HARSH TRIPATHI

Drama Classics Thriller

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HARSH TRIPATHI

Drama Classics Thriller

दस्तूर - भाग-8

दस्तूर - भाग-8

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शफाक़त चुपचाप बैठा हुआ था और नदी में बनते-बिगड़ते धारे देख रहा था। यमुना ने फिर उसे झिंझोड़ा "अब क्या सोच रहे शफाक़त तुम ?"

"अगर इंसान की ख्वाहिशों और उसकी ज़िम्मेदारियों में टकराव की नौबत आ जाये, तो वह क्या करे ?......क्या ज़िम्मेदारियों के पीछे अपनी दिली ख्वाहिशें कत्ल कर दे ?" शफाक़त ने पूछा।

"बड़ा मौजूं सवाल है शफाक़त तुम्हारा तो!!" यमुना ने हँसकर कहा। फिर पूछा "क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारे अब्बू ने सही किया ?" यमुना ने पूछा।

"नहीं, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि उन्होनें सही किया या गलत......खैर, आप ही अपनी समझ से सोचकर बताएं कि वो सही थे या गलत ?" असमंजस में पड़े बच्चे ने पूछा।

"सच कहूँ तो मैं भी इस सवाल का जवाब नहीं दे सकती। " यह कहकर यमुना भी चुप हो गयी।

"अच्छा, आगे बताइये। फिर क्या हुआ ?"

यमुना ने बताना शुरु किया "नये साल की शुरुआत के साथ ही सैयद साहब, अली साहब, फरीद और मिर्ज़ा को बड़ी ही शानदार खुशखबरी मिली। बात ये थी कि दिल्ली की दोनों ज़मीनों की रजिस्ट्री अब सैयद साहब की कम्पनी के नाम पर हो चुकी थी और फरीद की तेज़ी की वजह से अब वहाँ पर फैक्ट्री और गोदाम बनवाने का काम शुरु हो चुका था। करीब एक-दो साल में फैक्ट्री और गोदाम बन कर तैयार हो जायें और प्रोडक्शन शुरु हो जाये, ये सोचकर सैयद साहब और फरीद चल रहे थे। इसी के साथ जालंधर में भी दोनों ही ज़मीनों की रजिस्ट्री मुकम्मल हो चुकी थी, अब वहाँ फरीद का ड्रीम प्रोजेक्ट कुछ वक़्त के बाद शुरु होना था।

करीब इसी वक़्त सुप्रीम कोर्ट में गुलाम हसन और रशीदा नक़वी के मामले की सुनवाई चल रही थी। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई पूरी कर ली थी और फैसला भी आ गया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, हाईकोर्ट का फैसला बिल्कुल सही था, और सी. आर. पी. सी. की धारा-125 की मदद लेते हुए जिस नतीजे पर हाईकोर्ट पहुँचा था, सुप्रीम कोर्ट ने भी उस पर मुहर लगा दी थी। फैसले में साफ कहा गया कि सी. आर. पी. सी. सेक्शन-125 के तहत हर तलाक़शुदा औरत अपने पति से तब तक गुज़ारा-भत्ता पाते रहने की हक़दार है, जब तक कि उसकी दूसरी शादी न हो जाये। कोर्ट के मुताबिक इस्लाम और शरीयत भी सी. आर. पी. सी. सेक्शन-125 के दायरे में आते हैं और इस तरह से अदालत ने इद्दत की अवधारणा को नकारते हुए गुलाम हसन से रशीदा के लिये तब तक हर महीने 500 रुपये के गुज़ारा-भत्ता की व्यवस्था करने का आदेश दिया था जब तक कि रशीदा दोबारा शादी न कर ले। गुलाम हसन के घर के हालात देखते हुए गुज़ारे-भत्ते की रकम थोड़ी कम ज़रूर कर दी गयी थी।

अदालत ने अपने फैसले में एक और बात कही जिसने सभी का ध्यान खींचा था और वह थी 'कॉमन सिविल कोड' और संविधान के अनुच्छेद-44 की चर्चा। अदालत ने सरकार को लताड़ लगायी कि आज़ादी के 20 साल बाद भी 'कॉमन सिविल कोड' और अनुच्छेद-44, देश के संविधान में निर्जीव पड़े हैं और इनकी तामील के लिये अभी तक सरकार ने गम्भीरता नहीं दिखायी है। सरकार को चाहिये कि वह इस दिशा में भी सार्थक प्रयास करें जिस से यह अनुच्छेद-44 संविधान में केवल लाश बनकर न रह जाये।

अदालत के इस फैसले पर पूरे देश की निगाह थी और अदालत का फैसला आते ही देश भर में मौलवियों और उलेमाओं के ज़बरदस्त धरने और प्रदर्शन शुरु हो गये थे। उनका सीधा ये मानना था कि ये फैसला इस्लाम और शरीयत खिलाफ है और इसलिये उन्हें किसी भी हाल में मंज़ूर नहीं है। उनका मानना था इस्लाम के शरीयत कानून के मुताबिक कि शौहर केवल इद्दत के वक़्त तक ही गुज़ारा-भत्ता देने के लिये ज़िम्मेदार है, इद्दत के बाद उस औरत के लिये शौहर की कोई भी ज़िम्मेदारी आयद नहीं होती। उन्होनें कहा कि ये फैसला भारतीय संविधान के अनुच्छेद-29 और अनुच्छेद-30 का भी सीधा उल्लंघन है जो इस मुल्क में माइनॉरिटी के हक़ के हिफाज़त की बात करते हैं। और इस तरीके से इस मुकदमे के फैसले ने मुल्क, और खासतौर पर मुसलमानों में भूचाल ला दिया था।

मुसलमानों के धार्मिक नेताओं को सबसे ज़्यादा ऐतराज़ सुप्रीम कोर्ट के 'कॉमन सिविल कोड' और अनुच्छेद-44 की चर्चा से था। इसे लेकर वह लोग खासे गुस्से में थे। उनका कहना था कि अनुच्छेद-44 में लिखा 'कॉमन सिविल कोड' इस्लाम और शरीयत के खिलाफ है जिसे मुस्लिम कौम किसी भी सूरत में मंज़ूर नहीं करेगी और इसकी पुरज़ोर खिलाफत करेगी।

राजनीतिक दलों को भी इसने दो फाड़ कर दिया था। एक तरफ वो थे जिनका यह कहना था कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत है, और मुस्लिम समुदाय में इस से गलत पैगाम गया है कि हिंदुस्तान का सिस्टम उनके मज़हबी मामलों के साथ खिलवाड़ कर रह है और उनकी हिफाज़त नहीं कर रहा है। उन लोगों ने यह भी कहा था कि सरकार को इस मामले का नोटिस लेना चाहिये, कानूनों में ज़रूरत पड़े तो फेरबदल किया जाना चाहिये और मुस्लिम समुदाय को यह भरोसा दिलाया जाये कि मुल्क हर हाल में उनके साथ हैं और उनके मज़हबी मामलतों के साथ किसी तरह की छेड़-छाड़ नहीं की जायेगी। मुसलमान हिंदुस्तान में अपनी पहचान के साथ पूरी तरह से महफूज़ हैं। ऐसे लोगों ने 'कॉमन सिविल कोड' के साथ किसी भी तरह की छेड़-छाड़ से आगाह करते हुए कहा कि अभी अनुच्छेद-44 को लागू करने का वक़्त नहीं आया है। अभी मुल्क के लोग दिमागी और जज़्बाती तौर पर इतने जानकार नहीं हुए हैं कि 'कॉमन सिविल कोड' को मान लेंगे। वक़्त बीतने पर जैसे-जैसे उनकी समझ और जानकारी बढ़ेगी, आगे जाकर इस अनुच्छेद-44 को लागू करने का प्रयास किया जा सकता है।  

वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसी भी सियासी जमातें और लीडरान थे, जिनका यह कहना था कि मुल्क का संविधान, कानून और मुल्क की न्यायपालिका से ऊपर कभी कोई नहीं हो सकता है। कानून सभी के लिये बिल्कुल बराबर है। इनका कहना था कि कोर्ट का फैसला बिल्कुल सही है, और इसमें किसी मज़हब की किसी भावना का कोई निरादर नहीं होता है, और अगर ऐसा है भी तो भी, देश का कानून किसी भी जाति या मज़हब से ऊपर है और देश की सुप्रीम कोर्ट जो यहाँ के कानून की व्याख्या करने वाली सर्वोच्च संस्था है, उसी का आदेश सही और विवादरहित माना जायेगा। सभी धर्मों और जातियों के लोगों को सुप्रीम कोर्ट के हर आदेश का पूरा पालन करना चाहिये। इन दलों के लीडरान ने अनुच्छेद-44 में दर्ज 'कॉमन सिविल कोड' को तत्काल लागू किये जाने की पुरज़ोर पैरवी की और कहा कि संविधान के निर्माता मुल्क की अवाम का हित अच्छी तरह जानते-समझते थे इसीलिये 'कॉमन सिविल कोड' को देश के संविधान में जगह दी गयी है। उन्होनें कहा कि 'कॉमन सिविल कोड' लागू किया जाना बेहद ज़रूरी है और ऐसा यदि न किया जायेगा तो यह 'मुस्लिम तुष्टीकरण' को बढ़ावा देगा, और देश में अलगाव पैदा करने की दिशा में ले जायेगा, और सभी गैर-मुस्लिम समुदायों में गलत संदेश जायेगा। वे सभी धार्मिक और जातीय समुदाय अपने-अपने धार्मिक और जातीय कानूनों को एक-दूसरे से ऊपर रखे जाने की माँग करेंगे। इससे देश की न्यायपालिका पर सवालिया निशान लग जायेगा और समाज में भी बहुत बड़ा संकट खड़ा हो जायेगा।

सरकार इस मामले की नज़ाकत को समझते हुए, बहुत फूँक-फूँक कर कदम रख रही थी।

इन्हीं हालातों के बीच काफी समय के बाद फरीद एक इतवार की शाम को अपने उस्ताद, क़ाशनी साहब के यहाँ जा पहुँचे थे। क़ाशनी साहब अखबार लेकर बाहर बरामदे में ही बैठे थे और मुँह पान से भरा हुआ था। फरीद को देखते ही मुस्कुरा उठे "आईये फरीद मियाँ आइये!!.....कहिये कैसे हैं ?.....अबकी तो काफी वक़्त बाद नज़र आये आप ?"

फरीद ने झुककर सलाम करते हुए कहा "जी जनाब, कारोबार के सिलसिले में दौड़-भाग ज़्यादा हो गयी थी पिछले कुछ वक़्त से। "

"आपके अब्बू मिले थे हमसे एक दिन, हमने पूछा कि मियाँ कहाँ है तो बोले कि आजकल दिल्ली, जालंधर और सौघरा एक किया हुआ है। " हँसते हुए क़ाशनी साहब बोले।

"जी ऐसा ही समझिये। कारोबार का तो उसूल है जनाब, कि एक जगह से पैसा आये, और दूसरी जगह जाये.....बस वही चल रहा है। दिल्ली और जालंधर में कुछ अच्छे मौके दिखे तो हमने सोचा कि कोशिश करने में क्या हर्ज़ है ?"

"अरे सौ फीसदी सही सोचे मियाँ!!!.....बरक़त तो ऐसे ही होती है। अब घर में रोटी खाकर बिस्तर तोड़ने से तो बरकत होगी नहीं ना। " क़ाशनी साहब ने कहा फिर फरीद को बैठने के लिये इशारा किया।

"जी शुक्रिया" फरीद बगल की कुर्सी पर बैठते हुए बोले।

क़ाशनी साहब ने अंदर आवाज़ दी "अरे सुनती हो!!.....देखो तो ज़रा,......फरीद आये हैं चाय बोल देना दो। "

अंदर से गुल्फिशाँ बेगम की आवाज़ आयी "जी, जी, अभी ला रहे हैं। "

कुछ देर में अनीसा के साथ बेगम बाहर आईं। अनीसा के हाथ में चाय की ट्रे थी। बेगम को देखकर फरीद खड़े हो गये झुककर सलाम किया "अस्सलाम वालेकुम!!"

"वालेकुम अस्सलाम फरीद मियाँ!!...... ईद के चाँद न हो गये तुम ?" बेगम ने ठिठोली की। अनीसा ने भी झुककर फरीद को सलाम किया। फरीद ने ही उन्हें सलाम किया।

"जी नहीं, बस थोड़ा मसरूफ ज़्यादा हो गये थे इधर-उधर के कामों में। " फरीद ने मुस्कुराकर कहा और अंदर जाकर खुद एक कुर्सी लेकर आ गये। इस कुर्सी पर खुद बैठे और पुरानी कुर्सी पर बेगम बैठ गयीं। अनीसा चाय रखकर चली गयी थी।

"अरे बेगम!! अब ऊँची उड़ान उड़ रहे हैं फरीद मियाँ। " सैयद साहब ने हँसकर कहा।

"अभी नहीं जनाब, अभी तो शुरु किया है आप लोगों की दुआएं रहीं तो इंशाअल्लाह कामयाब होंगे। " फरीद ने कहा।

"दुआ क्यों नहीं रहेगी फरीद ? आपके लिये तो हम हमेशा दुआ करते हैं। " बेगम ने मुस्कुराकर कहा।

"बताइये, एक तरफ आप है, जो कारोबार में मसरूफ हैं, जिन्हें फालतू के कामों के लिये समय नहीं है..........जो इतने लोगों को रोज़गार दे रहे हैं, कितने ही लोगों के घरों में चूल्हा जल रहा है और उनकी बरकत भी हो रही है,........आप खुद भी मुनाफा कमा रहे हैं, और हमारी कौम का भी कितना नाम हो रहा है , और एक तरफ ये लोग हैं, काम-धंधा है नहीं कुछ, बस सड़क जाम करनी है, रेल रोकनी है, पत्थरबाज़ी और आगज़नी करनी है,.......लोगों को परेशान करना है बस। " मेज पर अखबार रखते हुए और अपना चश्मा उतारते हुए क़ाशनी साहब बोले।

फरीद ने पूछा "क्या हुआ जनाब ?"

"अरे वही, रशीदा नक़वी केस, नौटंकी करा लो कोई इनसे बस। " क़ाशनी साहब ने चिढ़कर कहा।

"हाँ, हमने भी देखा था आज ये सब.......आज सब्ज़ी लेने गये थे अनीसा के साथ, इधर ईदगाह चौराहे पर.......बड़ा धरना हो रहा था कोई। चीख-चीख कर बोल रहे थे माइक पर कि "इस्लाम खतरे में है", "हुक़ूमत को ऐसा नहीं करने देंगे ", "इस्लाम में दखल बर्दाश्त नहीं " ......ऐसे ही कुछ कह रहे थे...... नामालूम क्या बात थी ?"

"हाँ, जैसे इस्लाम के एक वही ठेकेदार हैं........हम लोग तो हैं ही नहीं मुसलमान........जैसे हम तो चूतिया हैं बैठे यहाँ। " क्षुब्ध होकर सैयद साहब बोले। न चाहते हुए भी उनकी ज़बान से गाली निकल गयी थी। बेगम सख्त निगाहों से उनकी ओर देख रहीं थीं और क़ाशनी साहब बेगम से नज़रें चुरा रहे थे। वे जानते थे कि बेगम को गालियाँ सख्ती से नापसंद हैं। फरीद उन दोनों को देखकर मुस्कुरा रहे थे।

बेगम ने ही फिर मुस्कुरा कर कहा "वैसे है क्या ये रशीदा नक़वी केस ?"

क़ाशनी साहब ने पूरी बात उनको बतायी, और फरीद से पूछा "बताइये फरीद मियाँ, कोई बात हुई ये करने की ? .......पहली बात तो तलाक़ देना ही गलत है...... कुफ्र है ये इस्लाम में. फिर जब दे ही दिया तो ये भी तो सोचो कि उस औरत के खाने-पीने, कपड़े, दवाएं वगैरह जैसे रोज़मर्रा के खर्च कैसे पूरे होंगे ?  तुमने तो तलाक़ देकर उसे बीच रास्ते छोड़ दिया, और अपने रास्ते चल दिये। हो सकता है तुम दूसरी शादी भी कर ही लो लेकिन सोचो ज़रा कि अब वो कहाँ जायेगी ?"

फरीद ने रज़ामंदी दी "जी। "

"....... और तेवर तो देखो फरीद मियाँ । एकदम नवाबी!!!.......वो आदमी बेलदारी करता है मंडी में .......और मारपीट करके तलाक़ सिर्फ इसलिये दे दिया कि शाम को खाना बनने में देर हो रही थी। अरे बीमार थी वो औरत!!!........अगर आधा घंटा देर हो भी गयी तो क्या हो गया था ?"

"बिल्कुल सही। "

"...... और मज़ा देखो जब हाईकोर्ट ने सीधे कह दिया की 600 रुपये गुज़ारा-भत्ता दो, तो जनाब का परिवार सुलह करने बैठा। पहले गुलाम हसन ने कहा था कि हलाले के बाद ही रशीदा से दोबारा शादी होगी, फिर अचानक से कहा कि हलाला तो कोई मसला ही नहीं होगा, रशीदा से दोबारा शादी करने को झट से तैयार हो गया वो कमज़र्फ आदमी। "

"लेकिन जनाब, वो इद्दत वाली बात ?" फरीद ने पूछा।

"अरे इद्दत-विद्दत छोड़िये मियाँ, इंसानियत की बात कीजिये, और थोड़ा कॉमन सेंस की भी बात कीजिये। मान लीजिये इद्दत के 90 दिन बीत गये फिर ?......... फिर क्या वो औरत सड़क पर आकर भीख माँगेगी ? कोर्ट की बात बिल्कुल सही है। गुज़ार-भत्ता तब तक बराबर मिलते रहना चाहिये, जब तक कि या तो वो औरत खुद मना न कर दे, या फिर उसकी दूसरी शादी न हो जाये। " क़ाशनी साहब ने कहा।

गुलफिशाँ बेगम लम्बी साँस छोड़कर बोलीं "इस्लाम में एक यही बात है जो बुरी लगती है। ऐसे कैसे हो सकता है कि कोई बेवकूफ, सनकी, झक्की आदमी 'तलाक़, तलाक़, तलाक़' कह दे और तलाक़ हो जाये ?"

"यही तो सोचने वाली बात है बेगम। इस बुराई को दूर करने के लिये कोई आगे नहीं आता। " क़ाशनी साहब ने कहा।

उन्होनें फिर फरीद से कहा "फरीद, आप अक्सर हमसे पूछते हैं न कि गाहे-ब-गाहे क्यों हिंदुस्तान की मुस्लिम आबादी के सामने यह सवाल किसी राक्षस की तरह मुँह फैलाये आ जाता है कि हम इस मुल्क के गद्दार हैं, या कि वफादार ? .......हमें बार-बार अपनी वफादारी क्यों साबित करनी पड़ती है ? इसका जवाब आपको आजकल सड़कों पर मिल जायेगा। ये जो भी कुछ हो रहा है ये धरना, प्रदर्शन……रेल रोकना, बस रोकना, नारेबाज़ी, चिल्लम-चिल्ली .......इस से मुल्क की बाकी अवाम में क्या मैसेज जा रहा है ? यही न कि हमारी कौम सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर को मानने के लिये भी तैयार नहीं है, जिसका ऑर्डर हिंदुस्तान में सभी को मानना चाहिये, और जो हमारे संविधान में भी सबसे ऊपर है ?...... भाई मुल्क का कानून तो सबके लिये बराबर है ना ? यही समस्या है हमारी कौम की ......और इसी का फायदा कुछ छटे हुए लोग उठाते हैं और हमें बदनाम करते हैं। "

"और 'कॉमन सिविल कोड' जनाब ? उसको भी तो एंटी-इस्लामिक बताया जा रहा है। " फरीद ने कहा।

"एक बात बताइये फरीद, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद साहब भी कॉन्स्टीट्यूशनल एसेम्बली में थे ना ?.....या नहीं थे ?"

"बिल्कुल थे जनाब। "

"थोड़ा बताईयेगा ये आजकल जो दो कौड़ी के मुल्ला-मौलवी सड़क पर उतरकर नारेबाज़ी, चिल्लम-चिल्ली कर रहे हैं, और खुद को इस्लाम की हिफाज़त करने वाला बता रहे हैं , क्या मौलाना आज़ाद की अक्ल इनसे कम रही होगी या ज़्यादा ?...... उन्होनें कॉमन सिविल कोड को संविधान में शामिल करने का विरोध किया था क्या ?"

फरीद खामोश थे।

"नहीं किया था जबकि वह मुसलमान ही थे, लेकिन उन्होनें मुल्क को किसी मज़हब से ऊपर ही रखा था। "

"जी। "

".....और देखिये तो अगर कॉमन सिविल कोड लग जाये, तो हमारी अदालतों को काम करने में काफी आसानी हो जायेगी । वरना फिर ऐसा हो जायेगा कि हर मज़हब के लोग अपने लिये अलग-अलग सिविल कोड की माँग करने लग जायेंगे और मुल्क के सामने एक समस्या भी खड़ी हो सकती है। " क़ाशनी साहब बोले।

 अब तक देश में चुनावों की घंटी बज चुकी थी। 1967 के चुनाव कई मायने में ऐतिहासिक ही थे। नेहरू जी और शास्त्री जी की मौत के बाद पहली बार सत्तारूढ़ दल नयी-नवेली इंदिरा गाँधी जी की अगुवाई में लोकसभा चुनाव और देश के सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव के लिये उतर रहा था। दल की हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी और पार्टी के भीतर अंदरूनी कलह, रस्साकशी, नेतृत्व के प्रति रोष व असंतोष की खबरें आम हो चुकी थीं और अखबारों और रेडियो के ज़रिये लोगों की बैठकों तक जा पहुँची थी। ऐसे में यह चुनाव सत्तारूढ़ दल और खुद श्रीमती गाँधी जी के लिये बिल्कुल एसिड टेस्ट ही थे।

चुनावों का नतीजा आया तो पार्टी बिल्कुल सकते में आ गयी। लोकसभा में बस किसी तरह से पार्टी अपना बहुमत बचाने में कामयाब रही थी। बड़े राज्यों जैसे यू। पी। , महाराष्ट्र, तमिलनाडू, बंगाल से पार्टी की सीटें करीब आधी हो गयीं थी और बस किसी तरह से सरकार बच पायी थी। लेकिन विधानसभाओं में तो हालत बहुत दयनीय रही थी। 9 मुख्य राज्यों जिनमें तमिलनाडु, बंगाल भी थे, से पार्टी के हाथ से सत्ता चली गयी और वहाँ विपक्षी दलों की सरकारें बनीं। यही नहीं, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पार्टी की सरकार जो किसी तरह से बन पायी थी, महज़ 2-3 महीने ही चल पायी, उसके बाद फिर से वहाँ सरकार गिर गयी और विपक्ष ने सरकर बनाई। इस तरह से यू. पी. सहित 10 प्रमुख राज्यों की जनता ने पार्टी को बिल्कुल नकार दिया था।

पार्टी ने जब इस करारी हार की समीक्षा की तो दो बातें निकल कर आयीं। एक, कि लोगों को यह लग रहा था कि पार्टी गरीब-मज़लूमों, किसानों और मध्य वर्ग के लिये काम न करके बड़े व्यापारी और पूँजीपतियों को लाभ पहुँचा रही थी जिससे किसानों, गरीबों और मध्य वर्ग में काफी गुस्सा और असंतोष था। इस समस्या को सुलझाने के लिये प्रधानमंत्री के भरोसेमंद सिपहसालारों की राय थी कि सरकार को गरीबों, किसानों और मध्य वर्ग के लिये काम करता दिखना चाहिये और इसके लिये जनकल्याण की कई बड़ी, लोकलुभावन योजनाएं शुरु करनी चाहिये, और समाजवादी सिद्धांतों के राते पर चलना चाहिये साथ ही बड़े कारोबारियों और पूँजीपतियों पर सख्ती की जानी चाहिये।

पार्टी की हार का ज़िम्मेदार जो दूसरा अहम तत्व पहचाना गया, वो था रशीदा नक़वी केस, और उसमें सुप्रीम कोर्ट का फैसला। पार्टी के शीर्ष नेताओं की राय में इसने मुस्लिम वर्ग को काफी नाराज़ कर दिया और पार्टी से बहुत दूर कर दिया जबकि हर चुनाव में मुस्लिम वर्ग पार्टी के पक्ष में वोट देता आया था। सिपहसालारों की राय ये थी कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जो नाराज़गी मुसलमानों में है, उसे दूर किया जाये और इसके लिये अगर कानूनी फेरबदल करना पड़ता है तो किया जाये। अनुच्छेद-44 मे लिखे 'कॉमन सिविल कोड' के बारे में उनकी राय थी कि इसे कतई छुआ नहीं जाना चाहिये और ये संविधान में जैसे है, वैसे ही छोड़ देना चाहिये।

कानून में फेरबदल की बाबत पार्टी के बड़े नेताओं की यह राय थी कि अभी लोकसभा में पार्टी के पास मामूली सा बहुमत ही है, यह इतना नहीं है कि कानून बदल दिया जाये, इसलिये अभी इस मुद्दे पर चुप बैठना उचित होगा और आगे के चुनाव में अगर तगड़ा बहुमत आता है, तो बिल्कुल इस बारे में सोचा जायेगा। देश में मुसलमानों के धर्मगुरुओं, मौलवियों और उलेमाओं को, जो इस मुकदमें का फैसला आने के बाद से ही लगातार धरना-प्रदर्शन कर रहे थे, यही बात बताकर शांत किया गया कि आगे जब भी लोकसभा में पर्याप्त बहुमत होगा तो कानूनों में ज़रूरी बदलाव कर दिये जायेंगे जिस से मुसलमानों के धार्मिक और सांस्कृतिक हित सुरक्षित रहें।  

उसके बाद सरकार ने ऐसे ही कुछ कदम उठाने शुरु कर दिये थे। कारोबारियों और पूँजीपतियों पर सख्ती की जाने लगी थी। नौकरशाहों, पुलिस और आयकर विभाग के हाथ में भी ज़्यादा ताकत दे दी गयी थी। नयी इंडस्ट्री लगाना और उनको चलाना भी मुश्किल बना दिया जा रहा था। तमाम तरह की नयी सख्त शर्तें और नियम-कानून कारोबारियों के लिये बनाये जा रहे थे।

इन्हीं की चपेट में सैयद साहब का दिल्ली वाला प्रोजेक्ट और फरीद का ड्रीम प्रोजेक्ट यानि जालंधर वाला मामला भी आ गया था। दिल्ली में फैक्ट्री और गोदाम बनाने का काम अचानक रोक दिया गया था क्योंकि सरकारी दफ्तरों और दूसरे विभागों की तरफ से कई सारे कागज़ात फिर से माँगे गये थे। पूरे प्रोजेक्ट की दोबारा से जाँच हो रही थी। जालंधर वाले प्रोजेक्ट पर भी संकट के बादल मंडराने लगे थे। वहाँ तो अभी कुछ काम भी शुरु नहीं हो पाया था। ज़मीन के लेन-देन की पूरी जाँच-पड़ताल फिर से शुरु हो गयी थी, साथ ही वहाँ लगने वाली फैक्ट्री और बनने वाले गोदाम को लेकर भी अब सरकारी विभागों की नज़रें टेढ़ी हो गयीं थीं। बैंक से बड़ा कर्ज़ भी लिया जा चुका था जिसकी किश्तें भी जमा करनी ही थीं। इन सारी बातों से सैयद साहब और फरीद के माथे पर बल पड़ रहे थे।

एक और बात भी हुई थी कि बच्चों के इम्तिहान खत्म हो चुके थे और गर्मियों की छुट्टियाँ भी पड़ चुकी थी। अब ज़ीनत ने मिर्ज़ा के साथ दिल्ली में रहने से इंकार कर दिया था और अब वो अपने ससुराल में अपने बच्चों के साथ रहना चाहती थीं और बच्चों का नाम वहीं सौघरा के स्कूल में लिखाना चाहती थीं। मिर्ज़ा ने उन्हें काफी समझाने की कोशिश की थी कि सौघरा में रहना ठीक नहीं है, और ज़ीनत को दिल्ली में मिर्ज़ा के साथ ही रहना चाहिये, लेकिन ज़ीनत ने फैसला कर लिया था और इस बाबत सैयद साहब से बात भी कर ली थी। सैयद साहब ने उनसे यही कहा "देखिये ज़ीनत, आप को हमने कभी बहू माना ही नहीं, हमेशा बेटी ही माना । ये घर आपका है, आपका ही था, और आपका ही रहेगा। आप आइये, यहाँ रहिये और जो आपकी मर्ज़ी हो कीजिये, जैसे मर्ज़ी हो रहिये......हमारा तो अपना सिक्का ही खोटा निकला, तो हम तो किसी से कुछ भी कहने, किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं हैं........आप आ जायेंगी, तो यहाँ हमें भी अच्छा लगेगा। " और इस तरह से ज़ीनत अपने ससुराल, सौघरा में रानी की मंडी वाली कोठी में अपने बच्चों के साथ रहने आ गयी थीं। इधर अली साहब ने सैयद साहब को भी समझा दिया था कि अभी उनकी तबियत बिल्कुल ठीक है, और अभी वह ठीक ढंग से काम भी कर ले रहे हैं, इसलिये जानशीन चुनने की ऐसी जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिये। सैयद साहब ने भी उनकी बात मान ली थी और इस बात को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया था।

बदले हुए हालात में अब एक दफा फिर से मिर्ज़ा का किरदार बहुत अहम हो गया था। वह इंतज़ामियत में एक बड़े अफसर थे, वह भी रेवेन्यू डिपार्टमेंट में। अब दिल्ली वाले मामले को सुलझाने की सारी ज़िम्मेदारी एक तरीके से उन्हीं के कंधों पर आ गयी थी। वो अपनी तरफ से कोशिश कर भी रहे थे कि ये मामला सुलझ जाये, और दिल्ली के प्रोजेक्ट में जिस काम को अचानक रोक देना पड़ा था, वह दोबारा शुरु हो जाये, लेकिन रह-रहकर उनके ज़ेहन में कभी-कभी यह बात भी आती थी कि ".....जब जानशीन फरीद भाईजान को ही बनाना है, तो मेहनत हम क्यों करें ?.......दिल्ली वाले प्रोजेक्ट का पूरा प्लान हमारा ही था........ शाहजहाँनाबाद और साहिबाबाद की ज़मीनें भी पहले हमने ही बताई थीं, लेकिन जब जानशीन बनाने की बारी आयी तो फरीद भाईजान को हमसे ऊपर रखा जा रहा है. ऐसे में फायदा क्या है अपनी कमर फिज़ूल में तोड़ने का ?" और इसी वजह से मिर्ज़ा उस काम को उस तरीके से नहीं कर रहे थे, जिस तरह से वह पहले उसमें दिलचस्पी दिखाया करते थे।

लेकिन सबसे ज़्यादा परेशानी फरीद के हिस्से आ गयी थी। बड़े अरमानों से उन्होने जालंधर का प्रोजेक्ट शुरु किया था। सबसे विनती की थी कि इस प्रोजेक्ट के बारे में किसी को न बताया जाये, और उन्हें ही इस पर काम करने दिया जाये। ये उनका ड्रीम प्रोजेक्ट था जिसके ज़रिये वह अपने अब्बू और बाकी लोगों की नज़रों में अपनी काबिलियत साबित करना चाहते थे। वह सबको यह दिखाना चाहते थे, कि "क्या हुआ अगर वह आई. सी. एस. नहीं हैं तो ? ......पूरा जालंधर का प्रोजेक्ट उन्होनें ही मुकम्मल किया है, और बेहद काबिल और कामयाब इंसान हैं",  लेकिन ऐसा कुछ अब होता हुआ न लग रहा था। प्रोजेक्ट शुरु होने से पहले ही ग्रहण लगता दिख रहा था। मजबूर होकर, न चाहते हुए भी अब फरीद मिर्ज़ा की मदद लेने की सोच रहे थे।

दूसरी ओर मिर्ज़ा भी यह बात समझ रहे थे। उन्हें पता था कि अब फरीद अपने जालंधर वाले प्रोजेक्ट को लेकर खासे परेशान हैं। मिर्ज़ा सोच रहे थे ".....मुझे कुछ भी बताए बगैर फरीद भाईजान इतना बड़ा प्रोजेक्ट पूरा करने चले थे........ अपने अकेले दम पर, बिना मिर्ज़ा की मदद लिये वह यह प्रोजेक्ट पूरा करने का ख्वाब देख रहे थे। आज तक जो इंसान अपने दम पर कुछ नहीं कर पाया, अचानक उसके अंदर इतनी हिम्मत कैसे पैदा हो गयी ? .......और तो और अब्बू ने भी ये बात छुपाई हमसे.......लेकिन ये तो रिकॉर्ड रहा है, और ये बात सब जानते भी हैं कि चाहे फरीद भाईजान हों, चाहे शुज़ा, चाहे मुराद या खुद चाहे अब्बू ही क्यों न हों, इस घर में बिना मिर्ज़ा हैदर की मदद के एक भी बड़ा काम नहीं हो पाया है.  मैं भी देखता हूँ कि फरीद भाईजान कब तक मुझसे मदद नहीं माँगते हैं ?....... मैं भी देखता हूँ कि कैसे उनका काम मेरे बगैर पूरा हो जायेगा?...... मेरे आगे उन्हें मदद के लिये हाथ तो फैलाना ही होगा। "

सारी बातें समझते हुए फरीद ने एक इतवार मिर्ज़ा को फोन किया। उधर से आवाज़ आई "हैलो!"

"हैलो!! मिर्ज़ा, मैं फरीद। "

".......जी, भाईजान, बताएं कैसे याद किया ?"

"बस ऐसे ही बात करने का दिल किया आपसे । अब तो अकेले ही हैं आप वहाँ। "

"हाँ, ज़ीनत ने ज़िद की तो फिर क्या करते ?" मिर्ज़ा ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा।

"तबियत, खाना-पीना वगैरह सब ?"

"बस अल्लाह का करम है भाईजान। "

फिर फरीद ने अपने काम की बात की "मिर्ज़ा एक बात बताएं, जालंधर या उसके इर्द-गिर्द सरकारी महकमे के किसी अफसर को जानते हैं आप ?"

"अभी तुरंत तो ऐसा कोई नाम दिमाग में नहीं आ रहा है भाईजान........ लेकिन अगर खोजबीन करूँ तो हो सकता है कि कुछ जान-पहचान निकल आये पंजाब कैडर के अफसरों से....... क्या हुआ भाईजान ? .........सब खैरियत तो है ?"

फरीद ने चिंतित स्वर में कहा "खैरियत ही तो नहीं है मिर्ज़ा........पता ही है आपको तो. बड़ी उम्मीद से जालंधर में प्रोजेक्ट शुरु किया था, ज़मीन की रजिस्ट्री वगैरह भी सब हो गयी थी लेकिन अब जब काम शुरु करने की बारी आयी तो ये नये-नये रूल्स और रेगुलेशन सामने आकर खड़े हो गये हैं। मामला फँस गया है........वहाँ अगर आपकी कुछ जान-पहचान निकले तो थोड़ा पता कीजिये कि अच्छी-खासी चलती हुई बात अचानक कहाँ रुक गयी है ?........इसका हल कैसे निकले कि जल्दी से जल्दी वहाँ फैक्ट्री और गोदाम का काम शुरु किया जा सके ? अभी कहाँ तो हम सोच रहे थे कि डेढ़ साल में प्रोडक्शन चालू कर देंगे.......लेकिन ये मामला तो लगता है कि लम्बा फँस गया है। "

"देखता हूँ भाईजान, मैं अपने लेवल से पता करवाता हूँ……। दरअसल एलेक्शन के नतीजे आने के बाद से हालात कारोबारियों के लिये ज़्यादा खराब हो गये हैं, और उनके हर कदम को शक के नज़रिये से देखा जाने लगा है, भले ही कारोबारी ने पूरी ईमानदारी से काम किया हो, और उसके सारे कागज़ात पूरे हों। कारोबार किसी नयी जगह पर शुरु करना अब इलेक्शन के बाद कठिन हो गया है । फिर भी मैं देखता हूँ कि क्या हो सकता है। " मिर्ज़ा ने कहा।

"ठीक है मिर्ज़ा, देख लीजियेगा आप फिर जैसा हो हमें बता दीजियेगा। " फरीद ने कहा और 'खुदा हाफिज़' कहकर फोन नीचे रख दिया।

इधर मिर्ज़ा के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान खेल गयी थी।

मिर्ज़ा दिल्ली वाले प्रोजेक्ट पर लगातार ज़्यादा ध्यान दे रहे थे, और लगातार दूसरे सरकारी विभागों के अफसरों से मिल रहे थे। मिर्ज़ा की लगातार मेहनत, और रसूख का नतीजा था कि दिल्ली वाले प्रोजेक्ट को अगले 6 महीने में फिर से सभी तरह के क्लीयरेंस मिल गये और जाँच-पड़ताल में वह प्रोजेक्ट बिल्कुल सही पाया गया था, लिहाज़ा एक बार फिर से वहाँ फैक्ट्री और गोदाम बनाने का काम, जो कुछ वक़्त पहले अचानक रोक दिया गया था, जोर-शोर से शुरु हो गया था। लेकिन जालंधर वाले प्रोजेक्ट को लेकर मिर्ज़ा ने खुद से ही कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी जबकि फरीद बार-बार उनसे ऐसा करने के लिये कह रहे थे। कोई बात न बनती देख फरीद ने सैयद साहब से कहा कि वह मिर्ज़ा से बात करें। अब सैयद साहब ने मिर्ज़ा को फोन किया और डाँट लगायी, कि अपने सगे भाई के काम को करने में, अपने घर के काम को करने में भी मिर्ज़ा हीला-हवाली कर रहे हैं। तब कहीं जाकर मिर्ज़ा ने जालंधर वाले प्रोजेक्ट से जुड़े कई अफसरों से बात करनी शुरु की थी। उधर कस्तूरिया जी ने भी अपनी तरफ से पूरा ज़ोर लगा दिया था कि किसी भी तरह इस प्रोजेक्ट को सभी तरह के क्लीयरेंस मिल जायें। फिलहाल, जालंधर के मामले को पूरा क्लीयरेंस मिलने में 6 महीने का वक़्त और लगा था। इस तरह से फरीद और सैयद साहब को इस प्रोजेक्ट में पूरे एक साल का नुकसान उठाना पड़ा और तब जाकर वहाँ फैक्ट्री और गोदाम के लिये नींव खोदने का काम शुरु हो पाया था। मिर्ज़ा ने जो तेज़ी दिल्ली वाले मामले में दिखाई थी, वैसे ही अगर जालंधर वाले मामले में की होती तो 6 महीने का नुकसान बचाया जा सकता था। फरीद और मिर्ज़ा के बीच यहीं से रार हो गयी थी लेकिन दोनों भाईयों ने एक-दूसरे से कुछ कहा नहीं था।

अब दिल्ली और जालंधर दोनों जगह पर सैयद साहब की कम्पनी के प्रोजेक्ट चल रहे थे। मिर्ज़ा अपनी नौकरी में व्यस्त थे, और फरीद सैयद साहब के कहने पर दिल्ली वाला प्रोजेक्ट देख रहे थे। शुज़ा और मुराद कारोबार और कारखाने से जुड़े दूसरे मामलों में मशगूल थे। लिहाज़ा जालंधर के काम को फुलटाईम देखने के लिये कोई आदमी सैयद साहब को नहीं मिल रहा था। कभी मिर्ज़ा देख आते थे, तो कभी फरीद चले जाते थे, तो कभी कस्तूरिया जी, लेकिन ऐसा कोई नहीं मिल पा रहा था जो वहाँ रह कर काम करवा सके। इस वजह से सैयद साहब कुछ परेशान थे, लेकिन सैयद साहब से कहीं ज़्यादा फरीद इस प्रोजेक्ट को लेकर परेशान थे। यह उनका ड्रीम प्रोजेक्ट था, और उनके दिल के बेहद करीब भी, इसीलिये वह खुद जालंधर जाकर सारा काम अपने आगे करवाना चाहते थे। सैयद साहब से पहले भी उन्होनें जालंधर जाने के लिये पूछा था लेकिन उन्होनें मना कर दिया था। लेकिन फरीद अपने मन के हाथ मजबूर थे और अपने अब्बू से उन्होनें फिर से इस बाबत बात करने की कोशिश की थी। उस दिन सैयद साहब अपनी बैठक में ही थे जब फरीद ने उनसे गुजारिश की "अब्बू कुछ ज़रूरी बात करनी है आपसे। "

फरीद का चेहरा देखकर सैयद साहब मुस्कुराए "हमें पता है क्या ज़रूरी बात है……जालंधर जाना चाहते हैं आप न ?"

फरीद ने कहा "जी, अब्बू। हम वहाँ कुछ महीनों के लिये तो ज़रूर रहना चाहते हैं......इतने दिनों बाद वहाँ कुछ काम शुरु हुआ है, हम खुद जाकर काम करवाना चाहते हैं........ आप तो जानते हैं अब्बू वो प्रोजेक्ट हमारे दिल के बहुत ज़्यादा करीब है. आप प्लीज़ हमें इजाज़त दे दीजिये। "

सैयद साहब ने उन्हें समझाया "देखिये फरीद, हम आपको जालंधर ज़रूर भेज देंगे। हम ये भी खूब जानते हैं कि जालंधर का प्रोजेक्ट आपको कितना अज़ीज़ है और आप उसको जल्द पूरा करने के लिये कितने बेकरार हैं,........लेकिन बेटे, हमारा और अली साहब का यही मानना है कि दिल्ली का प्रोजेक्ट हमारी कम्पनी लिये कहीं ज़्यादा ज़रूरी है, और इसलिये हम ये चाहते हैं कि आप दिल्ली के प्रोजेक्ट पर ज़्यादा ध्यान दें। रही बात जालंधर वाले प्रोजेक्ट की तो हम आपसे कहेंगे कि अभी कुछ महीने और रुक जाइये । फिर हम आपको जालंधर भेज देंगे। जालंधर में अभी काम शुरु ही हुआ है जबकि दिल्ली में काम तेज़ी से चल रहा है । इसलिये हम चाहते हैं कि अगले कुछ महीने आप दिल्ली वाले प्रोजेक्ट को देख लें, फिर आप जालंधर चले जाइयेगा।

"मगर अब्बू, यह ठीक है कि अभी वहाँ काम शुरु ही हुआ है, लेकिन जालंधर वाले प्रोजेक्ट को देखने के लिये आखिरकार कोई फुलटाईम आदमी तो चाहिये ही होगा ना ?" फरीद ने कहा।

"हम्म्म्म ........यही हम भी सोच रहे थे। " सैयद साहब ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा। फिर कुछ पलों के बाद उन्होने फरीद से पूछा "फरीद, आपकी जानकारी में है क्या कोई ऐसा आदमी, जिसे जालंधर भेजा जा सके ?........ जो वहाँ रहे और वहाँ का काम-काज देखने को तैयार हो ?"

फरीद ने कुछ देर सोचकर कहा "अपने सरवर कैसे रहेंगे ?"

"सरवर ?"

"जी अब्बू, अपने अली साहब के बेटे सरवर को हमारी कम्पनी, कारखानों, काम करने के तौर-तरीकों के बारे में सब कुछ बहुत अच्छी तरह से पता है. हमारे साथ वो तब से कारोबार में हैं जब हम लोग छोटे बच्चे हुआ करते थे और आपके और अली साहब के साथ फैक्ट्री घूमने आया करते थे .......याद है ना आपको ?  कारोबार का ककहरा हम चारों भाईयों और सरवर ने एक साथ ही तो अली साहब से सीखा है!! .......मुझे यकीन है इस बात का कि सरवर बहुत बेहतर आदमी हैं जालंधर भेजने के लिये। " फरीद ने अपनी बात रखी।

सैयद साहब अभी भी सोच रहे थे।

फरीद ने कहा "अब्बू, आखिर सरवर को आप अपना पाँचवाँ बेटा ही तो मानते हैं . हम लोग भी सरवर को अपना भाई ही समझते हैं ....... नादिरा तो राखी भी बाँधती है उसको ......और वैसे भी अब्बू, आखिर अली साहब कब से आपके साथ काम कर रहे हैं। उन्होनें इस कम्पनी के लिये अपनी पूरी ज़िंदगी, खून-पसीना लगाया है, आपके साथ मिलकर कम्पनी को इस मुक़ाम पर पहुँचाया है। हम लोगों को कारोबार उन्होनें ही सिखाया है। इतने वक़्त काम करने के बाद आखिर उनके मन में भी तो ये बात होगी कि इस बात का उन्हें कुछ ईनाम भी तो मिले.........हम उनके बेटे के लिये भी कुछ करें, उसे भी कोई बड़ी ज़िम्मेदारी दें, और कम्पनी में उसका ओहदा भी बढ़े । बेशक अली साहब ने कभी कही नहीं है ये बात, लेकिन ये बात हमें समझनी भी तो चाहिये। "

"बेटा, बात तो आप बिल्कुल दुरुस्त कह रहे हैं,  लेकिन एक बात और है, वो ये कि कस्तूरिया जी ने भी जालंधर वाले प्रोजेक्ट के लिये बहुत काम किया है……... बहुत क्या, लगभग सारा ही काम किया है। ये प्रोजेक्ट उन्हीं की वजह से शुरु हो पाया है । वो भी तो अपने बेटे हमीर के लिये हमसे कुछ चाहते ही होंगे ?.......उनको नाराज़ करना क्या ठीक होगा ?"

फरीद बोले "अब्बू, अली साहब और कस्तूरिया जी को एक पलड़े में तो कतई नहीं रखा जा सकता है। अली साहब को 45 साल हो गये इस कम्पनी के लिये काम करते। आप खुद ही कहते हैं कि छोटे-छोटे दो कमरों से काम शुरु किया था आप लोगों ने जबकि कस्तूरिया जी तो हम लोगों से केवल 3-4 साल पहले ही जुड़े हैं........और हमीर हमारे कारोबार, या हमारे तौर-तरीकों से इतने वाकिफ कतई नहीं हैं जितने सरवर । इसलिये मैं तो सरवर को जालंधर भेजना चाहूँगा, बाकी जैसा आप कहें। "

"ये भी सही कह रहे है आप...... अली साहब से बात करनी पड़ेगी हमें। " सैयद साहब ने कहा।

"जी, अब्बू. " फरीद ने कहा और सलाम करते हुए कमरे से बाहर निकल गये।

सैयद साहब ने फिर इस बाबत अली साहब से बात की। शुरुआत में अली साहब ने कुछ हिचकिचाहट दिखायी थी और कहा कि अच्छा हो कि इस ढलती उम्र में उनके दोनों बेटे और बहुएं उनके पास सौघरा में ही रहें। लेकिन सैयद साहब ने उनसे साफ कहा कि फरीद का कहना है कि सरवर ही जालंधर वाले प्रोजेक्ट के लिये सबसे बेहतर इंसान हो सकते हैं, और सरवर को ही भेजा जाना चाहिये। इस तरह से थोड़ा देर और समझाने पर अली साहब ने सरवर को जालंधर के लिये भेजे जाने पर हामी भर दी।

रास्ते से मिठाई लेकर जब अली साहब घर पहुँचे, तब उन्होनें यह खुशखबरी सभी को दी कि फरीद और सैयद साहब ने इस बड़े अहम प्रोजेक्ट पर काम करने के लिये खासतौर से सरवर को चुना है। उन्होनें सरवर को साफ तौर पर समझाया "बेटा सरवर, हमारी इज़्ज़त अब आपके हाथ में है। हमारा नाम नीचे न गिरने दीजियेगा। इस कम्पनी को हमने 45 साल दिये हैं और बदले में इस कम्पनी ने भी हमें काफी कुछ दिया है, ऐसे में इस कम्पनी से हमारा रिश्ता केवल कर्मचारी भर का नहीं है जो महीने के पैसे लेता हो और घर चला जाता हो । ये कम्पनी और सैयद साहब की दोस्ती हमें अपनी जान से भी ज़्यादा अज़ीज़ है । वह हमारे ऊपर इतना भरोसा करते आये हैं अब तक और हमने हर बार उनके भरोसे को सही साबित किया है। यही वजह रही कि कम्पनी आज इस ऊँचाई पर है। अब यहाँ से ये ज़िम्मेदारी आपकी है। कारोबार के सबक आपने भी सैयद साहब के चारों बेटों के साथ ही बैठ कर सीखे हैं........ सोचिये सैयद साहब आपको अपना पाँचवाँ बेटा कहते हैं, फरीद आपको अपना छोटा भाई बोलते हैं और उनकी बीवी नादिरा तो आपको राखी तक बाँधती हैं। ये ध्यान रखियेगा, और ये जालंधर वाला प्रोजेक्ट पूरी तरह से मुकम्मल कीजियेगा। "

सरवर ने भी अपने वालिद की बातों को ध्यान से सुना और यह वायदा किया कि वह वैसे ही मन लगाकर कम्पनी के लिये काम करेगा जैसे उसके वालिद ने किया है, और जालंधर का यह प्रोजेक्ट वह वैसे ही पूरा करेगा जैसी की उस से उम्मीद की जा रही है।

कस्तूरिया जी ने जब यह सुना तो उनको काफी बुरा लगा था। वो जालंधर वाले मामले में इसलिये इतनी दिलचस्पी दिखा रहे थे क्योंकि उनका सबसे छोटा बेटा हमीर जो घर पर बेकार बैठा था, उसके लिये कुछ ढंग का काम करने को हो जाता, लेकिन यहाँ फरीद के कहने पर सैयद साहब सरवर को भेज रहे थे। कस्तूरिया जी को लगता था कि इतना काम, इतनी सारी-दौड़-भाग, बार-बार जालंधर के इतने चक्कर लगाना, इतने सारे लोगों से मिलना, बात करना, ये सारी कवायद उन्होनें की और ईनाम मिला सरवर को। उनका मन इस वजह से खिन्न तो काफी था मगर उन्होनें किसी से कुछ भी शिकायत नहीं की। वे जानते थे कि वे कभी सैयद साहब के लिये अली साहब की जगह नहीं ले सकते। इसी तरह उनका बेटा भी कभी अली साहब के बेटे की जगह नहीं ले सकता था।

कुछ दिन बाद सरवर कारखाने में फरीद के चैम्बर में उन से मिला और कहा "फरीद भाई, .....आपका बहुत बहुत एहसान कि आपने हमें इस लायक समझा. अब्बू ने बताया हमें कि आपने ही हमारा नाम सैयद साहब कि सुझाया था .......हम वादा करते हैं आपसे कि जालंधर का यह प्रोजेक्ट जैसा आप चाहेंगें, हम उसी ढंग से पूरा करेंगे। "

फरीद ने हँस कर कहा "सरवर, आप छोटे भाई हैं। अब आपसे ज़्यादा ऐतबार तो किसी के ऊपर नहीं कर सकते.......और वैसे भी आपकी काबिलियत पर हमें पूरा यकीन है कि आप इस प्रोजेक्ट को अच्छे ढंग से पूरा कर लेंगे। "

सरवर सुन रहा था।

फरीद ने गम्भीर होकर कहा "....... देखिये सरवर, ये प्रोजेक्ट हमारे दिल के बहुत करीब है । हमारा ड्रीम प्रोजेक्ट है ये इसलिये आपको जिस भी तरह की मदद चाहिये हो, आप इत्तला कर दीजियेगा। हम आपको सारी मदद देने को तैयार हैं, बस ये प्रोजेक्ट सही वक़्त पर पूरा हो जाये, और प्रोडक्शन शुरु हो जाये.......वैसे भी यह प्रोजेक्ट अपने समय से काफी पीछे ही हो गया है पिछले एक साल में। "

"आप फिक्र न कीजिये भाईजान!! ........आपका छोटा भाई, ये प्रोजेक्ट बिल्कुल आपके मन-मुताबिक और तय वक़्त तक पूरा करने के लिये जी जान लगा देगा .आप हमारे लिये दुआ ज़रूर कीजियेगा भाईजान!! .......आज तक हमने किसी बड़े प्रोजेक्ट को हाथ नहीं लगाया है, ये हमारा पहला बड़ा प्रोजेक्ट होगा। " सरवर ने कहा।

"आपके लिये तो हमारे और नादिरा के दिल से हमेशा ही दुआ निकलती है सरवर। " ये कहकर फरीद ने सरवर को गले लगा लिया।

घर आकर जब फरीद ने सैयद साहब के फैसले और सरवर से अपनी मुलाकात के बारे में बताया तो नादिरा बहुत खुश हुई और कहा "अल्लाह करे हमारे प्यारे भाई सरवर को केवल इसी प्रोजेक्ट में ही नहीं, बल्कि अपनी ज़िंदगी के हर मुक़ाम पर बेपनाह कामयाबी मिले। "

हफ्ते भर बाद सरवर जालंधर के लिये अकेले ही निकल गये। वहाँ पहले उन्हें 6 महीने रहने के लिये कहा गया था। फरीद उनके साथ थे जो वहाँ सरवर के लिये रिहाईश और खाने-पीने का इंतज़ाम देखने जा रहे थे। सरवर के जालंधर में रहने का पूरा खर्च कम्पनी के खाते से ही दिया जाना था।

अगले डेढ़ साल में दिल्ली में फैक्ट्री पूरी तरह से और गोदाम करीब आधा बन कर तैयार हो गये थे, बाकी पर काम चल ही रहा था। काफी पैसे खर्च करके सैयद साहब और फरीद ने अच्छी मशीनें भी मँगवा ली थीं, और कामगारों, सुपरवाइज़रों की भर्ती भी शुरु कर दी थी। जालंधर में भी सरवर की निगरानी में अच्छा काम हो रहा था और फैक्ट्री करीब-करीब पूरी तरह से बन कर तैयार थीं। गोदाम का काम कुछ पीछे चल रहा था। मशीनों के ऑर्डर भी दिये जा चुके थे और यह समझा गया था कि गोदाम जब पूरा होने वाला होगा, तब मशीनों की डिलिवरी ली जायेगी और उसके बाद कामगारों की भर्ती करने और उनकी ट्रेनिंग वगैरह का काम शुरु किया जायेगा।   

1971 आ चुका था और हिंदुस्तान, पाकिस्तान के दरम्यान एक और भयंकर जंग छिड़ चुकी थी। जंग का नतीजा जब आया तो दुनिया दंग रह गयी थी। हिंदुस्तान को न केवल जंग में शानदार जीत मिली बल्कि पाकिस्तान का एक बाज़ू तोड़कर अलग भी कर दिया गया जिसे 'बाँग्लादेश' नाम दिया गया। पूरी दुनिया में एक नये, ताकतवर हिंदुस्तान की आवाज़ गूँज उठी थी। एक सोया हुआ, दबा-कुचला हुआ सा मुल्क जाग गया था।

अब तक मिसेज़ गाँधी ने 'मोम की बनी नाज़ुक, बेज़बान गुड़िया' से लेकर 'देवी दुर्गा' तक बनने का सफर तय कर लिया था। उनके सिपहसालरों की राय थी कि जंग के बाद पूरे मुल्क में जश्न मनाया जा रहा है और सियासी माहौल पूरी तरह से पार्टी के हक़ में है। इन हालातों में लोकसभा भंग करके चुनाव करवा लेना पार्टी के लिये बहुत ही ज़्यादा फायदेमंद होगा। ऐसा ही किया गया और फौरन लोकसभा भंग करके नये चुनावों का ऐलान कर दिया गया था। उम्मीद के मुताबिक ही नतीजे रहे और पार्टी ने बहुत ही ज़बरदस्त बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की।

दोबारा पार्टी के सत्ता में आते ही मुस्लिम उलेमाओं, और मौलवियों का एक बड़ा ग्रुप जो अभी तक खामोश बैठा हुआ था, उसने फिर से रशीदा नक़वी केस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बात उठाई और माँग की कि जो वायदा पहले किया गया था, उसे पूरा किया जाये क्योंकि अब पार्टी के पास काफी बहुमत है। कानून में ज़रूरी बदलाव किये जायें जिस से दोबारा मुसलमानों के ज़ाती मामलों में, रीति-रिवाजों में कोई भी दखल न कर सके, यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट भी नहीं। मौलवियों और उलेमाओं के साथ इस बात पर सरकार की बातचीत शुरु हो गयी थी।

करीब दो महीनों तक दोनों तरफ के नुमाइंदों के बीच कई दौर तक चली काफी लम्बी बातचीत के बाद यह तय हुआ था कि सरकार कानूनों में बदलाव करेगी और लोकसभा में एक बिल लेकर आयेगी जिसमें यह साफ किया जायेगा कि तलाक़शुदा मुस्लिम महिलाओं को अपने शौहर से गुज़ारे-भत्ते का हक़ केवल इद्दत तक ही होगा और यह इद्दत की मियाद तलाक़ से 90 दिन तक की होगी। इद्दत के बाद गुज़ारे-भत्ते का इंतज़ाम शौहर की बजाय उस जगह की मस्जिदों की देखरेख करने वाली कमेटी करेगी, जैसा भी ठीक समझेगी। इसके अलावा अनुच्छेद-44 और 'कॉमन सिविल कोड' पर भी सरकार ने यह वायदा किया कि इसे लागू करने की सरकार की कोई भी मंशा नहीं है। इस तरह से सरकार ने साफ किया कि किसी भी हाल में मुसलमानों की धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का उसका कोई इरादा नहीं है, और देश में मुसलमान सहित सभी लोग अपनी पहचान, अपनी भाषा, अपने त्योहारों के साथ महफूज़ रहेंगे। इसी रास्ते पर चलते हुए सरकार ने संसद में बिल पास किया और एक नया कानून बनाया। लोकसभा और राज्यसभा में प्रचंड बहुमत के चलते सरकार को इस काम को करने में कोई भी मुश्किल पेश नहीं आयी।

इस कानून के खिलाफ भी काफी सारे लोग सड़कों पर ज़रूर उतरे। उनका कहना था कि ऐसा करके देश के कानून व न्यायपालिका की बे-इज़्ज़ती की जा रही है, उसे नीचा दिखाया जा रहा है, और मुसलमानों का तुष्टीकरण किया जा रहा है। इनका कहना था कि इससे वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा मिलेगा। इस कानून को लेकर किया जा रहा किसी भी तरह का विरोध बे-असर साबित हुआ। उस समय जंग में जीत जाने का जो खुमार था, वही लोगों के दिमाग में छाया हुआ था।

इसी बीच मौलवियों और उलेमाओं ने यह तय किया कि एक ऐसी संस्था बनाया जाना बहुत ज़रूरी है जो मुसलमानों के ज़ाती और मज़हबी-तालीमी-तहज़ीबी मामलातों की देखरेख कर सके और उस पर देश भर के मुसलमानों को सही राह दिखा सके जिस से मुसलमानों को गुमराह होने से बचाया जा सके, और इन मामलों पर किसी भी बाहरी संस्था जैसे हाईकोर्ट, या सुप्रीम कोर्ट को दखल देने का मौका न मिले, नहीं तो रशीदा नक़वी केस जैसे मामले सामने आते रहेंगे और इस तरह की मुश्किलें खड़ी होते रहेंगी। हिंदुस्तानी मुसलमानों के सभी फिरकों ने इन्हीं सब बातों पर बहुत गहराई से चर्चा करने के बाद एक फैसला किया कि एक गैर-सरकारी संस्था इंडियन मुस्लिम पर्सनल लॉ कमेटी (IMPLC-आई. एम. पी. एल. सी. ) बनाई जायेगी। इसमें हिंदुस्तानी मुसलमानों के तमाम फिरकों के नुमाइंदे होंगे, जिस से इस के बारे में किसी तरह का मुगालता न रहे। यह संस्था इस मुल्क में मुसलमानों के सभी ज़ाती मामलों, उनके मज़हबी-तहज़ीबी मामलों से जुड़े सभी तरह के बहस-मुबाहिसों और तकरारों की सुनवाई की सबसे बड़ी संस्था होगी। हिंदुस्तान में मुसलमानों के लिये कुरान और हदीस की व्याख्या करने का सबसे ऊँचा हक़ इसी संस्था का होगा और इन मामलों में इसके फैसले ही आखिरी माने जायेंगे। मुल्क के सभी मुसलमानों से अपील की गयी कि उनके जो भी ज़ाती मसले, या मज़हबी-तहज़ीबी मसले हों, इसी संस्था में लाये जायें न कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में, क्योंकि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट कुरान या हदीस की सही व्याख्या नहीं कर पायेंगे। ऐसा सिर्फ इस्लाम के जानकार, मौलवी और उलेमा ही कर सकेंगे। यह भी कहा गया कि चूंकि इसमें मुसलमानों के सभी फिरकों के नुमाइंदे शामिल हैं लिहाज़ा किसी के साथ गलत होने की कोई सम्भावना नहीं होगी। एक अहम बात ये थी कि अहमदिया मुसलमानों को इसमें कोई भी जगह नहीं दी गयी थी और उन्हें मुसलमान भी नहीं माना गया था।

इस कमेटी का हेड-ऑफिस दिल्ली में बनाया गया था लेकिन उस हेड-ऑफिस में ज़्यादा अर्ज़ियाँ न आयें, इसलिये उस कमेटी के कुछ रीजनल ऑफिस भी मुल्क के अलग-अलग हिस्सों में बना दिये गये थे। मामलातों की सुनवाई पहले उन्हीं रीजनल ऑफिसों में होनी थी, वहाँ से अगर मामला हल न हुआ, तो दिल्ली में कमेटी के हेड-ऑफिस में मामला लाया जायेगा। यहाँ पर मामले का आखिरी फैसला किया जायेगा।

एक शाम क़ाशनी साहब के घर पर फरीद और उनके उस्ताद चाय के साथ-साथ इसी बात पर चर्चा कर रहे थे। सवाल फरीद ने ही पूछा था पहले "जनाब, अब ये आई. एम.पी. एल. सी. क्या बला है ? ......समझने की कोशिश की मैंने लेकिन समझ नहीं पा रहा हूँ। "

अखबार में मुँह धँसाये क़ाशनी साहब, बिना फरीद की ओर देखे, हँसते हुए बोले "क्यों समझना है आपको ?...... घर में खैरियत तो है सब ?........ नादिरा ने हुक्का-पानी बंद तो नहीं कर दिया है आपका ?"

फरीद भी हँस दिये "नहीं, नहीं, अल्लाह के फज़ल से ठीक है सब ........ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन अखबारों में आजकल काफी देख रहा हूँ, उसमें बार-बार आई. एम. पी. एल. सी. का ज़िक्र आ रहा है। क्या है ये ?"

अखबार को सामने की मेज पर रखकर अपने चश्मे के पीछे से, अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से फरीद को घूरते हुए क़ाशनी साहब बोले "ये इस मुल्क के तमाम दो कौड़ी के लोगों के दिमाग की एक बेहद घटिया सी बीमारी है,......जो आई. एम. पी. एल. सी. की शक्ल में हमारे सामने आ गयी है। "

"क्या मतलब ?"

".....मतलब यह कि हिंदुस्तान के करोड़ों मुसलमानों में से केवल 45-50 छटे हुए विद्वान लोग ही इस्लाम को जानते और समझते हैं .......अल्लाह ने उन्हीं को ये नेमत बख्शी है!!! .......वही लोग ये समझायेंगे हमें कि मुसलमानों के लिये क्या सही है और क्या गलत ? वे लोग ही हमें यह बता सकते हैं कि हदीस और कुरान में क्या लिखा है और हमें क्या करना चाहिये ?....... गोया हम और आप जैसे लोग तो बिल्कुल डफर हैं। हमनें तो जैसे ज़िंदगी में कभी क़ुरान और हदीस पढ़ी-देखी ही नहीं है....... हम लोग तो अनपढ़, गँवार-जाहिल और अंगूठाछाप लोग हैं,  हमें कैसे आ सकता है कुरान पढ़ना और समझना ? अपने सही और गलत का फैसला हम लोग तो कर ही नहीं सकते हैं, ये तो अल्लाहताला ने खासतौर से उन्हीं 45-50 लोगों को अपॉइंट किया है जो हमें हमारा सही और गलत बता सकते हैं। " क़ाशनी साहब बड़े गुस्से से व्यंग्य करते हुए बोले।

फरीद मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे।

".....बताइये फरीद, हमारे यहाँ तो यह कहते हैं कि मरने के बाद किसी इंसान का जन्नत या दोज़ख में जाना उसके आमाल पर निर्भर होता है...... आमाल मतलब, जिसको हिंदुओं में 'कर्म' या 'कर्तव्य' कहते हैं ......और यहाँ हमें यह बताया जा रहा है कि हमारा आमाल सिर्फ वही होगा जो आई. एम. पी. एल. सी. कहेगी। क्या खुद हम लोग अपना आमाल देख और समझ नहीं सकते ? .......अँधेर देख रहे हैं न आप ?"

फरीद खामोश थे।

".....मान लीजिये फरीद, कल को मुल्क के शहरों में कोई वबा फैल जाती है और हमारे मुल्क के डॉक्टर दिन-रात एक करके उस वबा की कोई वैक्सीन बनाते हैं। अगर आई. एम. पी. एल. सी. कह दे कि वैक्सीन गैर-इस्लामी है, और जो वैक्सीन लगवाएगा वह इस्लाम से खारिज हो जायेगा और सीधा दोज़ख में जायेगा, तो क्या हम लोग अपने बच्चों को वैक्सीन नहीं लगवायेंगे ? .......अगर यह कमेटी कह दे कि रमज़ान में वैक्सीन लगवाना गैर-इस्लामी है, तो क्या हम रमज़ान में वैक्सीन न लगवाएंगे ? ........अपने बच्चों, अपने घर-परिवार का अच्छा-बुरा क्या हम कमेटी से पूछकर तय करें ?"

फरीद अब भी चुप थे।

".......अगर कल को कमेटी कह दे कि सूरज के चारों ओर पृथ्वी नहीं, बल्कि पृथ्वी के चारों ओर सूरज घूमता है, तो क्या हम मान लेंगे ? .........और अगर नहीं मानेंगे तो क्या दोज़ख में जायेंगे हम लोग ?"

फरीद हँसे "नहीं जी, कतई नहीं। "

".....याद रखिये इसी तरह की तमाम बुराइयाँ लेटर-वैदिक पीरियड में हिंदू मज़हब में भी हुआ करती थीं.........पढ़ा ही होगा आपने......... सती सिस्टम, छुआछूत, समुद्री सफर न करना और भी न जाने क्या-क्या ? इसीलिये बौद्ध और जैन धर्म का जन्म हुआ, और ये धर्म हिंदू धर्म के मुकाबले लोगों को बहुत ज़्यादा पसंद आये थे, और देश-विदेश में काफी बड़ी तादात में लोगों ने इन धर्मों को अपनाया था। बड़े-बड़े राजे-महाराजे, व्यापारी, उन सभी लोगों ने हिंदू धर्म की बजाय बौद्ध और जैन धर्म को अपनाया था, पता है क्यों ? ..........क्योंकि इन धर्मों में वो सब बुराइयाँ नहीं थीं जो हिंदू धर्म के अंदर पनप गयीं थीं। काफी समय के बाद जाकर हिंदुओं ने अपने धर्म में इस तरह की बुराइयों को समझा और फिर बड़ी मेहनत से उनको दूर करने की कोशिशें की। समुद्री सफर होने लगे, सती प्रथा को रोका जाने लगा, छुआछूत पर लगाम लगने लगी, भक्ति आंदोलन में साधु-संतों ने इस बाबत काफी कोशिशें की........इस से लोग एक बार फिर से हिंदू धर्म को अच्छी नज़र से देखने लगे थे। इसी समय बौद्ध धर्म में भी कई सारी बुराइयाँ पनप गयी थीं, जिस से लोग बड़ी तादात में बौद्ध धर्म छोड़ कर हिंदू धर्म में आने लगे थे। "

फरीद खामोश थे।

"..........ये मैं आपको क्यों बता रहा हूँ ?......... इसका मतलब यह है कि हमारे मज़हब में जो भी बुराइयाँ हैं.......... पहली बात तो यह मानी जाये कि बुराइयाँ हैं, और जो बुराइयाँ हैं, उन्हें खत्म करने की शुरुआत की जाये, न कि ज़बर्दस्ती उन बुराइयों को बनाये रखा जाये।........अब ये जो आई. एम. पी. एल. सी. है, आप देखिये इन लोगों ने क्या किया है ? ..........इन्होनें धरना-प्रदर्शन कर के, ज़िद करके सुप्रीम कोर्ट के सही फैसले को पलटवा दिया है। अब तलाक़शुदा खातून को गुज़ारे-भत्ते की रकम शौहर से केवल 3 माह तक ही मिलेगी। 3 माह के बाद उसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा ?........इन्होनें कहा है कि उस एरिया में मस्जिदों की देखरेख करने वाली कमेटी उस औरत की गुज़ारे-भत्ते की ज़िम्मेदारी लेगी, जैसा वह कमेटी ठीक समझेगी. अब बोलिये, ये क्या बात हुई ? ........मस्जिदों की देखरेख करने वाली कमेटी क्या खाक ठीक समझेगी ?........ इसका क्या मतलब है ? .......मान लीजिये शौहर 300 रुपया महीना देता था, क्या मस्जिद कमेटी अगर 100 रुपया महीना ठीक समझेगी तो उस औरत को 100 रुपया महीना गुज़ारा-भत्ता मिलेगा ? ..........अगर मस्जिद कमेटी कहे कि इसको गुज़ारे-भत्ते की ज़रूरत नहीं है, तो क्या गुज़ारा-भत्ता नहीं मिलेगा उसको ?.......उसके खर्च कैसे चलेंगे ? मस्जिद कमेटी के खिलाफ क्या उस औरत को अपील करने का हक़ है ?....... वो कहाँ अपील करेगी ?.....कोर्ट में ?.......या फिर इन्हीं लोगों की आई. एम. पी. एल. सी. में ? ....... कुल मिला-जुला कर वह औरत भूखों मरेगी। "

"........और ये कहाँ की बात है कि तीन दफा 'तलाक़, तलाक़, तलाक़' कहने भर से तलाक़ हो जाता है ?....... आई. एम. पी. एल. सी. क्या इस बदनाम तलाक़ सिस्टम को सुधारने की कोशिश करेगी जिसकी शिकार रशीदा नक़वी हुई थी ? ........ये लोग कभी नहीं करेंगे यह काम बल्कि इन लोगों ने आई. एम. पी. एल. सी. बनाई ही इसीलिये है कि इस सड़े हुए तलाक़ सिस्टम को, इस सड़े हुए गुज़ारे-भत्ते के सिस्टम को ऐसे ही रखा जाये.........जबकि जानते हैं फरीद, कई सारे दूसरे मुल्क जो खुद को इस्लामी मुल्क बताते है, वहाँ इस तरीके से तलाक़ करना ही गैर-कानूनी है.  याद ही होगा आपको तो,.......इन दो कौड़ी के मौलवी और उलेमाओं ने रशीदा नक़वी और उसके बाप का जीना हराम कर दिया था जब इन दोनों ने हाईकोर्ट में गुज़ारे-भत्ते की अर्ज़ी लगाई थी. पानी पी-पीकर गालियाँ दे रहे थे ये लोग रशीदा को, जबकि उसने कुछ गलत नहीं किया था। एक मियाँ तो यहाँ तक भी कह रहे थे कि एक सच्ची मुस्लिम महिला ऐसा कर ही नहीं सकती। "

"जी। " फरीद ने हामी भरी।

".....सीधी सी बात है फरीद, जो मज़हब वक़्त के साथ-साथ खुद को नहीं बदलता है, अपनी बुराइयाँ दूर नहीं करता है, लोग हमेशा ही उसका मज़ाक उड़ाते हैं और उसको अच्छी नज़र से नहीं देखते हैं, फिर वह चाहे हिंदू हो या इस्लाम या कोई और भी.........यूरोप में सलीबियों ने भी अपने आपको काफी बदला है........आप मेडाइवल यूरोप याद कीजिये, और आज का यूरोप देख लीजिये......ज़मीन-आसमान जितना फर्क है. "

"......और इनका तमाशा देखिये!!......मुस्लिम-मुस्लिम चिल्ला रहे थे, और इस पूरी आई. एम. पी. एल. सी. में अहमदिया मुसलमानों का एक भी नुमाइंदा नहीं है बल्कि अहमदियों को तो इन्होनें मुसलमान तक मानने से इंकार कर दिया है। "

फरीद ने तुरंत कहा "ये तो होना ही था। आपकी इस बात से मैं तो राज़ी नहीं होता जनाब!!........अहमदिया तो वाकई में मुस्लिम नहीं हैं जनाब। "

"अरे, क्यों नहीं हैं वो मुस्लिम ?........ और अगर मुस्लिम नहीं हैं तो क्या हैं वो ?" क़ाशनी साहब ने चौंक कर पूछा।

"......कुछ भी हो साहब, मगर अहमदियों को तो मुसलमान माना ही नहीं जा सकता है........ हमारे यहाँ ही नहीं, दुनिया के कई दूसरे मुमालिकों में भी अहमदियों को मुस्लिम नहीं माना गया है। इन्हें मुस्लिम कैसे कह सकते हैं ? ये दो पैगम्बर मानते हैं, और ऐसा मानना इस्लाम के बुनियादी उसूलों के सख्त खिलाफ है जनाब। हमारे यहाँ तो सिर्फ एक ही पैगम्बर है। "

"अजीब बात है फरीद, आप भी ऐसा ही समझ रहे हैं। मुझे तो लगता है कि अहमदियों को भी मुसलमान ही माना जाना चाहिये और उन्हें भी आई.एम.पी.एल.सी. में जगह मिलनी चाहिये। "

"नहीं जनाब!!!..... नहीं किसी भी हाल में ऐसा नहीं होना चाहिये......अहमदी कतई मुसलमान नहीं हो सकते। " फरीद अपनी बात पर अडिग थे।

क़ाशनी साहब हँसते हुए बोले "चलिये फरीद, जैसी आपकी मर्ज़ी.......अब आप हमारी जेब का कोई बॉलपेन तो हैं नहीं जिसे जैसे चाहें हम चला दें, और वो चल जाये। आप अपनी बात पर कायम रहिये, हम अपनी बात पर। "

 अगले करीब 6 महीने में दिल्ली वाली यूनिट से प्रोडक्शन शुरु हो चुका था, और दिल्ली के आस-पास के मार्केट से सैयद साहब की कम्पनी के सामानों की अच्छी-खासी माँग भी होने लग गयी थी। उधर जालंधर में भी नई, बड़ी और महंगी मशीनें आकर लग चुकी थीं, कामगारों की ट्रेनिंग खत्म की जा चुकी थी, और अब वहाँ भी प्रोडक्शन शुरु किया जाना था। सरवर के काम से फरीद, सैयद साहब और अली साहब बे-इन्तेहा खुश थे। सरवर को भी लगा कि अब जालंधर में ही बस जाना चाहिये। उन्होनें अपने अब्बू से बात की और अली साहब ने भी खुश होकर सरवर को इस बात की इजाज़त दे दी। सरवर ने वहीं अपने परिवार के लिये एक अच्छी रिहाइश और अपने बच्चों के लिये एक अच्छा स्कूल देख लिया था और अपने परिवार के साथ जालंधर में ही शिफ्ट हो गये थे, और फैक्ट्री का पूरा काम-काज देख रहे थे।

इस बीच मिर्ज़ा की नज़र सूरजगढ़ पर थी। दिल्ली के दक्षिण में शहर से करीब 70 किलोमीटर दूर, अरावली पहाड़ियों की गोद में बसा एक छोटा सा लेकिन बहुत खूबसूरत सा इलाका था सूरजगढ़। मिर्ज़ा को वहाँ एक फार्महाउस पसंद आ गया था और उनका इरादा उस फार्महाउस को खरीदने का बन गया था। दिल्ली के प्रदूषण और शोर-शराबे से परे, भीड़-भाड़ और गाड़ियों की आवाजाही से दूर, दिल्ली की आग लगाने वाली गर्मी से दूर सूरजगढ़ एक बड़ी शांत जगह थी, जहाँ की हवा, पानी और अरावली की पहाड़ियों को देखकर किसी का भी दिल यहीं बसने का करने लगेगा। मिर्ज़ा भी इससे अलग नहीं थे। वह यहाँ फार्महाउस खरीदना चाहते थे जिस से वह यहाँ अपनी मर्ज़ी से मनपसंद फल, सब्ज़ियों, अनाजों की खेती करवा सकें और अपने व्यस्त काम-काज के बीच में जब कभी उनका छुट्टी बिताने का दिल करे और ताज़ी, शुद्ध हवा-पानी की तलब लगे तो वह यहाँ आ सकें।

लेकिन यह केवल एक वजह थी जो दिखती थी। नहीं दिखने वाली असल वजह कुछ और थी। असल में मिर्ज़ा सूरजगढ़ में फार्महाउस इसलिये खरीदना चाहते थे कि जिससे अपनी हर साल होने वाली आमदनी का एक काफी बड़ा हिस्सा वह खेती के ज़रिये आया हुआ दिखा सकें। खेती के ज़रिये होने वाली आमदनी पर एक पैसा भी टैक्स नहीं चुकाना होता था फिर चाहे वह आमदनी कई लाखों-करोड़ों में ही क्यों न हो। इस तरह से फार्महाउस खरीदने का मिर्ज़ा का असल मकसद अपनी ऊपरी कमाई और इस पर लगने वाला टैक्स बचाना था। दिल्ली में मिर्ज़ा को सरकारी बँगला मिला ही हुआ था, सौघरा में भी वह भयाना में घर ले चुके थे, रानी की मंडी में पुश्तैनी घर पहले से ही था। बैंक में भी एक हद से ज़्यादा पैसा वह रख नहीं सकते थे। सरकार समाजवादी सिद्धांतों पर चल रही थी और बैंक में ज़्यादा पैसे वाले खातों पर भी नज़र रखी जा रही थी। इसलिये मिर्ज़ा ने सूरजगढ़ में फार्महाउस खरीदने की सोची थी।

हर सुहाना ख्वाब कभी न कभी टूटता ज़रूर है। यही हकीकत है।

एक रात अचानक ही दिल का दौरा पड़ने से अली साहब का इंतक़ाल हो गया। वैसे वो बी। पी। के मरीज़ ज़रूर थे, और डॉक्टरों की बात मानते हुए दवाएं भी लेते थे लेकिन आज तक कभी उन्हें सीने में एक मामूली सा दर्द तक नहीं हुआ था, दिल का दौरा पड़ना तो बहुत दूर की बात थी। चाहे कितनी ही खुशी की बात हो, या गम के समंदर में डूबने वाली खबर, अली साहब को कभी सेहत पर फर्क नहीं पड़ा, लेकिन ये वाला दिल का दौरा बिल्कुल पहला और अचानक ही पड़ा। रात में करीब 2-3 बजे अचानक ही दिल में बहुत तेज़ दर्द उठा था उनको और वो पसीने-पसीने हो गये थे। छोटा बेटा काशिफ और उसकी बीवी अली साहब को लेकर नज़दीकी अस्पताल भागे, लेकिन अली साहब अस्पताल तक भी न पहुँच पाये थे और रास्ते में ही दम तोड़ दिया था। वहाँ अस्पताल में डॉक्टरों ने उन्हें शॉक थेरेपी से उठाने की काफी कोशिश की लेकिन उनकी मेहनत बेकार गयी और करीब 4:30 बजे सुबह उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।


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