमरे में मौजूद कुछ मौलवी चिल्ला-चिल्ला कर फरीद का सिर काटने की बात कर रहे थे, वहीं सब-कमेटी के कई दूसरे मेम्बर साफ तौर पर डॉक्टर साहब की बातों से इत्तफाक़ रख रहे थे और फरीद को बाइज़्ज़त बरी किये जाने की बात कर रहे थे.

बगल वाले कमरे में भी अलग ही माहौल था. वहाँ टी.वी. स्क्रीन पर आँखें गड़ाये बैठे क़ाशनी साहब के चेहरे पर एक विजेता सी मुस्कान थी, लेकिन वहाँ मौजूद बाकी ईमामों, और मौलवियों, जिनकी मस्जिदों से फतवा जारी हुआ था, उन सभी के होश फाख्ता हो गये थे. फरीद और डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार अपनी बातों को इतने असरदार तरीके से रखेंगे, और अपने जवाबों से सब-कमेटी को भी लाजवाब कर देंगे, इस बात का उन मौलवियों और ईमामों को रत्ती भर भी इल्म नहीं था. वे लोग बस यही सोच कर आये थे, कि फरीद को सीधे ही इस्लाम से खारिज करार दे दिया जायेगा, लेकिन यहाँ मामला उल्टा बैठता मालूम हो रहा था. फरीद और ज़ुल्फिक़ार साहब ने अपनी बातों से वहाँ मौजूद सभी लोगों को चाक कर दिया था. वे सभी टी.वी. स्क्रीन को देखते हुए आपस में कानाफूसी कर रहे थे लेकिन साफ-साफ बोलने की हिम्मत शायद उनमें से किसी की भी नहीं थी.

रुखसार भी अपना सिर नीचे किये और सिर पर हाथ रखे हुए बैठी थीं. शक्ल से वह बेहद निराश लग रही थीं. उनके वकील जनाब ज़फर अली, फरीद और डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार को अपने जाल में फँसा पाने में नाकाम रहे थे, यह बात साफ नुमायाँ हो चुकी थी. फरीद और डॉक्टर साहब की किसी भी बात का जवाब सब-कमेटी के किसी भी मेम्बर, और खुद ज़फर अली साहब के पास भी मौजूद नहीं था. लेकिन सबसे ज़्यादा हैरानी रुखसार को इस बात की थी कि सिर्फ कुछ घंटे पहले, अभी पिछली रात ही फरीद ने अपने सामने, अपने जिगर के टुकड़े, अपने प्यारे बेटे सुलेमान की लाश देखी थी. सुलेमान के मुर्दा जिस्म को अपनी गोद में लेकर ज़ार-ज़ार रोये थे. अपने ही हाथों से सुलेमान को दफन भी किया था. वह पूरी रात सो नहीं सके थे और बस रोते ही रहे थे. आखिर ऐसा कैसे हो सकता था कि एक बाप, जिसने महज़ एक रात पहले ही अपने जवान बेटे को दफन किया हो, अगले ही दिन सब-कमेटी के आगे इतने बेजोड़ ढंग से अपनी बातें पेश कर सकता था?"

सुनवाई वाले कमरे में और उसके बगल वाले कमरे में मौलवियों और ईमामों की हिम्मत जवाब दे गयी थी, और ऐसा लग रहा था कि फरीद पर सब-कमेटी के लोग कोई भी फैसला दे पाने की हालत में नहीं थे. तभी अचानक कुछ ऐसा हुआ, जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी.

अचानक ही सुनवाई वाले कमरे में एक खातून की बेहद खरज़दार आवाज़ सुनाई दी "क्या कर रहे हो तुम सब लोग?.......इस कमीने, नीच और बेशर्म आदमी की बातें सुन क्यों रहे हो तुम सब?......कोई सुनवाई करने की कतई ज़रूरत नहीं है यहाँ!!!........सीधे सिर कलम करो इस कम्बख्त, नामुराद का!!!.....बस यही होना चाहिये यहाँ पर!!!"

कमरे में मौजूद सबने अपनी आँखें बेहद ताज्जुब से उस ओर घुमायीं, जहाँ से यह आवाज़ सुनाई दी थी. डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार भी उसी तरफ देख रहे थे जहाँ से वह आवाज़ आयी थी. उन सबके उलट फरीद उस आवाज़ को बहुत अच्छी तरह से जानते थे और इसलिये जब उन्होनें यह सुना तो उनको तो यकीन ही नहीं हुआ. वे कतई दंग रह गये थे.

वह आवाज़ असल में बगल वाले कमरे से आयी थी जहाँ टी.वी. स्क्रीन रखा हुआ था, और यह आवाज़ रुखसार की थी. वह उस कमरे में, गुस्से से इतनी ज़ोर से चिल्लायी थीं कि वह आवाज़ सुनवाई वाले कमरे तक सुनाई पड़ी थी.

उस दूसरे कमरे में मौजूद सभी मौलवी और ईमाम सकते में थे. उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी कि उनके बीच बिल्कुल खामोश बैठने वाली यह खातून अचानक किसी नागिन की तरह गुस्से से फुफकार उठेगी और उसकी ज़बान से इतना ज़हर निकल पड़ेगा. उनके लिये यह सोचना इसलिये भी बेहद मुश्किल था क्योंकि वे लोग केवल यही जानते थी कि रुखसार फरीद की बड़ी बहन हैं, और फरीद की सुनवाई के वक़्त यहाँ इसलिये मौजूद हैं जिससे फरीद कि हिम्मत और हौसला दे सकें. उन्हें इस बात का इल्म भी नहीं था कि गुस्से में आकर रुखसार फरीद का सिर कलम करने की बात भी कर सकती हैं. अपने भाई के लिये किसी बहन को इतनी नफरत भी हो सकती है, यह बात उन मौलवियों और ईमामों की सोच से भी परे थी.

और सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि यह बात खुद फरीद और क़ाशनी साहब की सोच से भी परे थी. फरीद अब तक केवल यही समझते थे कि उनके भाई मिर्ज़ा, मुराद और शुज़ा ही उनसे नफरत करते थे और उन्हे मार देना चाहते थे. फरीद ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उनकी छोटी आपा, जिन्हे वह इतना ज़्यादा प्यार करते थे, जिनकी वह इतनी ज़्यादा इज़्ज़त किया करते थे, बचपन से ही वह जिनकी हर बात आँखें बंद करके माना करते थे, उनकी वह छोटी आपा रुखसार आज उनके लहू की प्यासी थीं.

क़ाशनी साहब भी दंग थे. उनको भी यह बात समझ में नहीं आ रही थी कि फरीद की सगी बहन रुखसार की फरीद से क्या दुश्मनी हो सकती थी? रुखसार आखिर क्यों फरीद से इतनी नफरत करती थीं कि फरीद का सिर तक कलम करवाने में आज उनको कोई गुरेज़ नहीं हो रहा था?

रुखसार उस कमरे में अपनी जगह खड़ी, गुस्से में थर-थर काँप रही थीं. उनके नथुने और होंठ गुस्से से फड़क रहे थे, और उनके हाथों की उंगलियाँ काँप रही थीं. फरीद के लिये उनके दिल में कहीं किसी गहराई में बैठी बेपनाह नफरत आज सबके सामने खुल कर बेपर्दा हो गयी थी. रुखसार को आज कोई होश नहीं था कि कोई दूसरा इंसान उनके बारे में क्या सोच रहा होगा. आज रुखसार खुलकर अपने छोटे भाई फरीद के लिये मौत माँग रही थीं. पिछली सुनवाई से लेकर अब तक मौलवियों और ईमामों के फरीद से किये सवालों-जवाबों से वह तंग आ चुकी थी. अब आज वह सुनवाई में एक और लफ्ज़ कतई नहीं सुन सकती थीं. आज वह चीख-चीख कर कह रही थीं "क्या कर रहे हो तुम सब लोग?.......इस कमीने, नीच और बेशर्म आदमी की बातें सुन क्यों रहे हो तुम सब?......कोई सुनवाई करने की कतई ज़रूरत नहीं है यहाँ!!!........सीधे सिर कलम करो इस कम्बख्त, नामुराद का!!!.....बस यही होना चाहिये यहाँ पर!!!"

रुखसार की इस आवाज़ को सुनकर तुरंत ही सब-कमेटी के लोग हरकत में आ गये और सीधे फैसला सुनाने की तैयारी शुरु कर दी. महज़ 10-15 मिनट ही बीते होंगे, और 9 लोगों की उस सब-कमेटी ने 6-3 से अपना फैसला सुना दिया. फैसला था ".......सब-कमेटी के सामने पेश किये गये तमाम सबूतों के मद्देनज़र यह सब-कमेटी इस नतीजे पर पहुँची है, कि मुल्ज़िम फरीद अली बेग़ ने जानबूझ कर, बार-बार और लगातार, पूरे होशो-हवास में दीन-ए-इस्लाम और शरीयत कानूनों की खुलकर खिलावर्ज़ी और बेइज़्ज़ती की है. कमेटी ने यह भी पाया है कि दीन-ए-इस्लाम का दिफा करने के लिये, और अल्लाह की मक़बूलियत को कायम रखने के लिये सौघरा की तमाम मस्जिदों की जानिब से जारी किये गये फतवे, जिनमें फरीद अली बेग़ को इस्लाम से खारिज क़रार दिया गया है, वह बिल्कुल जायज़ है, और न केवल जायज़ है, बल्कि बेहद ज़रूरी भी है, जिससे हम मुसलमानों की आने वाली नस्लों को गुमराह होने, और बरबाद होने से बचाया जा सके, और इस मुल्क में अल्लाह के इस्लाम को मानने वाले सच्चे मुसलमानों की हिफाज़त मुकम्मल की जा सके. लिहाज़ा यह सब-कमेटी भी मुल्ज़िम फरीद अली बेग़ को मुजरिम क़रार देती है, और उन्हें इस्लाम से खारिज क़रने का ऐलान करती है."

फैसला सुनकर क़ाशनी साहब और डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार बिल्कुल अवाक़ रह गये थे, और फरीद की हालत तो यूँ हो गयी थी कि काटो तो खून न निकले. उम्र भर से खुद को पाक-साफ, सच्चा मुसलमान समझते आ रहे फरीद, आज एक झटके में इस्लाम से खारिज क़रा दिये जा चुके थे. आज कुछ ही पलों के भीतर वह दीन-ए-इस्लाम के दुश्मन, मुसलमानों को गुमराह और बरबाद करने वाला साबित किये जा चुके थे.

अगले दिन ही सैयद साहब की 83वीं सालगिरह थी. उस दिन, रात में उनकी जान से प्यारी बेटी जहाँआरा, उनकी प्यारी बहू ज़ीनत उनके साथ उनके कमरे में सालगिरह की खुशी मनाने के लिये मौजूद थीं. वो दोनों इस बात को समझती थीं, कि इन बूढ़े इंसान की ज़िंदगी में यूँ तो सारी खुशियाँ तो करीब-करीब दफन हो चुकी थीं, ऐसे में खुशी मनाने के जो भी थोड़े-बहुत मौके मिल रहे हों, तो उनसे ही सैयद साहब को खुश रखने की कोशिश की जाये. आज जहाँआरा दोपहर को ही घर आ गयी थी. उसने और ज़ीनत ने मिलकर सैयद साहब का पसंदीदा खाना बनाया था. सैयद साहब को कश्मीरी मुगलई चिकन, और बिरयानी बहुत पसंद थी. रोगनजोश पीना भी वह काफी पसंद करते थे और खाने के बाद मिठाई के तौर पर मूँग की दाल का हलवा उनकी पसंदीदा स्वीट-डिश थी. बेटी और बहू ने मिलकर आज अपने अब्बू के लिये यह सब तैयार किया था. घर आते समय जहाँआरा अपने साथ सौघरा की मशहूर 'विल्फ्रेड बेकरी' से सैयद साहब के लिये खासतौर पर केक भी तैयार करवा कर ले आयी थी.

रात मे केक काटने और 83वीं सालगिरह की खुशी मनाने के बाद जब ये तीनों खाना खाने बैठे थे, ठीक उसी वक़्त दरवाज़े पर दस्तक हुई. जहाँआरा ने आवाज़ लगायी "कौन है?.....अन्दर आ जाइये........दरवाज़ा खुला है."

उन्होनें देखा कि दरवाज़ा खुलने के बाद, मिर्ज़ा का एक खास आदमी हेमचंद धीरे-धीरे कमरे में दाखिल हुआ. उसने दोनों हाथों से एक बड़ी सी थाली पकड़ रखी थी, जिस पर बड़ा सा बॉक्स रखा हुआ था. वह बॉक्स भी बड़े महँगे सजावटी कागज़ से बहुत सुंदर तरीके से पैक किया हुआ था. बॉक्स फिर से एक लाल रंग का बहुत ही सुंदर मखमली कपड़े से ढका हुआ था. इस बड़ी सी थाली मे रखे उस बड़े से बॉक्स के कारण ही हेमचंद की चाल धीमी थी. हेमचंद वह बड़ी थाली लेकर उन तीनों के ठीक सामने कुछ दूरी पर आकर खड़ा हो गया था. सैयद साहब और उनकी बहू, बेटी अपनी नज़रें ऊपर किये हुए, हेमचंद की ओर बड़े ताज्जुब से देख रहे थे.

जहाँआरा ने उसे देखकर हँसते हुए पूछा "अरे हेमचंद!!...आप अचानक यहाँ?....और ये भारी-भरकम सामान क्या है?"

हेमचंद ने मुस्कुराकर जवाब दिया "सबसे पहले तो सैयद साहब को इस अदने से गुलाम की तरफ से इनकी 83वीं सालगिरह की बहुत-बहुत मुबारकबाद!!"

सयद साहब के चेहरे पर फीकी सी मुस्कान खेल गयी. हेमचंद की तरफ देखते हुए उन्होने सिर्फ इतना ही कहा "आपका बहुत-बहुत शुक्रिया हेमचंद."

हेमचंद अभी तक वह बड़ी सी थाली लेकर खड़ा ही था. ज़ीनत ने उससे सामने रखी मेज की ओर इशारा करते हुए कहा "थाली को यहाँ, सामने मेज पर रख दीजिये हेमचन्द."

हेमचंद ने थाली मेज पर रख दी, और वापस पहले की तरह खड़ा हो गया.

मुस्कुराते हुए ज़ीनत ने पूछा "कहिये, क्या है ये?"

"मैडम, यह सैयद साहब की 83वीं सालगिरह की खुशी में, साहब के छोटे बेटे और हमारे जनाब मिर्ज़ा हैदर की जानिब से भेजा गया एक खास तोहफा है." हेमचंद ने भी हँसकर जवाब दिया.

यह सुनकर सैयद साहब और उन दोनों खातूनों के चेहरे से हँसी गायब हो गयी, और अब उनके चहरों पर मुस्कान की जगह खौफ और फिक्रमंदी तैर रही थी. वे सभी लोग मिर्ज़ा को बचपन से ही अच्छी तरह जानते थे. मिर्ज़ा के हर काम के पीछे एक खास मकसद होता था. मिर्ज़ा शुरु से ही ऐसे थे. वह जब भी कोई काम बिल्कुल सीधे और सपाट तरीके से भी करते थे, तो भी सामने वाला इंसान एक दफा के लिये गहरी सोच में ज़रूर पड़ जाता था. आज उन्होनें अपने वालिद की 83वीं सालगिरह पर उनके लिये तोहफा भेजा था. दुनिया में कोई भी बेटा, अपने वालिद की सालगिरह पर उसे तोहफा ज़रूर भेजता है. इसमें कोई भी नयी बात नहीं थी. लेकिन मिर्ज़ा की शख्सियत ही ऐसी थी कि बेटे की तरफ से आये इस तोहफे से भी सैयद साहब को डर ही लग रहा था. अब तक की उनकी ज़िंदगी में उन्होनें मिर्ज़ा को जिस तरह से, और जो भी कुछ कारनामे करते देखा था, सैयद साहब के डर की शायद वह भी एक बड़ी वजह रही होगी.

उन्होनें रूखी सी आवाज़ में हेमचंद से कहा "बाप को यह तोहफा देने क्या बेटा खुद नहीं आ सकता था आज?"

हेमचंद चुप था.

"बाप की सालगिरह पर भी बेटे के पास बाप से मिलने का वक़्त नहीं है क्या आज?"

हेमचंद ने कहा "जनाब, इस बारे में कुछ भी कहने के लिये मैं बहुत छोटा आदमी हूँ.......मैं सिर्फ अपने मालिक, जनाब मिर्ज़ा हैदर का एक मामूली सा ड्राइवर ही हूँ...."

वे तीनों उसकी ओर देख रहे थे.

"....न तो मेरी इतनी समझ ही है और न तो मेरी इतनी औक़ात ही है कि मैं आपके सवाल का कोई भी जवाब दे सकूँ. मैं आपको बस इतना बता सकता हूँ जनाब कि हमारे मालिक, जनाब मिर्ज़ा हैदर साहब अपने वालिद सैयद साहब को बहुत प्यार करते हैं."

"हम्म्म्म.........वाकई बहुत प्यार करते हैं." सैयद साहब खीझते हुए बोले.

"जनाब ने बस यही कहलवाया है कि उनके दफ्तर में इन दिनों काम का बोझ काफी ज़्यादा है, और वह फिलहाल दिल्ली छोड़कर कहीं भी बाहर नहीं जा सकते. इसी वजह से वह आपकी सालगिरह पर यह खास तोहफा देने खुद न आ सके, और अपनी जगह मुझे भेजा है."

सैयद साहब सिर नीचे किये हुए हेमचंद की बात सुन रहे थे.

"...जनाब मिर्ज़ा हैदर साहब ने आपको आपकी 83वीं सालगिरह पर ढेर सारी मुबारक़बाद भेजी है जनाब!!....और मुझे खासतौर पर यह हिदायत भी दी थी, कि हुज़ूर के सामने यह तोहफा तभी पेश किया जाये, जब हुज़ूर रात में खाने पर बैठे हों."

लम्बी साँस छोड़ते हुए और एक फीकी, और बोझिल सी मुस्कान के साथ अपनी बहू और बेटी की जानिब देखते हुए सैयद साहब ने कहा "चलिये, यह भी खूब है.......कम से कम मिर्ज़ा अपने वालिद की सालगिरह तो याद रखते हैं!!!.........यही क्या कम है?"

दोनों खातून चुपचाप बैठी थीं.

"इतनी मोहब्बत से हमारे लिये, हमारी सालगिरह पर तोहफा भिजवाया है हमारे बेटे ने.........अल्लाह उनकी गलतियाँ माफ करे. मिर्ज़ा खूब सेहतमंद रहें, खुश रहें और हमेशा कामयाब रहें…………इस बूढ़े, बीमार बाप के दिल से अपने बेटे के लिये बस यही दुआ निकल सकती है." मुस्कुराते हुए सैयद साहब ने कहा.

तब जहाँआरा ने हँसते हुए थाली की ओर देखकर अपने अब्बू से कहा "चलिये अब्बू, देखें तो सही कि मिर्ज़ा ने क्या तोहफा भेजा है?.........आप अपने हाथों से यह बॉक्स खोलिये."

थाली अपनी ओर करते हुए सैयद साहब ने भी हँसकर कहा "पैकिंग से तो बड़ा नायाब, और शानदार तोहफा मालूम होता है."

उन्होनें पहले धीरे से बॉक्स के ऊपर पड़ा वह बेहद खूबसूरत, लाल रंग का मखमली कपड़ा हटाकर एक ओर मेज पर रखा. फिर उस बड़े से, सोने का वर्क चढ़े बॉक्स का कुंडा खोलकर बॉक्स का ढक्कन पूरी तरह से खोला. अभी भी बॉक्स के भीतर एक काले रंग का बड़ा सा कपड़ा था जिसके भीतर शायद कुछ सामान लपेट कर रखा गया था. सैयद साहब ने मुस्कुराते हुए अपने दोनों हाथों से पकड़कर उस बड़े काले कपड़े को बाहर निकाला जिसमें कुछ बड़ा सा सामान लिपटा हुआ था. सैयद साहब ने बड़े करीने से उस काले कपड़े को हटाया, लेकिन फिर अगले ही पल जो कुछ सामने आया उसे देखकर सैयद साहब, उनकी बेटी जहाँआरा, और उनकी बहू ज़ीनत की अचानक ही चीखें निकल गयीं थी. काले कपड़े में लिपटा वह सामान, वह नायाब और शानदार तोहफा, कुछ और नहीं बल्कि सैयद साहब के बड़े बेटे फरीद का कटा हुआ सिर था.

उस काले कपड़े के हटने पर अपने हाथों में अपने बेटे फरीद का सिर देखते ही सैयद साहब के हाथ से वह सिर छूट कर सामने रखी मेज पर गिर पड़ा, और खुद सैयद साहब चीखते हुए सोफे पर पीछे की ओर लुढ़क गये थे. उनकी आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा था, और वह बेहोश हुए जा रहे थे.

उनके बगल में बैठी उनकी बेटी और बहू की समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करें. जो कुछ अभी-अभी उन्होनें देखा था, उस मंज़र के बारे में तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था. मेज पर फरीद का कटा हुआ सिर पड़ा हुआ था और फरीद के चेहरे पर भी, उनकी आँखों और गालों पर धारदार खंजर से दो बहुत गहरे वार किये गये लग रहे थे. यह देखकर ही सैयद साहब बेहोश होकर सोफे पर ही गिर पड़े थे. जहाँआरा और ज़ीनत बिलख-बिलख कर रोये जा रही थीं, और अपने अब्बू को उनके गालों पर बार-बार थपकियाँ देकर होश में लाने की पुरज़ोर कोशिश कर रही थीं.

उस रोज़ दिल्ली में आई.एम.पी.एल.सी. की सब-कमेटी ने फरीद को इस्लाम से खारिज क़रार दे दिया था. सब-कमेटी ने फरीद के खिलाफ जारी किये गये सौघरा के मौलवियों, और ईमामों के फतवों को बिल्कुल जायज़ ठहराया था और साथ में यह भी कहा था कि फरीद जैसे लोग हिंदुस्तान में मुसलमानों को, खासतौर पर मुस्लिम बच्चों और नौजवानों को गुमराह और बर्बाद कर रहे हैं, और ऐसे लोग दीन-ए-इस्लाम के लिये बहुत बड़ा खतरा हैं, और इसी वजह से फरीद को इस्लाम से फौरन ही खारिज किया जाना बेहद ज़रूरी है.

फैसले सुनने के बाद क़ाशनी साहब हतप्रभ रह गये थे और बिल्कुल पत्थर के किसी बुत की तरह अपनी कुर्सी पर बैठे रहे. उन्हें इस बात की कतई, कोई भी उम्मीद न थी कि ऐसी सुनवाई के बाद, जिसमें फरीद और डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार साहब की बातों का कोई भी जवाब सब-कमेटी के किसी भी मेम्बर के पास नहीं था, ऐसा भी फैसला आ सकता है. सुनवाई के बाद वह यह मानकर चल रहे थे कि फरीद को डॉक्टर साहब सही-सलामत निकाल कर ले जायेंगे, मगर फैसला क़ाशनी साहब की सोच के ठीक उलट, उनको बुरी तरह से झटका देने वाला रहा था, और न केवल क़ाशनी साहब बल्कि खुद फरीद और डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार भी इस फैसले से दंग रह गये थे. उस बंद कमरे में फैसला सुनकर फरीद अपना सिर नीचे किये हुए, और अपने चेहरे को दोनों हाथों से ढककर, फूट-फूट कर रो रहे थे. उन्हें दिलासा देने वाला, उन्हें चुप कराने वाला उस वक़्त वहाँ कोई भी न था.

खैर, फैसला तो फैसला था, और अब यह हकीकत ही थी कि फरीद अली बेग़ को इस्लाम और शरीयत का दुश्मन क़रार देते हुए उन्हें इस्लाम से खारिज कर दिया गया था.

रोते हुए फरीद जब कमरे से बाहर निकले तो तुरंत ही मिर्ज़ा के आदमियों ने उन्हें घेर लिया था. उन्हें क़ाशनी साहब और डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार से एक दफा मिलने भी नहीं दिया गया. मिर्ज़ा के आदमियों ने बड़ी तेज़ी से उन्हें उस गाड़ी में ले जाकर बिठा दिया था, जिससे वे लोग सुबह सूरजगढ़ से दिल्ली आये थे. वह गाड़ी तेज़ी से आई.एम.पी.एल.सी. के शाहजहाँ रोड स्थित दफ्तर से बाहर निकल गयी थी और अब वह गाड़ी वापिस सूरजगढ़ की ओर जा रही थी. फरीद अभी भी रोये जा रहे थे.

उस गाड़ी के पीछे-पीछे ही एक दूसरी गाड़ी में रुखसार भी सवार थीं.

देर शाम वे लोग सूरजगढ़ पहुँच गये थे, और वहाँ पहुँचते ही फरीद को फिर से उनके पुराने वाले कमरे में कैद कर दिया गया था. रात करीब दस बजे के आस-पास मिर्ज़ा अपनी रुखसार आपा के साथ खाने की मेज पर बैठे हुए थे. उनका एक और नौकर उन दोनों के आगे खाना परोस रहा था. आज वे दोनों भाई-बहन बेहद खुश दिखाई दे रहे थे, और इस खुशी का जश्न मनाने के लिये मिर्ज़ा ने आज रात खाने में अपना और अपनी आपा का पसंदीदा कड़ाही चिकन और कश्मीरी पुलाव बनवाया था और साथ में रसोइये को मटन कबाब और नान बनाने को भी कहा गया था. खाने के बाद मिठाई के तौर पर सेवइयाँ भी बनवायी गयी थीं. डाइनिंग टेबल पर नौकर के परोसे खाने की खुशबू से पूरा कमरा महक रहा था.

लगभग इसी वक़्त दीवान मिर्ज़ा के पास आया और धीरे से उनके कान में कुछ कहा. उसे सुनकर मिर्ज़ा ने कुछ पलों तक दीवान को खामोशी से देखा, फिर कहा "ठीक है, ले आओ उन्हें."

"जी जनाब." यह कहकर दीवान चला गया.

सवालिया निगाहों से रुखसार ने जब मिर्ज़ा को देखा तो मिर्ज़ा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया "फरीद भाई मिलना चाहते हैं."

यह सुनकर रुखसार के कान खड़े हो गये थे. उन्होने चिढ़कर कहा "अब इन्हें क्यों मिलना है?"

"देखते हैं आपा." मिर्ज़ा ने हँसकर कहा.

"पूरे खाने का ज़ायका ही खराब कर दिया इस मनहूस ने..........मुकदमा खत्म हो जाने, और भिखारी बन जाने के बाद भी चैन नहीं है इस सुअर को." गुस्से में दाँत पीसते हुए रुखसार बोलीं.

"आप इत्मिनान से खाना खाइये आपा.....हम बात करेंगे उनसे." मिर्ज़ा ने फिर से हँसते हुए कहा.

दीवान कुछ देर बाद फरीद को लेकर कमरे में दाखिल हुआ. फरीद अपना सिर नीचे किये हुए, बोजिल से कदमों से और बेहद गमज़दा मन से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे. मिर्ज़ा और रुखसार उन्हें देख रहे थे. मिर्ज़ा के खाने की मेज से कुछ दूरी पर आकर फरीद रुक गये.

अपने से 5 बरस छोटे सगे भाई के सामने वह किसी सज़ायाफ्ता कैदी की तरह खड़े थे. उनका सिर झुका हुआ था और दाढ़ी बढ़ी हुई थी उनकी, और कमीज़ और पतलून भी खासे गंदे हो रखे थे. कमीज़ भी पतलून के बाहर ही लटक रही थी.

रुखसार ने ताना देते हुए कहा "चेहरा दिखाइये फरीद!!!......ज़रा शक्ल तो देखें दीन-ए-इस्लाम के दुश्मन की........इस क़ाफिर की!!!.....शरम-वरम आती है या नहीं?"

फरीद ने धीरे-धीरे अपना चेहरा ऊपर उठाया. उनका चेहरा बिल्कुल लाल हो रखा था, और आँखें भी सूजी हुई थीं. मालूम होता था कि अपने कमरे में बहुत देर से फरीद रो ही रहे थे. उनकी ज़बान से कोई आवाज़ भी न निकली.

"अपने छोटे भाई से सीखिये कुछ!!" रुखसार ने उन्हें डाँटते हुए कहा.

फरीद अब भी चुप थे.

मिर्ज़ा ने अब पूछा "खाना खाया भाईजान?"

फरीद ने बिना कुछ बोले सिर्फ "हाँ" में सिर हिला दिया.

"कहिये भाईजान, आपने क्यों तकलीफ की?......मुझे बुलवा लिया होता, मैं ही चला आता आपके पास."

देर से चुपचाप खड़े फरीद इतना ही बोल पाये "नहीं, बस ठीक है."

"कहिये भाईजान, क्या बात करनी थी आपको?"

फरीद ने रूँधे गले से कहा "हमें आप सौघरा भिजवा देंगे मिर्ज़ा?"

"क्यों?.....सौघरा क्यों जाना?"

"नादिरा के साथ हम सौघरा से कहीं दूर, बहुत दूर चले जायेंगे मिर्ज़ा........वहाँ जाकर एक नयी ज़िंदगी शुरु करने की कोशिश करेंगे." भर्राये गले से फरीद ने अपनी बात कहने की कोशिश की.

"कब जाना चाह रहे हैं आप?" मिर्ज़ा ने पूछा.

"किसी भी दिन, मगर बेहतर है कि रात में भेजियेगा हमें."

"क्यों?....रात में क्यों जाना चाह रहे हैं आप?"

फरीद खामोश थे.

"ये तो पैदायशी मुँहचोर हैं.........दिन के उजाले में लोगों का सामना करने की ताब ही नहीं है इनके अंदर........इसीलिये रात के अंधेरे में मुँह छिपा कर जाना चाहते हैं." रुखसार ने ऊँची आवाज़ में फरीद को देखते हुए कहा.

फरीद चुपचाप खड़े उन दोनों को देख रहे थे. उन्होनें कोई जवाब नहीं दिया.

मिर्ज़ा ने पूछा "आज और अभी जाना पसंद करेंगे आप?"

"जी." फरीद ने कुछ पल खामोश रहने के बाद जवाब दिया.

"ठीक है, मैं पहले खाना खा लूँ, फिर आपको आज ही भिजवाने का बंदोबस्त करता हूँ......तब तक अपने कमरे में ही आराम करें." मिर्ज़ा ने उनसे कहा और फिर फरीद के पीछे खड़े दीवान को इशारा किया. दीवान फिर वापस फरीद को उनके कमरे की ओर ले जाने लगा. कुछ देर बाद वे दोनों कमरे से बाहर निकल गये.

फरीद को उनके कमरे में छोड़कर दीवान मिर्ज़ा के पास आया. तब तक मिर्ज़ा खाना खत्म कर चुके थे. उन्होनें दीवान को सारी बातें समझायीं, और उसे फरीद को लेकर उसी रात सौघरा निकलने को कहा, जिस से सुबह के 6 बजे तक वे लोग सौघरा पहुँच जायें.

करीब घंटे भर बाद, लगभग रात के 12 बजे के कुछ पहले, दीवान अपने कुछ आदमियों, और फरीद को लेकर सौघरा के लिये निकल गया. उसके करीब आधे घंटे बाद, मिर्ज़ा भी एक दूसरी गाड़ी में, अपने एक दूसरे खास आदमी हेमचंद के साथ सौघरा के लिय रवाना हो गये. दीवान और फरीद दोनों को ही इस बात की खबर नहीं थी कि उनके पीछे-पीछे मिर्ज़ा भी आ रहे थे.

रात के अंधेरे में बिल्कुल खाली, सुनसान रास्ते पर फरीद को लेकर दीवान और उसके आदमी तेज़ी से सौघरा की ओर बढ़ रहे थे. उसी तेज़ी से उनके पीछे ही हेमचंद भी मिर्ज़ा को लेकर सौघरा की तरफ आ रहा था.

इतनी रात के करीब 3 बजे उस खाली और सुनसान रास्ते पर, सौघरा शहर से कुछ ही दूर, अचानक ही न जाने कहाँ से कुछ नकाबपोश लोग, हाथों में नंगी तलवारें, खंजर, लाठियाँ और हॉकी स्टिक लिये दीवान की गाड़ी के ठीक सामने आ गये थे, और गाड़ी के बोनट और शीशे पर ज़ोर-ज़ोर से हाथ मारकर गाड़ी को रोकने के लिये कह रहे थे. इतनी रात गये, इतने सारे हथियारबंद नकाबपोश लोगों को एक साथ अचानक सड़क पर देखकर दीवान भी सकपका गया और गाड़ी रोक दी. दीवान और उसके आदमी तुरंत गाड़ी से उतरे. वे हथियारबंद नकाबपोश अपने हाथों में तेज़, धारदार हथियार लहराते हुए चिल्ला रहे थे "......साले क़ाफिर मादरचोद!!!......हरामखोर!!!.....कमीने!!!...." उनमें से एक ने दीवान का गिरेबान पकड़कर चीखते हुए कहा ".....तू भगा कर ले जा रहा था न इस सुअर के बच्चे को?.....इस इस्लाम के दुश्मन को?.....इस गद्दार को?......बोल साले!!!.........लेकिन तुझे क्या लगा?.......हमारे रहते तू निकाल कर ले जायेगा इसे?"

दीवान ने उन्हें समझाने की कोशिश की "देखिये, जैसा आप लोग समझ रहे हैं, वैसा बिल्कुल नहीं है.......हम लोग जनाब मिर्ज़ा हैदर के हुक्म की तामील कर रहे हैं......."

मगर दीवान अपनी बात पूरी भी न कर पाया था कि उसका गिरेबान पकड़ने वाले आदमी ने फिर चिल्ला कर कहा "चुप कर साले खबीस की औलाद!!!.......अबे हम लोग सच्चे मुसलमान हैं!!!.........अपने ज़िंदा रहते हम इस्लाम के किसी दुश्मन को ज़िंदा छोड़ नहीं सकते!!!......हम लोग अपने दीन-ए-इस्लाम, अपने पैगम्बर हुज़ूर सलल्लाहु-अल्लाई-वसल्लम की बे-इज़्ज़ती कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं!!!.....हमें सब कुछ मंज़ूर है मगर अपने मज़हब इस्लाम के साथ, अपने प्यारे नबी के साथ गद्दारी कतई नामंज़ूर है........हम जान दे देंगे लेकिन इस्लाम के साथ कभी गद्दारी नहीं होने देंगे, और जो कोई ऐसा करेगा, उसे उसके किये की सज़ा भी ज़रूर देंगे."

दीवान बुरी तरह हैरान था, और उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस लोगों को शांत कैसे किया जाये. वे लोग कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे.

उनमें से एक दूसरा नकाबपोश आदमी चिल्लाकर बोला ".....और इस्लाम के गद्दारों की एक, और सिर्फ एक ही सज़ा है…….और वो है मौत!!!.......और आज हम इस हरामखोर फरीद के जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे,……..और तू जो इसे रात के अंधेरे में भगाकर ले जा रहा है, आज तेरी भी कहानी हमेशा के लिये यहीं खत्म हो जायेगी मादरचोद!!!"

एक तीसरा नकाबपोश चीख कर बोला "किसी गद्दार की मदद करने वाला भी गद्दार ही होता है, और उसकी भी सज़ा वही होती है.......सिर्फ मौत!!!"

एक चौथा नकाबपोश ऊँची आवाज़ में बोला "सौघरा की पाक सरज़मीन पर इन क़ाफिरों, और गद्दारों के कदम तो हम लोग बिल्कुल नहीं पड़ने देंगे!!!........देख क्या रहे तुम सब?.....काट डालो इन्हें!!!.......इस तरह से मारो इन्हें कि इनकी आने वाली सात पुश्तों में से कोई भी, अपने ख्वाब में भी इस तरह का गुनाह करने की हिमाकत न कर सके."

इसी वक़्त गाड़ी का दरवाज़ा ज़बरन खोलकर एक नकाबपोश हथियारबन्द आदमी ने फरीद को उनके बाल पकड़कर घसीटते हुए गाड़ी से बाहर निकाला "बाहर निकल मादरचोद!!!.....गाड़ी में तू राजा बनके बैठा है हरामखोर?......तूने क्या सोचा?......कि तू बचकर निकल जायेगा और हम लोग बस देखते ही रह जायेंगे?.......अरे इस्लाम के साथ दगा की है तूने मादरचोद!!!.......तेरे खून से तो अपने हाथ रँगने का यह पाकीज़ा मौका अल्लाह ने हमारे नसीब में ही लिखा था, इसे हम कैसे जाने दे सकते थे?" और फिर उस आदमी ने फरीद के गालों पर लगातार ज़ोरदार थप्पड़ों की बरसात कर दी.

लगभग इसी वक़्त हेमचंद और मिर्ज़ा की गाड़ी उन लोगों के ठीक बगल से, बहुत तेज़ी से गुज़र गयी. 

अगले ही पल दीवान और उसके आदमियों के बदन में उन नकाबपोश हथियारबंद आदमियों ने "अल्लाह-हु-अकबर" चिल्लाते हुए कई खंजर उतार दिये थे. फिर उन नकाबपोश आदमियों ने न जाने कितनी ही बार दीवान और उसके आदमियों के शरीरों में खंजर घोंपे. वे लोग एक बार खंजर घोंपकर निकालते, और दोबारा, फिर से सामने वाले के जिस्म में खंजर उतार देते. इस तरह से बार-बार, कई बार उन्होनें दीवान और उसके आदमियों के बदन पर खंजर से वार किया और ऐसा वे तब तक करते रहे जब तक कि दीवान और उसके आदमियों के खून से सने हुए जिस्म बेजान पुतलों की तरह, ज़मीन पर गिर नहीं पड़े.

फिर उन नकाबपोश हथियारबंद लोगों के समूह का कप्तान सा दिखने वाला आदमी फरीद की ओर आगे बढ़ा और फरीद के पास पहुँचकर उनका गिरेबान पकड़ लिया. फरीद अब तक शायद अपना अंजाम जान चुके थे. अब वह बिल्कुल डर नहीं रहे थे. सामने पड़ी दीवान और उसके आदमियों की खून से लथपथ लाशें देखकर भी वह विचलित नहीं हो रहे थे. अभी भी उन लाशों से किसी नल से निकले पानी के मोटे धारों की तरह खून बह रहा था. दीवान और उसके आदमियों के पेट से बाहर निकली उनकी अंतड़ियाँ भी साफ नज़र आ रही थीं, मगर फरीद को अब इनसे भी कोई खौफ नहीं लग रहा था.

फरीद का गिरेबान पकड़े उस नकाबपोश आदमी की नज़रें हँस रही थीं, मगर उस हँसी में वहशीपन और दरिंदगी साफ झलक रही थी, लेकिन फरीद इस से भी कतई बेखबर थे.

फरीद का गिरेबान पकड़े वह आदमी अब अपने बाकी साथियों की तरफ मुखातिब होते हुए ऊँची आवाज़ में बोला "इस गद्दार को देख रहे हो साथियों?......आज यह इंसान इस्लाम से खारिज हो चुका है......और क्यों?......क्योंकि इसने हमारे दीन, हमारे नबी के साथ गद्दारी की है......क्योंकि इसने हम मुसलमानों को, और हमारे बच्चों को गुमराह करने, उन्हें काफिर बनाने, उन्हें बरबादी के रास्ते पर ले जाने की तमाम नापाक कोशिशें की हैं,………और वह भी एक-दो दफा नहीं……..बल्कि बार-बार, लगातार की हैं..........और ऐसे इंसान के लिये शरीयत कानून में सिर्फ एक ही सज़ा मुकम्मल कि गयी है.....सज़ा-ए-मौत!!"

एक दूसरा नकाबपोश चीखकर बोला "भाईजान!!....इस गद्दार का सिर अभी तुरंत धड़ से अलग कर दिया जाना चाहिये!!.......एक गद्दार, एक क़ाफिर को कत्ल करने से ज़्यादा मुकद्दस, इस से ज़्यादा पाकीज़ा काम पूरी कायनात में एक मुसलमान के लिये कुछ और हो ही नहीं सकता है."

उसके बाकी नकाबपोश साथियों ने भी खून से सनी अपनी नंगी तलवारें और खंजर, हॉकी स्टिक और बाकी के हथियार हवा में लहराते हुए, और चिल्लाते हुए उसकी बात पर मुहर लगाई "बिल्कुल सही!!!.....सिर काट डालो इसका!!!.....इसका यही अंजाम है!!!...."

और उसके बाद अगले ही पल फरीद का गिरेबान पकड़े उस नकाबपोश आदमी ने "अल्लाह-हु-अकबर" चिल्लाते हुए अपनी तलवार से फरीद का सिर, उनके धड़ से अलग कर दिया. उसके आस-पास खड़े लोग भी बुलंद आवाज़ में "अल्लाह-हु-अकबर" के नारे लगा रहे थे. फरीद का सिर हवा में किसी फुटबॉल की तरह उछल कर, ज़मीन पर कुछ दूरी पर जाकर गिरा और उनकी गर्दन से खून की एक मोटी धार किसी फव्वारे की तरह फूट पड़ी. उनका धड़ अब तक ज़मीन पर गिर चुका था.

इसके बाद उस आदमी ने नीचे ज़मीन पर, घुटनों के बल बैठकर, वहीं पास में ही गिरी दीवान की लाश को उसके सिर के बाल पकड़कर अपनी ओर खींचा और फिर "अल्लाह-हु-अकबर" का नारा लगाते हुए एक झटके में ही दीवान का सिर भी उसके धड़ से अलग कर दिया. अब उसकी तलवार फरीद और दीवान के लहू से पूरी तरह रँगी हुई थीं, और उस से खून टप-टप करके नीचे ज़मीन पर गिर रहा था.

 एक दूसरा नकाबपोश आदमी वहाँ गया जहाँ फरीद का सिर कट कर गिरा हुआ था. उसने वह सिर उठाया और वापिस लाकर अपने कप्तान को दिया जिसने वह सिर धड़ से अलग किया था. कप्तान ने वह सिर अपने हाथ में लेते हुए अपने साथियों से कहा "अभी गहरी रात ही है, लोग सो रहे हैं......बहुत जल्दी से इन लाशों को ठिकाने लगाओ, और यहाँ ठीक ढंग से साफ-सफाई भी कर दो. सुबह 5-6 बजे जब लोग उठें, तो उन्हें यूँ लगना चाहिये गोया रात को यहाँ कुछ हुआ ही नहीं है. मैं ये दोनों सिर लेकर डाक बँगले जा रहा हूँ, जहाँ जनाब मिर्ज़ा हैदर और हेमचंद भाई आज ठहरे हुए हैं." और यह कहकर वह आदमी डाक बँगले की ओर चला गया.

सुबह के करीब 5 बजे वह नकाबपोश आदमी एक बड़े से कपड़े के थैले में लिपटे हुये, फरीद और दीवान के कटे हुये सिर लेकर सीधे डाक बँगले पहुँचा, जहाँ मिर्ज़ा और हेमचंद बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रहे थे. उसे देखते ही मिर्ज़ा ने हँसकर पूछा "आ गये असगर?......हम तुम्हारी ही राह देख रहे थे."

असगर ने अपना नकाब उतारते हुए मुस्कुराकर कहा "ये लीजिये जनाब." और उसने कपड़े का वह बड़ा सा थैला मिर्ज़ा की ओर बढ़ा दिया. हेमचंद वहीं पास में खड़ा मुस्कुरा रहा था.

थैला पकड़ते हुए मिर्ज़ा ने हँसकर पूछा "काम हो गया?"

"जैसा आपने कहा था जनाब, बिल्कुल वैसा ही किया है." असगर ने मुस्कुराते हुए, गर्व से कहा.

"शाबाश असगर, तुमसे यही उम्मीद थी." मिर्ज़ा ने कहा, और फिर थैले के भीतर हाथ डालकर पहला सिर निकाला. मिर्ज़ा ने बारीकी से उसकी जाँच-पड़ताल करते हुए उसे अपने दायीं ओर खड़े हेमचंद की ओर बढ़ाया "ये दीवान ही है न हेमचंद?"

"जी जनाब, ये वही है." हेमचंद ने दीवान का सिर अपने हाथ में लेते हुए हँसकर कहा. करीब इसी वक़्त हेमचंद ने अपनी जेब से रिवॉल्वर निकाली और उसकी नली दीवान की कनपटी से थोड़ा ऊपर रखते हुए, ट्रिगर दबा दिया. गोली उस कटे हुए सिर के एक तरफ से घुसती हुई दूसरी ओर से पार हो गयी थी. हेमचंद ने दीवान का सिर वहीं बगल में फेंक दिया.

फिर मिर्ज़ा ने थैले में दोबारा अपना खून से सना हुआ हाथ घुसाया और अपने बड़े भाई फरीद का कटा हुआ सिर बाहर निकाला. चारों ओर से उस कटे हुए सिर का तसल्लीबख्श मुआयना करने के बाद जब मिर्ज़ा को पक्का यकीन हो गया कि यह कटा हुआ सिर फरीद का ही है, तब उन्होनें हेमचंद को बिना देखे, उसकी ओर अपना दायाँ हाथ बढ़ाया. हेमचंद ने मिर्ज़ा के हाथ पर एक तेज़, धारदार, नुकीला खंजर रख दिया. मिर्ज़ा ने फिर अपने बायें हाथ से उस कटे हुए सिर के बालों को पकड़ा और गुस्से में अपने दाँत पीसते हुए, अपने दायें हाथ से, उस तेज़ धार वाले खंजर से फरीद के चेहरे पर पूरी ताकत से दो बार वार किया. अपने भाई के चेहरे पर खंजर से वार करते समय, शायद मिर्ज़ा के भीतर इतने लम्बे अर्से से फरीद के लिये छुपी सारी नफरत बाहर आ गयी थी. उन्होनें फरीद के चेहरे पर दो बहुत गहरे घाव लगाये. पहला घाव फरीद की आँख के बिल्कुल करीब किया और दूसरा घाव फरीद के गालों पर लगा.

फिर लम्बी साँस छोड़ते हुए मिर्ज़ा ने फरीद का वह क्षत-विक्षत, कटा हुआ सिर हेमचंद को देते हुए मुस्कुराकर कहा "हेमचंद, आज हमारे प्यारे अब्बू, सैयद साहब की 83वीं सालगिरह है. हम उनकी इस सालगिरह पर उन्हें एक ऐसा नायाब, ऐसा शानदार तोहफा देना चाहते हैं, जिसे वह ताउम्र याद रखें."

हेमचंद ने फरीद का लहूलुहान सिर अपने हाथों में लेते हुए हँसकर कहा "जी जनाब!.....सैयद साहब तक उनकी सालगिरह का यह नायाब और बेहद शानदार तोहफा ज़रूर पहुँच जायेगा."

"मगर एक बात का ध्यान रहे...." मिर्ज़ा ने टोका.

"कहिये जनाब?"

"......यह तोहफा उनके आगे सिर्फ उस वक़्त पेश कीजियेगा, जब अब्बा हुज़ूर रात में अपने खाने की मेज पर बैठे हों, और उनके आगे खाना परोसा गया हो.......उससे पहले नहीं." मिर्ज़ा ने मुस्कुराकर कहा.

"मैं समझा नहीं जनाब." हेमचंद ने कहा.

".....हम यह चाहते हैं कि हमारे अब्बा हुज़ूर, अपनी सालगिरह पर खाना खाने से ठीक पहले, हमारे भेजे गये इस नायाब और बेहद शानदार तोहफे पर अपनी खास नज़र-ए-इनायत कर लें."

"बिल्कुल ऐसा ही होगा जनाब......आप बेफिक्र रहें." हेमचंद ने हँसकर कहा.



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