HARSH TRIPATHI

Tragedy Crime Thriller Drama

4  

HARSH TRIPATHI

Tragedy Crime Thriller Drama

दस्तूर - भाग-13

दस्तूर - भाग-13

41 mins
323



पिछले करीब दो महीने में माहौल काफी बदल गया था। फरीद तक ये बातें बराबर पहुँच रहीं थीं कि सौघरा में क्या हो रहा था। उनको पता चल रहा था कि वहाँ कुछ मस्जिदें फरीद को इस्लाम से खारिज करार दे चुकी थीं। लोगों के बीच, और खासतौर पर मुसलमानों के बीच, यह बातें बढ़ती जा रहीं थीं कि फरीद जैसा आदमी होना इस्लाम के लिये ठीक नहीं है। वह यह बात समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर कोई उन्हें इस्लाम से रातोंरात खारिज कैसे कर सकता है?..... ऐसा भी उन्होनें कौन सा गुनाह-ए-अज़ीम कर दिया था?..... अपनी पैदाइश से लेकर आज तक, पिछले 55 साल से वह पाक-साफ मुसलमान थे। उनके पहले उनके अब्बू, उनके दादा-परदादा सभी मुसलमान थे। फिर ऐसा अचानक कैसे कहा जा सकता है कि अब वह मुसलमान नहीं रहे?.....क्या उन्हें मुसलमान होने का सर्टिफिकेट देना पड़ेगा?..... यह सर्टिफिकेट कैसा होता है?..... वह कहाँ से लायेंगे?.....इसे किसके सामने देना पड़ेगा?.....और सबसे बड़ी बात, क्यों देना पड़ेगा?

उन्होनें थक-हारकर क़ाशनी साहब को फोन कर दिया। क़ाशनी साहब ने फोन उठाया "हैलो?"

"अस्सलाम वालेकुम जनाब। " बुझी हुई आवाज़ में फरीद ने कहा। क़ाशनी साहब अपने शागिर्द को आवाज़ से पहचान गये थे। उन्होंने जवाब दिया "वालेकुम अस्सलाम फरीद। " फिर पूछा "कहिये, कैसे हैं?..... और है कहाँ आप? इतने दिन हुए, कोई खबर ही नहीं लगी आपकी। हम डर ही रहे थे। "

"हम लोग यहाँ जालंधर में हैं, एक दोस्त के पास। हमने आपसे जानबूझ कर बात नहीं की जनाब..... आप पर भी नज़र ज़रूर रखी जा रही होगी। "

"मुझ पर नज़र रख के कर क्या लेंगे ये?..... मैं तो बीच बाज़ार खड़ा होकर कह दूँ, कि मैं फरीद के साथ था, हूँ और रहूँगा!!" क़ाशनी साहब ने चिढ़कर कहा।

फरीद के चेहरे पर अर्से बाद कुछ पलों के लिये मुस्कान खेल गयी थी, मगर वह फिर से खामोश हो गये। अब वह अक्सर महसूस करते थे कि उनकी मुस्कुराहट की कीमत बहुत ज़्यादा है, जिसे वह चुका नहीं सकते थे। फिर उन्होंने पूछा "जनाब, ये अखबारों में क्या आ रहा है आजकल हमारे बारे में?..... हमारा दोस्त सौघरा से है, वही बता रहा था कुछ। "

काशनी साहब मायूस होकर बोले "पता नहीं फरीद, ये सब क्या चल रहा है……कुछ मस्जिदों ने फतवा निकाल दिया है कि आपकी हरकतें इस्लाम के खिलाफ है, और इसलिये आपको इस्लाम से खारिज किया जाता है.....और ऐसी एक-दो मस्जिदें नहीं हैं, कई हैं। "

"लेकिन जनाब, ये कैसे मुमकिन हैं?.....हम तो पैदाइशी मुसलमान हैं। आज तक तो यही जाना है हमने..... कोई हमें कैसे इस्लाम से खारिज कर सकता है?"

"समझ में तो हमारी भी नहीं कुछ नहीं आ रहा है फरीद..... और सुना है कि इन सभी मस्जिदों के ईमामों और मौलवियों ने मिलकर आपके खिलाफ मुकदमा भी दायर कर दिया है आई. एम. पी. एल. सी. में। "

फरीद को झटका लगा "क्या?..... मुकदमा?..... आई. एम. पी. एल. सी. में?..... मुकदमा तो कोर्ट में जाता हैं न जनाब?"

"नहीं फरीद, ये सब नया ड्रामा चला है पिछले सात-आठ बरसों से,.....कि इस्लाम के मज़हबी और तहज़ीबी मामले; जो लोग सही समझेंगे... …… मसलन तलाक़ वगैरह, अपनी मर्ज़ी से इसी कमेटी के आगे लायेंगे और उन पर इसी कमेटी का फैसला आखिरी माना जायेगा। "

"तो मुकदमें में क्या कहा है इन्होंने?" परेशान फरीद ने पूछा।

"इनका कहना है कि जिस तरह से इन लोगों ने आपको इस्लाम से खारिज करार दिया है, इसी तरह से आई. एम. पी. एल. सी. भी आपको इस्लाम से खारिज करार दे दे। "

"तो ये कमेटी कोई बहुत खास कमेटी है क्या जनाब?"

"बहुत खास!!.....इस कमेटी के फैसलों को पूरे मुल्क के मुसलमान आखिरी फैसला मानते हैं, और इसके फैसलों की बहुत ज़्यादा इज़्ज़्त करते हैं। " क़ाशनी साहब ने बताया।

"तो अब हमें क्या करना होगा?"

"देखिये फरीद, अब अगर मुकदमा हुआ है, तो आपको भी खुद को डिफेंड तो करना ही होगा। कमेटी भी बिना दोनों तरफ के लोगों की बात सुने फैसला नहीं करती है। "

"सिंह साहब हमारी कुछ मदद कर सकते हैं क्या इसमें?.....आप एक बारी बात कर सकते हैं उनसे?.....  उन्हीं की मेहनत की वजह से आज हम महफूज़ हैं। " फरीद ने गुजारिश की।

"ठीक है फरीद, हम बात करते हैं उनसे, फिर इत्तला करते हैं आपको। " क़ाशनी साहब ने फरीद को भरोसा दिलाया।

मुराद को लापता हुए करीब डेढ़ महीने हो गये थे, लेकिन कहीं से उनकी कोई भी खबर नहीं थी। शगुफ्ता जैसे हँसना भूल गयीं थीं। वह हर बार मुराद से शुज़ा को खोजने के लिये कहती थीं, और मुराद उनको बार-बार यही कहते थे कि शुज़ा को ढूँढ़ने के लिये आदमी भेजे हैं चारों तरफ, जैसे ही पता लगता है, वह शगुफ्ता को ज़रूर बतायेंगे। मिर्ज़ा को फोन करके भी शगुफ्ता शुज़ा को खोजने की बात करतीं, तो मिर्ज़ा भी यही कहते थे कि कोशिश जारी है, कुछ न कुछ पता ज़रूर चल जायेगा। इन सब बातों से अब शगुफ्ता के मन में पचासों सवाल उठ रहे थे "कहाँ होंगे शुज़ा?.....होंगे भी या नहीं?..... फरीद भाई के साथ मुराद ने ऐसा किया, क्या कहीं शुज़ा के साथ भी ऐसा तो नहीं किया?..... लेकिन शुज़ा के साथ क्यों करेंगे ऐसा?..... शुज़ा ने तो हर कदम साथ दिया इनका.....लेकिन लालच ऐसी बुरी बला है, किसी से कुछ भी करवा सकती है.....कोई भरोसा नहीं कर सकते किसी का..... और मिर्ज़ा?..... कहीं उनकी नीयत तो नहीं डोल गयी है?..... कहीं मिर्ज़ा और मुराद मिलकर खेल तो नहीं कर रहे हैं?..... "

मिर्ज़ा का सौघरा आना अब बढ़ गया था। अब वह हमेशा समय निकालकर अक्सर सौघरा आ रहे थे। यहाँ वह मुराद के साथ जलसों और महफिलों में जा रहे थे, शादियों में जा रहे थे, मस्जिदों को अच्छा-खासा चंदा दे रहे थे, मदरसों में जा रहे थे, गरीबों को ज़रूरी सामान, राशन वगैरह बाँटने के प्रोग्राम चला रहे थे और इसी तरह के दूसरे कामों में मसरूफ रहा करते थे, लेकिन अब मिर्ज़ा में एक बदलाव साफ देखा जा सकता था। हमेशा अच्छी, कड़क शर्ट और प्लेट वाली पतलून पहनने वाले मिर्ज़ा अब सौघरा में लगभग हर जगह, यहाँ तक कि अपने कम्पनी के ऑफिस में भी शेरवानी या फिर पठानी सूट, और काफिया के साथ मखमल की टोपी में देखे जा रहे थे। उनकी बातों का आगाज़ जो "सौघरा के मेरे प्यारे भाईयों" से शुरु होता था, अब "बिस्मिला हिर रहमान हिर रहीम" से शुरु होने लगा था। मदरसों में कभी भी दिलचस्पी न रखने वाले मिर्ज़ा हैदर अब मदरसों के प्रोग्रामों में ज़रूर मौजूद रहते थे और मदरसों की भी पैसे से अच्छी मदद कर रहे थे। मज़ारों पर चादर चढ़ाने भी मिर्ज़ा अब काफी जा रहे थे, और वहाँ भी अच्छी मदद दे रहे थे।

 अब तक सैयद साहब की सेहत में भी कुछ सुधार देखने को मिल रहा था। अब वह उठ कर बिस्तर पर बैठ भी पा रहे थे। लेकिन सावधानी रखते हुए किसी ने उनसे अभी तक घर के हालत और फरीद के बारे में कोई बात नहीं की थी। ऑक्सीज़न मास्क जो अभी तक उनको लगा हुआ था, धीरे-धीरे मास्क भी हट गया और अब वह घर के लोगों से थोड़ा-थोड़ा बोलने लायक हो गये थे। उस दिन मिर्ज़ा और मुराद वहीं सैयद साहब के कमरे में ही बैठे थे, जब उन्होंने फरीद के बारे में धीमी आवाज़ में पूछा "काफी दिनों से सब को तो यहाँ इस कमरे में देख रहा हूँ, फरीद, सुलेमान और शुज़ा नहीं दिख रहे मिर्ज़ा। "

मिर्ज़ा और मुराद को पता था कि कभी न कभी ये सवाल होना ही था, और उन्होनें यह भी सोच रखा था कि इसके जवाब में उन्हें करना क्या है। मिर्ज़ा ने मुराद की ओर देखा, फिर सैयद साहब से कहा "शुज़ा भाईजान कम्पनी के काम से कलकत्ता गये थे, अभी तक नहीं आये हैं, और फरीद भाईजान और सुलेमान फिलहाल पुलिस के डर से भागे-भागे फिर रहे हैं। "

"क्या?.....क्या मतलब?..... पुलिस के डर से?" सैयद साहब ने अचरज से पूछा।

"जी, उन दोनों ने कम्पनी में काफी पैसों का गबन किया था। इसका खुलासा होने पर पुलिस ने उन पर मुकदमा दर्ज किया था। उनकी ज़मानत तो किसी तरह हो गयी है, लेकिन वह दोनों काफी पैसा लेकर यहाँ से भाग गये हैं, और अभी फरार हैं। " मुराद ने कहा।

"..... और उनकी जगह मुराद को कम्पनी का चेयरमैन बनाया गया है। " मिर्ज़ा ने कहा।

"क्या वाहियात बात है ये?..... इतना सब हो गया और हमें बताया नहीं तुम लोगों ने?" बूढ़े, काफी बीमार बाप ने ऊँची आवाज़ में दोनों को डाँटने की कोशिश की मगर इतना बोलते ही हाँफने लगे थे। मुराद उनके पास आकर उनकी पीठ सहलाने लगे और एक गिलास में पीने को पानी दिया "अब्बू, आप ज़ोर से ना बोलिये, आपकी तबीयत बिगड़ सकती है। डॉक्टर ने साफ मना किया है आपको ज़्यादा बोलने को। "

रोते हुए सैयद साहब ने पानी का गिलास फेंक दिया और मिर्ज़ा की ओर देखते हुए ज़ोर से कहा "झूठ बोलते हो तुम दोनों!!..... सरासर झूठ!!..... फरीद कभी गबन कर नहीं सकते..... कभी पैसे लेकर भाग नहीं सकते.....बाप हूँ मैं उनका और अपने बेटे को खूब जानता हूँ। " गुस्से में उनकी साँसे तेज़ चल रही थीं।

मुराद और मिर्ज़ा उन्हें देख रहे थे। मुराद को देखकर रोते हुए सैयद साहब ने गुस्से में कहा "तू मालिक है अब कम्पनी का?..... अरे चोर है तू चोर!!.....मक्कार, बेईमान और जालसाज़ है तू!!!.....कम्पनी चलायेगा तू?..... अरे आधी बोतल पीकर तू खुद ज़मीन पर खड़ा नहीं रह सकता है, तू खुद को ही नहीं सम्भाल सकता है, मेरी कम्पनी सम्भालेगा तू?..... बदचलन!! दारूबाज़!!..... जा दूर हट जा मेरे पास से!!... बिल्कुल दूर हो जा!!" यह कहते हुए सैयद साहब ने अपने पास बैठे मुराद को ज़ोर से धक्का दिया और मुराद उनके आगे ज़मीन पर गिर पड़े।

"अब्बू!!" मिर्ज़ा चिल्ला उठे थे। मुराद भी बेहद गुस्से में थे और अपने कपड़े ठीक करते हुए खड़े हो रहे थे, मगर उन्होनें कुछ कहा नहीं।

यह चिल्लम-चिल्ली सुनकर सैयद साहब की बहुएं ज़ीनत, शगुफ्ता और रुबैदा, उनके कमरे में दौड़ी आयीं। उनके पीछे-पीछे रुखसार भी आ गयी थीं। सैयद साहब खून की उल्टियाँ कर रहे थे। उनका शरीर बहुत बीमार हो चुका था।

मिर्ज़ा ने गुस्से में कहा "जो आपको बताया है, वही सच है..... अगर यकीन नहीं होता तो अखबारों में पढ़ लीजिये आप, और सिर्फ यहीं बस नहीं किया है उन्होंने, उनके घटिया कामों की वजह से सौघरा की दर्जन भर मस्जिदों ने फतवा निकाल दिया है और उनको इस्लाम से खारिज करार दे दिया है..... आप बाप ज़रूर हैं, लेकिन अपने बेटे के बारे में कुछ नहीं जानते!!"

"खुदा के वास्ते चुप हो जाइये आप लोग!..... अब्बू की तबियत देखिये। " ज़ीनत सैयद साहब को बिस्तर पर लिटाते हुए मिर्ज़ा और मुराद से बोलीं।

मगर सैयद साहब ने ज़ीनत का सहारा लेने से मना कर दिया। वह किसी तरह फिर से उठ कर बैठ गये और मिर्ज़ा से कहा "कमीने!!..... तीन-तीन शादियाँ की हैं तूने, तेरी तो किसी भी बात का कभी एतबार नहीं करूँगा!!.....मैं खुद चलकर देखता हूँ अपनी कम्पनी!!" और सैयद साहब बिस्तर के पास ज़मीन पर बेचैनी से कुछ खोजते हुए ज़ीनत से बोले "बेटी, चप्पल निकाल मेरी!!....मैं अभी यूनिट जाता हूँ। " वह अभी भी हाँफ रहे थे।

"कहीं नहीं जायेंगे आप!!" मिर्ज़ा ने ज़ोर से कहा "आपको यहीं, इसी कमरे में रहना है बस!!"

"तू होता कौन है, मुझे इस कमरे में बंद कर के रखने वाला?..... मेरा घर है यह!!!" सैयद साहब फिर चीखे।

"अब इस घर का मालिक मैं हूँ अब्बू!!!....और इसलिये कहता हूँ कि आप कहीं नहीं जा सकते। " गरजते हुए मिर्ज़ा ने कहा।

"क्या कहा?..... मालिक है तू?..... तू कब से मालिक हो गया?" सैयद साहब ने गुस्से से कहा।

"हाँ मैं ही हूँ मालिक!!..... और आप यहीं रहेंगे, इसी कमरे में!!....ये बाहर मेरे आदमी हैं, और ये लोग आपको कहीं जाने नहीं देंगे। "

"क्या कहा?.....क्या नज़रबंद कर देगा तू मुझे?..... इतनी बड़ी औकात हो गयी है तेरी?"

"ऐसा ही समझ लीजिये आप!..... औकात उसी की होती है, जिसके पास ताक़त होती है.....और अब ताक़त हम लोगों के पास है!!"

सैयद साहब सहित सभी लोग मिर्ज़ा की बात पर दंग थे।

मुराद ने चिढ़कर कहा "वैसे भी अब्बू, बूढ़े हो चले हैं आप.....अब आपको यकीनन आराम ही करना चाहिये। काम करने की उम्र हमारी है, हमें काम करने दीजिये। "

सैयद साहब मुराद को गुस्से से देख रहे थे।

"आप यहीं रहेंगे!!....और यहाँ भी नहीं, बल्कि आपको किसी दूसरे कमरे में रहना होगा.....ये घर की बैठक है, यहाँ कोई नहीं रहेगा। " मिर्ज़ा बोले।

सैयद साहब हैरान थे।

"सही वक़्त पर आपको नाश्ता, खाना, दवाएं मिल जाया करेंगी, वक़्त-वक़्त पर डॉक्टर आ जाया करेगा और आपकी जाँच किया करेगा। आप अपने उसी कमरे में रहेंगे..... आपकी मर्ज़ी हम लोगों ने बहुत देखी अब्बू, अब हम लोगों की मर्ज़ी चलेगी यहाँ। " मिर्ज़ा ने कहा।

उसके बाद मिर्ज़ा ने कोठी की दूसरी मंज़िल पर, एक दूसरे बड़े कमरे में सैयद साहब के रहने का पूरा इंतज़ाम करवा दिया। अस्पताल में मरीज़ को जो भी ज़रूरतें होती हैं, मिर्ज़ा ने वह सब भी उस कमरे में मुहैया करवा दी थीं। उस कमरे के बाहर मिर्ज़ा ने अपने हथियारबंद आदमी भी लगा दिये थे। सिर्फ मुराद, उनकी पत्नी रुबैदा, शगुफ्ता, मिर्ज़ा, उनकी पत्नी ज़ीनत और बड़ी बहन जहाँआरा को ही उस कमरे में बेरोक-टोक जाने-आने की इजाज़त थी। बाकी कोई दूसरा इंसान न तो सैयद साहब से मिल सकता था, न ही सैयद साहब किसी और इंसान से मिल सकते थे। वह कहीं आ-जा नहीं सकते थे। खाना-पीना भी उन्हें वहीं दे दिया जाता था। डॉक्टर भी वहीं आते थे, और जाँच करके चले जाते थे। ज़रूरी दवाइयाँ मंगवा कर उन्हें वहीं दे दी जाती थीं। कुल मिलाकर अब सैयद सरफराज़ बेग साहब, मिर्ज़ा और मुराद के प्यारे वालिद, अब अपने ही घर में, अपने दोनों बेटों के क़ैदी बन चुके थे।

एक शाम मुराद दफ्तर से घर आये, और शगुफ्ता को पुकारते हुए सीधे रसोई में शगुफ्ता के पास पहुँचे। रुबैदा भी वहीं थीं। वह हाँफ रहे थे "भाभीजान!!.....भाभीजान!!..... "

"क्या हुआ मुराद?..... ऐसे हाँफ क्यों रहे हैं आप?..... सब खैरियत तो है?" शगुफ्ता ने उन्हें सम्भालते हुए कहा।

हाँफते हुए मुराद ने कहा "भाभीजान!..... आज…अभी थोड़ा वक़्त पहले……कलकत्ता से फोन आया था एक..... हमारे एक आदमी ने शुज़ा भाई को देखा है..... वहाँ हावड़ा के पास.....वह कह रहा था कि फरीद भाई के आदमी उन्हें अगवा करके कलकत्ता ले आये थे…… मगर अभी कुछ दिन पहले भाईजान उनकी गिरफ्त को मात देकर भाग निकले हैं। लेकिन उनके पैसे उन लोगों ने लूट लिये थे, लिहाज़ा भाईजान वापिस नहीं आ पा रहे हैं। भाईजान अभी वहीं हावड़ा में ही हैं। "

अचानक यह सुनकर शगुफ्ता की आँखों से आँसू बह निकले, और उनके चेहरे पर पिछले दो महीने में शायद पहली बार मुस्कान आ गयी। वह कुछ बोल भी नहीं पा रहीं थीं। उन्होंने मुराद का हाथ पकड़कर रोते हुए, मुश्किल से कहा "कैसे हैं मुराद वो?..... कब तक घर आ जायेंगे आपके भाईजान?"

मुराद ने खुश होते हुए कहा "फोन पर उस आदमी ने कहा था कि तबीयत से ठीक लग रहे थे वह..... हम लोग उनको लेने जायेंगे भाभी! घर में इतने वक़्त के बाद खुशी आयी है, कलकत्ता घूम कर खुशी मनायी जायेगी!!..... आप बच्चों के साथ बस दो रोज़ बाद कलकत्ता जाने की तैयारी कीजिये। "

शगुफ्ता खुशी के मारे ज़ीनत और रुबैदा से लिपट गयीं।

इस बीच मुराद ने दिल्ली से सौघरा होकर कलकत्ता जाने वाली ट्रेन में चार टिकटें बुक करा दी थीं। एक अपनी, एक अपनी भाभीजान की, और दो उनके जवान बच्चों की। तीन दिन बाद वे सभी बड़ी खुशी से शुज़ा को लाने के लिये कलकत्ता के लिये रवाना हो गये।

30 घंटे के सफर के बाद कलकत्ता स्टेशन पर जब वे लोग उतरे तो उनके ताज्जुब और खुशी का ठिकाना न रहा। स्टेशन पर उन्हें लेने खुद मिर्ज़ा आये हुए थे। शगुफ्ता ने पूछा "अरे मिर्ज़ा!!....आप यहाँ?"

मिर्ज़ा ने हँसकर जवाब दिया "क्यों भाभीजान, इतने दिनों के बाद भाईजान से मिलने की खुशी क्या आप अकेले मनायेंगी?.....हम भी हिस्सेदार हैं उसमें, भले ही आप जितने नहीं। "

फिर वे सभी वहाँ के सरकारी गेस्ट हाउस गये जो कलकत्ता के रासबिहारी बोस एवेन्यू इलाके में था। वहाँ मिर्ज़ा ने पहले ही दो कमरे बुक करवा दिये थे। एक अपने और मुराद के लिये, दूसरा अपने बड़े भाई शुज़ा और उनके परिवार के लिये। मिर्ज़ा और मुराद एक कमरे में थे और शुज़ा का परिवार दूसरे कमरे में था। मुराद ने उन्हें बताया था कि उनके आदमियों का फोन आया है, अगले दिन सुबह 10 बजे वो लोग शुज़ा को ले आयेंगे।

अगले रोज़ करीब 9 बजे सुबह एक स्लेटी रंग की मेटाडोर वैन गेस्ट हाउस के आगे आकर रुकी जिसमें से कुछ लोग बाहर निकले। उनमें से एक आदमी वैन की डिग्गी के पास गया और डिग्गी में से एक व्हील-चेयर निकालकर गाड़ी के पिछले वाले गेट के ठीक सामने रख दी और फिर गेट खोल दिया। फिर बाकी के दो आदमियों ने गाड़ी के अंदर से एक इंसान को सम्भाल कर निकाला और व्हील-चेयर पर बिठा दिया। फिर वे सभी आदमी उस व्हील-चेयर पर बैठे इंसान को लेकर उस कमरे के पास पहुँचे जिसमें मिर्ज़ा और मुराद रुके हुए थे। उन्होनें दरवाज़े पर दस्तक दी। अंदर से आवाज़ आयी "कम इन, दरवाज़ा खुला है। " वे आदमी व्हील-चेयर पर बैठे इंसान को लेकर कमरे के अंदर दाखिल हुए। उनमें से एक ने दरवाज़ा भीतर से तुरंत बंद कर दिया था। उन लोगों ने मुराद और मिर्ज़ा को झुक कर सलाम किया। मुराद ने अपने मुँह में लगी सिगरेट को माचिस से जलाते हुए, व्हील-चेयर पर बैठे इंसान को देखकर हँस कर पूछा "कैसे हैं शुज़ा भाईजान?..... खातिर में कोई कमी तो नहीं रही?" मिर्ज़ा मुराद के पीछे खड़े मुस्कुरा रहे थे।

व्हील-चेयर पर बैठे शुज़ा की हालत खराब हो चुकी थी। दो महीने में उनको खूब पीटा गया था और इस पिटायी से उनका दायाँ पैर टूट गया था। वह अपाहिज हो गये थे। उनके कंधे और गर्दन में भी काफी चोटें लगी थीं। ये सितम बस यहीं खत्म नहीं हुआ था बल्कि उनको इतनी बुरी तरीके से मारा गया था कि उनके सिर पर भी चोट आयी थी और अब वह लकवे की मार का शिकार हो गये थे। उनके शरीर का दायाँ हिस्सा अच्छी तरह से काम नहीं कर पाता था, और उनका इलाज भी चल रहा था। उनकी गर्दन एक ओर झूल गयी थी और चेहरा भी कुछ टेढ़ा सा हो गया था। गनीमत यही थी कि वह बोल ज़रूर लेते थे और दूसरे की बातें समझ लेते थे।

मुराद की बातें सुनकर शुज़ा ने बेहद गुस्से से उन दोनों की ओर देखा। उन्हें उस वक़्त इतना ज़्यादा गुस्सा आया कि चिल्लाते हुए वह मुराद और मिर्ज़ा पर हमला करने के लिये उन पर झपटे, लेकिन औंधे मुँह ज़मीन पर गिर पड़े। यह देखकर वहाँ खड़े मुराद और उनके आदमी ठहाका मारकर हँस पड़े। ज़मीन पर गिरते ही और लोगों का ठहाका सुनकर शुज़ा को अचानक अपनी हकीकत का अंदाज़ा हुआ, कि वह अब पहले वाले शुज़ा नहीं रहे थे। अपनी इस हालत पर अब शुज़ा के आँसू बह निकले थे। मुराद ने एक दूसरे आदमी को इशारा किया जिसने शुज़ा को उठाकर फिर व्हील-चेयर पर बिठा दिया था। उनके सामने खड़े मुराद ने अब उनके करीब जाकर मुस्कुराकर कहा "बेसब्री अच्छी नहीं है भाईजान. " और सिगरेट का एक कश लेकर धुआँ शुज़ा के मुँह पर उड़ेल दिया।

शुज़ा जो उनकी ओर गुस्से से लाल आँखों से देख रहे थे, सिगरेट के धुएं से खाँसने लगे थे। शुज़ा के फड़कते हुए नथुनों से निकलती उनकी तेज़ साँसो की आवाज़ को वहाँ कोई भी सुन सकता था। यह देखकर मुराद ने कहा "इस गुस्से का यहाँ कोई काम नहीं है भाईजान!! बगल के कमरे में आपकी शरीक-ए-हयात यानि हमारी भाभीजान और प्यारे बच्चे मौजूद हैं." और एक दफा फिर से सिगरेट का कश लेकर पूरा धुआँ शुज़ा के चेहरे पर फेंक दिया।

यह सुनकर शुज़ा का गुस्से में अकड़ा बदन ढीला पड़ने लगा था। वह खाँस रहे थे और फूट-फूट कर रोने लगे थे। "तुम दोनों ने क्यों किया ऐसा?" शुज़ा ने रोते हुए पूछा।

"करना पड़ा भाईजान। " चहलकदमी करते हुए मुराद ने कहा।

शुज़ा रोते हुए उन्हें देख रहे थे।

"चार से भले तीन, और तीन से भले दो.......हम दोनों ने तय किया था कि मैं और मिर्ज़ा इस पूरी सल्तनत को दो बराबर हिस्सों में बाँटेंगे..... अब आपके और फरीद भाई के रहते तो ये हो नहीं सकता था..... इसलिये करना पड़ा ऐसा। "

शुज़ा बुरी तरह हैरान थे। उन्होनें रोते हुए कहा "....तो फिर मेरा साथ देने का नाटक क्यों किया तुम दोनों ने?.....क्या ज़रूरत थी यह करने की?"

"अगर हम ऐसा न करते तो आप फरीद भाई को मारकर और ज़्यादा ताक़तवर हो जाते, और फिर आप हमें मारने की भी कोशिश ज़रूर करते। " मिर्ज़ा ने जवाब दिया।

शुज़ा सिर नीचे करके सिसिकते हुए, अपने भाई की बात सुन रहे थे।

मिर्ज़ा ने कहा "आप भी तो हथियारबंद आदमी लेकर कलकत्ते से सौघरा की ओर जा रहे थे..... आप का भी तो इरादा वही था ना?"

मुराद ने कहा "इसलिये मिर्ज़ा ने लखनऊ से जीप में भरकर अपने हथियारबंद आदमी भेजे थे..... वो नकाबपोश लोगों से भरी जीप याद है न, जो बनारस में अचानक आ गयी थी?..... उन लोगों को भेजने का मकसद ही यही था कि आप के सभी आदमियों को मार कर, आपको वापस कलकत्ता भागने पर मजबूर कर दिया जाये.....जिससे आप सौघरा न पहुँच सकें। "

शुज़ा रोये जा रहे थे।

मिर्ज़ा ने आगे कहा "हम चाहते तो आपको वहीं मार देते, लेकिन फिर हमने तय किया कि आपको अकेले ही कलकत्ता की ओर भगायेंगे..... कलकत्ता में तो फरीद भाई के आदमी आपको मार ही देते.....लेकिन आप चालाक निकले। आप पटना में ही रुक गये। "

 "....और इसलिये हमें आपको फतेहपुर से उठवाना पड़ा। " मुराद बोले।

"वह तो मुझे लग ही रहा था..... सौ कमीने मरते हैं, तब तेरे जैसा शैतान पैदा होता है मुराद!!" गुस्से से दाँत पीसते हुए शुज़ा ने कहा।

"अब जो भी है भाईजान.....वह सब छोड़िये.....जो हुआ, सो हुआ। हकीकत ये है कि हम आपको मारना नहीं चाहते, न ही आपके परिवार को किसी तरह का नुकसान पहुँचाना चाहते हैं। " मिर्ज़ा ने कहा।

शुज़ा मिर्ज़ा को घूर रहे थे।

मिर्ज़ा हँसे "ऐसे मत देखिये भाईजान, बल्कि हमारी बात सुनिये। हम आपसे एक समझौता करना चाहते हैं। "

शुज़ा ने पूछा "क्या?"

"आपके साले साहब रहते हैं बांडुंग, जावा में..... आप अपने परिवार के साथ, हिंदुस्तान हमेशा के लिये छोड़कर जावा चले जाइये.....और दोबारा पलट कर कभी इस ज़मीन का मुँह न देखियेगा..... बदले में हम आपकी और आपके परिवार की जान बख्श देंगे। " मिर्ज़ा ने सीधे-सपाट तरीके से कहा।

उसी समय मुराद ने अपने एक आदमी से कहा "बगल के कमरे में जो लोग हैं, उन्हें यहाँ ले आओ। "

उस आदमी ने बगल के कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दी। शुज़ा के बेटे ने दरवाज़ा खोला। उस आदमी ने उनसे कहा "आप बाकी सबको लेकर बगल वाले कमरे में आ जाइये। " शुज़ा के बच्चे, अपनी माँ शगुफ्ता के साथ बाहर आये और अपने कमरे का दरवाज़ा बंद करके, चेहरे पर मुस्कान और मन में उमंग लेकर मिर्ज़ा और मुराद के कमरे में दाखिल हुए, लेकिन फिर वहाँ का जो मंज़र उन्हें नज़र आया, उनकी सारी मुस्कान और उमंग अगले ही पल मातम में बदल चुकी थी।

शगुफ्ता और बच्चों ने देखा कि शुज़ा व्हील-चेयर पर सिर नीचे किये बैठे हैं, और ज़ार-ज़ार रोये जा रहे हैं। उनका एक पैर टूट चुका है, गर्दन एक ओर झुकी हुई है, और मुँह भी कुछ टेढ़ा सा बना हुआ है। शगुफ्ता ने चीखते हुए शुज़ा का चेहरा अपने सीने में छुपा लिया "या अल्लाह!!!.....मेरे मालिक!!!..... ये क्या किया अल्लाह!!!" शगुफ्ता की आँखों से धारे बह निकले और उनके रोने की आवाज़ पूरे बरामदे में सुनी जा सकती थी किसी का भी दिल दहला सकती थी। दोनों बच्चे शुज़ा के पैरों के पास गिरकर रो रहे थे।

मिर्ज़ा और मुराद सामने यूँ खड़े थे, मानो कुछ हुआ ही न हो।

रोते हुए शगुफ्ता ने मुराद से कहा "आपने कहा था कि इनकी तबियत ठीक हैं..... ये क्या है मुराद?.....ये सब क्या है?

"वह सब शुज़ा भाईजान आपको बाद में समझा देंगे..... अब तो मिल ही गये हैं ना, अब तो खूब बातें कीजियेगा..... लेकिन अभी आप लोग वह काम कीजिये जिसके लिये आपको यहाँ लाया गया है। "

"क्या मतलब?"

"आपके सामने दो रास्ते हैं भाभीजान। "

शगुफ्ता और बच्चे मुराद को देख रहे थे।

"या तो आप सभी हमेशा के लिये जावा चले जायेंगे, इन बच्चों के मामूजान के पास.....और या फिर हमेशा के लिये अल्लाह के पास। "

शगुफ्ता खामोश खड़ी थीं।

"....और फिर कभी पलट कर सौघरा की तरफ देखियेगा भी मत, वरना अपने बच्चों का मरा हुआ मुँह देखेंगे आप लोग। "

शुज़ा रोये जा रहे थे। शगुफ्ता ने काँपते हुए पूछा "लेकिन अभी कैसे जा सकते हैं जावा?..... पैसे भी नहीं है हमारे पास इतने तो..... हमारा सामान भी सब सौघरा में ही है। "

"आपके लिये हमने खास बंदोबस्त किया है भाभीजान..... हम लोगों ने आप चारों की कलकत्ता से बांडुंग की फ्लाइट की टिकटें बुक करवा दी हैं, और अब से ठीक 7 घंटे बाद, यानि शाम 5 बजे आपकी फ्लाइट है। देर रात तक आप बांडुंग पहुँच भी जायेंगे। " मिर्ज़ा ने कहा।

"और रही बात सौघरा में रखे आपके साज-ओ-समान की, तो उसकी फिक्र मत कीजिये.....वह सब सामान अगले 15-20 दिन में, बिल्कुल सही-सलामत आप तक बांडुंग पहुँच जायेगा। " मुराद ने जवाब दिया।

मुराद सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए बोले "हमने आपके भाईजान को भी खबर कर दी है कि आज रात 1 बजे तक आप लोग बांडुंग पहुँच रहे हैं। वह आपको लेने वहीं एयरपोर्ट पर आ जायेंगे..... अब बहन और जीजा के लिये तो वह रात के 1 बजे आ ही सकते हैं। " मुराद और मिर्ज़ा हँस रहे थे।

"हमारा एक आदमी आपको एयरपोर्ट पर मिल जायेगा। आपके टिकट और बाकी सारे ज़रूरी कागज़ात, उसके पास महफूज़ हैं। वह आपको दे देगा। हमारा ड्राइवर बाहर खड़ी गाड़ी में आपको एयरपोर्ट तक छोड़ आयेगा..... हो सके तो कुछ बख्शीश वगैरह दे दीजियेगा उसको। " मुस्कुराते हुए मिर्ज़ा ने कहा।

शुज़ा का चेहरा अपने सीने से लगाये शगुफ्ता रो रही थीं।

"हमें देर हो रही है भाभीजान.....अब हम आज रात दिल्ली और मुराद सौघरा निकलेंगे। " मिर्ज़ा बोले।

शुज़ा और शगुफ्ता उन दोनों को हैरानी से देख रहे थे।

"आपको रुखसत करने मिर्ज़ा खासतौर से दिल्ली से यहाँ तक आये थे। " मुराद के चेहरे पर तंज भरी मुस्कान थी। उन्होंने सिगरेट ज़मीन पर फेंकी और पैरों तले उसे कुचल दिया।

दोपहर करीब 2 बजे, खाना वगैरह खाकर शुज़ा और उनका परिवार, बाहर खड़ी उसी स्लेटी मेटाडोर वैन में एयरपोर्ट के लिये रवाना हुआ। मिर्ज़ा ने अपने 2 आदमी और एक ड्राइवर उनके साथ भेजे थे। राशबिहारी एवेन्यू से एयरपोर्ट की दूरी करीब 25 किलोमीटर थी। वैन लगातार अपने रास्ते चली जा रही थी। एयरपोर्ट से करीब 5-6 किलोमीटर पहले ही ड्राइवर ने वैन सड़क के किनारे रोक दी। मिर्ज़ा के एक आदमी ने उस से बंगाली लहज़े मे हिंदी बोलते हुए कहा "अरे गाड़ी क्यों रोक दिया रे?

"थोड़ा बीड़ी लाता हूँ अभी..... तुम लोग को लेना है?" ड्राइवर ने पूछा।

"ले आना। "

और फिर ड्राइवर सड़क पार करके एक दुकान पर बीड़ी लेने चला गया।

5-7 मिनट हो गये थे, मगर ड्राइवर वापिस नहीं आया था। मिर्ज़ा के एक आदमी ने दूसरे साथी से कहा "ये साला कब से बीड़ी लेने गया है, अभी तक बीड़ी नहीं मिला इसको?"

दूसरा आदमी खिड़की से बाहर, उस दुकान की ओर देख रहा था जहाँ ड्राइवर बीड़ी लेने गया था "अरे ये गया कहाँ ड्राइवर?.....दिख ही नहीं रहा। "

और तभी उस मेटाडोर वैन में एक ज़बरदस्त धमाका हुआ। धमाका इतना ज़ोरदार था कि 6 आदमियों से भरी, धातु की वह भारी वैन बीसियों फीट ऊपर तक फुटबाल की तरह उछल गयी थी। वैन के परखच्चे उड़ गये थे। फिर वह आग के किसी बड़े गोले की तरह धम्म से ज़मीन पर आ गिरी और गिर कर बिखर गयी। आस-पास की छोटी-मोटी दुकानों की भी खिड़कियां और काँच वगैरह टूट गये थे। दुकानों पर भी वैन के जलते हुए कई टुकड़े गिरे और कई दुकानों में भी अचानक आग लग गयी थी।

फरीद की खबर लगने के बाद क़ाशनी साहब एक दफा फिर से, एक सुबह सिंह साहब के यहाँ पहुँच गये। "आइये, आइये क़ाशनी साहब, बैठिये। " सिंह साहब ने क़ाशनी साहब का स्वागत अपनी बैठक में किया और फिर घर के अंदर दो चाय के लिये बोल दिया।

"कहिये क़ाशनी साहब, कैसे आना हुआ?" मुस्कुराते हुए सिंह साहब ने पूछा।

क़ाशनी साहब ने संजीदगी से कहा "फरीद पर एक और मुसीबत आन पड़ी है सिंह साहब। "

"बतायें जनाब! हम क्या मदद कर सकते हैं?"

क़ाशनी साहब ने उन्हें बताया कि फरीद के खिलाफ सौघरा के ईमामों और मौलवियों ने दिल्ली में आई. एम. पी. एल. सी. में मुकदमा दायर कर दिया है, और उसे इस्लाम से खारिज करार दिये जाने की माँग की है।

यह सुनकर सिंह साहब काफी गम्भीर हो गये "ये कैसा अजीब तमाशा है?"

अब तक चाय आ गयी थी।

"तमाशा तो अब हो ही गया है सिंह साहब..... " क़ाशनी साहब उनकी ओर देख कर सिर्फ इतना ही बोल सके।

कुछ पलों तक दोनों चुपचाप रहे। फिर सिंह साहब ने एक चाय का प्याला क़ाशनी साहब को देते हुए कहा "हमसे क्या मदद चाहते हैं आप?" फिर उन्होने चाय का दूसरा कप उठाया और चाय की चुस्कियाँ लेने लगे।

"पिछले बार आपकी मेहनत और सूझबूझ से ही फरीद की ज़मानत हो पायी थी। इस बार कमेटी में आप क्या फरीद की पैरवी करेंगे?" क़ाशनी साहब ने भी चाय पीते हुए पूछा।

"देखिये क़ाशनी साहब, ये इस्लाम से जुड़ा मामला है और वो भी आई. एम. पी. एल. सी. में………इसके मायने यह हुए कि सुनवाई इस्लाम के शरीयत कानूनों के हिसाब से, और इस्लामी धर्मग्रंथों की रोशनी में होगी। आई. पी. सी. , और सी. आर. पी. सी.  उसमें काम नहीं आयेंगे। " चाय पीते हुए सिंह साहब बोले।

"मतलब?"

"मतलब ये जनाब कि आपको किसी ऐसे इंसान को खोजना होगा जिसे इस्लाम के शरीयत कानूनों और इस्लामी धर्मग्रंथों की बहुत गहरी समझ हो..... वह कोई वकील, मौलवी या ईमाम कोई भी हो सकता है..... वही कमेटी में फरीद की अच्छी पैरवी कर सकेगा। " सिंह साहब ने समझाया।

"क्या आप जानते हैं ऐसे किसी को जो इस काम के लिये अच्छा आदमी साबित हो?" क़ाशनी साहब ने चाय पीते हुए सवाल किया।

"बरेली डिग्री कॉलेज के इस्लामिक स्टडीज़ डिपार्टमेंट के एक प्रोफेसर हैं, डॉ. ज़ुल्फिक़ार मोहम्मद.....अपने सौघरा के ही हैं वह.....उनका इस फील्ड में बड़ा नाम है क़ाशनी साहब!!..... मैंने सुना है कि पूरे यू. पी. में इस्लामिक स्टडीज़ के बारे में, उनसे ज़्यादा गहरी जानकारी और मज़बूत पकड़ किसी और की नहीं है। मेरे खयाल से हमें उनकी मदद लेनी चाहिये। "

इत्तेफाक़ से उस वक़्त डॉ. ज़ुल्फिक़ार सौघरा में अपने घर ही आये हुए थे। डॉ. सिंह ने फोन के ज़रिये यह पता किया और क़ाशनी साहब के साथ अगली सुबह ही उनसे मिलने उनके घर जा पहुँचे।

डॉ. ज़ुल्फिक़ार ने भी अपने मेहमानों की अच्छी खातिर की। उन्होंने क़ाशनी साहब का खूब नाम सुना था और उन्हें अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने उन लोगों से उनके पास आने का सबब पूछा, जिसके जवाब में क़ाशनी साहब ने सारी बात उनके आगे रखी, और उनसे इस मामले में मदद करने की गुजारिश की।

डॉ. ज़ुल्फिक़ार को यह सुनकर काफी धक्का लगा कि बे-सिर-पैर की बातों पर दर्जन भर मस्जिदों के ईमामों ने फतवा निकाल दिया था और एक मासूम, बे-कसूर, और अल्लाह से हमेशा डरने वाले इंसान को इस्लाम से खारिज करार दे दिया था। उन्होने केवल यहीं बस नहीं किया था, बल्कि वे लोग इस मसले को लेकर आई. एम. पी. एल. सी. तक में चले गये थे। ये सब सुनकर डॉ. ज़ुल्फिक़ार खासे गुस्से में थे। उन्हें यह बात सख्त नागवार गुज़र रही थी कि इस्लाम का मखौल उड़ाया जा रहा है, और बेवजह उसे बदनाम किया जा रहा है।

आखिर में उन्होंने कमेटी में फरीद की पैरवी करने की हामी भर दी थी, और इस बाबत दिल्ली के आई. एम. पी. एल. सी. के दफ्तर में तुरंत भी खबर पहुँचा दी गयी थी।

हमेशा की तरह आज भी बड़ी बेटी जहाँआरा अपने अब्बू से मिलने आयी थीं, और अपनी भाभी ज़ीनत के साथ अब्बू के उस कमरे में मौजूद थीं जहाँ दोनों भाईयों ने सैयद साहब को नज़रबंद किया हुआ था। सैयद साहब से मिलने उस कमरे में यही दो लोग जाया करते थे। मिर्ज़ा अपने अब्बू से मिलने नहीं जाते थे। मुराद भी सैयद साहब के पास नहीं जाते थे, लिहाज़ा रुबैदा और उनके बच्चों का भी अपने घर के इस बीमार बुज़ुर्ग से राब्ता नहीं था। शुज़ा और उनका परिवार अब था ही नहीं। फरीद की बीवी नादिरा अपने कमरे से बाहर भी नहीं आती थीं। रुखसार को भी अपने अब्बू में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। अब इन हालातों में यही दो लोग, मिर्ज़ा की पहली बीवी ज़ीनत – जिसको सैयद साहब बहुत प्यार करते थे - और बड़ी बेटी जहाँआरा ही सैयद साहब की देखभाल करते थे, और इनकी लगातार कोशिशों का नतीजा था कि सैयद साहब की तबीयत पहले से कुछ बेहतर हो रही थी। सैयद साहब अब कमरे में चल-फिर सकते थे, और खाना-वाना भी ठीक तरह से खा रहे थे।

सैयद साहब और जहाँआरा कमरे में रखे सोफे पर बैठे हुए थे और ज़ीनत अपने ससुर के बिस्तर की चादर बदल रही थीं। ससुर और ननद उन्हें देख रहे थे। सोफे के सामने की मेज पर चाय के तीन कप रखे थे। ज़ीनत ने बिस्तर से पुरानी चादर हटाकर नयी चादर करीने से बिछा दी और उन दोनों के पास आकर सोफे पर बैठ गयीं। उन्होंने चाय के कप अपने ससुर और ननद को दिये और खुद भी चाय पीने लगी थीं। चाय पीते हुए सैयद साहब किसी सोच में डूबे हुए बोले "बहुत गलती हो गयी हमसे.....बहुत बड़ी गलती। "

"क्या हुआ अब्बू?" बेटी ने पूछा।

"औलादों को एक हद से ज़्यादा छूट नहीं दी जानी चाहिये। " सैयद साहब बोले।

ज़ीनत ने यह सुनकर सिर नीचे कर लिया था।

जहाँआरा ने चाय पीते हुए कहा "आपने कोई गलती नहीं की अब्बू..... गलती जिन्होने की, उसके लिये वे लोग खुद ज़िम्मेदार हैं। "

"हम ने ही की बेटा, हम ही ज़िम्मेदार हैं..... परवरिश देने में हमसे ही गलती हुई..... किसी और के बच्चे ऐसे क्यों नहीं निकले?"

ज़ीनत और जहाँआरा सिर नीचे किये उनकी बातें सुन रही थें।

"अगर ऐसा न होता तो क्या आज इस उम्र में आकर ये दिन देखते हम?" यह सवाल सैयद साहब उन दोनों से कम और शायद खुद से ज़्यादा पूछ रहे थे।

"आपकी औलादों ने गलती की अब्बू, आप ने नहीं। " जहाँआरा ने कहा

ज़ीनत अभी भी नज़र झुकाये हुए थीं।

"अल्लाह में हमेशा हमने पूरा भरोसा रखा बेटी..... ज़िंदगी में कभी किसी के साथ बुरा नहीं किया, न कारोबार में, न ही अपने रिश्तों में..... हमेशा हर मोड़ पर खुद से ईमानदारी बनाये रखी, लेकिन ऐसा लगता है कि अल्लाह ने हमें हमारी इन कोशिशों का अच्छा सिला दिया नहीं हमें। " सैयद साहब ने अफसोस के साथ कहा।

ज़ीनत ने कहा "ऐसा नहीं है अब्बू.....ये एक बुरा दौर है, सबकी ज़िंदगी में आता है। हमें उम्मीद है कि ये जल्दी बीत जायेगा। "

 "नहीं बेटी, नहीं,……आप लोगों ने तो देखा ही है सब कुछ..... एक तो मुराद जैसी औलाद मिली, फिर उसके बाद आपकी अम्मी चली गयीं। जब सब कुछ सुधरता दिख रहा था, तभी अली साहब चले गये। फिर फरीद और सुलेमान आज हमारे पास नहीं हैं.....नादिरा बेटी को भी हम देख नहीं सकते हैं। मिर्ज़ा की हरकतें भी..... " फिर वह चुप हो गये। सैयद साहब जानते थे कि, मिर्ज़ा चाहे जैसे भी हैं, ज़ीनत के शौहर हैं, और ज़ीनत तलाक़ के बाद भी उनसे उतना ही प्यार करती हैं। मिर्ज़ा के बारे में कुछ बोलने पर ज़ीनत को बुरा लग जायेगा।

ज़ीनत खामोश बैठी थीं और चाय पी रही थीं।

"..... और देखिये……जिस कम्पनी, जिस कारोबार को इतने सालों में अपने बच्चे की तरह, अपने हाथों से पाल-पोस कर बड़ा किया, आज उसी कम्पनी के दफ्तर तक नहीं जा सकते हम। " सैयद साहब बहुत दु:खी थे।

जहाँआरा ने उनके हाथ पर अपना हाथ रख दिया।

"और..... ..... मरते भी नहीं हम। " चिढ़कर सैयद साहब बोले।

बेटी और बहू उन्हें देख रही थीं।

"जिये जाने की रस्म अदा किये जा रहे हैं..... और ये रस्म है कि खत्म ही नहीं होती। "

जब से यह बात सामने आयी थी कि कमेटी में फरीद की पैरवी बरेली डिग्री कॉलेज के इस्लामिक स्टडीज़ के प्रोफेसर डॉ. ज़ुल्फिक़ार करेंगे, तब से उनके खुद के कॉलेज में और बरेली शहर में भी उनका विरोध शुरु हो गया था। काफी लोग इस बात से नाराज़ थे कि डॉ. ज़ुल्फिक़ार एक ऐसे आदमी का साथ दे रहे थे, जिसे इस्लाम पर धब्बा बताया जा रहा था। यह सब देखकर डॉ. ज़ुल्फिक़ार ने अपने कॉलेज से लम्बी छुट्टी ले ली थी और अपने घर सौघरा आ गये थे। अब यहाँ उनका ज़्यादातर वक़्त क़ाशनी साहब के घर पर, उनके साथ फरीद के मुकदमे की तैयारी में बीतता था। अपने साथ में कॉलेज की लाइब्रेरी से वह इस्लामिक स्टडीज़ की कई सारी किताबें ले आये थे जिनको वह इस मुकदमे की तैयारी में ज़रूरी समझते थे। दिन भर डॉ. ज़ुल्फिक़ार मुकदमें की तैयारी करते, और देर रात तक उन किताबों से पढ़ाई। पूरा-पूरा दिन, और कभी-कभी तो पूरी-पूरी रात तक वे दोनों इसी बात पर उलझे रहते कि किसी भी तरह से फरीद को इस चंगुल से निकाल लें।

कुछ दिनों बाद शनिवार की एक रात, करीब 12 बजे, दो जीपें मिर्ज़ा के सूरजगढ़ फार्महाउस पर आकर रुकीं। जीप में से करीब 5-6 आदमी धड़ाधड़ उतर गये। उनमें से एक आदमी अंगड़ाई लेता हुआ मुस्कुराकर बोला "लो भाई, हम लोग आ गये सूरजगढ़!!.....अब तुम लोग निकालो गाड़ी में से सामान..... मैं तो हाथ न लगाऊँगा, इतना ज़्यादा भारी है सामान!!

दूसरा हँस कर बोला "वो भी साला एक नहीं, दो-दो!!"

तीसरे ने सख्त लहज़े में कहा "सुनो, मज़ाक मत करो..... सामान सम्भाल कर निकालो जल्दी, और ले चलो अंदर..... और सम्भाल कर निकालना, कतई हाथ से नीचे न गिरे..... जल्दी करो!"

अरे ले तो चलें मगर रखना कहाँ है?..... किस कमरे में?.....इतना भारी सामान लेकर घूमते थोड़ी रहेंगे फार्महाउस में?" पहले वाले ने कहा।

दूसरे ने कहा "तुम लोग सामान लेकर मेरे पीछे आओ.....मैं जल्दी भाग कर जाता हूँ और साहब से पूछता हूँ कि सामान रखना कहाँ है..... मेरे पीछे आओ। " इतना कहकर वह आदमी अंदर की ओर भागा।

उसके बाकी के साथियों ने काफी सम्भाल कर दोनों जीपों में से काफी बड़े और भारी दो काले रंग के थैले निकाले जो मोटी रस्सी से लपेट कर बाँधे गये थे। दोनों थैलों को लेकर वे सभी आदमी अंदर की ओर चले गये।

"अरे सुनो, ऊपर की मंज़िल पर जो कमरा हैं बिल्कुल किनारे..... साहब ने इन्हें वहीं रखने को कहा है। " अंदर गया आदमी दौड़कर बाहर आया और अपने बाकी साथियों को यह बात बताई। उसकी बात मानकर वे सभी लोग उन दोनों थैलों को लेकर सीधे ऊपर वाली मंज़िल पर चले गये और उस कमरे के पास पहुँचे जहाँ वे सामान रखे जाने थे। उन लोगों ने दोनों थैलों को उस कमरे में रख दिया, और कमरे में ताला बंद करके चले गये।

अगली सुबह इतवार था, मिर्ज़ा भी आराम से नहा-धो कर, पठानी सूट पहनकर अपने फार्महाउस पर ही शानदार नाश्ता कर रहे थे। नाश्ते में आज उन्होंने अचारी पनीर टिक्का और चाय बनवाई थी। नाश्ता करके वह बाहर निकलकर फार्महाउस की दूसरी मंज़िल पर जा पहुँचे थे। वहाँ उनका बेहद खास आदमी दीवान मौजूद था, जिसने उनको झुक कर सलाम किया। मिर्ज़ा ने सीधे-सपाट चेहरे के साथ दूर वाले कमरे की ओर आँखों से इशारा करके दीवान से पूछा "क्या हाल है?"

दीवान ने मुस्कुराकर कहा "ठीक ही है जनाब। "

"तुमने और तुम्हारे आदमियों ने नाश्ता-वाश्ता किया या नहीं?"

"जी, हो गया जनाब.....अच्छा नाश्ता किया हमने। "

"हम्म्म्म्म.....आओ। " मिर्ज़ा ने कहा और दीवान के साथ उस दूर वाले कमरे की ओर बढ़ गये।

वे दोनों कमरे के पास पहुँचे। वहाँ खड़े एक दूसरे आदमी ने ताला खोला, और हट गया। मिर्ज़ा दीवान के साथ कमरे के अंदर गये और दीवान ने भीतर से कमरा बंद कर दिया।

वहाँ कमरे में वह दो भारी, बड़े काले थैले, और उन पर बँधी मोटी रस्सियां ज़मीन पर बिखरी हुई थीं। कमरे की मेज पर दो थालियों में खूब सारा अचारी पनीर टिक्का रखा हुआ था, और चीनी मिट्टी के बने चाय के दो बड़े कप खाली करके रखे हुए थे। कमरे में एक चारपाई पर फरीद और उनका बेटा सुलेमान बैठे हुए थे, और मिर्ज़ा को गुस्से से लाल आँखों से देख रहे थे। लगातार ज़्यादा रोने की वजह से उनकी आँखें सूज भी गयीं थीं।

कमरे की एक आरामदायक कुर्सी को दीवान ने उठाकर चारपाई के पास रखा, जिस पर मिर्ज़ा बैठ गये थे। दीवान उनके पीछे खड़ा था। मिर्ज़ा कमरे में चारों ओर देख रहे थे। कूलर और पंखा चल रहे थे, फ्रिज भी चल रहा था। ट्यूबलाइट भी अच्छी जल रही थी और कमरे में अच्छी रोशनी थी। मेज पर रखी अचारी पनीर टिक्का की थाली की तरफ देखकर मिर्ज़ा ने अपनी धीर-गम्भीर आवाज़ में बिना मुस्कुराये कहा "मालूम होता है, ढंग से नाश्ता किया नहीं आप लोगों ने..... खास आपके लिये बनवाया था। "

फरीद और सुलेमान के मुँह से बोल नहीं फूटे। फरीद और सुलेमान खामोश थे और रो रहे थे। फरीद ने अपने आँसू पोंछते हुए कहा "क्यों किया मिर्ज़ा ये सब?"

मिर्ज़ा चुप रहे।

जालंधर में सरवर के यहाँ एक कमरे में पिछले दो महीने से बैठे-बैठे फरीद और सुलेमान परेशान हो गये थे। उनकी परेशानी देखकर सरवर से रहा न गया और उसने एक दिन कहा "चलिये फरीद भाईजान और सुलेमान, आप दोनों को यूनिट घुमा कर लाते हैं.......यहाँ कमरे में इतने वक़्त से खुद को कैद रखा है आप लोगों ने, कहीं बाहर नहीं निकले। आज चलिये अपनी यूनिट देखिये फरीद भाई। "

फरीद ने कमरे की खिड़की से बाहर देखते हुए फीकी सी मुस्कान के साथ कहा "रहने दो सरवर.....हम दोनों यहीं ठीक हैं। " फिर उन्होने कहा –

"बड़ा बदनसीब है ज़फर, दफन के लिये;

दो गज़ ज़मीन भी ना मिली, कू-ए-यार में। "

"ये सब मनहूस शायरी छोड़िये भाईजान. " सरवर ने कहा, ".....और चलिये न भाईजान, अच्छा लगेगा आपको..... वैसे भी, वह आप ही की खड़ी की गयी यूनिट है फरीद भाई, जिस से आज इतने सारे लोगों का घर चल रहा है……और उनमें मैं भी शामिल हूँ। अब एक मालिक को तो अपनी यूनिट ज़रूर देखनी चाहिये.....आपका ड्रीम प्रोजेक्ट है वो फरीद भाई!!!.....चलिये आज आप यूनिट में। "

सरवर बार-बार ज़िद करने लगा, और आखिर में फरीद ने उसकी बात मान ली। वैसे भी, फरीद और सुलेमान दोनों ही बाहर निकलकर घूमना चाहते थे, मगर उनके भीतर मिर्ज़ा और मुराद का डर इस कदर बैठा हुआ था कि वे कभी बाहर नहीं जाते थे। खैर, आज वह यूनिट जाने को तैयार हो गये थे। वह फरीद का ड्रीम प्रोजेक्ट था, और फरीद के दिल के बहुत करीब था इसलिये फरीद को इस बात की बड़ी खुशी थी कि आज वह अपने यूनिट देखने जा रहे हैं।

नाश्ता करके बाप-बेटे और सरवर, सरवर की गाड़ी में बैठकर अपनी यूनिट देखने निकल गये। गाड़ी भी सरवर ही चला रहे थे। बाहर निकलकर आज फरीद को बहुत अच्छा लग रहा था। वह गाड़ी में खिड़की के पास बैठे थे, और गर्मी के बाद भी शीशा नीचे कर रखा था। उनके चेहरे पर लगने वाली गर्म हवा भी उन्हें आज सुकून दे रही थी। जालंधर शहर के बाज़ारों की रौनक, भीड़-भाड़, शोर-शराबा उन्हें बहुत अच्छा लग रहा था। कभी ऐसे ही सौघरा के बाज़ारों में वह नादिरा के साथ खरीददारी करने जाया करते थे और आते वक़्त अपने बच्चों के लिये गरम इमरती, और समोसा ज़रूर लाते थे। पिछले लम्बे वक़्त से हमेशा मुस्कुराने से परहेज़ करने वाले फरीद के चेहरे पर आज अनायास ही मुस्कान थी।

लेकिन फिर से वह मुस्कान अगले ही पल गायब हो गयी थी। जब फरीद सौघरा के बाज़ार से आते थे तो नन्हा सुलेमान उनसे लिपट जाता था और पहला सवाल यही पूछता था "अम्मी, अब्बू!!....हमारे लिये क्या चिज्जी लाये बाज़ार से?"……आज वही सुलेमान फरीद के साथ दर-दर, मारा-मारा फिर रहा था, और इमरती-समोसे की तो बात ही क्या थी, इस वक़्त केवल ज़िंदा रह जाना ही उसके लिये बड़ी बात थी। आज फरीद, अपने और अपने बेटे का वजूद कायम रखने के लिये सरवर के मुनहसिर थे।  

यही सब वह सोच रहे थे जब गाड़ी यूनिट में दाखिल हुई। गाड़ी से वह तीनों उतरे और फरीद बड़े अदब से फरीद और सुलेमान को अपने चैम्बर में ले गया। फरीद उसके चैम्बर को गौर से देख रहे थे। सरवर हँस कर बोला "क्या देख रहे हैं भाईजान?..... बिल्कुल वैसा ही चैम्बर बनवाया है, जैसा आपका चैम्बर सौघरा में है। आपका चैम्बर हमें बड़ा ही अच्छा लगता था फरीद भाई, और हम अक्सर सोचा करते थे, कि काश!!..... कभी ऐसा कोई दिन आता कि हम भी ऐसे ही किसी चैम्बर में बैठते..... और देखिये फरीद भाई, आपने बिना कहे हमारी मन की मुराद सुन ली शायद, और हमें जालंधर भेज दिया। ये यूनिट, ये चैम्बर, सब आपका ही दिया है फरीद भाईजान और आप का इस पर पहला हक़ है। "

फिर सरवर ने उन्हें अपनी कुर्सी की ओर इशारा करके कहा "आइये भाईजान, आप यहाँ बैठिये!!", और फरीद का हाथ पकड़कर उस कुर्सी की ओर ले जाने लगा। शुरुआत में फरीद झिझक रहे थे "नहीं सरवर, ये यूनिट के हेड की कुर्सी है....और हेड आप हैं। आप ही बैठेंगे इस पर। " लेकिन सरवर ने बार-बार ज़िद करके फरीद को उस कुर्सी पर बिठा दिया। जब वे लोग चाय पी चुके, तब सरवर ने कहा "आइये भाईजान, फैक्ट्री में चलते हैं। "

फैक्ट्री में सरवर, फरीद और सुलेमान को हर मशीन के पास ले जा रहे थे, और फरीद की तेज़ निगाहें बड़ी बारीकी से काम देख रहीं थीं। वह उस फैक्ट्री में घूम रहे थे, जो उन्होंने बड़ी मेहनत से तैयार की थी, और जिसे चलाने का हक़ उनका ही था, लेकिन कुदरत को शायद यह मंज़ूर नहीं था। करीब एक-डेढ़ घंटे तक वे लोग फैक्ट्री में घूमते रहे थे। तब सरवर ने कहा "चलिये भाईजान, घर चलते हैं। "

फिर वे लोग अपनी गाड़ी के पास आये और तीनों लोगों ने गाड़ी में बैठकर वापसी की राह ली। लेकिन फरीद को सड़क और रास्ते देखकर यूँ लगा कि सरवर गाड़ी को अपने घर की ओर न ले जाकर किसी और तरफ ले जा रहे थे। "हम कहाँ जा रहे हैं सरवर? इस रास्ते तो नहीं आये थे। हमें तो घर जाना है ना?" फरीद ने पूछा।

"आइये, आपको एक खास चीज़ दिखाते हैं फरीद भाई, आप खुश ज़रूर होंगे। " सरवर ने मुस्कुराकर कहा।

करीब आधे घंटे बाद गाड़ी जालंधर शहर के बाहर निकल गयी थी, और खाली सड़क पर भाग रही थी। थोड़ा आगे जाकर एक बंजर ज़मीन के पास, जहाँ धूल उड़ रही थी, सरवर ने गाड़ी रोक दी, और तीनों लोग गाड़ी से बाहर उतर आये।

"ये कहाँ आ गये हैं हम लोग सरवर?" फरीद ने पूछा।

"ये दूर तक फैली खाली ज़मीन देख रहे हैं भाईजान?" सरवर ने सड़क के किनारे की एक ज़मीन को दिखाते हुए फरीद से पूछा।

"हाँ.....मगर ये तो बिल्कुल बंजर ज़मीन है। "

"यही कमाल की चीज़ तो आपको दिखाने लाये हैं भाईजान!" मुस्कुराते हुए सरवर ने कहा।

"क्या मतलब?"

"भाईजान, आप बड़े लोगों की दुआओं का असर है शायद..... मैं एक सपना देख पाया हूँ। "

"हम समझे नहीं। "

"भाईजान, इस खाली पड़ी बंजर ज़मीन को मैंने खरीद लिया है.....और मैं यहाँ एक सीमेंट फैक्ट्री लगाना चाहता हूँ। " हँसते हुए सरवर ने बताया।

"क्या?" फरीद के चेहरे पर एकाएक मुस्कान आ गयी थी, और वह किसी बच्चे की तरह चहक उठे थे "आप यहाँ सीमेंट का कारखाना लगाने जा रहे हैं?"

"अभी तो नहीं भाईजान.....आप तो जानते हैं, कारोबार के लिये कितना पैसा चाहिये.....अभी उतना हमारे पास है नहीं.....लेकिन हाँ, ज़मीन हमने ले ली है, और आने वाले वक़्त में ज़रूर हम इस ख्वाब को पूरा करने की कोशिश करेंगे। "

"ख्वाब पूरे ही तब होते हैं, जब देखे जाते हैं सरवर। " यह कहकर मुस्कुराते हुए फरीद ने सरवर का चेहरा अपने हाथों में लेकर उसका माथा चूम लिया।

"आप कहते थे न भाईजान, कि पैसा रखने से कारोबार में बरकत नहीं होती, पैसा घुमाते रहने से बरकत होती है..... तो बस वही कोशिश कर रहा हूँ मैं। आप लोगों की दुआएं चाहिये बस। "

"हमारी दुआ हमेशा आपके साथ है बेटा। " फरीद ने सरवर को गले लगाते हुए कहा।

वह तीनों उस ज़मीन को देख रहे थे, और कुछ बातें कर रहे थे। फरीद बातों-ही-बातों में फीकी सी मुस्कान के साथ, बहादुरशाह ज़फर के कुछ अशरार सरवर को सुनाने लगे -

"न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ,

जो किसी के काम न आ सके, मैं वो मुशात-ए-गुबार हूँ,

न तो मैं किसी का हबीब हूँ, न मैं किसी का रक़ीब हूँ..... "  

फरीद अपनी बात कह ही रहे थे कि तभी इसी समय दो तेज़ रफ्तार जीपें वहाँ आकर अचानक रुकीं, और बिजली की तेज़ी से उसमें से 6-7 हथियारबंद आदमी उछल कर बाहर निकले और उनमें से दो आदमियों ने फरीद और सुलेमान की गर्दन पकड़ ली और उन सभी ने उन दोनों के ऊपर पिस्तौलें तान दीं। वो चिल्ला रहे थे "हाथ ऊपर!!!....हाथ ऊपर!!!"

सरवर दोनों हाथ पीछे बाँधे, उस ज़मीन की तरफ ऐसे देख रहे थे, मानों कुछ हुआ ही न हो।

फरीद और सुलेमान ने अपने दोनों हाथ ऊपर कर दिये थे। सरवर को देखकर, काँपती हुई आवाज़ में फरीद ने पूछा "ये क्या है सरवर?"

सरवर चुपचाप ज़मीन की ओर ही देखते रहे, जैसे कुछ सुना ही न हो।

"सरवर, कुछ तो बोलिये!!....क्या है ये सब?" फरीद चीखे। उन आदमियों ने फरीद और सुलेमान की गर्दन और कस कर पकड़ ली।

सरवर अपने दोनों हाँथ पीछे बाँधे, धीरे-धीरे चलकर फरीद के पास आये और हँसते हुए कहा "कारोबारी मजबूरियाँ तो आप जानते ही हैं फरीद भाईजान!"

फरीद उसे देख रहे थे।

"हमने सोचा था कि यहाँ सीमेंट का कारखाना लगाने में हमारी काफी मदद आप कर देंगे..... लेकिन..... " फिर सरवर चुप हो गया।

फरीद अभी भी काँप रहे थे।

"मिर्ज़ा भाई ने हमसे वायदा किया कि इस सीमेंट कारखाने को पूरा करने में वह हमारी पूरी मदद करेंगे, और उन्होंने की भी। आपके यहाँ आने से पहले ही उनका एक आदमी 10 लाख रुपये का चेक लेकर आया था जिसे यहाँ जालंधर में हमारे अकाउंट में डाल दिया गया। "

सुलेमान चिल्लाया "गद्दार!!!..... धोखेबाज़!!!..... कमीने!!!" उन आदमियों ने सुलेमान की गर्दन पर और ज़्यादा पिस्तौल धँसा दी।

फरीद जो भी देख रहे थे, और सुन रहे थे, उन्हें यकीन नहीं हो रहा था।

"उन्होंने यह भी कहा है कि आगे भी अगर किसी मदद की ज़रूरत हुई तो मिर्ज़ा भाई वह भी करने को तैयार हैं। "

फरीद ने अपनी आँखें बंद कर ली थीं।

"अब बताइये फरीद भाई, मैं क्या कर सकता था?.....मेरे आगे क्या रास्ता था?" सरवर ने मुस्कुराते हुए कहा।

फरीद आँखें नीचे झुका कर रो रहे थे।

"और वैसे भी फरीद भाई, फैक्ट्री से आते समय आप घर जाने के लिये ही तो कह रहे थे..... तो अब घर ही जाइये आप!..... वहाँ आपके भाई, और हमारे आक़ा मिर्ज़ा हैदर बेग बेसब्री से आपका इंतज़ार कर रहे हैं। " सरवर ने हँस कर कहा और उन आदमियों को बाप-बेटे को ले जाने का इशारा किया।

तब उन लोगों ने बंदूक की नोक पर ज़बरदस्ती करते हुए फरीद और सुलेमान को जानवरों की तरह गाड़ियों में ठूँसा, और जीपें स्टार्ट कर तुरंत निकल गये।

सरवर अभी भी वहाँ खड़ा उन जीपों को आँखों से ओझल होते देख रहा था, और मुस्कुरा रहा था। फिर उसने धीरे से कहा - 

 ".....जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजड़ गया वो दयार हूँ। "

और फिर वह भी अपनी गाड़ी से घर चला गया।

"बोलिये मिर्ज़ा, ऐसी क्या गलती थी हमारी?" चारपाई पर बैठे, और रोते हुए फरीद ने अपने सामने बैठे मिर्ज़ा से पूछा।

देर से चुप बैठे मिर्ज़ा ने कहा "आपकी गलती ये थी कि आपको अब्बू ने जानशीन बना दिया था, जबकि आप उसके काबिल थे नहीं। "

फरीद और सुलेमान मिर्ज़ा को देख रहे थे। मिर्ज़ा ने आगे कहा "आप लोगों को यहाँ, इस घर में कभी किसी भी चीज़ की तकलीफ नहीं होगी, आप बेफिक्र होकर यहाँ रहें। "

फरीद फिर अपने आँसू पोंछ रहे थे।

मिर्ज़ा बोले "और आप दोनों एक साथ, इस कमरे में नहीं रहेंगे। "

बाप-बेटे फिर से मिर्ज़ा की ओर देखने लगे।

"सुलेमान दूसरे कमरे में रहेगा। वह कमरा भी अपने आदमियों से कहकर मैंने अच्छी तरह से तैयार करवा दिया है, और हमारे प्यारे भतीजे को वहाँ किसी भी तरह की कोई दिक्कत नहीं होगी। "

फिर दीवान की ओर गर्दन थोड़ी सी घुमा कर मिर्ज़ा ने कहा "दीवान, अपने आदमियों को बोलना कि सुलेमान को उसके कमरे में छोड़ आयें। "

दीवान ने दरवाज़ा खोल कर अपने दो आदमियों को अंदर बुलाने का इशारा किया। वह दो आदमी अंदर दाखिल हुए और अपनी-अपनी पिस्तौलें निकालकर चारपाई पर बैठे सुलेमान पर तान दीं।

सुलेमान ने बेबस निगाहों से पहले अपने अब्बू की ओर, और फिर मिर्ज़ा की ओर देखा। मिर्ज़ा ने उसे आँख से इशारा करते हुए कहा "जाइये सुलेमान, अपने कमरे में जाइये और आराम कीजिये। आपका सफर थोड़ा मुश्किल रहा होगा। "

सुलेमान उठा और चुपचाप बिना आवाज़ किये उन आदमियों के साथ चला गया। उन लोगों के जाते ही दीवान ने फिर से दरवाज़ा बंद कर दिया था और मिर्ज़ा के पीछे आकर खड़ा हो गया था।

मिर्ज़ा ने फरीद से आगे कहा "आपको एक बात बताना ज़रूरी समझते हैं हम। आपके खिलाफ दिल्ली में आई. एम. पी. एल. सी. में मुकदमा दायर हो गया है। तो जब भी सुनवाई की तारीख होगी, मेरे आदमी आपको यहाँ से अपनी गाड़ी में दिल्ली ले जायेंगे, और सुनवाई के बाद सही-सलामत वापिस भी यहीं ले आयेंगे..... सो..... काइंड्ली को-ऑपरेट प्लीज़!!"

फरीद खामोश बैठे हुए थे और अपने भाई को देख रहे थे। वह इसके अलावा कर भी क्या सकते थे?

"लेकिन एक बात का खयाल ज़रूर कीजियेगा...."

फरीद ने कुछ नहीं कहा, और खामोशी से मिर्ज़ा को देखते ही रहे।

"..... सुलेमान यहीं रहेगा। "

यह कहकर मिर्ज़ा कुर्सी से खड़े हो गये और फरीद की ओर देखते हुए दीवान से कहा "दीवान, भाईजान और सुलेमान का खास खयाल रखना। इन्हें किसी भी तरह की कोई दिक्कत न हो। "

"जी साहब। " दीवान ने जवाब दिया।

"खुदा हाफिज़, भाईजान। " यह कहकर मिर्ज़ा दीवान के साथ कमरे से बाहर जाने के लिये मुड़े। तभी पीछे से फरीद की आवाज़ आयी "मिर्ज़ा!!"

मिर्ज़ा फरीद की ओर मुड़े "जी भाईजान?"

"नादिरा कैसी हैं फरीद?" फरीद का सवाल था। वह ज़मीन की ओर देखते बैठे थे।

"भाभीजान सौघरा में बिल्कुल महफूज़ और सेहतमंद हैं। " मिर्ज़ा ने जवाब दिया।

वह कुछ देर कमरे में चुप्पी छाई रही। फिर मिर्ज़ा और दीवान कमरे से बाहर चले गये। फरीद को दरवाज़ा बाहर से बंद होने की आवाज़ सुनाई दी।

उसी तरह बैठे-बैठे ज़मीन की ओर देखते हुए फरीद धीमी आवाज़ में बोलने लगे –

""इन हसरतों से कहो कहीं और जा बसें,

इतनी जगह कहाँ है, दिल-ए-दाग़दार में?;

बुलबुल को न बाग़बाँ न सैयद से गिला,

किस्मत में क़ैद लिखी थी फस्ल-ए-बहार में। "

 

  


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy