दस्तूर - भाग-9
दस्तूर - भाग-9
सुबह करीब 5 बजे बेचारा बदहवास काशिफ रोता हुआ और भागता हुआ सैयद साहब के घर पहुँचा. अभी तक वहाँ कोई सोकर नहीं उठा था. गेट पर भीतर से ताला लगा हुआ था. वो बेचारा गेट के बाहर से ही रोते हुए “‘सैयद साहब!!.......सैयद साहब!!.......फरीद भाईजान!!.....शुज़ा भाईजान!!.......” चिल्लाये जा रहा था. फरीद घर में सबसे पहले उठ जाते थे, उठ कर इन्होनें जब खिड़की खोलकर देखा तो काशिफ रो रहा था और चिल्ला रहा था. फरीद भाग कर नीचे गये और जल्दी से गेट का ताला खोला. रोता-बिलखता काशिफ उनके गले से लग कर और भी रोने लगा “फरीद भाई!!.....फरीद भाई!!.....अब्बू!!......अब्बू!!.....” वह पूरी बात बोल भी नहीं पा रहा था. फरीद ने उसे सम्भालते हुए उसके गाल पर थपकियाँ दीं और कहा “क्या हुआ बेटे काशिफ?......क्यूँ रोये जा रहा बेटा?....बता तो सही?......क्या हुआ अली साहब को?”
काशिफ किसी तरह बता सका “अब्बू!!......अब्बू नहीं रहे फरीद भाई!!.....अब्बू नहीं रहे.” वह फिर फरीद से लिपटकर रोने लगा था. फरीद को जैसे यकीन ही नहीं हुआ. उन्होनें काशिफ का चेहरा अपने दोनों हाथों में लिया और पूछा “ये क्या बोल रहा बच्चे?.....फिर से बता, क्या हुआ बेटा?” काशिफ ने रोते हुए बताया “रात में खाना-पीना कर के सोये थे.......करीब 2-3 बजे सीने में भयानक दर्द हुआ.....हम लोग भाग के......हम लोग भाग के.....अब्बू को नवजीवन में ले गये......लेकिन अब्बू....” फिर वह नहीं बोल पाया और ज़ार-ज़ार रोने लगा. फरीद ने सम्भाला उसको और कहा “बेटा बस पाँच मिनट रुक......कपड़े बदल कर आता हूँ मैं, चलता हूँ तेरे साथ.” फरीद भागकर ऊपर गये और बड़े ज़ोर से शुज़ा और मुराद का दरवाज़ा पीटा. अचानक ऐसे दरवाज़ा पीटे जाने से शुज़ा और मुराद दोनों अपने कमरों से बाहर निकल आये थे. फरीद ने तेज़ी से गुसलखाने की तरफ जाते हुए, बिना उन दोनों की तरफ देखे हाथ उठाकर ऊँची आवाज़ में कहा “तुम लोग जल्दी तैयार हो जाओ बिल्कुल अभी.......अली साहब के यहाँ चलना है.......देर मत करना......इमरजेंसी है.” शुज़ा और मुराद कुछ समझ नहीं पाये, मगर इतना तो समझ गये थे कि मामला गम्भीर है.
दस मिनट में वो तीनों भाई हाथ-मुँह धुलकर और कपड़े बदलकर नीचे आ गये. मुराद ने पूछा “क्या हुआ भाईजान?” अब तक फरीद की आँखें भर आयीं थीं. उनके कदम रुक गये थे और शुज़ा से लगकर वह रोने लगे थे. “क्या हुआ भाईजान?” शुज़ा ने पूछा.
“आज तड़के ही......अली साहब का इंतकाल हो गया शुज़ा, हार्ट अटैक आया था रात में उनको....बेचारा काशिफ बाहर खड़ा है.” रोते हुए फरीद ने कहा.
शुज़ा और मुराद दंग थे. उनके मुँह से बोल ही नहीं फूट रहे थे. अभी कल तक उन्होनें अली साहब से दफ्तर में हँसते-मुस्कुराते बात की थी.
फरीद उन दोनों के साथ बाहर आये जहाँ काशिफ खड़ा रो रहा था. उन तीनों ने रुंधे गले से काशिफ को ढाढ़स बँधाया, और काशिफ के साथ तेज़ी से अली साहब के घर की ओर पैदल ही निकल चले. फरीद ने पूछा “सरवर को इत्तला दी काशिफ?” काशिफ ने अपने आँसू पोछते हुए कहा “जी भाईजान!!...बता दिया है. सरवर भाई, भाभी जी के साथ आज सुबह ही ट्रेन पकड़ लिये होंगे.....रास्ते में होंगे.....आज शाम 4-5 बजे तक ज़रूर आ जायेंगे.”
अली साहब के घर जब वे पहुँचे तो अफरा-तफरी मची थी. लोग बातें कर रहे थे “....नेक आदमियों की शायद जन्नत में भी कमी पड़ गयी है......अल्लाह भी ऐसे ही लोगों को क्यों बुला लेता है?......एकदम बढ़िया आदमी थे कल तक.....कोई बीमारी का एक लक्षण तक नहीं था.......रोज़ सुबह सैर पर नियम से जाया करते थे.......जवान लड़के भी इनकी फुर्ती देखकर शरमा जायें, ऐसे तेज़ थे अली साहब......लेकिन अल्लाह के आगे किसकी चली है?.....” पड़ोस के मर्द, पास की एक मस्जिद के मौलवी के साथ मिलकर अली साहब के अंतिम संस्कार की तैयारियों में लगे थे जबकि औरतें और अली साहब की बहू, अली साहब की बीवी को सम्भालने की कोशिश कर रही थीं “रोइये मत बीबी जी......अली साहब ने आपके बच्चों को उनके पैरों पर खड़ा कर दिया.......उनको काबिल बना दिया बीबी जी.....हिम्मत रखिये बीबी जी.....”. काशिफ का एक दोस्त फ्रिजवाला था, काशिफ ने उसको फ्रिज लाने को कहा था जिससे सरवर के आने तक लाश फ्रिज में रखी जा सके. वह दोस्त भी घर के बाहर ही खड़ा था जब काशिफ, फरीद, शुज़ा और मुराद के साथ आता दिखायी दिया. फरीद ने वहाँ पहुँचकर अली साहब की बेगम से मुलाकत की और उनको दिलासा देने और उनका दु:ख साझा करने की कोशिश की “रोइये मत बीबी जी.....अल्लाह को यही मंज़ूर था बीबी जी.....हम लोग हैं आपके साथ बीबी जी.....खुदा के वास्ते न रोइये. कासिफ और सरवर का ख्याल कीजिये बीबी जी....अभी बच्चे ही तो हैं वो......मत रोइये बीबी जी.”
बड़े बेटे सरवर का इंतज़ार वहाँ हर कोई कर रहा था. करीब घंटे भर फरीद अपने भाईयों के साथ वहाँ रहे, फिर मुराद और शुज़ा से कहा “मैं चलता हूँ, अब्बू और मिर्ज़ा को इत्तला करता हूँ.....अब्बू सो रहे थे सो उनको सुबह जगाया नहीं.....अब जाकर बताता हूँ. आप लोग यहीं रहकर काशिफ की मदद कीजियेगा, जो भी ज़रूरत हो.....अभी बिल्कुल बच्चा ही है वो.” यह कहकर फरीद ने अपना नोटों से भरा बटुआ शुज़ा को दे दिया और खुद घर की ओर तेज़ी से निकल गये थे.
घर जैसे ही वह पहुँचे थे, हॉल में रखा फोन घनघनाने लगा. फरीद ने फोन उठाया “हैलो?”
दूसरी तरफ से गमज़दा जहाँआरा की रोती हुई आवाज़ सुनाई दी “हैलो, फरीद?”
“क्या हुआ आपा?....रो क्यों रही हैं आप?”
जहाँआरा ने बहुत दु:खी होकर कहा “फरीद, आपने कुछ सुना?”
“क्या आपा?”
“क़ाशनी साहब की बीवी.....गुलफिशाँ बेगम.....अब नहीं रहीं फरीद. कल रात ही इंतक़ाल हो गया उनका.” यह कहकर वह फिर से रोने लगी.
“अरे!!...कैसे?.....अभी तो कुछ रोज़ पहले मैं मिल के आया था उनसे?” फरीद को अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ.
“दिल की कोई पुरानी बीमारी थी उनको......कोई वॉल्व खराब हो गया था दिल में. काफी दिनों से दवा चल रही थी, लेकिन अब जब दवा बे-असर होने लगी तो डॉक्टर ने ऑपरेशन को ही आखिरी रास्ता बताया था.......क़ाशनी साहब ने ऑपरेशन की डेट भी ले ली थी दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में......कुछ दिन बाद उनको जाना था दिल्ली......लेकिन फरीद वो दिल्ली तक नहीं पहुँच पायीं......” जहाँआरा ने रोते हुए कहा.
“आपको किसने बताया आपा?”
“कल देर रात नफीसा का फोन आया था. ज़्यादा रात हो गयी थी तो मैं जा नहीं पायी.....आप कब जा रहे हैं?....मुझे भी ले चलिये फरीद.”
जहाँआरा की बात सुनकर फरीद फूट-फूट कर रोने लगे और कहा “आपको कुछ पता है आपा?.....यहाँ क्या हुआ है?”
“क्या हुआ फरीद?”
“अली साहब......अली साहब नहीं रहे आपा.......आज सुबह ही हार्ट अटैक आया उनको......नवजीवन अस्पताल तक भी नहीं जा पाये वो और.....” फरीद से बोला नहीं जा रहा था.
जहाँआरा कुछ वक़्त तक बिल्कुल चुप रही फिर उसने फोन रख दिया.
फरीद सैयद साहब के कमरे में गये, जहाँ वह उठकर बिस्तर पर बैठे थे. उन्होनें फरीद को देखा, आँसुओं से भीगा चेहरा और लाल आँखें बयान कर रही थीं कि फरीद बहुत ज़्यादा गमज़दा थे.
“क्या हुआ फरीद?”
भर्राये गले से फरीद ने मुश्किल से बता पाये “अब्बू......अब्बू.......अली साहब........अली साहब का इंतकाल हो गया अब्बू आज सुबह ही....”
“क्या?.....कैसे?” सैयद साहब स्तब्ध थे.
“...काशिफ बता रहा था.....कल रात 2-3 बजे बहुत भयानक हार्ट अटैक आया था......अस्पताल तक भी न जा पाये अली साहब....” फरीद रोते हुए बोल रहे थे. फिर अपने आपको काबू करके बोले “.....मुराद और शुज़ा वहीं हैं…….मैं आपको बताने और मिर्ज़ा को फोन करने आया था.”
सैयद साहब ने रोना शुरु कर दिया था. अली साहब का जाना उनके लिये किसी सदमे से कम नहीं था. 45 साल पुराना याराना था उन दोनों का. दोनों ने मिलकर 45 साल पहले उस कारोबार की नींव रखी थी जो आज आसमान छू रहा था, और अली साहब ने अपनी पूरी ज़िंदगी, पूरा खून-पसीना, अपनी पूरी मेहनत केवल अपनी दोस्ती पर न्योछावर कर दी थी. सैयद साहब हमेशा अली साहब को अपना बड़ा भाई ही मानते आये थे, और उनकी हर बात पर आँख बंद करके भरोसा करते थे. उनसे बिना पूछे कभी कोई फैसला नहीं करते थे सैयद साहब. उनका चले जाना सैयद साहब का दूसरा बाज़ू टूट जाने जैसा था. एक बाज़ू उनकी बेगम के इंतक़ाल के साथ टूट गया था, लेकिन तब अली साहब ने उनको, उनके कारोबार को और उनके परिवार को भी बखूबी सम्भाल लिया था. आज सैयद साहब को यह लग रहा था जैसे कि अब उनका कोई बाज़ू उनके पास नहीं है. अब उनका आखिरी सहारा भी खत्म हो चुका था. सैयद साहब रोते हुए बिस्तर पर बैठे थे “क्यों ज़िंदा हैं यहाँ हम?.......बेगम चली गयीं…..हमारी औलाद भी कमीनी निकल गयी…….और अब फिर अली साहब भी चले गये.....कौन सी खता की थी हमने कि हम ही रुके पड़े यहाँ यह सब देखने के लिये?.....अल्लाह हमें ही क्यों नहीं उठा लेते?” सैयद साहब बीते हुए सालों की एक-एक बात याद कर रहे थे और रोये जा रहे थे.
फरीद ने किसी तरह उन्हें सम्भाला और अली साहब के घर चलने के लिये कहा. मिर्ज़ा के पास दिल्ली फोन करके फरीद ने उनको सारी जानकारी दी और उन्हें जल्द से जल्द आने के लिये कहा था “....सरवर आज शाम 5-6 बजे तक आ जायेंगे. आप जल्दी आ जाइये मिर्ज़ा जिस से सुपुर्द-ए-खाक़ के वक़्त आप मौजूद रहें.”
इसके बाद जल्द ही फरीद और सैयद साहब अपनी गाड़ी से अली साहब के घर की ओर निकल गये.
अली साहब के घर जब फरीद और सैयद साहब पहुँचे, तो सबने देखा कि गाड़ी से उतरे सैयद साहब की आँखें पथराई हुई थीं. वो चेतनाशून्य हो गये थे. कुछ भी बोल नहीं पा रहे थे, जिधर फरीद हाथ पकड़कर ले जा रहे थे, वह उधर ही चले जा रहे थे. फरीद ने उन्हें मृतक के शरीर के पास जाकर खड़ा कर दिया. फ्रिज में लाश रखी थी, फरीद ने फ्रिज का ढक्कन खोल दिया था. सैयद साहब लाश को देखते हुए अपना सन्तुलन खो बैठे थे और लड़खड़ा कर ज़मीन पर गिर गये. फरीद ने सम्भालने की कोशिश की तो उन्होनें हाथ उठाकर मना कर दिया. ज़मीन पर पालथी मारकर सैयद साहब बैठ गये और फ्रिज का हैंडिल पकड़े लाश को देखते रहे. उनकी आँखों से आँसू बहे जा रहे थे लेकिन मुँह से एक बोल न फूट रहा था. ऐसा अक्सर हो ही जाता है कि जब बहुत कुछ कहने को, बहुत ज़्यादा रोने को जी चाहता है न, तो असल में कुछ भी कहने को जी नहीं चाहता.
देर तक वहीं लाश के पास बैठे रहे सैयद साहब………बीते 45 सालों का एक-एक दिन याद कर रहे थे वो, और जितना याद कर रहे थे, उतना रोये जा रहे थे, मगर ज़बान बिल्कुल सिली हुई थी मुँह के भीतर. फरीद ने उन्हें छुआ भी नहीं. फिर किसी तरह उन्होनें अपना हाथ ऊपर किया और फरीद ने उन्हें उठाया. खड़े होकर वह केवल इतना बोल पाये “....काशिफ को देखियेगा ज़रा.....उसकी मदद कीजियेगा.” फिर सैयद साहब फरीद के साथ अली साहब की बेवा के पास गये, चंद अल्फाज़ ही बोल सके फिर एक कोने में जाकर चुप-चाप बैठ गये थे. किसी से कुछ भी नहीं कह रहे थे, और किसी ने उनसे भी कुछ नहीं कहा था. फरीद बाकी के काम देखने शुज़ा और मुराद के पास चले गये थे.
काशिफ से पूछकर फरीद ने वहीं से क़ाशनी साहब के घर फोन किया. अनीसा ने रोते हुए फोन उठाया. फरीद ने जैसे ही “हैलो अनीसा?” कहा, वह और भी रोने लगी. रोते हुए उसने कहा “....बेगम चली गयीं फरीद भाई.....बेगम से नाता टूट गया....”
फरीद ने अफसोस ज़ाहिर करते हुए पूछा “क़ाशनी साहब कैसे हैं?”
..एकदम चुप ही हैं भाईजान, किसी से कुछ भी नहीं बोल रहे हैं.....रात से ही एक गिलास पानी या फिर एक चाय तक नहीं पी है......बस बुत बनकर बैठे हुए हैं.”
“बच्चे आये?”
“हाँ, दोनों भाई अपने परिवार के साथ अभी अलस्सुबह 3-4 बजे ही पहुँचे हैं.” रोते हुए अनीसा ने कहा.
“सुपुर्द-ए-खाक़ कब तक है?”
“10 बजे तक भाईजान.....यहीं ईदगाह वाले कब्रिस्तान में.”
करीब 9 बजे फरीद ने शुज़ा और मुराद को गुलफिशाँ बेगम की मौत की खबर दी और कहा कि वह उनके जनाज़े में जा रहे हैं, 1-2 घंटे में वापिस आयेंगे. उन्होनें उन दोनों को काशिफ की मदद करने को कहा. फिर वह अली साहब के पास गये जो एक कोने में बिल्कुल खामोश बैठे थे. फरीद ने उनसे कहा “अब्बू, वो क़ाशनी साहब की बीवी.....गुलफिशाँ बेगम, उनका इंतक़ाल हो गया कल रात.......सुपुर्द-ए-खाक़ अभी 10 बजे होनी है, मैं जनाज़े में जाना चाहता हूँ. काशनी साहब से मिल आऊँ......अभी 1-2 घंटे में आता हूँ.” सैयद साहब ने बिना कुछ बोले आँखों से ही इजाज़त दे दी. फरीद उठ कर जाने लगे तो सैयद साहब के मुँह से बोल फूटे “फरीद, मिर्ज़ा को बता दिया था?”
“जी अब्बू.....उनको कह दिया था कि सरवर शाम तक आयेंगे जालंधर से, तब सुपुर्द-ए-खाक़ किया जायेगा.....उसके पहले मिर्ज़ा आ जायें ताकि उस वक़्त वह मौजूद रहें.”
“क्या बोले वो?” सैयद साहब ने पूछा.
“उन्होनें कहा कि कुछ काफी ज़रूरी काम है आज उनको, मगर फिर भी जल्दी से जल्दी ही सौघरा आने की भरपूर कोशिश करेंगे वो और सरवर से पहले हर हाल में यहाँ पहुँच जायेंगे.”
सैयद साहब ने फरीद की ओर देखकर दु:खी स्वर में कहा “...आज भी कोशिश करेंगे वो?” फिर वह चुप हो गये.
फरीद खामोश थे.
सैयद साहब ने उसी तरह बिना फरीद को देखे कहा “...आ जायें तो ठीक ही है......वैसे अगर वो सुपुर्द-ए-खाक़ में न आयें तो भी हमें कोई ताज्जुब नहीं होगा......किसी की कोई बात तो सुनते नहीं वो.......अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं.....नहीं भी आ सकते हैं.”
“आ जायेंगे अब्बू वो.....अली साहब के लिये हम सभी के दिल में वही जगह है, जो आपके लिये है.” फरीद ने कहा.
“बड़ा भरोसा है आपको उन पर!!” सैयद साहब ने ताना कसा.
फरीद चुप थे. सैयद साहब ने हाथ उठाकर उन्हें जाने को कहा और बोले “जल्दी आ जाइयेगा फरीद.....काशिफ परेशान है बहुत.”
फरीद ने फिर एक ताँगे में बैठकर क़ाशिफ साहब के घर की राह ली.
वहाँ पहुँचकर फरीद ने क़ाशनी साहब को देखा तो बहुत दु:खी हो गये. हमेशा मुस्कुराता हुआ चेहरा जो रहता था आज बिल्कुल उदास, गुमसुम होकर एक किनारे बैठा हुआ था. उनके चारों तरफ डॉ. अखिलानन्द सहित और दूसरे लोग बैठे थे जो उनको दिलासा दे रहे थे और उनकी हिम्मत बनाये रखने की कोशिश कर रहे थे. उनके दोनों बेटे सुपुर्द-ए-खाक की रस्म अदायगी के लिये ज़रूरी कामों में लगे हुए थे. फरीद बिना कुछ बोले क़ाशनी साहब के पास जाकर बैठ गये. उस्ताद और शागिर्द ने बिल्कुल खामोशी से, एक-दूसरे को नम आँखों से देखा. क़ाशनी साहब जो अब तक खुद को जज़्ब किये बैठे थे, फरीद को देखकर उनकी आँखों से झरना फूट पड़ा. वह फरीद के गले लगकर ज़ार-ज़ार रोने लगे. फरीद ने किसी तरह उन्हें चुप कराया.
करीब घंटे भर बाद गुलफिशाँ बेगम का आखिरी सफर शुरु हुआ. कब्रिस्तान में उनके दोनों बेटों ने मरहूम का जिस्म कब्र में उतारा. फरीद पूरे वक़्त क़ाशनी साहब के साथ ही बने रहे थे. बेगम को सुपुर्द-ए-खाक़ करने के बाद वापस लौटते वक़्त फरीद ने उन्हें अली साहब की मौत के बारे में बताया और वापस जाने की इजाज़त माँगी. क़ाशनी साहब ने भी फरीद को जाने को कह दिया. फिर फरीद वहीं से एक दूसरा ताँगा कर के वापस अली साहब के घर आ गये थे.
तकलीफ के इस मौके पर भी कुछ खास लोग होते हैं जिनके ज़ेहन में कुछ खास तरह की बातें भी आती हैं. मुराद ऐसे ही शख्स थे. अली साहब के घर पर मुराद और शुज़ा काशिफ की मदद कर रहे थे, जब मौका निकालकर और चारों तरफ देखकर मुराद ने धीरे से शुज़ा से कहा “अब तो अली साहब भी नहीं रहे.”
“हम्म्म्म्म.” शुज़ा ने बस इतना कहा.
“....फिर अब अब्बू का क्या होगा?”
“क्या मतलब?”
मुराद ने कहा “अब्बू हर बात के लिये, हर तरह की राय-सलाह लेने के लिये, पूरी तरह से अली साहब के ऊपर ही निर्भर थे......अब बगैर उनके अब्बू कैसे काम करेंगे?.......अब अब्बू की तबियत पता नहीं कैसी रहेगी?......मुझे अब्बू की बड़ी फिक्र हो रही है.”
“बात तो बहुत बड़ी है मुराद....सही कह रहे हैं आप. बिना अली साहब से पूछे अब्बू कुछ भी कदम नहीं उठाते थे. अब पता नहीं अब्बू के ज़ेहन में कैसा तूफान उठ रहा होगा?”
“वैसे दोपहर होने चली है, मिर्ज़ा आये नहीं अभी तक.......फरीद भाई ने फोन तो किया था उनको.” मुराद ने कहा.
“हम्म्म्म्म......रास्ते में हों क्या पता?” शुज़ा ने जवाब दिया.
“फरीद भाई ने सुबह ही फोन किया था उनको.......अगर मिर्ज़ा उस वक़्त निकल गये होते तो अब तक तो यहाँ पहुँच ही जाते......आखिर कितनी ही दूर है दिल्ली से सौघरा?.....और उनकी तो अपनी गाड़ी है, ज़्यादा वक़्त तो नहीं लगना था.”
“पता नहीं मुराद.....मगर आना तो ज़रूर चाहिये उनको. अली साहब भी हमारे लिये वैसे ही थे जैसे हमारे लिये अब्बू हैं......मिर्ज़ा को आना चाहिये. हो सकता है कि रास्ते में हों वह.” शुज़ा ने कहा.
शाम के साढ़े चार बज चुके थे और तभी एक साइकिल-रिक्शा अली साहब के घर के बाहर आ खड़ा हुआ. रिक्शे पर से अपने परिवार के साथ सरवर उतरे. उनकी आँखें और चेहरा बता रहा था कि उनके भीतर बेपनाह मायूसी और गम भरा हुआ है. चुपचाप और बेहद गमज़दा सरवर अपनी आँसुओं से भरी लाल आँखे लेकर धीमे-धीमे चलते हुए काशिफ से लिपट गये और दोनों भाई फूट-फूट कर रोने लगे. सैयद साहब और फरीद, शुज़ा और मुराद के साथ आगे आये और उन दोनों भाईयों को सम्भाला. सरवर को वह लोग उस फ्रिज के पास ले गये जहाँ अली साहब की लाश रखी थी. वहीं पर सरवर की अम्मी भी गुमसुम सी, आँसू बहाती बैठी हुई थी. माँ और बेटे-बहू एक-दूसरे से लगकर देर तक रोते ही रहे. आस-पास खड़े लोगों ने कुछ वक़्त बाद कहना शुरु किया “बेटा सरवर, देर हो रही है......अभी अंधेरा हो जायेगा.......लाश भी काफी देर से रखी है. अली साहब का आखिरी सफर शुरु कीजिये.” यह सुनकर सरवर ने अपनी अम्मी और बीवी को वहीं पर छोड़ा और काशिफ के साथ मिलकर अपने वालिद के अंतिम सफर की तैयारियाँ देखने लगे थे. सुबह से अब तक करीब-करीब सारे काम पूरे हो रखे थे, सिर्फ लाश को कब्रिस्तान जाकर दफनाना रह गया था. अली साहब के दोनों बेटों, फरीद और उनके भाईयों और बाकी के पड़ोसियों ने जल्दी-जल्दी बाकी के बचे हुए काम खत्म किये और लाश लेकर नज़दीक के कब्रिस्तान की ओर चल पड़े. मिर्ज़ा अभी तक नहीं आये थे.
कब्रिस्तान में अली साह्ब को सुपुर्द-ए-खाक़ किये जाने की रस्म जारी थी. सैयद साहब बिल्कुल किसी बुत की तरह खामोश खड़े थे और अपने बचपन के साथी, जिसने हर गम और हर खुशी में उनका साथ दिया, उसका जाना देख रहे थे. अली साहब के बेटों ने उनकी लाश को कब्र में उतारा, फिर रस्म के तहत तीन बार मुट्ठी भर कर मिट्टी कब्र में फेंकी. बाकी लोगों ने भी बारी-बारी से कब्र में मिट्टी फेंकनी शुरू की. सैयद साहब, अपने बेटों के साथ वहीं खड़े थे. फरीद से उन्होनें कब्र की ओर देखते हुए मायूसी भरी आवाज़ में कहा “मैंनें कहा था न आपको.......कि वो नहीं आयेंगे!!.....देख लीजिये अब. हमें तो पता नहीं क्यों, मगर पहले से ही लग रहा था कि मिर्ज़ा नहीं आयेंगे......आखिर औलाद हैं हमारी वह, इतना तो उनके बारे में हम भी जानते हैं.”
फरीद ने सैयद साहब का दु:ख समझते हुए कहा “अब्बू, फोन तो किया था उनको सुबह ही करीब साढ़े छह या सात बजे......आना तो चाहिये उनको.....शायद रास्ते में होंगे वह.”
“क्या खाक़ रास्ते में होंगे वह?” सैयद साहब भड़क उठे थे, फिर अपने आप को काबू करते हुए बोले “....दिल्ली से सौघरा क्या इतनी दूर है?......कुल जमा पाँच-छह घंटे से ज़्यादा नहीं लगते हैं अपनी खुद की गाड़ी से.......मैं आपको बता रहा हूँ, वो घर से निकले ही नहीं होंगे. अगर वह 10 बजे भी चलते तो भी अब तक आ ही जाते. हैरानी है कि जालंधर से सरवर आ गये, लेकिन दिल्ली से हमारे साहबज़ादे नहीं आये.”
फरीद अब चुप ही थे.
शाम को करीब 7 बज गये थे उन लोगों को कब्रिस्तान से वापस आते-आते. तीनों भाई और सैयद साहब बड़े उदास मन से अपने घर की बैठक में बैठ गये. रुखसार उन सब के लिये चाय लेकर आयी और सोफे के बीच में रखी मेज पर चाय रखकर सैयद साहब के पास जाकर बैठ गयी. सैयद साहब बहुत दु:ख में थे. उन्होने कहा “बहुत कष्ट हो गया है अब ज़िंदगी में......बहुत ज़्यादा......अब जीने की ख्वाहिश नहीं बची है, कुछ भी नहीं.”
उनके बेटे बिल्कुल चुप थे. शुज़ा ने कहा “काशिफ अभी बहुत छोटा ही है.....कैसे उबरेगा?”
सैयद साहब ने फरीद को ओर देखकर कहा “अब काशिफ आपकी ज़िम्मेदारी है फरीद.....आप ही को अब ध्यान रखना होगा उसका.”
फरीद ने कहा “जी अब्बू, काशिफ भी हमारे लिये वैसे ही है जैसे शुज़ा या मुराद.....हम उसको कतई तन्हा नहीं छोड़ेंग़े.”
मुराद ने तभी कहा “मिर्ज़ा नहीं आये अब्बू.” रुखसार ने उनकी ओर देखा.
“उनको आना भी कहाँ था?” सैयद साहब ने चिढ़कर कहा. तीनों बेटे और बेटी चुप बैठे थे.
“फोन करूँ उनको?” फरीद ने पूछा.
“कतई नहीं, कोई ज़रूरत ही नहीं है.” सैयद साहब ने साफ कहा. “....मिर्ज़ा शुरु से ऐसे हैं.....ज़िद्दी, बदतमीज़, मतलबी, खुदगर्ज़, बे-एहसास......अगर ऐसे न होते तो ज़ीनत के साथ क्या ऐसा करते?.......जो इंसान अपनी शरीक़-ए-हयात का सगा ना हुआ, उस से और क्या ही उम्मीद की जाये.” तीनों भाई और रुखसार भी सिर नीचे किये बैठी सुन रही थीं.
“...अली साहब ने अपने बच्चे सरवर और काशिफ की तरह ही माना था आप लोगों को भी, और कारोबार का ककहरा भी आपको ठीक वैसे ही सिखाया था जैसे अपने दोनों बेटों को.....और कारोबार ही क्या कहें, इस घर-परिवार के लिये कितनी कुर्बानियाँ दीं हैं अली साहब ने.....अपने घर के काम छोड़कर उन्होने पहले हमारे काम किये......न सुबह देखी, न शाम, न दिन देखा, न रात, न सर्दी देखी, न बारिश.....और ऐसा किया सिर्फ हमारी दोस्ती की खातिर.....और देखिये इस एहसान फरामोश ने क्या किया?.......सुपुर्द-ए-खाक़ में भी न आ सका वह. ऐसा लगता है कि हमारी परवरिश में ही कहीं कुछ कमी रह गयी.” सैयद साहब ने बड़े अफसोस और मायूसी से कहा.
बच्चे वहाँ खामोश बैठे हुए थे.
अभी दो महीने पहले ही मिर्ज़ा का तबादला और प्रमोशन दोनों ही हुए थे, और वह अब डिप्टी सेक्रेटरी की हैसियत से पेट्रोलियम मंत्रालय में काम कर रहे थे. 1971 की जंग के बाद, उसमें जो लोग शहीद हुए थे, उनके परिवारों को सरकार की तरफ से पेट्रोल पम्प दिये जाने थे. शहीदों के परिवारों को पेट्रोल पम्प का लाइसेंस दिये जाने की फाइल मिर्ज़ा की मेज से ही होकर गुज़रनी थी. मिर्ज़ा को ही इस काम को पूरा करने की ज़िम्मेदारी मिली थी. जिसकी वजह से दफ्तर में काम भी ज़्यादा हो रखा था. इन्ही फाइलों को निपटाते-निपटाते मिर्ज़ा को अच्छी तरह समझ में आ गया था कि पेट्रोल पम्प के धंधे में मुनाफा ही मुनाफा है, और अब उनके अंदर भी पेट्रोल पम्प खोलने की ख्वाहिशें हिलोरें मारने लगीं थीं. पेट्रोलियम मंत्रालय के डिप्टी सेक्रेटरी के तौर पर काम करते हुए, उनको यही मौका उनकी इस ख्वाहिश को पूरा करने का सबसे बेहतरीन और सबसे आसान मौका नज़र आ रहा था, और मिर्ज़ा गलत भी नहीं थे. आखिर पेट्रोलियम मंत्रालय के डिप्टी सेक्रेटरी के आगे किसकी चल सकती है?
“मिर्ज़ा ने जब अपने घोड़े दौड़ाये तो पता यह लगा कि सूरजगढ़ का जो फार्महाउस उन्हें पसंद आया था, दरअसल वह फार्महाउस और उसके आस-पास की कुछ ज़मीन भी, किसी चौधरी अल्ताफ हुसैन की थी. और ज़्यादा मालूमात करने पर पता चला कि चौधरी अल्ताफ हुसैन मामूली आदमी नहीं थे. लखनऊ के चौधरी साहब का नाम यू.पी. के बड़े नामचीन कारोबारियों में शुमार होता था, और खासतौर पर सूखे मेवों और फलों के कारोबार पर तो एक तरह से उनका राज ही हुआ करता था. यू.पी के कारोबारी जगत की वह काफी मक़बूल शख्सियत थे और अवध ट्रेड एंड कॉमर्स एसोसिएशन, जो यू.पी. के कारोबारियों की सबसे बड़ी ऑर्गेनाइज़ेशन थी, और लाखों कारोबारियों की रहनुमाई करती थी, उसके डिप्टी चेयरमैन भी पिछले चार सालों से वही थे.” यह कहकर यमुना हँसने लगी.
शफाक़त भी मंद-मंद मुस्कुरा रहा था.
“क्या हुआ शफाक़त?....हँसने की वजह क्या है?” यमुना ने उसे छेड़ा.
“बस ऐसे ही.....जानती तो आप भी हैं.” मुस्कुराते हुए शफाक़त ने जवाब दिया.
“जानते तो तुम भी हो......आखिर नाना थे तुम्हारे चौधरी साहब.”
“जी, जी.....पता है मुझे.......आप आगे बताएं.” झेंपते हुए शफाक़त ने कहा.
“आगे यह हुआ कि मिर्ज़ा ने अपने खास आदमियों और बिचौलियों के ज़रिये चौधरी साहब से बात करने की कोशिश की और यह पैगाम पहुँचवाया कि वह सूरजगढ़ वाले फार्महाउस में दिलचस्पी रखते हैं. बिचौलियों ने यह बात भी चौधरी साहब को बताई थी कि मिर्ज़ा पेट्रोलियम मंत्रालय में काफी बड़े अफसर हैं. यह जानकर चौधरी साहब ने खुद मिर्ज़ा को लखनऊ से ही फोन किया. मिर्ज़ा उस वक़्त अपने दफ्तर में थे जब उनके सामने रखे फोन की घंटी बजी.
“हैलो?”
“जी....मिर्ज़ा हैदर साहब से बात हो रही है?”
“हाँ, मैं ही बोल रहा हूँ.”
“अस्सलाम वालेकुम मिर्ज़ा साहब, मैं चौधरी अल्ताफ हुसैन लखनऊ से.”
“वालेकुम अस्सलाम चौधरी साहब.......हम तो आपकी कॉल के मुंतज़िर थे काफी वक़्त से.” मिर्ज़ा ने हँसकर कहा.
“जी मिर्ज़ा साहब,…..असल में हमें पता भी देर से ही चला कि आप हमारे फार्महाउस में इंट्रेस्टेड हैं......और फिर कारोबारी मसले आप जानते ही हैं, उसमें उलझे रहने की वजह से हम पहले आपसे बात नहीं कर पाये.”
“कोई बात नहीं चौधरी साहब.......इट्स यू पीपुल हू आर एक्चुअली ड्राइविंग इकोनॉमी ऑफ द कंट्री......आपकी बात हम समझ सकते हैं........असल में आपका फार्महाउस और लोकेशन हमें इतनी पसंद आयी कि हम खुद को रोक नहीं पाये.......”
“जी, जी......वह फार्महाउस और लोकेशन तो किसी को भी पसंद आ जाती है जनाब.....बहुत सारे लोगों ने हमसे बात की उसके लिये.......लेकिन असल में वह जगह हमारे दिल के बहुत करीब है, और हम ये चाहते थे कि अगर कोई क़द्दावर इंसान मिले, जो उस फार्महाउस, और उस ज़मीन को बड़े प्यार से, अपने बच्चे की तरह रख सके, तो ही हम बात आगे बढ़ायेंगे.......अब ऐसे किसी भी ऐरे-गैरे के कहने से तो नहीं बेचेंगे.”
“जी, जी, तो कहिये, किस तरह से मुलाक़ात हो सकती है आपसे?......इस तरह की बातें फोन पर तो नहीं की जा सकतीं........आमने-सामने बैठ कर, चाय के साथ बात किया जाना ज़्यादा मुफीद रहेगा.....आप की क्या राय है?” मिर्ज़ा ने कहा.
“बिल्कुल सही कह रहे हैं आप जनाब!!......हमें भी आपसे मिलकर कुछ ज़रूरी बात करनी थी.......लेकिन प्रॉब्लम ये है कि या तो आप लखनऊ आयें, या फिर हम दिल्ली.....तभी कुछ बात की जा सकती है.” चौधरी साहब बोले.
“हम्म्म्म्म.....मेरे लखनऊ आने में तो अभी देर है चौधरी साहब....कोई ज़रूरी मीटिंग, कॉन्फ्रेंस वगैरह में ही लखनऊ आना हो पाता है......बाकी यहाँ तो काफी काम दफ्तर में ही रहता है........फिर अभी शहीदों के परिवारों को पेट्रोल पम्प देने का काम भी चल रहा है, वह भी समय से पीछे है, और उसको भी जल्दी पूरा करने का प्रेशर है ऊपर से........आप बतायें, अगर आप अभी नज़दीक में कभी दिल्ली आते हैं तो हम ज़रूर उस वक़्त मिलकर बात शुरु कर सकते हैं.” मिर्ज़ा ने अपनी बात रखी.
“जनाब, करीब बीस-एक रोज़ बाद हमें कारोबार के सिलसिले में दिल्ली आना होगा.....वहीं सूरजगढ़ में ही रुकते हैं हम.....अगर आप वहाँ आ जायें तो बात हो जायेगी.” चौधरी साहब बोले.
“ये तो बहुत शानदार बात है चौधरी साहब......पक्की तारीख बता दीजियेगा कि आपको कब आना है, और आप दिल्ली में कब तक अपने बाकी के कामों से फारिग हो जायेंगे, ताकि फिर आपसे आपके फार्महाउस पर तफसील से बात की जा सके.”
“जी बहुत अच्छे जनाब!!....हम ज़रूर इत्तला कर देंगे आपको अगले हफ्ते-दस दिन में.”
फिर करीब आठ-दस दिन बाद चौधरी साहब ने मिर्ज़ा को फोन करके अपने दिल्ली आने की तारीख बता दी और यह भी बताया कि वह कब उनसे मिल सकते हैं.
असल में जिस दिन तड़के ही अली साहब का इंतक़ाल हुआ था और फरीद ने मिर्ज़ा को फोन करके बताया था, इत्तफाक़ से उसी दिन चौधरी साहब दिल्ली में थे और मिर्ज़ा को दोपहर खाने पर मिलने के लिये बुलाया था. मिर्ज़ा ने भी दफ्तर से उस दिन की छुट्टी ले रखी थी. मिर्ज़ा को ऐसा लगा कि सूरजगढ़ जाकर चौधरी अल्ताफ हुसैन से बात करना ज़्यादा ज़रूरी था बजाय कि सौघरा जाकर अली साहब के जनाज़े में शामिल होने के. जो मर गया वहाँ जाकर फालतू रोने-धोने से क्या हासिल होगा?......जिसे जाना था, वो चला ही गया.
और इसी वजह से मिर्ज़ा ने उस दिन सौघरा जाने की बजाय सूरजगढ़ जाने का फैसला किया था, जिसके कारण वह अली साहब के सुपुद-ए-खाक़ की रस्म में मौजूद नहीं थे. उन्होनें सोचा था कि किसी और दिन सौघरा जाकर वह अली साहब के बीवी-बच्चों से मिल लेंगे और अफसोस जताने की भी रस्म अदायगी कर लेंगे. अली साहब के इंतक़ाल वाले दिन ही ज़ीनत ने भी उनको फोन करके इत्तला दी थी और सौघरा आने के लिये कहा था. इस पर मिर्ज़ा ने हँस कर कहा था “जिस दिन आपको पता चल जायेगा कि मरने वाले को लोग उसकी मौत के बाद कितनी जल्दी भूल जाते हैं, उस दिन से आप लोगों की मौत पर शोक जताना छोड़ देंगे........बेहतर है कि यह आदत जल्दी डाल ली जाये.”
खैर, दिन के करीब 11 बजे ही मिर्ज़ा अपनी गाड़ी से दीवान को साथ लेकर सूरजगढ़ के फार्महाउस पर पहुँच गये थे. ताल्लुक़ात बनाना मिर्ज़ा जानते थे, और इसलिये अपने साथ कुछ तोहफे भी चौधरी साहब को देने के लिये साथ ले आये थे. चौधरी साहब ने गर्मजोशी से मिर्ज़ा का इस्तकबाल किया और दोनों के बीच मुलाकात शुरु हुई. शुरु में ही चौधरी साहब ने व्हिस्की की एक सुंदर सी बॉटल खोलते हुए कहा “क्या लेंगे मिर्ज़ा साहब?.....व्हिस्की या रम?.....एक अच्छा सा पैग बनाते हैं आपके लिये.”
मिर्ज़ा ने हँसते हुए कहा “माफ कीजियेगा चौधरी साहब, पीता नहीं मैं.”
चौधरी साहब हैरान थे “क्या!!!......पीते नहीं आप?......अरे हमने तो गौर से देखा है मिर्ज़ा साहब, सीनियर आई.सी.एस. अफसर तो चुनिंदा पीते हैं, लेकिन खूब पीते हैं.......पहली बार किसी बड़े अफसर को देख रहा हूँ जिसने पीने से मना कर दिया है.”
“नहीं, नहीं......मुसलमान हैं साहब हम दिल से......पीते नहीं.” मिर्ज़ा ने मुस्कुराकर कहा.
यह सुनकर चौधरी साहब ने झेंपते हुए व्हिस्की की बोतल किनारे कर दी और कहा “फिर नींबू का शरबत मंगायें आपके लिये?.......चाय अभी कुछ देर बाद लेते हैं.”
“जी, वो बिल्कुल ठीक रहेगा.”
थोड़ी देर में ही नौकर आया और दो गिलास नींबू का शर्बत रख कर चला गया. उसको जाते हुए चौधरी साहब ने कहा “दो चाय भी बोल देना.”
कुछ देर के बाद नौकर एक ट्रे में दो चाय और साथ में सॉल्टेड काजू लेकर आया और ट्रे वहीं मेज पर रखकर और शर्बत के खाली गिलास लेकर चला गया.
शुरुआत में चाय की चुस्कियों के बीच ज़मीन और फार्महाउस की बात न करके पहले दोनों पहले एक दूसरे के घर-परिवार और काम-काज के बारे मे जान रहे थे. चौधरी साहब को अब पता चला कि मिर्ज़ा हैदर, सैयद जहाँगीर बेग के छोटे बेटे हैं. वही सैयद जहाँगीर, जिनका यू.पी. में चमड़े के बने सामानों के कारोबार में काफी नाम है, और जिनका कारोबार न केवल यू.पी. बल्कि जयपुर, दिल्ली और अब जालंधर तक हो रहा है. पिछले करीब 20 बरस से मिर्ज़ा हैदर भी आई.सी.एस. की शानदार नौकरी कर रहे हैं और रेवेन्यू डिपार्टमेंट, एजुकेशन डिपार्टमेंट, जैसी जगहों पर आला काम करने के बाद अब पेट्रोलियम मंत्रालय में सीनियर अफसर बनाकर भेजे गये हैं. मिर्ज़ा ने उन्हें अपनी दोनों शादियों के बारे में भी बताया. मिर्ज़ा ने चौधरी साहब के कारोबार और परिवार के बारे में भी काफी मालूमात हासिल की. अब तक खाने का वक़्त हो चला था और मेज़बान और मेहमान बैठक से उठकर डाइनिंग रूम की तरफ बढ़ चले.
खाने की मेज पर ही बात शुरु हुई. पहल मिर्ज़ा ने ही की, “आपका फार्महाउस और ये जगह हमें बहुत ज़्यादा पसंद आ गयी चौधरी साहब. पहले फार्महाउस जैसी कोई चीज़ खरीदने का मन नहीं था लेकिन जब आपका फार्महाउस और सूरजगढ़ को देखा, तब लगा कि ऐसा कुछ तो हमारे पास ज़रूर होना चाहिये. दिल्ली में फैक्ट्री, शोर-शराबे, भीड़-भाड़ के अलावा है क्या?......यहाँ आकर लगा कि सुकून है तो यहीं है.....ताज़ी हवा, साफ पानी, और अपने फार्म की सब्ज़ियाँ खाकर तो उम्र खुद-ब-खुद दस साल बढ़ जायेगी.”
चौधरी साहब ने हँसकर पूछा “पहली दफा आपने कब देखा हमारा फार्महाउस?”
“एक शादी में हमारा आना हुआ था यहाँ, तभी पहली बार देखा था.......आपने शायद इसके आस-पास की ज़मीन किसी शादी के लिये किराये पर दी थी.” मिर्ज़ा ने कहा.
“हाँ, कभी-कभी न चाहते हुए भी ऐसा करना पड़ता है........कुछ तो लोग जान-पहचान के निकल आये हैं, उनकी बात माननी पड़ती है, और कुछ यहाँ से आमदनी होनी भी तो ज़रूरी है......अब प्रॉपर्टी केवल ऐसे खाली खड़ी तो छोड़ नहीं सकते.......पैसे लगाये हैं इसमें, तो पैसा निकलना भी तो चाहिये......फिर हम खेती भी करवाते हैं यहाँ, उसमें कारिंदे भी काम करते हैं यहाँ पर, उनकी तनख्वाह-बख्शीश वगैरह भी देनी ही होती है.”
“जी बिल्कुल, ये खर्चे तो हैं ही.” मिर्ज़ा ने हामी भरी.
खाना खत्म करके दोनों बाहर फिर से बैठक में आये. सोफे पर बैठने के बाद नौकर को बुलाकर चौधरी साहब ने कहा “दो चाय बोल देना.”
फिर मिर्ज़ा ने ही पूछा “तो कितनी कीमत लगायी है आपने इस फार्महाउस की चौधरी साहब?”
चौधरी साहब ने कहा “असल में सिर्फ फार्महाउस भर ही नहीं, साथ में इसके आस-पास की पाँच एकड़ ज़मीन है, सर्वेंट क्वार्टर भी हैं.....अगर आप वाकई लेना चाहते हैं तो ये सब कुछ आपको लेना होगा.”
“ठीक है, तो इसकी पूरी कीमत क्या रखी है आपने?”
“चालीस लाख रुपये.” चौधरी साहब ने कहा.
मिर्ज़ा मुस्कुराकर बोले “आप को नहीं लग रहा कि काफी ज़्यादा है ये?”
चौधरी साहब ने हँसकर कहा “कतई ज़्यादा नहीं है मिर्ज़ा साहब........फार्महाउस, लोकेशन, देखिये, और सबसे बड़ी बात, पाँच एकड़ ज़मीन भी पूरी की पूरी आपको मिल रही है......मेरे ख्याल में तो आपको सस्ता सौदा ही पड़ रहा है.”
मिर्ज़ा चुप थे.
“आने वाले वक़्त में ज़मीन और पानी ही इंसान की ताक़त को तय करेंगे.......ऐसे में पाँच एकड़ ज़मीन की अहमियत तो समझते ही होंगे न आप.”
“फिर भी चौधरी साहब, चालीस लाख ज़्यादा है.......पच्चीस-तीस में बात नहीं बन सकती है?”
“नहीं, नहीं मिर्ज़ा साहब.......पच्चीस-तीस में तो हमें नुकसान हो जायेगा.”
नौकर आया और चाय रखकर चला गया. इसी कीमत तय करने को लेकर दोनों की बातें हो रही थीं. मिर्ज़ा तीस लाख के ऊपर जाने को तैयार नहीं थे, जबकि चौधरी साहब चालीस लाख से नीचे नहीं आना चाहते थे. यही बातें करते-करते शाम के 4 बज गये थे.
तभी चौधरी साहब ने अपना एक और दाँव चला “मिर्ज़ा, अगर आप बुरा न माने, तो.....एक ऑफर है हमारे पास आपके लिये.”
“जी, कहिये.”
“कैसे कहें, समझ में नहीं आ रहा है.” थोड़ा हिचकते हुए चौधरी साहब बोले.
“कहिये तो चौधरी साहब.......क्या कहना चाह रहे हैं आप?
“देखिये, यह पूरा फार्महाउस और पाँच एकड़ ज़मीन, असल में हमारी बेटी नूर बानो के नाम पर है.......अगर आप नूर को अपनी शरीक-ए-हयात बनाना मंज़ूर करें तो......” इतना कहकर चौधरी साहब रुक गये.
45 बरस के मिर्ज़ा हैरानी से उनकी ओर देख रहे थे. चौधरी साहब भी समझ रहे थे कि मेहमान परेशानी में पड़ गया है.
“होश में तो हैं आप?.....बेटी की उम्र कितनी होगी आपकी?” मिर्ज़ा ने सवाल किया.
“25 की है नूर अभी.”
“....और मैं 45 का हूँ चौधरी साहब.”
“तो क्या हो गया मिर्ज़ा साहब?.....दो शादियाँ तो वैसे भी आपकी हुई हैं......इस्लाम के मुताबिक एक और शादी कर सकते हैं आप.” चौधरी साहब ने ऐसे कहा गोया उन्हें कोई फर्क ही न पड़ता हो.
मिर्ज़ा अभी भी हैरानी से चौधरी साहब की ओर देख रहे थे और सोच रहे थे “बाप है या दुश्मन!”
उन्होनें फिर कहा “....मेरे ख्याल में आपको एक दफा अपनी बेटी से ज़रूर पूछ लेना चाहिये......कोई मज़ाक नहीं है ये, शादी है चौधरी साहब.”
अपनी बेटी के बारे में चौधरी साहब खूब जानते थे. उन्हें पता था कि अगर नूर से पूछा गया तो वह पक्का ‘ना’ कर देगी. लेकिन चौधरी साहब ये भी समझते ही थे कि इतने सीनियर आई.सी.एस. अफसर से बेहतर रिश्ता उन्हें कहीं नहीं मिलेगा. वैसे भी कारोबारी थे चौधरी अल्ताफ हुसैन और नफा-नुकसान की बारीकियों से अच्छी तरह वाक़िफ थे. बेटी का क्या है?.....जवान है अभी, जवानी का जोश ज़्यादा है.....अच्छा-बुरा नहीं पहचान सकती है......दुनियादारी से अनजान है अभी.....उस से क्या ही पूछना?. चौधरी साहब ने दुनिया देखी है. वह अपनी बेटी और अपने घर-परिवार के मुस्तकबिल के बारे में कहीं ज़्यादा बेहतर फैसला कर सकते हैं, और फैसला उन्होनें कर ही लिया था.
चौधरी साहब बोले “बेटी है हमारी वो मिर्ज़ा साहब.....हमारी बात नहीं टालेगी. आप अपनी बात बताएं.”
फिर कुछ पल खामोश रहने के बाद मिर्ज़ा ने पूछा “....तो फिर उस हालत में फार्महाउस और ज़मीन की कितनी कीमत लगायेंगे आप?”
चौधरी साहब को उम्मीद नहीं थी इस सवाल की. उन्होने पूछा “मतलंब?.....आप क्या कहना चाहते हैं?”
“यही कि अगर मैं नूर बानो, आपकी बेटी से शादी कर लूँ तो ये फार्महाउस और ज़मीन मुझे कितने में पड़ेगी?” मिर्ज़ा ने मुस्कुराकर कहा.
“बाप, बेटी से क्या ही पैसे लेगा मिर्ज़ा साहब........दहेज में दिया गिफ्ट समझ लीजियेगा उसे आप.” हँसते हुए चौधरी साहब बोले.
“फिर मेरी भी एक शर्त है चौधरी साहब.”
“जी कहिये.”
“मैंने पेट्रोलियम मंत्रालय में आपकी फाइल देखी है......आपने लखनऊ शहर में दो पेट्रोल पम्प खोलने की अर्ज़ी दाखिल की है ना?”
“जी, जी.....दरअसल इसी सिलसिल में आपसे बात करनी थी......”
चाय पीते हुए उन्होनें बात आगे बढ़ाई “......दो पेट्रोल पम्प खोलने की जो अर्ज़ी दाखिल की थी वह करीब डेढ़ साल पहले दाखिल की थी........आपसे पहले जो डिप्टी सेक्रेटरी थे, गुप्ता जी, जिनके ऊपर उस काम को करने का ज़िम्मा था....उन्होनें वह फाइल आगे ही नहीं बढ़ाई थी काफी समय तक. आपने भी वही फाइल देखी है......मतलब यह कि वह फाइल अभी भी आप ही की मेज पर है, और आगे नहीं बढ़ी है.”
“जी, सही कह रहे हैं आप.” मिर्ज़ा ने कहा.
“आपसे हमारी गुज़ारिश हैं मिर्ज़ा साहब, वह फाइल आगे बढ़ा दीजिये.......अगर दो पेट्रोल पम्प की नहीं तो कम से कम एक की तो परमीशन दिला ही दीजिये.” चौधरी साहब ने मिर्ज़ा से इल्तजा की.
“परमीशन तो आपको मिल जायेगी चौधरी साहब, लेकिन हमारा थोड़ा ख्याल तो कीजिये......आखिर लड़की का बाप, अपने दामाद का खयाल तो रखता ही है.” चाय के साथ सॉल्टेड काजू मुँह में रखते हुए मुस्कुराकर मिर्ज़ा बोले.
“क्या मतलब?” चौधरी साहब ने पूछा.
“सिक्स्टी-फोर्टी पार्टनरशिप.......पेट्रोल पम्प के बिजनेस में, हमारी और आपकी......और नाम आपकी कम्पनी का.......फिर आप जितनी मर्ज़ी उतने पेट्रोल पम्प खोल लीजिये.” मिर्ज़ा ने बहुत साफ तरीके से अपनी बात रखी.
मिर्ज़ा की उम्मीदों के विपरीत, चौधरी साहब के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं आयी, उल्टे उनके माथे पर बल पड़ गये और उन्होने कहा “सिक्स्टी-फोर्टी?........काफी ज़्यादा हिस्सा नहीं माँग रहे आप मिर्ज़ा?”
“आप ये भी तो देखिये कि पेट्रोल पम्प के बिजनेस में मुनाफा कितना है…….और जिस काम में 3-4 साल लगना आम बात है, मैं आपको साल भर के अन्दर ही करवाकर दे दूँगा.......और वो भी सिर्फ दो नहीं, जितने भी पेट्रोल पम्प आप खोलना चाहें.”
“लेकिन ये करेंगे कैसे आप?.....मेरा मतलब है कि आप तो सरकारी अफसर हैं ना?”
“आप एक छोटी सी, फर्ज़ी कोई कम्पनी बना लीजिये, अपनी बेटी के नाम पर......उसमें चालीस फीसदी पैसा मैं लगा दूँगा.....और कागज़ पर आप यह दिखा दीजियेगा कि आपने अपनी बेटी को तोहफे के तौर पर यह कम्पनी दी है. फिर आपकी कम्पनी और उस छोटी कम्पनी के बीच में एक डील साइन हो जायेगी कि दोनों कम्पनियाँ मिलकर पेट्रोल पम्प के कारोबार में उतर रही हैं.” मिर्ज़ा ने चौधरी साहब को रास्ता सुझाया.
चौधरी साहब मिर्ज़ा को खामोशी से देख रहे थे.
“.....फोर्टी पर्सेंट इनवेस्टमेंट भी तो हमारा ही होगा.....इसीलिये आपसे सिक्स्टी-फोर्टी की बात की चौधरी साहब हमने.”
“फार्महाउस और पाँच एकड़ ज़मीन भी तो मिल रही आपको मुफ्त में....ये भी तो देखिये आप.”
“शादी भी तो करेंगे हम आपकी बेटी से......ये भी तो समझिये न आप.”
शाम के करीब 7-8 बजते-बजते एक डील आकार लेने लग गयी थी. डील ये कि मिर्ज़ा को सूरज गढ़ का फार्महाउस और साथ में पाँच एकड़ ज़मीन दे दी जायेगी और पेट्रोल पम्प के बिजनेस में सिक्स्टी-फोर्टी पार्टनरशिप भी मिर्ज़ा की होगी, बदले में मिर्ज़ा नूर बानो से शादी करेंगे, और साथ में चौधरी साहब की कम्पनी को और ज़्यादा पेट्रोल पम्पों के लिये लाइसेंस और परमिट दिलवाने का काम करेंगे.
रात करीब दस बजे खाना-पीना करके मिर्ज़ा जब फार्महाउस से बाहर निकले और चौधरी साहब उनको उनकी गाड़ी तक छोड़ने आये, तब मिर्ज़ा के चेहरे पर एक विजेता सी, रौबीली मुस्कान थी. वह जानते थे कि इस डील में ज़्यादा फायदे में वही थे.
चौधरी साहब को भी इस बात की तसल्ली ज़रूर थी कि उनके पूरे परिवार का सिरदर्द बन चुकी उनकी बागी बेटी नूर बानो की अब शादी हो जायेगी और केवल दो ही नहीं, अब वह जितने भी पेट्रोल पम्प खोलना चाहें, खोल सकते थे. यू.पी. में फलों और सूखे मेवों के दिग्गज कारोबारी चौधरी अल्ताफ हुसैन का कारोबार अब और कहीं ज़्यादा बढ़ने वाला था, और साथ ही बढ़ने वाली थी उनकी ताक़त, नौकरशाही से उनकी नज़दीकी, रुतबा और सियासी ताल्लुक़ात, जो आगे चलकर उनके सियासी सपनों को पूरा करने में काफी मददगार साबित होंगे.
उस शाम लखनऊ के अपने घर में चाय पीते वक़्त चौधरी साहब ने अपनी बेगम को इस बात की जानकारी दी जब नूर घर से बाहर हज़रतगंज घूमने गयी हुई थी. उन्होनें कहा “बेगम, नूर की शादी तय कर दी है हमने, दिल्ली के एक बड़े सीनियर आई.सी.एस. अफसर से.”
बेगम ने हैरानी से कहा “क्या?......यह क्या कह रहे हैं आप?....दिल्ली जाने से पहले तो ऐसा कुछ भी बताया नहीं था आपने, फिर अचानक से ये कैसे?....”
“सही कह रही हैं आप, वाकई में ऐसा कुछ भी हम सोचकर नहीं गये थे दिल्ली......लेकिन बात कुछ ऐसी बनी, कि फिर बन ही गयी.” मुस्कुराते हुए चौधरी साहब ने कहा.
बेगम उन्हें देख रही थी.
“....पेट्रोलियम मिनिस्ट्री में डिप्टी सेक्रेटरी हैं मिर्ज़ा हैदर बेग.....20 बरस की शानदार नौकरी भी हो चुकी है उनकी. इसके पहले रेवेन्यू डिपार्टमेंट में थे, प्रमोशन के साथ ट्रांसफर हुआ फिर पेट्रोलियम मिनिस्ट्री में उनका.......पेट्रोल पम्प खोलने के सारे लाइसेंस और परमिट उन्ही की मेज से गुज़रते हैं, और उन्हीं के दस्तखत से पास होते हैं.” चौधरी साहब गर्व से कह रहे थे.
बेगम धीरे-धीरे सारी बातें समझ रही थीं.
“एक और बात बताऊँ आपको, वो सैयद सरफराज़ बेग के छोटे बेटे हैं......सैयद साहब को जानती हैं आप?.....अरे वो एस.जे. लेदर कम्पनी है ना, उसी के मालिक हैं सैयद साहब…....और कारोबार का तो मत पूछिये, पहले उनक कारोबार यू.पी. में ही इतना शानदार हो रहा था लेकिन अब तो जयपुर, दिल्ली, और जालंधर तक में वह कारोबार कर रहे हैं.“
अच्छा, तो ये बात है......वैसे इन मिर्ज़ा हैदर बेग से मिलना कैसे हुआ आपका दिल्ली में?” बेगम ने पूछा.
“असल में वो हमारे सूरजगढ़ वाले फार्महाउस को खरीदने में इंट्रेस्टेड हैं. दिल्ली जाने से पहले उनसे फोन पर बात हुई थी हमारी.......हमने उन्हें मिलने के वास्ते बुलाया था, उसी मुलाक़ात में नूर की शादी की बात आयी, और बस!!......मौका हाथ से जाने नहीं दिया हमने.” हँसते हुए चौधरी साहब कह रहे थे.
“20 साल की नौकरी.....उम्र क्या होगी इन मिर्ज़ा हैदर की?” बेगम ने फिक्रमंद होकर पूछा. उन्हें यह बात कुछ अजीब लग रही थी और वह डर रही थीं.
“यहाँ ज़रूर कुछ उलझन है बेगम.......वह 45 के हैं, और दो बीवियाँ पहले से ही है.” अब जाकर चौधरी साहब ने वह बात बताई जिसे लेकर बेगम फिक्रमंद लग रही थीं.
यह सुनते ही वह फट पड़ीं “क्या?.....ये क्या करके आ गये आप?.....अरे जैसी भी है, बेटी है वह आपकी चौधरी साहब!!
चौधरी साहब गुस्से से बेगम की ओर देख रहे थे.
“.......45 साल और दो बीवियाँ!!!....और ऐसे मर्द से आप अपनी बेटी का रिश्ता तय कर आये?........अरे बेटी के बाप हैं आप या दुश्मन?”
चौधरी साहब अब गुस्से में ही चीख पड़े “तो क्या करते हम?.......जीना हराम कर के रखा हुआ है इस लड़की ने हमारा......25 की हो चली है और अभी भी ज़िद पकड़ कर बैठी है......जबकि इसकी उम्र में लड़कियाँ अपने बच्चे दुलारती हैं. इसकी जितनी भी दोस्त हैं, आप किसी का भी नाम ले लीजिये.”
बेगम अब चुपचाप सुन रही थीं.
“....लोगों के सवाल हैं कि खत्म नहीं होते......उनके ताने तो हमें सुनने पड़ते हैं इस उम्र में जाकर. आप ही बताइये, क्या करते हम?.....और वैसे भी पेट्रोलियम मिनिस्ट्री में इतने बड़े अफसर हैं वो.....आप एक बारी सोचिये कि उनका साथ हमारे पेट्रोल पम्प के बिजनेस के लिये कितना फायदेमंद हो सकता है. उन्होनें तो सीधे ही कहा है कि जितने भी पेट्रोल पम्प के लाइसेंस और परमिट चाहिये, वह सब दिलवा देंगे.....यही नहीं, वह तो हमारे साथ चालीस फीसदी की पार्टनरशिप करने को भी तैयार हैं इस बिजनेस में......सिक्स्टी-फोर्टी पर राज़ी हैं वो.”
“बेटी की शादी है ये चौधरी साहब.” बेगम ने अपना सिर पीटते हुए कहा.
चौधरी साहब अबकी फिर से भड़क गये “अरे तो आप ही बोलिये ना कि क्या करते हम?.....अपनी बेटी के चाल-चलन देखिये ना?......पूरा शहर हमसे और आपसे सवाल करता है.....ये बेटी नहीं, हमारे पूरे घर का सिरदर्द बन चुकी है, और इसका इलाज किया जाना ज़रूरी था.....इस शादी से बेहतर इसका कोई इलाज नहीं हो सकता था.”
बेगम उन्हें देख रही थीं.
“...और बेगम, 45 के हैं वह और दो बीवियाँ हैं उनकी, तो भी क्या हो गया?......आप उनका ओहदा, रुतबा और ताकत देखिये......फिर इस्लाम इस बात की इजाज़त देता भी है कि एक मर्द की कई बीवियाँ हो सकती हैं.”
बेगम अपनी सिर पकड़कर बैठी थीं, और काफी उदास थीं. उन्हें यह रिश्ता कतई मंज़ूर न था.
उनके पास आकर, और उनके सिर पर हाथ फेरते हुए फिर चौधरी साहब उन्हें समझाने लगे “...बताइये, हमारे आगे क्या चारा था?.....इतने वक़्त से इसकी शादी नहीं हो रही है.....खानदान के बच्चों में एक यही बची थी जिसकी इतनी उम्र तक शादी नहीं हुई. लोग दस तरह के सवाल पूछते रहते हैं, पीठ पीछे न जाने क्या-क्या बातें बनाते होंगें.......ऐसी हालत में अब जब एक इतना अच्छा रिश्ता जो खुद हमारे पास चलकर आया था, क्या इस मौके को हम यूँ ही जाने देते?”
“फिर भी चौधरी साहब, सोच तो लेते थोड़ा.....कहाँ 45 साल का वह अधेड़ आदमी, कहाँ 25 बरस की हमारी नूरी.” दु:खी होकर बेगम बोलीं.
“आपकी बात भी हमने बहुत सोची थी बेगम, लेकिन बताइये हम क्या करते?......हमारी छोड़िये, आप ही कहिये कि जो आप हमारी जगह होतीं तो क्या करतीं?......क्या चौधरी अल्ताफ हुसैन की बेटी की शादी उस दो कौड़ी के परचून की दुकान वाले पंसारी से करने को तैयार हो जातीं आप?........इस से तो बेहतर यही था कि एक सीनियर आई.सी.एस. अफसर से उसकी शादी हो जाये, भले ही उम्र में बड़ा ही क्यों न हो वह........नूरी बहुत अच्छी, बहुत सुकून और ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी जियेगी मिर्ज़ा से शादी होने पर……वो पंसारी अफज़ल क्या दे पायेगा उसे? कितने नाज़ों से पली है नूरी, फूल की तरह रखा है हमने उसे.......क्या अफज़ल बराबरी कर पायेगा इसकी?”
बेगम चुप थीं. उनके पास कोई जवाब नहीं था.
रात में खाने के ठीक पहले व्हिस्की का एक पैग पीते हुए चौधरी साहब ने अपनी इकलौती बेटी नूर बानो को अपने इस फैसले की जानकारी दी. बेगम वहीं पास में ही बैठी हुई थीं. ग्लास को होठों से लगाते हुए उन्होनें बेटी से सख्त लहज़े में कहा “नूर, आपको कुछ ज़रूरी बात बतानी है......आपकी शादी तय कर दी है हमने, दिल्ली के एक सीनियर आई.सी.एस. अफसर से......पेट्रोलियम मिनिस्ट्री में डिप्टी सेक्रेटरी हैं वो...”
नूर ने अपने वालिद की बात सुनकर अपनी माँ की ओर देखा.
चौधरी साहब ने अपनी बात आगे बढ़ाई “...अब आप अपने बर्ताव में सुधार कीजिये......जो कुछ अभी तक हुआ, सो हुआ, अब ये नहीं होगा......घर से बाहर निकलकर दिन-दिन भर अब दोस्तों के साथ हज़रतगंज और अमीनाबाद घूमना बंद कीजिये.......एक बहुत बड़े घर की बहू बनने जा रही हैं आप, और एक बड़े सीनियर अफसर की बीवी.....इसका ख्याल रखा कीजिये अब आप.”
नूर जो पैदाइशी ही बागी थी, फुफकार उठी “बिना मुझसे पूछे मेरी शादी कैसे तय कर दी आपने?.......और मेरे दोस्त हैं वो, उनके साथ मैं कभी भी, कहीं भी जाऊँ, किसी को क्या फर्क पड़ता है?”
“फर्क पड़ता है नूर......बहुत फर्क पड़ता है.” चौधरी साहब को गुस्सा आ गया था.
नूर उन्हें देख रही थी.
“....हम आपके माँ-बाप हैं, और न केवल इस लखनऊ शहर में बल्कि पूरे सूबे में बहुत इज़्ज़त और धाक है हमारी......और आप हमारी औलाद हैं, जिसका यह फर्ज़ है कि वह हमारी बरसों की मेहनत से कमाई गयी इस इज़्ज़त, इस रुतबे और इस धाक को कायम रखे.”
“माँ-बाप हमेशा अपनी औलाद का अच्छा-बुरा सोचते हैं अब्बू......औलाद की मर्ज़ी, उसकी ख्वाहिश पूछते हैं.....अपनी बातें ज़बरदस्ती थोपते नहीं उस पर.....” नूर ने कहा.
“.....आपका अच्छा-बुरा सोचकर ही आपका रिश्ता तय किया है नूर हमने.....” नूर की बात को बीच से ही काटते हुए चौधरी साहब बोले.
“…...आप क्या चाहती हैं?....उस दो टके के परचून की दुकान चलाने वाले पंसारी से कर दें आपकी शादी हम?.....अपनी सारी इज़्ज़त, शान-ओ-शौकत उस पंसारी के कदमों में डाल दें हम?” चीखते हुए चौधरी साहब बोल रहे थे.
“...एक बहुत बड़े आई.सी.एस. अफसर से तय की है आपकी शादी.....आप मिर्ज़ा के साथ बहुत ऐश-ओ-आराम की, बहुत सुकून की ज़िंदगी बितायेंगी. जैसी ज़िंदगी आप यहाँ, इस घर में बिता रही हैं, इस से भी बहुत उम्दा ज़िंदगी वहाँ आपका इंतज़ार कर रही है......” चौधरी साहब ने समझाने की कोशिश की.
चौधरी साहब की बात को बीच से काटते हुए नूर ने कहा “हमने आपसे कितनी ही बार कहा है, कि अफज़ल का नाम हमारे आगे इज़्ज़त से लिया कीजिये......आप के दामाद होने वाले हैं वो...”
चौधरी साहब चीख उठे “नूर!!!....तुम बेटी न होती तो गोली मार देते हम तुम्हें!!”
“बेशक मार दीजिये, लेकिन जीते-जी मैं अफज़ल के सिवा किसी और से शादी नहीं करूँगी, नहीं करूंगी, नहीं करूंगी!!!!”
“मोहतरमा, अभी एक थप्पड़ लगेगा और ये इश्क़बाज़ी और प्यार-मोहब्बत का सारा खुमार हवा हो जायेगा, समझीं आप!!” चौधरी साहब तैश में आकर बोले.
“अफज़ल में क्या खराबी है?.....आप क्यों नहीं करते हमारी शादी उनसे?” नूर ने दु:खी होकर कहा.
“...क्योंकि वो आपके काबिल नहीं है नूर....” फिर बेगम की ओर देखकर बोले “....बेगम आप समझाइये इनको....” फिर नूर कि ओर देखकर बोलना जारी रखा “.....बताइये इनको कि रिश्ता बराबरी वालों में होता है.......मिर्ज़ा और उनके खानदान से रिश्ता जोड़ने के लिये लोग तरसते हैं.....वो दो कौड़ी का अफज़ल, करता ही क्या है वो?.....है ही क्या वो?.....मामूली सी परचून की दुकान चलाने वाला पंसारी ही ना!!......क्या वह हम लोगों के बराबर कभी हो सकता है?......दस दफा मर के पैदा होगा न, तभी भी बराबरी नहीं कर पायेगा वो सुअर!!.......आप समझिये नूर, कि वह सिर्फ फँसा रहा है आपको, असल में उस दो टके के आदमी की नज़र हमारी दौलत, हमारे कारोबार और ज़मीन-जायदाद पर है.”
“नहीं अब्बू, नहीं......अफज़ल प्यार करते हैं हमसे......”
“.....चुप रहिये नूर, कतई चुप ही रहिये.” चौधरी साहब ने बेटी की बात काटते हुए ऊँची आवाज़ में कहा.
फिर चौधरी साहब ने कहा “....और आपको पता भी है, आपके इस चाल-चलन की वजह से हमारी इज़्ज़त की शहर भर में धज्जियाँ उड़ रही हैं!!!.......चौधरी अल्ताफ हुसैन की बेटी, उस दो कौड़ी के सुअर……..उस नामुराद परचून वाले अफज़ल के साथ उसकी स्कूटर पर बैठ कर पूरे लखनऊ में घूमती-इतराती फिरती हैं!!!......शर्म नहीं आती आपको?......लखनऊ शहर में एक बाज़ार ऐसा नहीं जहाँ के लोगों को आप दोनों की बेशर्मी के बारे में पता न हो.....हमारे आगे तो कोई बोलता नहीं कुछ, पीठ पीछे लोगों का बोलना क्या रोक लेंगी आप?......माशरे में हमारा जो रुतबा है, जो इज़्ज़त है....और आप ने उसका जो मखौल बना रखा है, क्या आपको ये बात समझ नहीं आती है?”
नूर ने कहा “अब्बू, किसी से प्यार करना कोई जुर्म नहीं है. प्यार हैसियत देख कर नहीं किया जाता, वो बस हो जाता है.......और अब्बू आप बार-बार उसे दो कौड़ी का पंसारी बोलकर गालियाँ दे रहे हैं, कोस रहे हैं, एक बात तो बताइये, कभी आपके अब्बू ने भी तो अपना कारोबार ऐसे ही शुरु किया होगा?......कभी आप के अब्बू भी तो ऐसे दो कौड़ी के पंसारी रहे होंगे.....अफज़ल ने भी अभी कारोबार शुरु किया है.....थोड़ा वक़्त दीजिये उन्हें. हो सकता है वह भी आप ही की तरह मुकाम हासिल कर लें.......और वैसे भी बालिग हैं हम दोनों, अपना अच्छा-बुरा पता है हमें....”
शराब का ग्लास फेंकते हुए और नूर की बात को खारिज करते हुए चौधरी साहब फिर गरजे “.....गज़ब बेशर्म, बेहया लड़की है ये!!.....आपको क्या यही परवरिश दी थी हमने?......अरे हम बाप हैं तेरे और तू हमारी बात मानने की बजाय उस कमीने अफज़ल की तरफदारी कर रही है?.......ऐसा क्या जादू कर दिया है उस हरामज़ादे ने आपके ऊपर?.......कितने सालों से आपको समझा रहे हैं कि बाहर जाकर उस अफज़ल से मिलना-जुलना बंद कीजिये.......हमारी इज़्ज़त को मिट्टी में मिलाना बंद कीजिये.....लेकिन आपको समझ नहीं आ रही है ये बात?.......हमारे अब्बू ने जब जो किया होगा, तब किया होगा.....सौ साल पहले की बात क्यों कर रही हैं आप?.....अभी की बात कीजिये, और अभी का सच यह है कि आपका वह अफज़ल हमारे जूतों की धूल बराबर भी नहीं है, और ना कभी होगा ही.....उस से आपकी शादी, कतई नहीं होगी, नहीं होगी, नहीं होगी!!!”
नूर खड़े-खड़े आँसू बहा रहीं थीं.
“....ये आप ही की बदतमीज़ी और बदचलनी का नतीजा है कि न चाहते हुए भी हमें आपकी शादी एक ऐसे इंसान से तय करनी पड़ी जो 45 बरस का है और खुद दो बीवियों का शौहर और चार बच्चों का बाप है........इस मोड़ पर ला खड़ा किया है आपने हमें.”
यह सुनकर नूर और भी फूट-फूट कर रोने लगी.
“....अभी आपको समझ नहीं आयेगा कुछ......जब किसी जवान बेटी की माँ बनेंगी, और वह बेटी बार-बार समझाने पर भी आपकी बात नहीं मानेगी, और इसी तरह सरेबाज़ार आपकी इज़्ज़त उछालती फिरेगी, तब आपको हमारी बातें समझ आयेंगी......जवान लड़की घर की आबरू होती है नूर, और उसे अच्छी परवरिश देना, और फिर वक़्त पर उसकी शादी किसी अच्छी जगह कर देना हर माँ-बाप का ख्वाब होता है......वे जल्दी से जल्दी अपनी ज़िम्मेदारियों से फारिग होना चाहते हैं, मगर अगर आप जैसे बेटी हो तो क्या ही किया जा सकता है?”
नूर और चौधरी साहब की बेगम खामोश थीं.
“....अब आप हमारी बात सुन लीजिये......शादी आपकी मिर्ज़ा से ही होगी.....इसे जितनी जल्दी आप अपने ज़ेहन में उतार लें उतना ही अच्छा होगा......जल्द से जल्द अब हम शादी करेंगे आपकी.”
नूर चुपचाप खड़ी थीं.
“अब जा सकती हैं आप.”
फिर अगले करीब दस-पंद्रह दिन तक लगातार चौधरी साहब और उनकी बेगम नूर को समझाते रहे कि किस तरह मिर्ज़ा से उनकी शादी इस खानदान के नाम, रुतबे और इज़्ज़त, और साथ-साथ चौधरी साहब के कारोबार के लिये फायदेमंद हो सकती है, और किस तरह से आगे जाकर यह चौधरी साहब के सियासी मंसूबों को पूरा कर सकती है. नूर ने तो अफज़ल से भाग कर शादी करने की बात तक की थी, लेकिन अफज़ल मियाँ के हाथ जोड़ लेने से नूर की रही-सही उम्मीद भी खत्म हो गयी. थक-हारकर अंत में चौधरी साहब की पैदाइशी बागी बेटी 25 बरस की नूर ने 45 बरस के मिर्ज़ा, जो पहले से ही दो बीवियों के शौहर और बाल-बच्चेदार आदमी थे, से शादी के लिये ‘हाँ’ कर दी, लेकिन एक शर्त जोड़ दी थी, कि शादी के बाद भी वह लखनऊ शहर में ही रहेगी, और मिर्ज़ा को उनके रहने के लिये, यहीं लखनऊ में, और उनके मायके से अलग बंदोबस्त करना होगा.
चौधरी साहब से मुलाकात के करीब 10-15 दिन बाद मिर्ज़ा सौघरा आये. जैसे ही वह सैयद साहब के कमरे में अपने वालिद से मिलने गये, उन्हें देखते ही सैयद साहब गुस्से में फुफकार उठे “आ गये आप?.....फुरसत मिल गयी जनाब को?.....अब और कितना नीचे गिरेंगे मिर्ज़ा?.....सारी शर्म, हया और इंसानी जज़्बात को घोल कर पी गये हैं क्या आप?.....इतना बड़ा हादसा हो गया यहाँ, और इतला दिये जाने के बाद भी नहीं आये आप?, वह भी उस इंसान के लिये जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ आप के वालिद और आप लोगों की भलाई के लिये ही लगा दी?.....इतने खुदगर्ज़, बेशर्म और बदतमीज़ हो गये हैं आप?”
मिर्ज़ा के तीनों भाई भी वहीं बैठे हुए थे. मिर्ज़ा ने अपने वालिद से कहा “अब्बू, वो मिनिस्ट्री में काम काफी ज़्यादा है आजकल, तो.....”
मिर्ज़ा बात खत्म नहीं कर पाये थे कि सैयद साहब बीच में ही बोल पड़े “अरे क्या खाक़ ज़रूरी काम रहा होगा आपको?.....अली साहब के जनाज़े से भी ज़्यादा ज़रूरी कुछ हो सकता था कभी?.....अरे कम्बख्त, अली साहब की नहीं, वह हमारी मौत हुई थी, हमारी!!!.....केवल यही सोच कर चले आते आप.......हमें तो लगता है कि अब आप हमारी मौत पर भी नहीं आयेंगे क्या?......हाँ, हो सकता है कि ना भी आयें.....आखिर इतने सीनियर आई.सी.एस. अफसर हो गये हैं आप.....अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं आप न!!!....हमारे जैसे अदने से इंसान की बात क्यों सुनेंगे आप?”
मिर्ज़ा समझ रहे थे कि यहाँ पर चुप रहना ही बेहतर था, सो वह खामोश ही थे.
“...कहाँ तो हम सोच रहे थे कि आपको एक अहम ज़िम्मेदारी देंगे, लेकिन आप तो......” सैयद साहब ने अपनी बात बीच में ही छोड़ दी. फिर कुछ पलों के बाद उन्होनें गुस्से में कहा “आप जाइये मिर्ज़ा यहाँ से......आपको देखने का भी दिल नहीं कर रहा हमारा.”
मिर्ज़ा भी खामोशी से कमरे से बाहर निकल गये.
शाम को मिर्ज़ा फरीद के पास उनके कमरे में गये. नादिरा भी उस वक़्त वहीं थीं. वह जानते थे कि अब फरीद, नादिरा और जहाँआरा ही सैयद साहब को समझा-बुझा सकते हैं. उन तीनों की बात तो वह कभी नहीं टालेंगे. मिर्ज़ा अब फरीद और जहाँआरा के सामने अपनी सफाई पेश करना चाह रहे थे. उनको देखते ही फरीद ने मुस्कुराते हुए उन्हें गले लगा लिया “अब्बा हुज़ूर की बात का बुरा मत मानियेगा मिर्ज़ा......अली साहब की मौत के बाद वह ज़्यादा डिस्टर्ब हैं.......आप तो जानते ही हैं उनको. आइये बैठिये.”
कमरे के सोफे पर बैठते हुए मिर्ज़ा ने मासूमियत से कहा “बुरा तो बिल्कुल नहीं लगा भाईजान, मगर हमारी कोई बात ही नहीं सुनी उन्होनें, ये ज़रूर खल गया हमें.”
फरीद और नादिरा उन्हें देख रहे थे. फरीद ने कहा “हाँ, अली साहब की मौत के बाद वह किसी की कोई बात नहीं सुन रहे हैं.....सबको डाँट-फटकार ही रहे हैं.”
“अब्बू बहुत चिड़चिड़े हो गये हैं पिछले कई दिनों से.” नादिरा ने भी कहा.
“भाईजान, उनको प्लीज़ बताइयेगा कि सरकारी नौकरी में जैसे-जैसे सीनियर होते जाते हैं, ज़िम्मेदारियाँ बढ़ती चली जाती हैं......इसमें हम कुछ नहीं कर सकते हैं. अब जंग में जो फौजी शहीद हुए हैं, उनके घरवालों को पेट्रोल पम्प दिया जाना है सरकार की तरफ से.......वह काम काफी पीछे ही चल रहा है अपने समय से, उसको जल्दी से जल्दी पूरा करने का प्रेशर है ऊपर से.....दफ्तर में काम काफी बढ़ा हुआ है आजकल, एक दिन की भी छुट्टी नहीं है भाईजान.....बहुत मुश्किल से निकल पाता हूँ दिल्ली से बाहर.”
“हम समझते हैं मिर्ज़ा, आप परेशान मत होइये......वक़्त थोड़ा बीतने दीजिये, अब्बू की समझ में सारी बातें आ जायेंगी धीरे-धीरे. अभी घाव ताज़ा है, दर्द ज़्यादा है.....हम अब्बू को समझा देंगे सारी बातें, फिक्र न कीजिये आप.” फरीद ने हँसते हुए कहा.
“....और भाईजान, ऐसा तो है नहीं कि आई.सी.एस. रहते हुए अपने घर के कारोबार की बेहतरी के लिये हमने कुछ किया ही नहीं है आज तक......अच्छी तरह जानते हैं आप और अब्बू भी कि दिल्ली और पंजाब में कारोबार शुरु करने का खयाल हमारा ही था. आप के साथ दिल्ली में कारोबार शुरु करने के लिये क्या कुछ मेहनत नहीं की हमने, रात 2-3 बजे तक जाग-जागकर हम मसले सुलझाने के रास्ते खोजते थे, तब कहीं जाकर वो प्रोजेक्ट मुकम्मल हो पाया था.....कितने दफ्तरों के कितने ही अफसरों से बात की थी हमने बार-बार.....बताइये भाईजान, क्या नहीं था ऐसा?”
फरीद और नादिरा उनकी बात सुन रहे थे.
“....और दिल्ली ही क्यों भाईजान?....जयपुर वाला प्रोजेक्ट भी हमारे बताये रास्ते पर ही पूरा हुआ था, वरना अब्बू जयपुर में कहाँ हाथ डालने वाले थे?......फिर आप और भी तो देखें भाईजान, कि कानपुर और माधवपुर वाला मसला नहीं सुलझाया क्या हमने?”
फरीद ने ‘हाँ’ में सिर हिलाते हुए कहा “ये बात तो मरहूम अली साहब भी बराबर मानते थे मिर्ज़ा कि आप की सलाहों का हमें बहुत फायदा हुआ है.”
“...तो ये सब क्यों किया हमने भाईजान?.....इसीलिये ना कि हमें हमारे घर-परिवार से, आप लोगों से बे-इंतेहा मोहब्बत है. तो फिर अब्बू ऐसे क्यों कह रहे थे कि शर्म, हया, इंसानी जज़्बात घोलकर पी गये हैं हम?....मानो हमें घर-परिवार के लोगों की, अली साहब की कोई कदर ही नहीं थी.....अरे भाईजान, अली साहब का हाथ थामकर ही हम लोग बड़े हुए हैं. उन्हीं की बदौलत कारोबार सीखा है. इतने एहसान हैं उनके हमारे ऊपर कि हम कभी वह उतारने के काबिल ही नहीं हो सकते.......क्या अब्बू अली साहब के लिये हमारे जज़्बातों को नहीं समझते?”
फरीद ने कहा “वह सब जानते-समझते हैं मिर्ज़ा, बस उन्हें थोड़ा वक़्त की ज़रूरत है. अली साहब का जाना ऐसा ही है उनके लिये जैसे किसी इंसान का एक के बाद दूसरा हाथ भी टूट जाना. अब्बू का पहला बाज़ू हमारी अम्मी थी, फिर अली साहब रहे.......अब अली साहब के चले जाने के बाद अब्बू खुद को बहुत अकेला महसूस कर रहे हैं......हर किसी पर चीखते हैं, डाँटते हैं....अभी नया ज़ख्म है मिर्ज़ा, भरने में वक़्त लगेगा.”
“फिर भी आप अब्बू से कहियेगा भाईजान कि हम गलत आदमी नहीं हैं, और हर ज़िम्मेदारी को निभाने को पूरी तरह तैयार हैं.......अब्बू तो हमें देखना भी नहीं चाह रहे अब.”
“इस बात की फिक्र मत कीजिये मिर्ज़ा, हमारे प्यारे छोटे भाई हैं आप......अब्बू को हम समझा लेंगे.” फरीद ने मुस्कुराते हुए कहा.
इसी तरह से मिर्ज़ा ने पहले रुखसार से मिलकर, और फिर जहाँआरा को फोन करके अपनी बात समझाने की कोशिश की और उन दोनों से गुजारिश की कि अब्बा हुज़ूर की मिर्ज़ा से नाराज़गी दूर करने की कोशिश करें. उन्होनें खासतौर पर जहाँआरा से कहा कि “अब्बू आपकी बात कभी नहीं टालेंगे बड़ी आपा.....हमसे वह बहुत नाराज़ हैं. उनसे बात करने की हमारी हिम्मत नहीं हो रही है अब, आप अब्बू से कहियेगा कि हमें माफ कर दें.......हम गलत इंसान नहीं हैं बड़ी आपा, बस नौकरी और काम का दबाव अब पहले से ज़्यादा है, इसलिये ये गलती हुई.” रुखसार और जहाँआरा दोनो ने मिर्ज़ा को इस बात का भरोसा दिया कि वे सैयद साहब को समझा कर नाराज़गी दूर कर देंगी. उसके बाद फिर फरीद, नादिरा, जहाँआरा, और रुखसार ने मिलकर सैयद साहब को समझाया कि मिर्ज़ा से उनके दफ्तर में ज़्यादा काम का दबाव होने की वजह से गलती हो गयी, उनका इरादा कतई गलत नहीं था, और ना ही कभी होगा. और इस तरह बड़े भाई-बहनों के समझाने से सैयद साहब की मिर्ज़ा से नाराज़गी दूर हुई.
इस दरम्यान ही मिर्ज़ा ने अपने घरवालों के आगे, अपने पेट्रोल पम्पों के कारोबार में उतरने का भी खुलासा किया और बताया कि चौधरी अल्ताफ हुसैन के साथ सिक्स्टी-फोर्टी पार्टनरशिप में वह इस बिजनेस में हाथ आज़माने जा रहे हैं. इसे सुनकर सैयद साहब और उनके बाकी तीनों बेटों की आँखें खुली की खुली रह गयीं थीं. वे सभी यह बात सुनकर बेहद हैरान और दंग थे.
इस बीच मिर्ज़ा की तीसरी शादी की खबर उड़ते-उड़ते उनके घर तक भी पहुँच ही गयी. सैयद साहब ने इस पर कुछ भी बोलने से साफ इंकार कर दिया था. वे जानते थे कि कुछ भी बोलने का कोई भी फायदा नहीं है. मिर्ज़ा वही करेंगे जो उनकी मर्ज़ी होगी. कुलसूम तक जब ये खबर पहुँची तो वह गुस्से से पागल हो गयी थी, लेकिन उसको भी मिर्ज़ा ने पेट्रोल पम्प के कारोबार में होने वाले बेशुमार मुनाफे, और दूसरी कारोबारी बारीकियाँ समझा कर, और फिर सूरजगढ़ के अपने शानदार फार्महाउस की सैर करवाकर शांत करा दिया. मिर्ज़ा ने फिर से कुलसूम को यकीन दिला दिया था कि प्यार वह सिर्फ कुलसूम से करते हैं, तीसरी शादी तो कारोबार, और मुस्तकबिल के लिहाज़ से खुद को मज़बूत करने के लिये किया गया महज़ एक सौदा भर है. ज़ीनत तक जब ये खबर पहुँची तो उन्होनें सिर्फ इतना कहा “जैसे दूसरी शादी, वैसे ही तीसरी शादी, और वैसे ही तीसवीं शादी.......क्या फर्क पड़ता है?”
मिर्ज़ा खुद भी अपनी इस तीसरी शादी को, शादी से ज़्यादा एक बिजनेस डील ही समझ रहे थे, उन्होने भी नूर की शर्त मान ली थी और वहीं लखनऊ में ही, हज़रतगंज के पास नूर के लिये एक बेहद खूबसूरत, महँगा और आलीशान फ्लैट खरीद दिया था. नूर और मिर्ज़ा के दरम्यान जज़्बाती जुड़ाव बस इतना ही था जितना बीरबल की खिचड़ी और आग में, इसलिये नूर की इस शर्त पर मिर्ज़ा ने ज़्यादा कुछ सवाल भी नहीं किया था. उन्होनें भी यही सोचा था कि यह मुसीबत सौघरा से जितनी दूर रहे, उतना ही अच्छा होगा, और इस लिहाज़ से नूर की शर्त मिर्ज़ा के लिये मुँहमाँगी मुराद की तरह साबित हुई. शादी के कुछ वक़्त बाद तक नूर का अफज़ल से मिलना-जुलना चलता रहा था, लेकिन धीरे-धीरे दोनों ने अक्लमंदी दिखाते हुए अपनी-अपनी ज़िंदगियाँ हमेशा के लिये अलग कर लीं.
कुछ-कुछ दिनों पर मिर्ज़ा लखनऊ आते-जाते थे, 1-2 दिन रहते थे, एक शौहर के तौर पर अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करते थे और चले जाते थे. नूर भी इस बात को समझती थी, और जितने दिन मिर्ज़ा लखनऊ में रहते थे, उन्हें किसी किस्म की शिकायत का मौका नूर कभी नहीं देती थीं.
कारोबार में भी अब मिर्ज़ा, चौधरी साहब के साथ मिलकर नयी उड़ान भर रहे थे. कहाँ तो चौधरी साहब ने लखनऊ शहर में सिर्फ दो पेट्रोल पम्पों के लिये अर्ज़ी लगायी थी, वह भी दिल्ली में मिनिस्ट्री के दफ्तर में पिछले डेढ़ साल से धूल फाँक रही थी, और कहाँ उन्हें अगले एक साल के अंदर ही सिर्फ लखनऊ शहर में ही चार, कानपुर शहर में दो, और सौघरा में दो पेट्रोल पम्पों, कुल जमा आठ पेट्रोल पम्पों के लिये ज़रूरी लाइसेंस व परमिट मिल चुके थे. इन आठ में चार पेट्रोल पम्पों पर तो पेट्रोल और डीज़ल की डिलिवरी शुरु भी हो गयी थी और बाकी चार पर कंस्ट्रक्शन का काम बड़े ज़ोर-शोर से चल रहा था.
