HARSH TRIPATHI

Drama Classics Thriller

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HARSH TRIPATHI

Drama Classics Thriller

दस्तूर - भाग-14

दस्तूर - भाग-14

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कामचोर आदमी हमेशा कामचोरी ही करता है, चाहे वह दूसरे का काम हो, या फिर उसका खुद का ही।

वक़्त बीतने के साथ-साथ मुराद की पुरानी बुरी, घटिया आदतें, उनके दिमाग पर हावी होती जा रहीं थीं। तख्तापलट के बाद उन्होनें कम्पनी के कामों में काफी मेहनत की थी। वह रोज़ाना दफ्तर समय से आते थे, लगातार स्टाफ और वर्कर्स से मिलते रहते थे, ट्रांसपोर्टर्स और कॉन्ट्रैक्टर्स वगैरह के साथ भी मीटिंगे करते रहते थे। वह स्टाफ की नज़र में खुद को सैयद साहब का सच्चा जानशीन साबित करने की पूरी कोशिश कर रहे थे और उनके दफ्तर में भी लोग उनकी तारीफ करने लगे थे। लेकिन जैसा कि हमेशा होता है, बुरी आदतें मुश्किल से जाती हैं। वक़्त गुज़रने के साथ मुराद के ऐब वापिस आ गये थे। पिछले कुछ वक़्त से वह रोज़ाना दफ्तर भी नहीं आते थे, कभी मन किया तो आये, नहीं मन किया तो नहीं भी आये। अगर कभी ऑफिस आये भी तो सही समय पर नहीं आते थे, जो अगर सही वक़्त पर आते भी थे तो थोड़ी देर इधर-उधर चहलकदमी करके लौट जाते थे। ऑफिस से ज़्यादा वक़्त अब वह अपने यार-दोस्तों के साथ शराब, बेवजह की दावतों, और घूमने-फिरने में बिता रहे थे।

इन सब वजहों से कम्पनी के काम और परफॉरमेंस पर खराब असर पड़ता दिख रहा था। ज़रूरी कागज़ातों, बिलों पर दस्तखत करने में देर हो रही थी। ट्रांसपोर्टर्स, कॉन्ट्रैक्टर्स और होलसेल डिस्ट्रीब्यूटर्स भी परेशान थे क्योंकि कई बार उनकी पेमेंट समय से नहीं हो पाती थी। अगर कोई मीटिंग करके उनके कुछ ज़रूरी मसले हल करने होते थे तो मुराद मौजूद नहीं रहते थे। कम्पनी को होने वाली माल की सप्लाई और बिक्री पर भी इसका बुरा असर हो रहा था। इन सबका बुरा असर कम्पनी को होने वाले मुनाफे पर भी पड़ना लाज़मी था और कम्पनी बाज़ार में पिछड़ रही थी। यह हाल सिर्फ सौघरा यूनिट का ही नहीं था बल्कि सभी यूनिटों पर इसका कम या ज़्यादा असर ज़रूर हो रहा था।

कम्पनी का स्टाफ इसे लेकर खासा परेशान होने लग गया था, और मुराद का ध्यान इस ओर दिलाने की कई बार कोशिश की थी, मगर उनके कान पर जूँ नहीं रेंग रहे थी। स्टाफ की नज़र में अब फिर से मुराद खटकने लगे थे। थक-हारकर कम्पनी के स्टाफ और कारोबार से जुड़े बाकी लोगों ने इसकी शिकायत मिर्ज़ा से करनी शुरु कर दी थी। मिर्ज़ा तक ये सभी बातें पिछले करीब डेढ़ महीने से लगतार पहुँच रहीं थीं।

उधर स्टाफ में मुराद के जासूसों, और चापलूसों ने मुराद तक यह खबर पहुँचानी शुरु कर दी थी कि भले ही कागज़ पर वह कम्पनी के चेयरमैन हों, लेकिन कम्पनी का स्टाफ उन्हें दिल से चेयरमैन नहीं मानता है, और उनकी इज़्ज़त नहीं करता है, बल्कि इसके उलट स्टाफ मिर्ज़ा को ही कम्पनी का असली चेयरमैन समझने लगा है, और उन्हीं की इज़्ज़त करता है। मुराद के लोगों ने उन्हें यह भी खबर दी थी कि स्टाफ के कई सारे लोग कारोबार से जुड़ी मुश्किलें दूर करने के लिये चेयरमैन मुराद से बात करने की बजाय सीधे मिर्ज़ा से ही फोन पर बात करते हैं। होलसेल डिस्ट्रीब्यूटर्स, कॉन्ट्रैक्टर्स, और ट्रांसपोर्टर्स भी मिर्ज़ा के ही सम्पर्क में रहते हैं, और उन्हीं को कर्ता-धर्ता समझते हैं। उन लोगों ने मुराद को बताया कि मुराद की पहचान स्टाफ और कारोबार से जुड़े लोगों की नज़रों में कमज़ोर होती जा रही है, और इसको सुधारने के लिये मुराद को सख्त कदम उठाने पड़ेंगे। इन लोगों ने मुराद को राय दी कि कुछ ऐसा किया जाये जिससे दुनिया को यह पता चले कि कम्पनी के चेयरमैन मुराद हैं, मिर्ज़ा हैदर नहीं, और कोई भी कड़ा फैसला लेने के लिये चेयरमैन मुराद को मिर्ज़ा से, या किसी से भी कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं है।

अब मुराद ने अपने चारों ओर नज़रें दौड़ायी कि वह कहाँ पर, और कौन सा कड़ा फैसला ले सकते हैं जो चेयरमैन के तौर पर उनकी ताक़त को बयान कर सके और दुनिया के आगे उनकी पहचान को पुख्ता कर सके। अपने सिपहसालारों के साथ सारी गुणा-गणित करने पर मुराद को एक आसान शिकार नज़र आया – कानपुर यूनिट का इंचार्ज और कस्तूरिया जी का बेटा हमीर – जिस पर मुराद ने 'बिलो-परफॉरमेंस' का इल्ज़ाम लगाते हुए उसे यूनिट इंचार्ज के पद से बर्खास्त कर दिया था, और अपने एक खास आदमी को वहाँ यूनिट इंचार्ज बनाकर भेज दिया था। इस बात से हमीर को जो नाराज़गी हुई, वह तो अपनी जगह थी, अलबत्ता कस्तूरिया जी ज़रूर गुस्से से भड़क उठे थे "हमीर को इंचार्ज के ओहदे से क्यों बर्खास्त कर दिया ?.....कानपुर की यूनिट तो अच्छा काम कर रही थी. वहाँ ऐसी कोई खराबी नहीं हो रही थी कि हमीर के ऊपर बिलो-परफॉरमेंस' का इल्ज़ाम लगाया जाये, फिर कैसे हटा दिया उसे ?" अपने मन में यह बातें सोचकर कस्तूरिया जी ने तुरंत मुराद को फोन घुमा दिया। करीब 3 दिन तक कस्तूरिया जी कोशिश करते रहे लेकिन मुराद से बात न हो पायी थी। मुराद पिछले 3 दिन से दफ्तर से गायब थे। परेशान होकर कस्तूरिया जी ने मिर्ज़ा को फोन लगाया। मिर्ज़ा ने फोन उठाया "हैलो ?"

"मिर्ज़ा मैं बोल रहा हूँ जयपुर से, नमस्ते मिर्ज़ा साहब!"

"नमस्कार कस्तूरिया जी, कहिये कैसे याद किया ?"

"एक मसला हो गया है, शायद आपको खबर भी होगी।" कस्तूरिया जी ने सीधे मुद्दे की बात की।

"क्या हुआ ?.....ऐसी भी क्या खबर है ?" मिर्ज़ा ने पूछा।

"हमीर को कानपुर यूनिट के इंचार्ज के पद से बर्खास्त कर दिया है मुराद ने , और किसी यूसुफ को इंचार्ज बनाकर भेजा है वहाँ ?" कस्तूरिया जी ने गुस्से से कहा।

"क्या? कब हुआ ये ?" मिर्ज़ा चौंक गये।

"चार दिन हुए इस बात को।" कस्तूरिया जी की आवाज़ मे तल्खी साफ नुमाया हो रहे थी।

"कस्तूरिया जी, मुझे कुछ भी पता नहीं है इस बारे में....मुराद से पिछले दिनों बात भी हुई है मेरी लेकिन बताया नहीं उन्होनें ऐसा कुछ भी ?" मिर्ज़ा ने कहा।

"क्या ? ऐसे कैसे हो सकता है ? बिना आपके पूछे वह कैसे कुछ कर सकते हैं ?....इतना दिमाग तो है भी नहीं उनको!" कस्तूरिया जी ने चिढ़ कर कहा।

"मैं सच कह रहा हूँ कस्तूरिया जी, मुझे कुछ भी नहीं पता।" मिर्ज़ा ने सफाई देनी चाही।

"अगर आपको नहीं पता है, फिर तो और भी चिंता की बात है मिर्ज़ा साहब।" कस्तूरिया जी ने सख्त लहज़े मे शिकायत की।

"लेकिन किया क्यों ऐसा उन्होने ?" मिर्ज़ा ने पूछा।

"अब ये तो वही जानें………हमीर को उन्होने 'बिलो-परफॉरमेंस' का नोटिस दिया है।"

"क्या ?....बिलो-परफॉरमेंस ?, अरे लेकिन कानपुर यूनिट तो अच्छा काम कर रही थी, वहाँ से रिपोर्ट भी अच्छी आ रही थी!!...हमीर अच्छा चला ले रहे थे उसको, फिर किस बात की 'बिलो-परफॉरमेंस ?" मिर्ज़ा को इस बात से फिर ताज्जुब हुआ कि हमीर पर 'बिलो-परफॉरमेंस' का इल्ज़ाम लगाया गया है।

"पता नहीं, आप ज़रा बात कीजियेगा मुराद से. भागते घोड़े को चाबुक मारने की क्या ज़रूरत है ?.......ये कारोबार का उसूल थोड़ी है ?" कस्तूरिया जी बोले।

"जी, जी...मैं देखता हूँ इसको.....आप फिक्र न करें।" मिर्ज़ा ने कहा।

"इसको देखियेगा ज़रूर मिर्ज़ा" फिर फोन पर भुनभुनाते हुए कस्तूरिया जी ने कहा "रामचंद्र कह गये सिया से, ऐसा कलियुग आयेगा; हंस चुगेगा दाना-दुनका, कौवा मोती आयेगा.....इस आदमी की खुद की परफॉरमेंस कैसी है जो ये दूसरों को 'बिलो-परफॉरमेंस' का नोटिस दे रहा है ?........एक नम्बर का दारूबाज़ है!!..... ये ऑफिस भी नहीं जाता है"

मिर्ज़ा सुन रहे थे।

"......3 दिन से इसको फोन मिला रहा हूँ, जब नहीं मिला तब जाकर आपको किया है फोन.....अरे इनकी सौघरा यूनिट की ही परफॉरमेंस खराब हो रही है,……और जो आदमी अच्छा काम कर रहा है, उसको ये 'बिलो-परफॉरमेंस' का नोटिस थमा रहे हैं।" कस्तूरिया जी काफी नाराज़गी भरे लहज़े में लग रहे थे।

"नहीं, नहीं, कस्तूरिया जी! ऐसी कोई बात नहीं है। मैं देखता हूँ इसको, भरोसा रखें आप, किसी के साथ नाइंसाफी नहीं होगी।" मिर्ज़ा ने उन्हें शांत करने की कोशिश की।

फिर कस्तूरिया जी ने फोन नीचे रख दिया।

सौघरा में एक कोई बड़ा चैरिटेबल ट्रस्ट शहर के हसन मोहम्मद डिग्री कॉलेज में 2 दिन के उलेमा सम्मेलन का आयोजन कर रहा था और इसी में भाग लेने के लिये मिर्ज़ा सौघरा आये हुए थे। सौघरा आने पर उनको पता चला कि मुराद की तबियत पिछले कुछ समय से ठीक नहीं चल रही है। उन्हें खून की उल्टियाँ हो रही थीं, और खाना भी वह ठीक ढंग से नहीं खा पा रहे थे। नवजीवन अस्पताल में उन्होनें टी.बी. का टेस्ट कराया था लेकिन वह टेस्ट निगेटिव आया था। अब उन्होनें मिर्ज़ा से कहा था कि वह उन्हें सौघरा मेडिकल कॉलेज में किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा दें। मिर्ज़ा फिर उन्हें लेकर मेडिकल कॉलेज पहुँचे थे, जहाँ मुराद के लिये पहले 7-8 टेस्ट लिखे गये। इन टेस्ट्स को करवाने और इनकी रिपोर्ट लेने में पूरा दिन निकल गया था। कुछ ही टेस्ट्स की रिपोर्ट मिल पायी थी, बाकी की नहीं मिली। डॉक्टर ने उन्हें अगले दिन फिर बुलाया था जिससे बाकी बची रिपोर्टें भी मिल जायें, और फिर उन सभी टेस्ट की रिपोर्ट्स के नतीजों पर डॉक्टर से तफ्सील से बात की जा सके। मिर्ज़ा ने मुराद को कहा कि अगले दिन मुराद को आने की ज़रूरत नहीं है, और मिर्ज़ा खुद आकर ही रिपोर्ट्स ले लेंगे और डॉक्टरों से बात भी कर लेंगे।

अगले दिन मिर्ज़ा उलेमा सम्मेलन में भाग लेने हसन मोहम्मद डिग्री कॉलेज पहुँचे। वहाँ उलेमा और ईमामों ने उनकी अच्छी-खासी आवभगत की। उन्हें कुछ चुनिंदा वी.आई.पी. लोगों के साथ, बाकायदा स्टेज पर बैठने के लिये जगह दी गयी। मंच संचालक ने वहाँ मौजूद हज़ारों लोगों की भीड़ से मिर्ज़ा का तारूफ ऊँची आवाज़ में कुछ यूँ करवाया ".....और यहाँ मौजूद खवातीन-ओ-हज़रात!!, हमें आपको यह बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि हमारे बीच आज यहाँ इंतज़ामियत के बेहद सीनियर आई.ए.एस. अफसर, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया की होम मिनिस्ट्री के डिप्टी सेक्रेटरी, हमारी मुसलमान कौम की आन-बान और शान, आशिक़-ए-रसूल, बेहद ज़हीन और बुलंद शख्सियत के मालिक, जनाब मिर्ज़ा हैदर बेग मौजूद हैं......हम दिल की गहराईयों से जनाब का खैर-मकदम करते हैं कि आप यहाँ तशरीफ लाये।जनाब के आने से हमारी महफिल में चार चाँद लग गये हैं……हम सभी को जनाब से यह सबक ज़रूर लेना चाहिये, कि इंसान चाहे जितने ऊँचे मुक़ाम पर पहुँच जाये, उसे अपनी बुनियाद, अपनी क़ौम, अपना दीन ज़रूर याद रखना चाहिये और उस से मोहब्बत करनी चाहिये. जनाब के बारे में क्या कहें ?......जितना कहा जाये, उतना ही कम है.......एक तरफ जनाब के अपने सगे भाई फरीद अली बेग हैं, जिन का काम हमेशा इस्लाम के खिलाफ रहा है और जिनके खिलाफ शहर की इतनी सारी मस्जिदों ने फतवा जारी किया है, और न सिर्फ फतवा, बल्कि दिल्ली की कमेटी में मुकदमा तक दायर किया है और उन्हें इस्लाम से खारिज करने की माँग तक की है. दूसरी ओर हमारे हुज़ूर, हमारे जनाब हैं जिन्होने अपने भाई की इस घटिया हरकत के बावजूद परचम-ए-इस्लाम बुलंद रखा है.....कितनी ही मस्जिदों, कितने ही मदरसों की हुज़ूर ने मदद की है, ताकि हमारा इस्लाम हमेशा ही आसमान की बुलंदियों को छूता रहे.......ऐसे जनाब मिर्ज़ा हैदर का हम इस जलसे में पुरजोश इस्तक़बाल करते हैं, और हमारी सिर्फ एक दरख्वास्त पर आप दिल्ली से यहाँ तक आये, और इस जलसे में आपने शिरक़त की, इसके लिये हम सब आपके शुक्रगुज़ार हैं." और फिर तालियों की तूफानी गड़गड़ाहट से पूरा कॉलेज ग्राउंड गूज उठा।

कलफ दिया हुआ, झक सफेद पठानी सूट पहने और काले-सफेद रंग का काफिया कंधों पर डाले, मखमल की ऊँची टोपी लगाये मिर्ज़ा हैदर, तालियों की इस गड़ग़ड़ाहट के बीच, मुस्कुराते हुए अपनी कुर्सी से खड़े हुए और हाथ जोड़कर सबकी बधाइयाँ कुबूल की। फिर वह अपनी बात कहने माइक के पास आये। अभी भी तालियों का ज़ोर कम नहीं हुआ था, लिहाज़ा वह थोड़ी देर खड़े रहे।

तालियाँ थम जाने पर मिर्ज़ा ने अपनी वज़नदार आवाज़ में कहा "बिस्मिल्ला हिर रहमान हिर रहीम" और एक दफा फिर से ज़बरदस्त तालियाँ बजने लगीं थीं। मिर्ज़ा खामोशी से मुस्कुरा रहे थे। फिर जब तालियाँ थमी तो मिर्ज़ा ने ज़ोर से दोनों हाथ उठाकर कहा "नारा-ए-तक़बीर!!!......" सामने खड़ी हज़ारों की भीड़ ने भी दोनों हाथ उठाकर ज़ोरदार ढंग से जवाब दिया ".....अल्लाह-हो-अक़बर!!!!" अब फिर से कान फाड़ देने वाली तालियाँ बज रही थीं, और मिर्ज़ा फिर से मुसकुराते हुए लोगों के उस हुज़ूम को देख रहे थे।

करीब 15-20 मिनट की अपनी तक़रीर पूरी खत्म करते हुए मिर्ज़ा ने आखिर में उस ट्रस्ट को ज़कात के तौर पर डेढ़ लाख रुपये देने का ऐलान किया और यह भी कहा कि ट्रस्ट को आगे भी अगर किसी भी तरह की मदद की ज़रूरत हुई, तो मिर्ज़ा बेझिझक मदद करेंगे। मिर्ज़ा की तक़रीर खत्म होने के बाद बहुत देर तक तालियाँ बजती रही, और मंच संचालक को बार-बार तालियाँ रोकने की अपील करनी पड़ी थी। मिर्ज़ा यह देखकर समझ गये थे, कि उनकी वह ज़मीन तैयार हो रही है, जिसके लिये वह इतने अर्से से मुंतज़िर थे।

जलसे से वापसी के वक़्त मिर्ज़ा मेडिकल कॉलेज गये और मुराद की सभी रिपोर्टें लीं, और डॉक्टरों से लम्बी बात भी की। डॉक्टरों का साफ कहना था, कि लगातार बहुत ज़्यादा शराब पीने की वजह से मुराद का लीवर खराब हो गया है, और किडनी पर भी बुरा असर हुआ है। डॉक्टर ने गम्भीर होकर मिर्ज़ा को समझाते हुए कहा "इट इज़ सीरियस!.....एंड इट कुड प्रूव फैटल.......आप लोगों को उन पर ध्यान देने की ज़रूरत है।"

मिर्ज़ा गौर से सुन रहे थे।

".....और बात केवल यह नहीं है कि केवल शराब पीने से ही लीवर और किडनी इतना ज़्यादा डैमेज हुआ हो....... शराब तो वैसे काफी लोग पीते हैं, लेकिन ज़्यादा सीरियस बात यह है कि वह ज़रूर कोई नशीली दवा, कोई ज़हरीला ड्रग्स या फिर ज़्यादा नींद की गोलियाँ लेते हैं.....ये बात टेस्ट्स में हमें बहुत साफ नज़र आयी है,………और रिपोर्ट में भी इसका ज़िक्र है। इनके खून में उन नशीली दवाओं, और ड्रग्स का लेवल बहुत ज़्यादा है। मुझे नहीं पता, कि आप लोगों को मालूम है या नहीं।"

यह सुनकर मिर्ज़ा परेशान हो गये थे। उन्होने कहा "शराब वाली बात तो हम जानते थे डॉक्टर साहब, ....लेकिन ये बात जो आपने बताई है, इस बात से तो हम लोग कतई अनजान थे।"

"अब जो भी है, आप को इन पर नज़र रखनी होगी......इनकी शराब पूरी तरह से बंद करें, और ध्यान रखें कि नशीली दवायें, नींद की गोलियाँ, या ऐसे किसी ज़हरीले ड्रग्स तक इनकी पहुँच न होने पाये।"

"जी डॉक्टर साहब।"

घर वपिस आकर, नहा-धो कर और कपड़े बदल कर मिर्ज़ा, मुराद के कमरे के बाहर पहुँचे और दरवाज़ा खुला देख कर भी पहले दस्तक दी। अंदर से मुराद ने कहा "आ जाइये, खुला है दरवाज़ा।" मिर्ज़ा कमरे में दाखिल हुए तो देखा कि मुराद बिस्तर पर लेटे हुए हैं। मुराद ने मिर्ज़ा को देखा तो उठ कर बैठ गये। मिर्ज़ा को देखकर उन्हें खुशी नहीं हुई थी लेकिन अपने दिल की बात उन्होने चेहरे पर नहीं आने दी। उन्होने मुस्कुराकर कहा "अरे भाईजान, आप यहाँ ?....मुझे बुलवा लिया होता, तो मैं ही आ जाता आपके पास।"

"नहीं, नहीं, मैंने सोचा कि मैं ही मिल लूँ आपसे।" मिर्ज़ा ने हँस कर कहा।

"कहिये भाईजान।"

"मुराद, दरअसल एक मसला हो गया है. कुछ दिन पहले, कस्तूरिया जी का फोन आया था मुझे।" मिर्ज़ा ने बताया।

 पहले से ही नाराज़ बैठे मुराद, यह सुनकर और ज़्यादा चिढ़ गये थे। वह सोच रहे थे "कस्तूरिया जी ने इसको फोन क्यों किया ? ये हैं कौन ?.......मालिक मैं हूँ, और फोन इनके पास क्यों जाता है ?" मगर मुराद ने कुछ कहा नहीं।

उनके चेहरे पर आया खिंचाव साफ दिख रहा था, और उन्होनें तल्खी भरे अंदाज़ में कहा "किया होगा उन्होनें आपके पास फोन.....अब मुझसे तो दाल गलेगी नहीं उनकी।"

"अरे लेकिन हमीर को बर्खास्त क्यों कर दिया आपने ?" मिर्ज़ा ने पूछा।

"और क्या करते हम ?उनकी यूनिट का परफॉरमेंस गिरता जा रहा था हफ्ते-दर-हफ्ते......और बार-बार कहने के बाद भी हमीर हमारी बात नहीं सुन रहे थे, और ठोस कदम नहीं उठा रहे थे। हमारे पास और कोई रास्ता नहीं था।"

"मैंने तो सुना था कि कानपुर यूनिट बढ़िया परफॉरमेंस कर रही है. अब मार्केट में कम्पटीशन बढ़ गया है मुराद......कुछ तो फर्क पड़ता ही है इसका...... पिछले दो हफ्ते से तो हमारी दिल्ली यूनिट की सेल्स भी कुछ नीचे आयी है......अब ये तो बिजनेस है, थोड़ा-बहुत उन्नीस-बीस होता ही है।" मिर्ज़ा ने कहा।

"आपकी यूनिट आप देखिये भाईजान!!........अपनी यूनिट के काम में ढिलाई मैं कतई बर्दाश्त नहीं करूँगा।" मुराद ने सख्ती से कहा।

मिर्ज़ा उन्हें देख रहे थे।

"और दोबारा आपके पास उनका फोन आये तो कह दीजियेगा कि सीधे चेयरमैन से, यानि मुझसे बात करें।" मुराद ने थोड़ा सा अकड़ कर कहा।

मिर्ज़ा बहुत हल्का सा मुस्कुराये, फिर 'खुदा हाफिज़' कहकर कमरे से बाहर निकल गये।

अब तक ये बात आम हो चुकी थी कि क़ाशनी साहब और डॉ. ज़ुल्फिक़ार, फरीद को बचाने की पुरज़ोर जद्दोजहद कर रहे थे। क़ाशनी साहब के रुतबे और बुलंद शख्सियत की वजह से कोई न तो उनसे सवाल पूछ सकता था, न ही उनका विरोध कर सकता था।

ऐसे ही एक शाम करीब 5 बजे एक गाड़ी क़ाशनी साहब के घर के बाहर आकर रुकी। गाड़ी में से सफेद रंग का सफारी सूट पहने मिर्ज़ा उतरे और गाड़ी को वापिस जाने के लिये कह दिया। गाड़ी के जाने के बाद मिर्ज़ा गेट खोलकर क़ाशनी साहब के घर में दाखिल हुए और बरामदे में पहुँचकर दरवाज़े पर दस्तक दी। अनीसा ने दरवाज़ा खोला "जी, बतायें।"

"क़ाशनी साहब घर पर हैं ?" मिर्ज़ा ने पूछा।

"जी हैं, आप कौन ?"

"उनसे कहिये कि मिर्ज़ा हैदर बेग़ आये हैं और हुज़ूर से मिलना चाहते हैं।"

"जी बहुत अच्छे, आप अंदर आइये और यहाँ बैठ कर इंतज़ार कीजिये।" अनीसा ने मिर्ज़ा को बैठक में सोफे पर बैठने को कहा, और फिर खुद अंदर चली गयी।

मिर्ज़ा सोफे पर बैठे दीवारों पर लगी क़ाशनी साहब और उनके परिवार की तस्वीरें, देश-दुनिया के कई सारे अवार्डों के फ्रेम किये हुए सर्टिफिकेट, और सामने की दीवार पर एक बड़ी सी शीशे की कैबिनेट में रखे कई सारे मेडल, ट्रॉफियां, और मशहूर हस्तियों के साथ क़ाशनी साहब की तस्वीरें देख रहे थे। कमरे की एक दूसरी दीवार पर एक और काफी बड़ी शीशे की कैबिनेट थी, जो हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू ज़बानों में लिखी किताबों से भरी हुई थी। कमरे में ही एक दूसरे कोने पर लकड़ी की एक और ऊँची सी आलमारी रखे हुई थी, और उसमें भी ऊपर से नीचे तक, काफी सारी किताबें करीने से लगाकर रखी हुई थीं। 

इन सब को देखते-देखते मिर्ज़ा की नज़र दीवार पर लगी एक खास ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर पर जाकर टिक गयी। मिर्ज़ा सोफे पर से उठे और उस तस्वीर के पास पहुँच कर उसे किसी नन्हे बच्चे की तरह गौर से देखने लगे। उस ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर के बिल्कुल नीचे बहुत छोटे अक्षरों में एक तारीख लिखी थी, 20-06-1955. यह तारीख मिर्ज़ा की ज़िंदगी की सबसे बड़ी तारीख थी। इसी दिन, आज से करीब 25 साल पहले आई.सी.एस. के इम्तेहान का रिज़ल्ट आया था, और मिर्ज़ा ने उसमें शानदार कामयाबी हासिल की थी। दोपहर में रिज़ल्ट आने के तुरंत बाद मिर्ज़ा खुशी से पागल होकर भागते हुए सीधे अपने सौघरा कॉलेज के उर्दू डिपार्टमेंट में पहुँचे थे और क़ाशनी साहब से लिपट कर रोने लगे थे। इतनी बड़ी खुशी मिर्ज़ा से सम्भाले नहीं सम्भल रही थी। यह तस्वीर क़ाशनी साहब और मिर्ज़ा की थी जिसमें हँसते हुए क़ाशनी साहब, मुस्कुराते हुए मिर्ज़ा के कंधे पर हाथ रखे हुए थे। किसी दूसरे अध्यापक ने यह फोटो उस वक़्त खींची थी।

मिर्ज़ा फोटो देखने में ही मशगूल थे, कि एक खरज़दार आवाज़ ने उन्हें यादों के समंदर से बाहर निकाला "क्या देख रहे हैं मिर्ज़ा ?....ये आप ही तो हैं।" मिर्ज़ा ने पीछे मुड़ कर देखा तो क़ाशनी साहब खड़े थे अपने जाने-पहचाने खद्दर के कुते और पायजामे में, मगर उनके चेहरे पर हमेशा रहने वाली मुस्कान नहीं थी। उनके चेहरे पर एक अजीब किस्म का खिंचाव था। चश्मों के पीछे से झाँकती आँखे मानो आग बरसा रही हों।

मिर्ज़ा उनके पास पहुँचे और बड़े अदब से झुक कर उनके पैर छुए। फिर दोनों हाथ जोड़कर बोले "अस्सलाम वालेकुम जनाब।" मिर्ज़ा हाथ जोड़े अपने उस्ताद के आगे खड़े थे, और दोनों एक-दूसरे की आँखों में देख रहे थे। क़ाशनी साहब ने कहा "वालेकुम अस्सलाम मिर्ज़ा!" और फिर सोफे की ओर इशारा करके कहा "आइये, तशरीफ रखिये।"

उस्ताद और शागिर्द दोनों सोफे पर बैठ गये। क़ाशनी साहब ने कुछ सख्त निगाहों से मिर्ज़ा को देखते हुए पूछा "आज इधर कैसे आना हुआ मिर्ज़ा ?"

मिर्ज़ा ने कहा "बस किसी तरह बड़ी मुश्किल से वक़्त निकालकर सौघरा आ पाये थे जनाब, तो सोचा कि आज आपसे मिलता चलूँ।"

"हम्म्म्म्म......बड़ी मुश्किल से तो सौघरा नहीं आये थे आप।" क़ाशनी साहब ने कहा, फिर अपना चश्मा उतार कर सामने की मेज पर रखते हुए, एक तंज भरी मुस्कान के साथ क़ाशनी साहब बोले "....पिछले काफी वक़्त से आप बराबर सौघरा आ रहे हैं......अब अखबार तो हम भी पढ़ते हैं मिर्ज़ा, हर रोज़।"

मिर्ज़ा चुपचाप उन्हें देख रहे थे।

फिर मिर्ज़ा ने कहा "सौघरा हमारा घर है जनाब. कोई बुलाता है तो हम मना नहीं कर पाते।"

क़ाशनी साहब सुन रहे थे।

मिर्ज़ा बोले "....बहुत प्यार है हमें इस शहर से, यहाँ के लोगों से।"

कुछ पल तक दोनों खामोश रहे।

मिर्ज़ा अपने उस्ताद को देख रहे थे।

इतने में अनीसा चाय ले आयी। कमरे में अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी। अनीसा जब चाय और दालमोठ मेज पर रख रही थी तो कप-प्लेट की आवाज़ें बहुत साफ सुनी जा सकती थीं। उसके अलावा कमरे की छत पर एक बहुत पुराने ज़ंग लगे पंखे के चलने से 'किर्र-किर्र' की ही धीमी-धीमी सी आवाज़ आ रही थी। चाय, दालमोठ मेज पर रखकर अनीसा चली गयी।

मिर्ज़ा ने चाय का कप क़ाशनी साहब को दिया, और फिर खुद भी अपनी चाय उठायी। फिर क़ाशनी साहब ने चाय पीते हुए कहा "यहाँ के लोगों से जितना प्यार करते हैं, थोड़ा अपने घर के लोगों से भी किया कीजिये।"

चाय की चुस्की लेते हुए मिर्ज़ा क़ाशनी साहब की ओर देख रहे थे। आज मिर्ज़ा का सामना वाकई उस्ताद से था।

मिर्ज़ा ने मेज की ओर देखते हुए कहा "घरवालों से तो जान से भी ज़्यादा प्यार करते हैं जनाब....मगर ऐसा लगता है कि शायद उन्हें ही हमारी कदर नहीं है।" वह फिर से अपने उस्ताद को देखने लगे।

क़ाशनी साहब उन्हें देखते हुए बोले "हम्म्म्म्म.....सच में बहुत प्यार करते हैं आप अपने घर वालों से।" और चाय का घूँट पिया। फिर बोले ".....तभी आज आपका बड़ा भाई मारा-मारा फिर रहा है।"

चाय का कप मेज पर रखते हुए मिर्ज़ा बोले "डार्विन की थ्यौरी के बारे में तो पढ़ा ही होगा आपने जनाब" वह फिर क़ाशनी साहब की ओर देखने लगे।

क़ाशनी साहब चुप थे।

"....सरवाइवल ऑफ दि फिटेस्ट." मिर्ज़ा ने उन्हें देखते हुए कहा।

"जंगल का नियम है वह मिर्ज़ा." कुछ पल चुप रहने के बाद क़ाशनी साहब सख्ती से बोले।

"क्या ये दुनिया किसी जंगल से कम है जनाब ?"

"इंसान होते हैं यहाँ......रिश्ते और जज़्बात होते हैं उनके बीच।" काशनी साहब ने अपनी चाय खत्म की और कप मेज पर रखते हुए बोले।

मिर्ज़ा अभी खामोशी से चाय पी रहे थे और क़ाशनी साहब को देख रहे थे।

"हमने आपको यह तालीम नहीं दी थी मिर्ज़ा." क़ाशनी साहब ने कहा। उनके चेहरे पर खिंचाव और आँखों में नाखुशी साफ दिख रही थी।

मिर्ज़ा ने चाय खत्म करके कप मेज पर रखा और सोफे पर आराम से बैठ कर एक पैर को दूसरे पैर के घुटने पर कैंची की शक्ल में रखते हुए पूछा "आप एक नाकाबिल और कमज़र्फ आदमी का साथ क्यों दे रहे हैं ?" वह क़ाशनी साहब की आँखों में झाँक रहे थे।

क़ाशनी साहब भी उन्हें देख रहे थे और खामोश थे। इस खामोशी को तोड़ते हुए उन्होनें जवाब दिया "क्योंकि वह आदमी सही है……और जो सही है, वह कभी नाकाबिल और कमज़र्फ नहीं हो सकता है।"

"आप खूब जानते हैं कि वह कितने काबिल हैं।"

"और हम ये भी देख रहे हैं कि आप कितने बड़े सूरमा हैं।"

"दर्जन भर मस्जिदों ने फतवा निकाला है जनाब!"

मिर्ज़ा की बात को काटते हुए क़ाशनी साहब ने कहा –

"ज़ुल्म की बात को, जहल की रात को; मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता।"

वह अभी भी मिर्ज़ा की ओर देख रहे थे। कमरे में फिर से एक खामोशी दहाड़ें मार रही थी।

मिर्ज़ा ने फिर कुछ नरमी से कहा "मैं चाहता हूँ कि आप उनका साथ न दें जनाब।"

"क्यों न दूँ ?....मेरा दिल जिसका साथ देने का करेगा, मैं दूँगा।"

"लेकिन जनाब, जिस तरह आज तमाम लोग फरीद भाई के बारे में भला-बुरा कह रहे हैं, दस तरह की बातें बोल रहे हैं....हम नहीं चाहते कि वे लोग आपके बारे में भी वैसे ही बोलें....आप सौघरा की शान हैं जनाब ! लोग आपका कितना ज़्यादा ऐहतराम करते हैं, आपकी कितनी बातें मानते हैं, ऐसे में आप क्यों चाहते हैं कि आप उन बेवकूफ लोगों के निशान पर रहें ?"

क़ाशनी साहब मिर्ज़ा की बात सुन रहे थे।

"....और वो भी किसके लिये जनाब ?....उसके लिये जो खुद अपने दीन का न हुआ ?.....अपने अल्लाह का न हुआ ?....अपने सगे भाईयों का न हुआ ?"

लम्बी साँस छोड़ते हुए क़ाशनी साहब ने कहा "मैने कहा न आपसे मिर्ज़ा……मेरा दिल जिसका साथ देने का करेगा, मैं दूँगा।"

दोनों एक दूसरे को देख रहे थे।

"...और रही दीन और अल्लाह की बात, तो वो सब बातें आप मुझसे ना ही करें, तो अच्छा होगा।"

मिर्ज़ा उन्हें देख रहे थे।

"ऐसे दस्तूर को, सुबह-ए-बेनूर को; मैं नहीं जानता, मैं नहीं मानता।" क़ाशनी साहब बोले।

मिर्ज़ा धीरे से सोफे पर से खड़े हुए। क़ाशनी साहब भी खड़े हो गये थे।

मिर्ज़ा उनके करीब आ कर खड़े हो गये। दोनों की निगाहें टकरा रहीं थीं और कोई भी पलकें झपकाने को तैयार नहीं था। खामोशी एक बार फिर से कमरे में शोर मचा रही थी।

मिर्ज़ा ने क़ाशनी साहब के कुर्ते की जेब में लगे पेन की ओर इशारा करते हुए मुस्कुरा कर कहा "क़ाशनी साहब, आपकी जेब में टँके, मेटल के इस 10 ग्राम के बॉलपेन की कीमत कितनी होगी ?"

क़ाशनी साहब ने अपनी पेन को देखा फिर मिर्ज़ा को देखते हुए अपने होठों के किनारे पर हल्की सी मुस्कान के साथ कहा "बहुत ज़्यादा है....वो कीमत आप दे नहीं पायेंगे मिर्ज़ा।"

"कीमत तो हर चीज़ की होती है जनाब!....इस पेन की भी होगी ही।" मिर्ज़ा ने क़ाशनी साहब की आँखों मे देखते हुए कहा।

"ये हशमत क़ाशनी की कलम है मिर्ज़ा.....कोई मस्जिद का मौलवी या ईमाम नहीं।" क़ाशनी साहब ने मुस्कुरा कर कहा।

मिर्ज़ा नाराज़ दिख रहे थे।

"निसार मैं तेरी गलियों पर ऐ वतन कि जहाँ,

चली है रस्म कि कोई न सिर उठा के चले।"

क़ाशनी साहब ने हँसकर कहा।

मिर्ज़ा अभी भी नाखुश थे। फिर मिर्ज़ा ने झुककर कहा "खुदा हाफिज़ जनाब।" और यह कहकर मिर्ज़ा जाने के लिये पीछे मुड़े।

अचानक उन्हें कुछ याद आया और वह रुक गये। फिर क़ाशनी साहब की ओर पीठ किये हुए ही मिर्ज़ा बोले "जनाब!!.....किसने कहा आपसे कि फरीद भाईजान मारे-मारे फिर रहे हैं ?हमारे बड़े भाई हमारे साथ महफूज़ हैं, हमारे फार्महाउस पर।"

फिर मिर्ज़ा धीमे कदमों से कमरे से बाहर चले गये। 

दिल्ली पहुँचकर मिर्ज़ा ने कस्तूरिया जी को फोन किया और कहा "कस्तूरिया जी, हमने काफी कोशिश की मुराद को समझाने की, मगर पता नहीं क्यों, वह टस-से-मस नहीं हो रहे हैं, और हमीर को हटाने के अपने फैसले पर कायम है।"

कस्तूरिया जी ने गुस्से में कहा "मिर्ज़ा साहब, हमारे यहाँ कहते हैं कि जब घोड़ी के पाँव में नाल ठुकती है न……तो तालाब की मेढ़की भी पाँव उठा देती है।"

मिर्ज़ा सुन रहे थे।

"एक नालायक आदमी को आपने गद्दी पर बिठा दिया है। अब ये तो होना ही था!!.....कम्पनी को काट के बैठा देगा ये सुअर!" फिर चिढ़ कर कस्तूरिया जी ने फोन नीचे रख दिया।

फिर उसके बाद मिर्ज़ा ने हमीर को ही फोन मिला दिया. हमीर, अपने घर सौघरा वापिस आ गया था। उसने फोन उठाया "हैलो ?"

"हैलो, हमीर बेटे, मैं मिर्ज़ा हैदर बोल रहा हूँ दिल्ली से।"

"जी मिर्ज़ा भाई, प्रणाम।"

"खूब खुश रहिये बेटा, और कैसे हैं आप ?

बे-मन से हमीर ने कहा "ठीक ही हूँ।" मिर्ज़ा ने हमीर की आवाज़ में उसकी तकलीफ महसूस कर ली थी।

मिर्ज़ा ने कहा "नहीं बेटा, मायूस न होइये। ये अच्छा नहीं है। हमें आपकी ज़रूरत है हमीर बेटे।"

"कैसे मायूस न हों मिर्ज़ा भाई ?....कितना गलत हुआ हमारे साथ ?" उदास हमीर ने कहा।

"कोई बात नहीं बेटे, वक़्त कभी-कभी बुरा भी आ जाता है।"

हमीर चुप था।

"....हमने बात की थी मुराद से, मगर वह अपनी ज़िद पर कायम हैं कि आपकी 'बिलो-परफॉरमेंस' है और इसलिये आपको बर्खास्त किया है।"

"बिल्कुल झूठ बोल रहे हैं वो!!......उनकी है 'बिलो-परफॉर्मेंस'!!" झल्ला कर हमीर ने कहा।

मिर्ज़ा चुप थे, और अब हमीर भी खामोश था। उसकी साँसे कुछ तेज़ चलती सुनी जा सकती थीं।

"......तो अब आगे क्या करोगे बेटे ?" मिर्ज़ा ने पूछा।

हमीर के पास जवाब नहीं था।

"देखो, नाइंसाफी करने वाला तो गुनहगार होता ही है, नाइंसाफी सहने वाला उस से ज़्यादा गुनहगार होता है।" मिर्ज़ा ने कहा।

"जी।"

"......तो सुनो बेटे, आप कस्तूरिया जी के साथ जाओ, और मुराद को बताओ कि आपकी बिल्कुल भी गलती नहीं है और आपकी निगरानी में यूनिट बहुत अच्छा काम कर रही थी। अपनी बात रखिये आप लोग उनके आगे..........अपनी बात जो बिल्कुल वाजिब है, और सही है, उसे सभी के सामने ज़रूर रखा जाना चाहिये।" मिर्ज़ा ने कहा।

हमीर ने मिर्ज़ा से बात की, और फिर अपने पिता जी के साथ मुराद से मिलने का फैसला किया। कस्तूरिया जी भी अगले हफ्ते जयपुर से सौघरा आने वाले थे, और वह भी मुराद से मिलकर इसी बारे में बात करना चाह रहे थे।

तय दिन पर सुबह 11 बजे, कस्तूरिया साहब और बेटा हमीर, दोनों ही कम्पनी के सौघरा वाली यूनिट के दफ्तर पहुँचे। उस वक़्त अपने चैम्बर में मुराद काम कर रहे थे और दो सीनियर मैनेजरों के साथ किसी मामले पर बात कर रहे थे। उसी समय कस्तूरिया जी और हमीर उंनके चैम्बर में दाखिल हुए। मिर्ज़ा ने उन्हें सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। दोनों मैनेजरों की लायी फाईलों पर दस्तखत करने के बाद, जब वे दोनों कमरे से बाहर निकल गये, तब मुराद ने सख्त लहज़े में बाप-बेटे से कहा "कहिये, कैसे आना हुआ ?"

कस्तूरिया जी ने कहा "मुराद, देखिये...."

वह अपनी बात शुरु भी न कर पाये थे कि मुराद ने उन्हें टोका "रुकिये, कस्तूरिया जी।"

कस्तूरिया जी चुप हो गये थे।

"...ये दफ्तर है हमारा कस्तूरिया जी, घर नहीं। 'सर' कहकर बुलाइये हमें यहाँ।"

यह सुनकर कस्तूरिया जी और हमीर हैरान रह गये और मुराद की ओर देखने लगे।

फिर कस्तूरिया जी ने झिझकते हुए कहा "जी, ठीक है, मुराद सर!.....मतलब………सर!....आपने हमीर पर जो कार्रवाई की है, और जो 'बिलो-परफॉरमेंस' का नोटिस दिया है.....हम चाहते हैं कि आप उसे दोबारा कंसीडर करें।"

"क्यों ?" मुराद अपने सामने रखे कागज़ातों की जाँच कर रहे थे, और कस्तूरिया जी को बिना देखे पूछा "....क्यों करें दोबारा कंसीडर ?"

 "शायद आपको गलत जानकारी मिली है मुराद………सॉरी.....मतलब.....सर!...... कानपुर यूनिट बहुत अच्छा काम कर रही थी हमीर के डाइरेक्शन में।"

मुराद ने बिना उन्हें देखे कहा "आपका मतलब हम बेवकूफ हैं....पागल कुत्ते ने काटा है हमें जो हम अपनी कम्पनी का बेवजह नुकसान करेंगे ?"

"नहीं, मेरा वो मतलब नहीं था।" फिर कस्तूरिया जी चुप हो गये।

"तो क्या मतलब था आपका ?" फाईलों में डूबे हुए मुराद ने कहा।

कस्तूरिया जी चुप ही बैठे रहे।

अपनी फाईल बंद करके उसे एक तरफ रखते हुए मुराद ने कस्तूरिया जी को देखा और कहा "...बोलिये कस्तूरिया जी, क्या मतलब था आपका ?"

"मेरा मतलब था कि, आपको सही जानकारी होना बहुत ज़रूरी है...और कोई भी कार्रवाई उसी सही और ठोस जानकारी की बुनियाद पर की जानी चाहिये।" कस्तूरिया जी ने कुछ चिढ़ते हुए, और सख्त तरीके से अपनी बात रखी।

"अभी यहीं जूते लगवाऊँगा, और ऑफिस से बाहर फिकवा दूँगा तुम बाप-बेटे को. बात समझ में आयी ?" मुराद ने कस्तूरिया जी से गुस्से से कहा।

हमीर और कस्तूरिया जी दंग थे। मुराद के ऐसे रुख की उन्हें बिल्कुल उम्मीद नहीं थी।

कस्तूरिया जी भड़क गये। उन्होनें कुर्सी से उठते हुए ऊँची आवाज़ में कहा "मुराद!!!....तमीज़ से रहो तुम!!!.....तुम्हारे आगे शराफत से बात कर रहे हैं हम लोग, और तुम बदतमीज़ी पर उतारू हो ?" अब तक हमीर भी खड़ा हो गया था।

मुराद ने भी अपनी जगह खड़े होकर गुस्से से चिल्लाकर कहा "मेरे ऑफिस में.....और मेरे ही चैम्बर में आकर मुझ पर ही चिल्ला रहे हो तुम दोनो ?....इतनी बड़ी हिम्मत हो गयी तुम कुत्तों की ?.....साले रोटी हमारी खाते हो, और बदले में रौब भी दिखाते हो हमें ?.....गंदी नाली के कीड़े!!.....साले सब हरामखोर ?.....औकात भूल गये तुम दोनों अपनी ?"

कस्तूरिया जी और हमीर गुस्से से काँप रहे थे।

अब तक ऑफिस का बाकी स्टाफ भी चैम्बर की ओर देखने लगा था। चैम्बर से आ रही तेज़ आवाज़ों से साफ था, कि अंदर मुद्दा गर्म हो गया है। पिछले कई बरसों से कस्तूरिया जी के साथ जैसा बर्ताव स्टाफ ने अब तक हमेशा होता देखा था, आज जो हो रहा था वह उस से बिल्कुल जुदा था। इस बात को समझते हुए दोनों सीनियर मैनेजर तुरंत चैम्बर की ओर भागे।

कस्तूरिया जी ने चीखते हुए कहा "...औकात तू भूल गया है अपनी सुअर!!.....एक नम्बर का कामचोर, नालायक और निकम्मा है तू!!.....अव्वल दर्जे का दारूबाज़ और निहायत ही नीच आदमी है तू कमीने!!!.....और आज यहाँ सिर्फ अपने भाई मिर्ज़ा की वजह से बैठा हुआ है। तेरे अब्बू सैयद साहब हमारे पुराने दोस्त हैं, और हम लोग उनकी इतनी इज़्ज़त करते हैं, इसीलिये अभी तक सामने खड़ा है तू, वरना तुझको समझा देते कि हम कौन हैं।"

मिर्ज़ा की बात सुनकर एक बार फिर से मुराद के तन-बदन में आग लग गयी। वह भी चिल्लाये "चेयरमैन मैं हूँ!!!......कम्पनी का मालिक मैं हूँ!!.......मेरा भाई या कोई और नहीं!!!.....फैसले सिर्फ मैं ले सकता हूँ, कोई और दूसरा नहीं"

कस्तूरिया जी मुराद को देख रहे थे।

"....और इस कुत्ते के बच्चे को कम्पनी से बाहर निकालने का फैसला मेरा था.....और ये फैसला कभी नहीं बदलेगा, तुम लोग चाहे जिसको, चाहे जितनी बार भी फोन कर लो......चाहे जिस से चाहे जितनी सिफारिशें लगवा लो. समझे मादरचोद!!!" मुराद ने हमीर की ओर देखते हुए कस्तूरिया जी से गुस्से में कहा।

अब तक दोनों मैनेजर अंदर आ गये थे। एक मुराद के पास गया, दूसरा कस्तूरिया जी को रोक रहा था। दोनों ही बीच-बचाव करने की कोशिश कर रहे थे, जिस से मामला हाथ से न निकल जाये।

भद्दी गाली सुनकर कस्तूरिया जी और हमीर गुस्से से पागल हो गये थे। हमीर चीखा "हरामखोर मुराद!!!....तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे पिताजी से ऐसे बात करने की, ऐसे गाली देने की ?.....ये बहुत महँगा पड़ेगा तुझे कमीने!!!"

".....मुझे धमकी देता है तू!!!!......साले कल के लौंडे!!!!......बता साले मादरचोद!!!......बता क्या महँगा पड़ेगा ?......बोल आज तू, तेरी भी हिम्मत देख लेते हैं आज!!!!....बोल जल्दी!!!..." इस तरह से बोलते हुए मुराद अपने जगह छोड़ कर कस्तूरिया जी के पास आ गये थे। दोनों मैनेजर अभी भी बीच-बचाव कर रहे थे "अरे क्या कर रहे हैं आप लोग ?....अरे हम लोग एक ही कम्पनी के लोग हैं!!!....ऑफिस में पूरा स्टाफ बैठा हुआ है" लेकिन हमीर और मुराद में गाली-गलौज बढ़ती जा रही थी।

"....मेरे अब्बू और मेरे भाई ने तुझे और तेरे इस मादरचोद बाप को नौकरी क्या दे दी……तुम दोनों हरामी अब मेरे सिर पर चढ़ कर बात करोगे ?.....मालिक-मुख्तार मैं हूँ, और फोन मिर्ज़ा को करोगे ?" मुराद ने चिल्ला कर कहा।

पानी सिर के ऊपर चला गया था, और ठीक इसी समय कस्तूरिया जी ने मुराद के गाल पर एक ज़ोरदार थप्पड़ रसीद कर दिया। मुराद अपने बगल की दीवार के पास जा गिरे थे। कस्तूरिया जी के नथुने फुफकार रहे थे और उनका गुस्से से तमतमाया चेहरा काँप रहा था।

दोनों मैनेजर बिल्कुल पत्थर की तरह खड़े देख रहे थे। जो आज तलक इस दफ्तर में कभी न हुआ वह आज हो गया था। कम्पनी के चेयरमैन पर कम्पनी के आदमी ने ही हाथ उठा दिया था। मुराद को यकीन ही नहीं हो रहा था। वह धीरे-धीरे अपने गाल पर अपना हाथ रखे ऊपर उठे और अगले ही पल चिल्लाते हुए कस्तूरिया जी को एक करारा थप्पड़ लगाया "हरामखोर कस्तूरिया!!!!" कस्तूरिया जी चैम्बर के दरवाज़े ले पास जा गिरे। यह देखकर हमीर उनकी ओर दौड़ा और ज़मीन पर औंधे मुँह गिरे अपने पिताजी को उठाने लगा। उन्हें उठाते हुए मुराद की ओर देखकर वह बोला "तुम्हें अंदाज़ा नहीं है....बहुत भारी पड़ेगा यह तुम्हें।"

"निकल जा हरामखोर यहाँ से, वरना आदमी बुलवाकर बाहर फिंकवा दूँगा।" मुराद ने चिल्ला कर कहा।

कस्तूरिया जी सदमें में थे। इस कम्पनी के दफ्तर में उनके साथ ऐसा भी हो सकता है, इस बात की उन्हें सपने में भी उम्मीद न थी। अपने बेटे के साथ वह पूरे स्टाफ के सामने बहुत धीरे-धीरे, सिर झुकाये, बिना कुछ भी बोले, और आँसू बहाते हुए बाहर निकल गये।

कस्तूरिया जी वापिस लौटकर जयपुर नहीं गये। वह सौघरा में अपने घर पर ही रुके और अपना इस्तीफा कम्पनी के दफ्तर में मुराद को, और दिल्ली में मिर्ज़ा को भेज दिया। जयपुर यूनिट का काम मुराद ने अपने किसी खास आदमी को सौंप दिया।

मिर्ज़ा को जब यह सारी बात पता चली तो उन्होनें कस्तूरिया जी के घर फोन किया। कस्तूरिया जी अभी भी सदमे में थे। हमीर ने फोन उठाकर कहा "हैलो ?"

"हाँ बेटा हमीर, मैं मिर्ज़ा दिल्ली से।"

"मिर्ज़ा भाई प्रणाम!" बुझी सी आवाज़ में हमीर ने कहा।

"बेटा ज़रा कस्तूरिया जी से बात कराना।"

हमीर ने पास बैठे कस्तूरिया जी की ओर फोन पर बात करने का इशारा किया, लेकिन खामोश और उदास बैठे कस्तूरिया जी ने हाथ उठाकर बात करने से मना कर दिया। उनकी किसी से भी, कोई बात करने की इच्छा नहीं हो रही थी।

"पिताजी किसी से भी बात नहीं करना चाह रहे मिर्ज़ा भाई!... काफी दु:खी हैं वह।" हमीर ने कहा।

"बेटा, उस दिन जो कुछ वहाँ चैम्बर में हुआ, मुझे पता चला उसका.... हम कस्तूरिया जी से माफी माँगते हैं बेटा।" मिर्ज़ा ने कहा।

"जी भाई।" हमीर इतना ही बोल सका।

"अब आगे क्या सोचा है हमीर ?" मिर्ज़ा का सवाल था।

"देखते हैं.....लेकिन मिर्ज़ा भाई, आपके उस भाई को तो सबक सिखाना है किसी भी हाल में।" हमीर ने दाँत पीसते हुए, गुस्से में फोन पर धीरे से कहा।

मिर्ज़ा चुप थे।

"कितनी ही बुरी-बुरी गालियाँ दीं उस हरामी ने वहाँ पर, मुझे और पिताजी को..... और हिम्मत देखिये उसकी मिर्ज़ा भाई!!!......पिताजी पर हाथ तक उठा दिया उसने!!!" हमीर काफी गुस्से में था।

मिर्ज़ा सुन रहे थे।

"....चुप तो नहीं बैठेंगे हम.....आप चाहे कुछ भी कहें, लेकिन बदला ज़रूर लेंगे हम इस बे-इज़्ज़ती का!!!....आपकी मर्ज़ी हो तो अपने उस कमीने भाई को बात भी दीजियेगा कि हमीर ने ऐसा ही कहा है, और वह ऐसा ही करेगा।"

मिर्ज़ा ने चिढ़कर कहा "अब क्या जान से ही मार दोगे मुराद को तुम ?"

"हाँ." चिल्लाते हुए हमीर ने कहा।

अब तक फरीद की आई.एम.पी.एल.सी., दिल्ली में सुनवाई की तारीख आ गयी थी। अब से ठीक एक महीने बाद फरीद के मुकदमे की सुनवाई की जानी थी।

कमेटी ने 9 उलेमाओं की एक छोटी सब-कमेटी बनाई थी, जिसे इस मुकदमे की सुनवाई की तारीख और तरीका तय करना था। उस सब-कमेटी का ही फैसला आखिरी माना जाना था। सौघरा के इमामों और मौलवियों की ओर से दिल्ली के मशहूर वकील एडवोकेट ज़फर अली को पैरवी करने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी जबकि फरीद अली बेग़ की तरफ से बरेली डिग्री कॉलेज के इस्लामिक स्टडीज़ डिपार्टमेंट के नामी प्रोफेसर डॉ. ज़ुल्फिक़ार अहमद वकील होंगे। मामल बेहद नाज़ुक और संगीन था, लिहाज़ा इस बात की अहमियत समझते हुए सब-कमेटी ने यह भी तय किया कि मुकदमें की सुनवाई बंद कमरे में होगी।

यह खबर सुनकर रुखसार फिर से सूरजगढ़, मिर्ज़ा के पास चली आयी थीं। अपने फार्महाउस पर एक शाम चाय पर मिर्ज़ा अपनी बहन रुखसार, एडवोकेट ज़फर अली और सिन्हा साहब के साथ बैठे हुए आगे आने वाले हालातों पर बात कर रहे थे।

मिर्ज़ा ने वकील साहिबान से कहा "अब एक महीने का वक़्त है। आप लोग यह बतायें कि आगे अब क्या करना है ?" उन्होनें चिढ़ कर कहा "9 लोग हैं सब-कमेटी में, अगर सब को मैनेज करने चलेंगे तो बिक जायेंगे सिन्हा साहब। एक तो पहले ही इस मुकदमे के पीछे हम बहुत सा पैसा पानी की तरह बहा चुके हैं।।थोड़ा आसान रास्ता बताइये।"

सिन्हा साहब ने ज़फर अली की ओर देखा, फिर उन्होने मिर्ज़ा और रुखसार की ओर देखा और अपना चश्मा ठीक करते हुए मुस्कुराकर कहा "बदले में आपको मिल क्या रहा है, आप ये भी तो देखिये मिर्ज़ा साहब।"

मिर्ज़ा और रुखसार उन्हें घूर रहे थे। सिन्हा साहब चुप हो गये।

ज़फर अली ने कहा "देखिये मिर्ज़ा साहब, इतना मुश्किल नहीं है। कुल जमा 9 लोग की सब-कमेटी है। अपने हक़ में पूरा फैसला आये, इसके लिये, उन 9 में से कम से कम 5 लोगों का फैसला हमारे हक़ में होना चाहिये"

भाई-बहन वकील साहिबान को देख रहे थे।

".....अब आप ये समझिये मिर्ज़ा साहब, कि इन 9 लोगों में कम से कम 2 या 3 तो ऐसे लोग ज़रूर होंगे जो खुद-ब-खुद ही, अपनी ही मर्ज़ी से, फरीद को इस्लाम से खारिज करने पर मुहर लगा देंगे"

"जी।"

".....उनको तो कुछ भी चारे-पानी की ज़रूरत नहीं होगी।"

"हम्म्म्म्म."

"......बाकी आपको कुल 3 या 4 उलेमाओं को ही तो मैनेज करना है ना!!.......अब सिर्फ 3-4 लोगों को मैनेज करना तो आपके लिये कोई मुश्किल भरा काम नहीं होना चाहिये।" ज़फर अली ने कहा।

मिर्ज़ा और रुखसार उनकी बात सुन रहे थे।

"अब अगर सब-कमेटी के बाकी साहिबान फरीद को इस्लाम से खारिज न करने पर मुहर लगा देते हैं तो भी क्या होगा इससे ?......5 या फिर 6 लोग अगर आपकी तरफ हैं, तो फिर तो फिक्र की कोई बात नहीं है।"

करीब 2 हफ्ते बाद मिर्ज़ा फिर से सौघरा आये। मुराद की तबियत अब और बिगड़ गयी थी। खून की उल्टियाँ बढ़ती जा रही थीं। मिर्ज़ा उस सुबह उनको लेकर फिर से मेडिकल कॉलेज पहुँचे और डॉक्टरों से बात की। डॉक्टरों ने फिर से उन लोगों को 3 टेस्ट कराने को कहा। शाम तक ये सभी टेस्ट हो चुके थे और उनकी रिपोर्ट भी मिर्ज़ा के हाथ में आ चुकी थी। अब मिर्ज़ा और मुराद उन रिपोर्ट्स को लेकर फिर से डॉक्टरों से चर्चा कर रहे थे।

ब्लड टेस्ट में मुराद के खून में यूरिया की मात्रा बढ़ी हुई आयी थी। इसके अलावा पिछली बार की तरह ही इस बार भी मुराद के खून में नशीली दवाओं और नींद की गोलियों के निशान मौजूद थे, और न सिर्फ मौजूद थे, बल्कि पिछली बार से भी कहीं ज़्यादा थे। मुराद का लीवर और किडनी पहले से भी खराब हालत में थे। डॉक्टर मुराद और मिर्ज़ा को बार-बार डाँट लगा रहे थे और वे दोनों चुपचाप सुन रहे थे।

डॉक्टर ने फिर से कुछ दवाएं लिखीं, और मुराद, मिर्ज़ा से सख्त लफ्ज़ों में कहा कि अब अगर अगले 15 दिन में हालत में सुधार नहीं हुआ तो उन्हें अस्पताल में भर्ती होना होगा। डॉक्टर की डाँट सुनकर वह दोनों अस्पताल से बाहर आये और बातें करते हुए अस्पताल के गेट के बाहर निकलकर सड़क पर खड़ी अपनी गाड़ी के पास पहुँचे। तभी मिर्ज़ा को याद आया कि वापस आते समय उन्होनें डॉक्टर की लिखी दवा नहीं खरीदी है। उन्होने मुराद से कहा "आप यहीं रुकिये, हम अंदर फार्मेसी से आपकी दवा लेकर आते हैं....आपसे बातें ही करते रह गये, और पता ही नहीं चला कि कब बिना दवा लिये ही बाहर आ गये।" और फिर मिर्ज़ा अस्पताल के अंदर चले गये।

मुराद गाड़ी के पास खड़े अपने भाई का इंतज़ार कर रहे थे। ठीक इसी समय एक बिना नम्बर की बहुत पुरानी और खटारा मोटरसाइकिल वहाँ से कुछ दूरी पर आकर रुकी। दो नकाबपोश उस पर सवार थे। पीछे बैठा नकाबपोश बिजली की तेज़ी से मोटरसाइकिल से उतरा और मुराद की ओर भागा। मुराद के बिल्कुल करीब पहुँचकर उसने पिस्तौल निकालकर मुराद के ऊपर तान दी, और इसके पहले कि मुराद और आस-पास के लोग कुछ भी समझ पाते, उस नकाबपोश ने तड़ातड़ 4-5 गोलियाँ एक के बाद एक मुराद की छाती में उतार दीं। भरी दोपहरी में बीच सड़क पर अचानक गोलियों की आवाज़ से अफरा-तफरी मच गयी और वह नकाबपोश जितनी तेज़ी से मोटरसाइकिल से उतरा था, उतनी ही तेज़ी से भागकर मोटरसाइकिल पर उछल कर बैठ गया। उसके साथी ने मोटरसाइकिल का इंजन बंद भी नहीं किया था, और जैसे ही उसका दूसरा साथी मुराद को गोली मारने के बाद मोटरसाइकिल पर बैठा, उसने तेज़ी से मोटरसाइकिल भगा ली।

पहले से ही बीमार मुराद का बदन इतनी गोलियाँ झेल नहीं पाया और कुछ पलों के बाद ही वह अपनी गाड़ी के पिछले टायरों के पास खून से लथ-पथ, निष्क्रिय, खामोश पड़े थे। उनकी मौत हो चुकी थी।

आनन-फानन में कम्पनी के अधिकारियों, और स्टाफ की मीटिंग बुलाई गयी थी। उन सब ने तुरंत मिर्ज़ा से कम्पनी की कमान संभालने की गुजारिश की। उनका कहना था कि कम्पनी मुश्किल के दौर से गुज़र रही है, और इस हालात से उसे मिर्ज़ा ही बाहर खींच सकते हैं। अभी तक सैयद साहब ने इसे किसी मुश्किल से बचाये रखा लेकिन उनके बीमार होते ही कम्पनी के हालात खराब हो रहे हैं। पहले फरीद चेयरमैन बने, तो कम्पनी के ऊपर छापा पड़ा और वह फरार हो गये। फिर मिर्ज़ा चेयरमैन बने तो उनकी हत्या हो गयी। कानपुर और जयपुर, और अब सौघरा, ये तीनों बेहद अहम यूनिटें इस वक़्त बिना किसी फुलटाइम हेड के काम कर रही थीं। इसलिये स्टाफ का कहना था कि अब मिर्ज़ा को कम्पनी की बागडोर अपने हाथ में ज़रूर लेनी चाहिये। सभी अधिकारियों, और पूरे स्टाफ को मिर्ज़ा पर पूरा भरोसा था।

लेकिन मिर्ज़ा ने अपनी सरकारी नौकरी का हवाला देकर चेयरमैन बनने से इंकार कर दिया, और कहा कि ऐसा वह केवल 10 सालों के बाद ही कर सकते हैं, जब वह रिटायर हो जायेंगे। लम्बी माथापच्ची के बाद रास्ता यह निकाला गया कि जब तक मिर्ज़ा की नौकरी रहती है, मिर्ज़ा और ज़ीनत के सबसे बड़े बेटे बहादुरशाह को उतने वक़्त के लिये कम्पनी का चेयरमैन बनाया जाये, और परदे के पीछे सारा कंट्रोल मिर्ज़ा के हाथ में हो। कम्पनी से जुड़े सारे फैसले मिर्ज़ा करें, बस नाम बहादुरशाह का हो। यहाँ पर एक सवाल यह भी उठा कि कुलसूम या नूर के बेटों ने अगर आगे चलकर बहादुरशाह का रास्ता रोकने की कोशिश की तब क्या होगा ? इस पर मिर्ज़ा ने खुद गारंटी ली कि और स्टाफ से वायदा किया कि कुलसूम या नूर से पैदा हुए उनके बच्चे बहादुरशाह के रास्ते में कभी नहीं आयेंगे। मिर्ज़ा ने कहा कि सैयद साहब की भी यही मर्ज़ी है, और उनकी मर्ज़ी की पूरी इज़्ज़त, उनका हुक्म मानकर की जायेगी।

मुराद की मौत के तुरंत बाद हुई कम्पनी के अधिकारियों और स्टाफ की उस बैठक में यह फैसला किया गया कि अब से कम्पनी के चेयरमैन मिर्ज़ा के बेटे बहादुरशाह होंगे। इसी बैठक में किये गये फैसलों के मुताबिक दो दिन बाद ही कस्तूरिया जी को कम्पनी की सौघरा यूनिट का हेड बना दिया गया था और हमीर को जयपुर यूनिट का हेड बनाकर भेज दिया गया।   

उस दिन जब कस्तूरिया साहब से मुराद की बदतमीज़ी की माफी माँगने के लिये मिर्ज़ा ने उनके घर पर फोन किया था तो उनसे बात करते हुए हमीर आपे से बाहर हो गया था।

उसने चीखते हुए कहा "चुप तो नहीं बैठेंगे हम!!....आप चाहे कुछ भी कहें, लेकिन बदला ज़रूर लेंगे हम इस बे-इज़्ज़ती का!!!....आपकी मर्ज़ी हो तो अपने उस कमीने भाई को बता भी दीजियेगा कि हमीर ने ऐसा ही कहा है, और वह ऐसा ही करेगा।"

मिर्ज़ा ने चिढ़कर कहा "अब क्या जान से ही मार दोगे मुराद को तुम ?"

"हाँ!!" चिल्लाते हुए हमीर ने कहा।

मिर्ज़ा खामोश थे।

"मैं जान से ही मार दूँगा उसे!!!....यही इलाज है उस हरामी का।"

मिर्ज़ा सुन रहे थे।

"....मैं जान से ही मार दूँगा उसे!!!....सुन रहे हैं न आप ?.....मैं मारूंगा गोली उसको, और तब तक मारता रहूँगा जब तक बंदूक खाली न हो जाये।" हमीर ने चीख कर कहा।

"अगर तुम वाकई इस काम को अंजाम दे सके………तो सौघरा यूनिट के इंचार्ज कस्तूरिया साहब, और जयपुर यूनिट के मालिक तुम होगे हमीर।" मिर्ज़ा ने कहा।

"क्या ?" हमीर ने अचानक चौंक कर पूछा।

"जो भी अभी सुना है तुमने, सही सुना है।" और फिर मिर्ज़ा ने फोन नीचे रख दिया।

मिर्ज़ा सूरजगढ़ के फार्महाउस के अपने कमरे में खिड़की के किनारे, आरामदायक और झूलने वाली कुर्सी पर अधलेटे हुए थे। उनके दोनों पैर खिड़की के प्लेटफॉर्म पर थे और सिर कुर्सी पर थोड़ा पीछे की ओर करके, मिर्ज़ा ने अपनी दायीं बाज़ू ऊपर किए हुए अपनी आँखें ढक रखी थीं। खिड़की खुली हुई थी और ठंडी हवा आ रही थी। इसी समय मिर्ज़ा ने अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस किया। अपना बाज़ू हटाकर देखा तो रुखसार का चेहरा उन्हें उल्टा नज़र आया।

"अरे आपा! आप कब आयीं ?" मिर्ज़ा के उसी तरह अधलेटे हुए कहा।

 रुकसार ने हँसते हुए झुककर उनकी पेशानी चूम ली उनके कंधे पकड़कर खड़े हुए ही बोलीं "बस अभी, जब आपकी आँखें बन्द थीं।"

मिर्ज़ा कुर्सी से उठ गये थे और मुस्कुराते हुए सोफे की ओर बढ़ चले। हँसती हुई रुखसार पीछे-पीछे थीं।

सोफे के पास पहुँचकर मिर्ज़ा पीछे मुड़े। अब उनकी आपा उनके सामने थीं। मिर्ज़ा ने उनके कंधों पर हाथ रखा और मुस्कुराकर कहा "आपा, आज आपकी वजह से ही हम बादशाह हो गये हैं।" मिर्ज़ा के चेहरे की चमक उनकी जीत बयान कर रही थी। उन्होने हँसते हुए अपनी आपा को गले लगा लिया।

रुखसार भी उनकी पीठ थपथपाते हुए हँस रही थीं "हम तो आपके साथ हमेशा हैं मिर्ज़ा।"

भाई-बहन अलग हुए। "अब मुराद भी हमारे रास्ते में नहीं हैं।" मिर्ज़ा ने कहा।

"बिल्कुल, और उनको होना भी नहीं चाहिये था....वह इस लायक ही नहीं थे मिर्ज़ा।"

"लेकिन अगर आप उन्हें लगातार, रोज़ाना, थोड़ी-थोड़ी शराब और उसमें नशे की गोलियाँ मिला-मिलाकर नहीं देतीं, तो ये काम नामुमकिन ही था। आपकी वजह से ही मुराद की तबियत बिगड़ती जा रही थी। उनका लीवर और किडनी बहुत बुरी हालत में पहुँच गये थे और उनका दफ्तर जाना लगातार कम होता जा रहा था………और इसी वजह से हमें बहादुरशाह को गद्दीनशीन करने में मदद मिली।"

"हमने आपसे कहा था मिर्ज़ा, कि चाहे अब्बू, बड़ी आपा भले ही एहसान फरामोश निकल जायें, हम कभी आपसे दगा नहीं करेंगे, कभी वादाखिलाफी नहीं करेंगे.....हम एहसान फरामोश नहीं हैं मिर्ज़ा।"

"अब कोई रुकावट नहीं है आपा!...... फरीद का फैसला आना भी सिर्फ वक़्त की बात है।"

"आप कुछ मुगालते में हैं मिर्ज़ा। रुकावटें अभी खत्म नहीं हुई हैं" रुखसार ने कहा।

"क्या मतलब आपा ? हम समझे नहीं।"

"एक तो वह आपका भतीजा सुलेमान है, वह आगे चलकर खतरनाक साबित हो सकता है।"

"सुलेमान ?" मिर्ज़ा ने लापरवाही से पूछा।

"हल्के में मत लीजिये मिर्ज़ा उसे। मुकदमा फरीद पर चल रहा है, सुलेमान पर नहीं। अपने बाप का बदला लेने के लिये मौके की तलाश में हमेशा होगा वह.....इसलिये उस सपोले का फन उठने से पहले ही कुचलना ज़रूरी है।" रुखसार ने कहा।

मिर्ज़ा उनकी बात सुन रहे थे।

"...और दूसरा रहा ये!!" यह कहकर अपने साथ लाया हुआ एक अखबार रुखसार ने मिर्ज़ा की ओर बढ़ा दिया।

"क्या है ये ?" अखबार हाथ में लेते हुए मिर्ज़ा ने पूछा।

"पहले इत्मिनान से बैठिये, और फिर इस अखबार को खुद देखिये, पेज नं. 9 पर.....मालूम होता है कि आजकल अखबार नहीं पढ़ रहे हैं आप।" मिर्ज़ा से रुखसार बोलीं।

मिर्ज़ा सोफे पर बैठे और सीधे अखबार का पेज नं. 9 खोला। वहाँ दरअसल एक आर्टिकल छपा था जिसका शीर्षक था "इस्लाम क्या है ? – भाग-2." उस लम्बे-चौड़े आर्टिकल के बिल्कुल नीचे छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा था "यह लेख, लेखकों द्वारा लिखी जा रही निबंध-श्रृंखला "इस्लाम क्या है ?" का दूसरा भाग है। निबंध में लिखी विषय-वस्तु वास्तव में लेखकों के व्यक्तिगत विचार हैं और इनका अखबार से कोई सम्बंध नहीं है। लेखक द्वय क्रमश: सौघरा डिग्री कॉलेज में उर्दू विभाग में भूतपूर्व प्रोफेसर रह चुके हैं, व बरेली डिग्री कॉलेज में इस्लामिक स्टडीज़ के प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।" यह पढ़कर मिर्ज़ा ने आर्टिकल के ठीक ऊपर लिखे दोनों लेखकों के नाम पढ़े – प्रोफेसर हशमत क़ाशनी व डॉ. ज़ुल्फिक़ार मोहम्मद।

"हम्म्म्म....दूसरा भाग है यह....मतलब पहला भी आया होगा।" मिर्ज़ा ने चिंतित होकर कहा। उनकी पेशानी कि लकीरें साफ बता रहीं थीं कि मामला गम्भीर है। गुस्से में आकर अखबार को सामने की मेज पर फेंकते हुए, और दाँत पीसते हुए मिर्ज़ा ने झल्लाकर कहा "ये आदमी बाज़ नहीं आ रहा है!!!"

फरीद के मुकदमें की तैयारी करते-करते क़ाशनी साहब और डॉ. ज़ुल्फिक़ार ने यह भी सोचा कि बात केवल इस एक मुकदमें में फरीद को बचाने भर की ही नहीं होनी चाहिये, बल्कि उस से भी आगे यह लोगों की सोच, उनके नज़रिये को बदलने, खासतौर से इस्लाम के बारे में उनके नज़रिये को बदलने की मुहिम होना चाहिये। वे दोनों यह देख रहे थे कि इस मुकदमें से इस्लाम का मखौल उड़ाया जा रहा है और इस्लाम को बदनाम किया जा रहा है, जिसे रोका जाना ज़रूरी था। उन दोनों का खयाल यह था कि ऐसा इस वजह से हो रहा है क्योंकि मुसलमानों के एक बड़े तबके को ही इस्लाम का सही मतलब नहीं पता है, और लोग सिर्फ उस इस्लाम के पीछे भाग रहे हैं जो मौलवी और ईमामों ने उनको सिखाया है। इसलिये लोगों की आँखों पर से यह पर्दा हटाना ज़रूरी था।

अखबारों में ऐसे आर्टिकल लिखना ज़रूरी इसलिये भी था क्योंकि पिछले कई महीनों से लगातार मिर्ज़ा सौघरा में कई मज़हबी जलसों में, कई मदरसों और मस्जिदों में आ-जा रहे थे, और करीब-करीब हर जलसे, हर मीटिंग में उनका तारूफ "आशिक़-ए-रसूल" के नाम से करवाया जाता और लगभग हर जलसे में यही कहा जाता "....एक तरफ इनके अपने सगे भाई फरीद है, जिनकी हरकतें गैर-इस्लामी रही हैं, जिनके खिलाफ कितनी ही मस्जिदों ने फतवा जारी किया है और कमेटी में मुकदमा दर्ज होने के बाद इस्लाम से उनके खारिज होने तक की नौबत आ गयी है........और वहीं दूसरी तरफ हमारे प्यारे 'आशिक-ए-रसूल' मिर्ज़ा हैदर बेग़ हैं जिन्होने कभी भी अपने दीन का दामन नहीं छोड़ा, और इस्लाम के परचम को बुलंद रखा है" क़ाशनी साहब और डॉ. ज़ुल्फिक़ार को यह लगता था कि ऐसे तौर-तरीके, शहर और माशरे के माहौल को खराब कर रहे हैं।

इसी वजह से उन दोनों ने सौघरा और दिल्ली से निकलने वाले कुछ चुनिंदा अखबारों में, हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ज़बानों में "इस्लाम क्या है ?" के नाम से एक निबंध-श्रृंखला लिखने का फैसला किया जिसे हफ्ते में 3 दिन छपना था। "इस्लाम क्या है – भाग-1" में यह बताया गया था कि अक्सर जिन बातों को लेकर फतवे वगैरह जारी किये जाते हैं, उनमें लोगों को हकीकत पता नहीं होती है। उस आर्टिकल में उन्होनें लिखा था कि नाचने-गाने और जगरातों में भजन-कीर्तन करने से इस्लाम को कोई धक्का नहीं पहुँचता है, कोई भी बदनामी नहीं होती। अपनी बातों को साबित करने के लिये उन दोनों से कई सूफी संतों, जैसे निज़ामुद्दीन औलिया, बाबा फरीद, नसीरुद्दीन चिराग देहलवी, अमीर खुसरो आदि के नाम लिये थे।

"इस्लाम क्या है – भाग-2" में डॉ. ज़ुल्फिक़ार और क़ाशनी साहब ने एकेश्वरवाद के बारे में लिखा था। उन्होनें बताया था कि दुनिया का कितने भी मज़हब क्यों न हो, या किसी मज़हब में कितने ही भगवानों की मान्यता क्यों न हो, किसी न किसी रूप में वे सब एक ही निर्विकार ईश्वर में जाकर मिल जाते हैं, जिसे न कोई देख सकता है, न कोई छू सकता है। ऐसे में किसी एक मज़हब को मानने वाला किसी दूसरे मज़हब के लिये क़ाफिर कतई नहीं हो सकता।

दो दिन बाद फिर उसी अखबार में मिर्ज़ा ने फिर से "इस्लाम क्या है ? – भाग-3" निबंध पढ़ा जिसमें उन दोनों लोगों ने यह समझाने की कोशिश की थी कि मुसलमानों में भी बहुत सारे फिरके हैं और हर फिरके की अपनी अलग-अलग रवायतें हैं। ऐसे में यह तय करना नामुमकिन है कि किस फिरके को सबसे ऊँचा माना जाये, और किस फिरके को निचला दर्जा दिया जाये……जबकि सभी फिरके खुद को सबसे ऊँचा और दूसरों को नीचा बताते हैं। पठान अपने आगे किसी को नहीं गिनता है, जबकि शेख सिद्दीक़ी लोग खुद को सबसे ऊँचा मुसलमान बताते हैं। शिया खुद को सुन्नियों से ऊपर समझते हैं, जबकि सुन्नी खुद को शिया से बेहतर बताते हैं। अरब मुस्लिम खुद को तुर्कों के मुकाबले ज़्यादा ऊँचा दर्जा देते हैं जबकि तुर्क खुद को अरबों से बेहतर नस्ल बताते हैं। बहाई, और बोहरा समाज के मुस्लिमों की रवायतें बाकी मुस्लिमों से काफी अलग हैं और वे लोग खुद को औरों से बेहतर बताते हैं। यहाँ तक कि एक तबका अहमदिया मुसलमानों का भी है, जो खुद को मुसलमान बताता है लेकिन बाकी के मुसलमान अहमदियों को मुसलमान ही नहीं मानते।

सूफी इस्लाम का ज़िक्र करते हुए भी उन लोगों ने लिखा कि सूफी इस्लाम भी एक नहीं बल्कि कई सिलसिलों में बँटा हुआ है, जैसे चिश्ती, नक़्शबंदी, सुहरावर्दी, और क़ादरी जैसे बहुत सारे सिलसिले हिंदुस्तान में मिलते हैं।

इसी तरह की खासियत हिंदुओं में भी नुमायाँ होती हैं जहाँ शैव, वैष्णव, शक्ति, स्वामीनारायण, , दशनामी, नाथपंथी जैसे कितने ही सारे सम्प्रदाय हैं, और हर एक सम्प्रदाय खुद को दूसरों से ऊपर, और दूसरे को खुद से नीचे बताता है। अकेले यदि कोई एक जाति जैसे ब्राह्मण ही गिनी जाये तो इसमें भी काफी बँटवारा देखने को मिलता है जैसे मेरठ क्षेत्र के सारस्वत ब्राह्मण, बुलंदशहर-हाथरस क्षेत्र के शकधर ब्राह्मण, अवध क्षेत्र के कान्यकुब्ज ब्राह्मण, पूर्वांचल क्षेत्र के सरयूपारीण ब्राह्मण, बिहार के मिथिला क्षेत्र के मैथिली ब्राह्मण, बंगाल के बंगाली ब्राह्मण, उड़ीसा के गिरि ब्राह्मण, तेलुगू व कन्नड़ भाषी क्षेत्रों के नियोगी व देशस्थ ब्राहमण, तमिलनाडु में अय्यर, व अयंगर ब्राह्मण, महाराष्ट्र में पाये जाने वाले चितपावन ब्राह्मण, केरल प्रांत के नम्बूदिरीपाद ब्राह्मण (जो पशुपतिनाथ मंदिर, काठमांडू में पुजारी होता है) और भी न जाने कितनी बिरादरियाँ ब्राह्मणों में पायी जाती हैं और हर एक बिरादरी खुद को सबसे उत्तम ब्राह्मण, और दूसरों को निम्न ब्राह्मण बताती है। कोई गर्ग, गौतम, शांडिल्य गोत्र के आधार पर खुद को उच्च बताता है, तो कोई सप्तऋषि तारामंडल के ऋषियों के नाम के गोत्र के आधार पर खुद को उच्च व बाकियों को निम्न बता है। इसी तरह से राजपूत समाज को भी देखा जा सकता है।

इस तरह से उन्होनें यह नतीजा निकाला था कि न तो कोई एक मज़हब सबसे ऊपर है, न तो किसी एक मज़हब की कोई एक बिरादरी सबसे ऊपर है। सभी मज़हब और सभी बिरादरियां, अपनी-अपनी खासियतों के साथ महफूज़ रहनी चाहिये।

इसी तरह से वे दोनों विद्वान, मुकदमें की तैयारी पूरी लगन से करने के साथ-साथ लगातार मेहनत करके, अखबारों में लिख कर अपनी बात लोगों तक पहुँचाने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे थे। इसे देखकर मिर्ज़ा को अपने लिये खतरा महसूस हो रहा था। उन्होनें अपने आदमियों से कहकर सौघरा में क़ाशनी साहब और डॉ. ज़ुल्फिक़ार की जासूसी और बढ़ा दी थी।

हफ्ते भर बाद, यानि सुनवाई के ठीक 6 दिन पहले मिर्ज़ा फिर से सौघरा में थे। इतने दिनों में "इस्लाम क्या है ?" निबंध-श्रृंखला के दो और लेख अखबारों में छप कर आ चुके थे। इस बार किसी नई मस्जिद की नींव रखे जाने पर एक जलसा हो रहा था जिसमें शिरकत करने मिर्ज़ा आये थे। जलसा पूरा होने, मस्जिद बनाने के लिये पिचहत्तर हज़ार रुपये के चंदे की रकम देने के बाद वह एक बार फिर से क़ाशनी साहब के घर की जानिब निकल गये।

अपने कमरे की बैठक में उस शाम क़ाशनी साहब अकेले ही बैठकर कोई किताब पढ़ रहे थे, जब दरवाज़े पर दस्तक हुई। उन्होनें उठ कर दरवाज़ा खोला तो सामने मिर्ज़ा हैदर खड़े थे। हमेशा की तरह मिर्ज़ा ने झुककर उनके पैर छुये और हाथ जोड़कर बोले "आस्सलाम वालेकुम जनाब!"

हमेशा की तरह कुर्ता-पायजामा पहने हुए क़ाशनी साहब भी मेहमान को तहज़ीब से अन्दर ले आये, और सोफे पर बैठने को कहा। फिर अनीसा को चाय के लिये आवाज़ दे दी।

दोनों लोग एक बार फिर आज आमने-सामने बैठे थे। क़ाशनी साहब ने पूछा "कैसे आना हुआ मिर्ज़ा ?"

"बस जनाब, सौघरा आये थे तो आपसे मिलने चले आये।" मिर्ज़ा ने जवाब दिया।

"मिर्ज़ा हैदर बेमतलब तो कहीं नहीं जाते....इतना तो हमें भी पता है।" मुस्कुराते हुए उस्ताद ने कहा।

शागिर्द उन्हें तेज़ निगाहों से देख रहा था।

"पिछली दफा आप हमारे इस मेटल के 10 ग्राम के बॉलपेन की कीमत पूछने आये थे।" हँसते हुए क़ाशनी साहब ने अपना पेन, अपने कुर्ते की जेब से निकालकर मेज पर रखते हुए कहा।

इतने में चाय आ गयी थी। अनीसा चाय और दालमोठ मेज पर रख कर चुपचाप अंदर चली गयी।

मिर्ज़ा ने इस बार बिना घुमाये-फिराये अपनी बात रखी "जनाब! आप फरीद का साथ क्यों दे रहे हैं ?"

क़ाशनी साहब ने मिर्ज़ा को गौर से देखा। मिर्ज़ा के चेहरे पर परेशानी और खिंचाव साफ देखा जा सकता था। उस्ताद ने जवाब दिया "क्योंकि फरीद का साथ दिया जाना चहिये।"

"साथ देना हो तो बेशक़ दीजिये, मैं रोक नहीं रहा आपको.....वैसे भी आप लोग फरीद को बचा नहीं सकते,  लेकिन ये अखबारों में क्या तमाशा लगा रखा है आपने और डॉक्टर साहब ने ?" मिर्ज़ा ने चिढ़कर कहा और चाय का कप उठा लिया।

"फरीद का मुकदमा तो एक बहुत छोटा सा मकसद है मिर्ज़ा.... " चाय पीते हुए क़ाशनी साहब ने कहा। मिर्ज़ा भी चाय पीते हुए उन्हें देख रहे थे।

"....असल मकसद यह है कि, ये जो भी खतरनाक और घिनौना खेल आप और आपके पिट्ठू लोग खेल रहे हैं, यह तुरन्त बे-असर किया जाना चाहिये।" क़ाशनी साहब ने सीधे-सीधे कहा। "आप लोग जो कर रहे हैं, आपको अंदाज़ा नहीं है कि यह सब आगे आने वाली नस्लों के लिये…....हमारे शहर, हमारे माशरे और हमारे मुल्क के लिये कितना नुकसानदेह हो सकता है।"

मिर्ज़ा खामोश थे।

"....इसलिये हम लोग यह कर रहे हैं………और करते रहेंगे।" क़ाशनी साहब आज आर-पार के मूड में थे।

"जनाब, हम जो भी कुछ कर रहे हैं, वो दीन के लिये है।" मिर्ज़ा ने कहा।

"दीन का मतलब मुझे आप कतई न समझाइये!........मुझे वह बतायें जो सही है और जो आप बताना नहीं चाहते" क़ाशनी साहब ने खीझ कर कहा।

मिर्ज़ा क़ाशनी साहब की बात सुन रहे थे।

"........अपने नापाक मकसद को साधने के लिये दीन और इस्लाम जैसे बेहद पाक तसव्वुर का सहारा मत लीजिये!!!" उन्होनें मिर्ज़ा को झाड़ पिला दी।

मिर्ज़ा की आँखों से नाखुशी साफ दिख रही थी।

"...आप जैसों की वजह से ही इस्लाम की दुनिया भर में कितनी बदनामी होती है, आपको इल्म भी है इस बात का ?" क़ाशनी साहब से गुस्से से कहा।

अब तक मिर्ज़ा की चाय खत्म हो चुकी थी और क़ाशनी साहब का आधा कप ही खाली हुआ था। मिर्ज़ा ने अपना कप सामने की मेज पर रखा।

कुछ पल तक कमरे में खामोशी छायी रही। मिर्ज़ा ने एक दफा फिर से पूछा "जनाब!...क्या आप अखबारों में छप रही यह आर्टिकल की सीरीज़ बंद नहीं कर सकते ?"

क़ाशनी साहब ने कहा "एक दफा कह तो दिया आपसे!अब किस ज़बान में कहें ?"

मिर्ज़ा उन्हें घूर रहे थे।

"हम लिखना बंद नहीं करेंगे मिर्ज़ा।" क़ाशनी साहब का रुख शीशे की तरह साफ था।

मिर्ज़ा खामोश बैठे थे।

"जो हमने लिखना बंद किया मिर्ज़ा, तो हम अपनी ही नज़रों में फौत हो जायेंगे.....हम आईने में खुद से नज़र नहीं मिला सकेंगे"

मिर्ज़ा ने सिर नीचे कर लिया था।

"....और एक टीचर का अपनी ही नज़रों में मर जाने का मतलब है, कि वह पूरा समाज और वह पूरा मुल्क बरबाद होने की जानिब एक कदम और आगे बढ़ गया।"

मिर्ज़ा सिर झुकाये सुन रहे थे।

"....अब हम अपने जीते जी तो ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे मिर्ज़ा।" क़ाशनी साहब ने बिल्कुल साफ ढंग से कहा।

मिर्ज़ा ने चेहर ऊपर उठाया और कहा "अब चलेंगे जनाब हम।" और उनके यह कहते ही वे दोनों, सोफा छोड़कर उठ खड़े हुए।

मिर्ज़ा ने झुककर सलाम करते हुए कहा "खुदा हाफिज़" और जाने के लिये मुड़े। अचानक उन्हें कुछ याद आया तो वह रुक गये।

 वह फिर से पीछे मुड़े और क़ाशनी साहब के करीब जाकर धीरे से तंज के लहज़े में पूछा "कैसे हैं आपके 'डियर अखिल'………क़ाशनी साहब ?"

मिर्ज़ा का इतना कहना था कि क़ाशनी साहब के चेहरे का तेज़ जाता रहा। उनका चेहरा पीला पड़ चुका था। उनकी नज़रें नीची हो गयीं। अब उनके जिस्म की अकड़ ढीली पड़ रही थी जबकि अभी तक वह अकड़ कर मिर्ज़ा के आगे खड़े थे और उनकी आँखों में आँखें डालकर बात कर रहे थे। क़ाशनी साहब को मानों साँप सूँघ गया था। उनकी उँगलियाँ काँप रहीं थीं और ज़बान जैसे मुँह के भीतर ही सिल गयी थी। उन्हें लग रहा था कि अभी ज़मीन फट जाये और वह उसमें दफन हो जायें।

मिर्ज़ा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा "आप तो जानते ही होंगे न जनाब!......सी.आर.पी.सी. सेक्शन 377 ?"

क़ाशनी साहब बुत बनकर खड़े थे।

"लाइफ इम्प्रिज़नमेंट है।"

क़ाशनी साहब बाहर से बिल्कुल चुप थे, लेकिन अंदर भयंकर तूफान चल रहा था।

"डॉ. ज़ुल्फिक़ार साहब जानते हैं यह बात ?" मिर्ज़ा ने बहुत हल्की सी मुस्कुराहट के साथ पूछा।

क़ाशनी साहब के मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे।

"इस्लाम में भी क़ुफ्र है ये।" मिर्ज़ा फिर बोले।

क़ाशनी साहब काँप रहे थे। मिर्ज़ा की ओर देखने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी।

मिर्ज़ा पीछे मुड़े और कमरे से बाहर जाने लगे। तभी क़ाशनी साहब ने टोका "सुनिये मिर्ज़ा।"

मिर्ज़ा रुक गये। उनकी पीठ क़ाशनी साहब की ओर थी।

"ये ठीक नहीं कर रहे हैं आप।" काँपती हुई आवाज़ में क़ाशनी साहब ने कहा।

मिर्ज़ा चुपचाप खड़े रहे।

"अपनी पसंदगी और नापसंदगी का हक़ सभी को है।" उन्होनें कुछ सख्ती से अपनी बात कहने की कोशिश की।

मिर्ज़ा चुप ही रहे। कुछ पल तक वहाँ खामोशी ही छायी रही। फिर उन्होने कहा "ठीक है जनाब!.......यही बात कोर्ट में कह दीजियेगा।"

क़ाशनी साहब सहमे से खड़े थे। इतना कमज़ोर उन्होनें खुद को कभी महसूस नहीं किया था।

अब मिर्ज़ा की बारी थी। उन्होने कहा –

"तुम जानो तुम्हें गैर से, जो रस्म-ओ-राह हो,

कुछ मेरा मिज़ाज भी पूछ लो, तो क्या गुनाह हो।"

फिर मिर्ज़ा धीमे कदमों से कमरे से बाहर निकल गये।

फरीद की सुनवाई का दिन आ पहुँचा था, और मिर्ज़ा के आदमी उन्हें गाड़ी में लेकर दिल्ली,  शाहजहाँ रोड पर स्थित आई.एम.पी.एल.सी. के हेड-क्वार्टर पहुँच गये थे। डॉ. ज़ुल्फिक़ार के साथ क़ाशनी साहब एक रोज़ पहले ही आ गये थे, और पहाड़गंज में होटल में किराये का कमरा लेकर दोनों ठहरे हुए थे।

 सुबह के 11 बजे एक बड़े से, बंद कमरे में सुनवाई शुरु हुई। कमरे में सब-कमेटी के 9 उलेमा, मुल्ज़िम फरीद अली बेग, उनके वकील डॉ. ज़ुल्फिक़ार, सौघरा के मौलवियों के नुमाइंदों के तौर पर दो मौलवी जिनकी मस्जिद ने फतवा निकाला था, और उनके वकील, जनाब ज़फर अली मौजूद थे।

बगल के ही एक दूसरे कमरे में, सौघरा से आये बाकी सभी उलेमा जिन्होने फतवा जारी किया था, और उनके साथ-साथ रुखसार और क़ाशनी साहब भी मौजूद थे। जो कुछ भी सुनवाई वाले कमरे में हो रहा था उसका सीधा प्रसारण इस बगल वाले कमरे में किये जाने का पूरा इंतज़ाम किया गया था। 

पहले जनाब ज़फर अली खड़े हुए और कहा "यहाँ मौजूद आप सभी क़ाबिल-ए-इज़्ज़त बड़े-बुज़ुर्गों, और इस्लाम के बेहद उम्दा जानकारों! आज आपके सामने जो मुकदमा आया है वह इस बारे में है कि यहाँ मुल्ज़िम जनाब फरीद अली बेग मौजूद हैं। यह सौघरा शहर के मशहूर कारोबारी हैं, उन्हें हर कोई दूसरा इंसान, और एक नन्हा बच्चा भी अपने लिये मिसाल के तौर पर देखता है। इन्होनें जानबूझकर, लगातार ऐसे काम किये हैं जिसकी इजाज़त इस्लाम में कतई नहीं दी जाती, और सच्चा मुसलमान कभी ऐसी हरकतें नहीं करता.....इसी वजह से सौघरा की दर्जन भर से ज़्यादा मस्जिदों ने फरीद के खिलाफ फतवा जारी किया है कि बार-बार मना किये जाने के बावजूद गैर-इस्लामी हरकतें करते रहने, और अल्लाह की तौहीन करते रहने की सज़ा के तौर पर फरीद को इस्लाम से खारिज समझा जाये। आज उन सभी मस्जिदों के मौलवी और ईमाम यही फरियाद लेकर कमेटी के आगे पेश हुए हैं, जिस से इस बुराई पर जल्द से जल्द रोक लगाई जा सके, दीन-ए-इस्लाम और अल्लाह की तौहीन के कुफ्र से लोगों को बचाया जा सके, और खासतौर पर हमारे बच्चों और नौजवानों सही रास्ता दिखाया जा सके।" यह कहकर ज़फर अली बैठ गये।

रुखसार और क़ाशनी साहब, बाकी लोगों के साथ, दूसरे कमरे में सामने एक मेज पर रखी टी.वी. पर नज़र गड़ाये हुए थे।

फरीद सिर नीचे किये हुए बैठे थे।

अब फरीद के वकील डॉ. ज़ुल्फिक़ार खड़े हुए और बोलना शुरु किया "यहाँ मौजूद कमेटी के सभी मोहतरम मेम्बरान! .....आपसे हमारी यह गुजारिश है कि आप गहराई से मामले की पड़ताल करें। अगर आप ऐसा करते हैं तो आप पायेंगे, कि जो भी इल्ज़ामात फरीद अली बेग़ पर लगाये गये हैं, असल में वे बेहद सतही, और बेबुनियाद हैं। फरीद ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिस से इस्लाम को किसी भी तरह की, कोई भी चोट पहुँचती हो, बल्कि हमारी समझ से फरीद अली बेग़, हम सभी मुसलमानों की शान है और हर किसी को उनके जैसा होना चाहिये। इसलिये हम आप से फरीद को बाइज़्ज़त बरी करने और इन सभी फतवों को खारिज करने की इल्तजा करते हैं।" फिर डॉ. साहब बैठ गये।

उस सब-कमेटी के मेम्बरान में से एक बुज़ुर्ग उलेमा ने अपनी फाइल में से एक कागज़ निकाला और उसे पढ़ते हुए कहा "जनाब फरीद अली बेग़, आप पर पहला इल्ज़ाम यह है कि आप मुसलमान होकर भी बुतपरस्ती को बढ़ावा देते हैं। आप जगरातों में जाकर भजन-कीर्तन व नाच-गाना भी करते हैं, और मंदिरों को चंदा भी देते हैं।"

फरीद उनकी ओर देख रहे थे।

"क्या इस पर आपको कुछ कहना है ?" बुज़ुर्ग उलेमा ने कागज़ को एक फाइल में रखा और फरीद की ओर देखते हुए पूछा।

फरीद ने कहा "जनाब, जगरातों में जाकर भजन-कीर्तन करने या नाचने-गाने से इस्लाम को कोई भी धक्का नहीं लगता है। सदियों से हमारी सूफी दरवेश ऐसा ही करते आये हैं।"

तभी उनमें से एक दूसरे उलेमा ने चिल्ला कर कहा "चुप रहिये आप फरीद!!.....एक तो चोरी, ऊपर से सीनाजोरी!!"

फरीद उसे देख रहे थे।

"बुतपरस्ती का गुनाह-ए-अज़ीम किया है आपने!....और यही सच है।"

डॉ. ज़ुल्फिक़ार ने उस उलेमा को टोका "साहिबान, फरीद ने कुछ गलत नहीं कहा है।"

अब वह उलेमा उनकी ओर देख रहा था।

बाकायदा लिखित सबूत मौजूद हैं जनाब इस बात के....और एक-दो नहीं, बल्कि कई सूफी दरवेशों के नाम गिनाये जा सकते हैं।"

एक दूसरे उलेमा ने फरीद की ओर देखते हुए गुस्से में कहा "अच्छा!!....तो ये अदना सा इंसान, अब निज़ामुद्दीन औलिया की बराबरी करेगा ?"

डॉक्टर साहब चुप थे।

उन सभी 9 लोगों ने अपने-अपने पास मौजूद कागज़ पर कुछ नोट किया।

फिर एक दूसरे उलेमा ने अपनी फाइल में से एक और कागज़ निकाला और उसे पढ़ा "फरीद अली बेग़, आप पर इल्ज़ाम है कि आप अल्लाह को सबसे ऊँचा नहीं मानते और उसके बराबर और कईयों को रखते हैं।"

फिर उसने वह कागज़ अपनी फाइल में रख कर फरीद की तरफ देखा और पूछा "इस पर अपनी सफाई में क्या कहेंगे आप ?"

डॉ. साहब ने कहा "जनाब, जैसा कि हम जानते हैं, दुनिया में तमाम मज़हब मौजूद है, और अलग-अलग लोग, अलग-अलग मज़हबों को मानते हैं। अब हमारे मज़हब इस्लाम में अल्लाह सबसे ऊपर है, जबकि दूसरे किसी मज़हब में इसी तरह की और कोई दूसरी ताक़त को सबसे ऊपर माना जाता है। इस से यह बात कहाँ साबित होती है कि फरीद अल्लाह को सबसे ऊँचा नहीं मानते ?"

एक दूसरे उलेमा ने फरीद के दायें हाथ की उँगली में पड़ी, हरे रंग की एक पुरानी सी अँगूठी की ओर इशारा किया "डॉ. ज़ुल्फिक़ार, फरीद की वह अँगूठी हमें दीजियेगा।"

डॉक्टर साहब ने फरीद से वह अँगूठी लेकर उस उलेमा को दे दी।

अँगूठी को कुछ वक़्त तक देखने के बाद उसने हँस कर सवाल किया ""इस हरे रंग के कीमती पत्थर के एक ओर सोने से उर्दू में "अल्लाह" लिखा है, और दूसरी ओर सोने से ही हिंदी में "प्रभु" लिखा है.....क्या इसका यह मतलब नहीं कि फरीद "प्रभु" को "अल्लाह" के बराबर रखते हैं ? .....जबकि हमारी समझ ये कहती है कि "अल्लाह" के बराबर कभी कोई नहीं हो सकता ?

फरीद ने कहा "जनाब!, यह दुनिया बनाने वाले को हम अपने मुल्क में बहुत सारे नामों से जानते हैं। कोई 'गॉड" कहता है, कोई "प्रभु", कोई "अहुर माज़्दा", कोई "येहोवा" तो कोई "अल्लाह"......और बस यही नहीं जनाब!.....दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भी उसके अलग-अलग नाम कहे जाते हैं।

".....तो तुम्हारा मतलब यही है कि हम मुसलमान "अल्लाह" कहकर जिनकी इबादत करते हैं, वह हिंदुओं के "प्रभु" से अलग नहीं है ?" उनमें से एक ने पूछा।

"जी जनाब, मेरा यह मानना है कि पूरी दुनिया में हम सभी इंसानों का बस एक ही भगवान या एक ही खुदा है, जिसे हम "अल्लाह" कहते हैं। इस तरह केवल उसको मानने और बुलाने के तौर-तरीके में ही फर्क होता है। वह कोई एक ही ताकत है, जिसने हम सबको, इंसानों, जानवरों, पौधों, हवा, पानी, ज़मीन और बाकी सब कुछ ही बनाया है। अब कोई मंदिर में उसको पूजने जाता है, कोई कलीसे में तो कोई मस्जिद में।"

उन सभी उलेमाओं ने एक बार फिर से अपनी फाइल में रखे कागज़ पर कुछ नोट किया।

अब एक और उलेमा ने नाराज़ होकर सवाल किया "फरीद, आप पर इल्ज़ाम है कि शहर की डॉ. फरहत हुसैन लाइब्रेरी को किताबें डोनेट करते वक़्त आपने "सिर्र-ए-अकबर", "रज़्मनामा", "रम्मनामा" और "मजमा-उल-बहरीन" जैसी घटिया किताबें भी दीं जो साफ तौर पर इस्लाम की बे-इज़्ज़ती करने वाली नापाक किताबें हैं। इन किताबों को पढ़कर हमारी आने वाली नस्लें क्या सीखेंगी ?"

फरीद ने कहा "जनाब, ये बात आप ठीक नहीं कह रहे हैं।"

सभी उनकी ओर देखने लगे थे।

बिना डरे हुए फरीद ने कहा "जनाब!! 'रज़्मनामा' असल में हिंदुओं की किताब 'महाभारत' का संस्कृत से फारसी में किया गया ट्रांसलेशन है, और इसे आज से सदियों पहले, अपने मक़तबखाने में खुद मुग़ल बादशाह अकबर ने तैयार करवाया था। ऐसा उन्होने इसलिये किया था जिस से मुल्क की अक्सरियत हिंदू आबादी की सोच और उनके मज़हब से जुड़ी बारीक बातों से अक़्लियत मुस्लिम आबादी अच्छी तरह से वाक़िफ हो सके, और दोनों ही कौमों में दंगे-फसाद, झगड़े, ये सब न हों, और मुल्क में अमन-चैन कायम रहे।"

सभी उलेमा उन्हें देख रहे थे।

"....अब अगर ऐसी कोई किताब हमने लाइब्रेरी में पढ़ने के लिये दी है तो इसमें इस्लाम की कौन सी तौहीन हो जाती है जनाब ?"

सवाल पूछने वाले उलेमा ने चीख कर कहा "यहाँ सवाल सिर्फ हम पूछ सकते हैं फरीद,...... आप नहीं!!!!"

फरीद चुप थे।

".....और आपको बता दें हम कि हमारी कौमों के बच्चों के लिये लाइब्रेरियों में 'रज़्मनामा' जैसी किताबें रखवाना इस्लाम के सख्त खिलाफ है। आप की बात कतई नहीं मानी जा सकती।"

एक दूसरे उलेमा ने नरम रुख दिखाते हुए कहा "वैसे मुझे तो नहीं लगता है कि 'रज़्मनामा' जैसी किताब लाइब्रेरी में रखवाना किसी तरह से इस्लाम के खिलाफ है।"

कई और उलेमा एक साथ बोल पड़े "हराम है!!......हराम है!!!......ये किताब तो हमारी लाइब्रेरियों में कतई नहीं होना चाहिये।........ये किताबें हमारी नस्लें बर्बाद कर देंगी."

एक बुज़ुर्ग उलेमा ने कहा "मुमकिन है कि गलती से रखवा दी हो।" फिर फरीद से पूछा "क्यों फरीद, जानबूझ कर रखवायी या लाइब्रेरी में गलती से यह किताब चली गयी ?"

फरीद ने कहा "5 कॉपियां मैंने खुद ही रखवायीं थीं जनाब।"

"देखा!!.....मैं तो जानता ही था, इस आदमी ने अल्लाह-पाक की बे-इज़्ज़ती करने की कसम उठा रखी है।" एक दूसरे उलेमा ने उछल कर ऐसे कहा मानों फरीद के जवाब से उसे सबसे ज़्यादा खुशी हुई थी।

उन सब ने फिर से अपने पास रखे कागज़ों में कुछ नोट किया।

तभी डॉ. ज़ुल्फिकार बोले "जनाब!.....फरीद ने कोई भी गलती नहीं की है। 'महाभारत' हो या 'रज़्मनामा', इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस्लाम के खिलाफ हो।"

सभी उनकी ओर देख रहे थे।

डॉक्टर साहब ने साफ लफ्ज़ों में कहा "इतना तो मैं भी जानता हूँ जनाब कि बादशाह अकबर ने मक़तबखाने में ही 'रम्मनामा' किताब भी तैयार करवायी थी जो हक़ीकत में हिंदुओं की सबसे पाक किताब 'रामायण' का संस्कृत से फारसी में तर्जुमा था। इसके अलावा 'सिर्र-ए-अकबर' हिंदुओं के 50 उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में किया गया तर्जुमा था जो बादशाह शाहजहाँ के बेटे, शहज़ादा दारा शिकोह ने अपने मक़तबखाने में बाकायदा इस्लामी और हिंदू विद्वानों की एक पूरी मंडली बनाकर करवाया था। इसके अलावा शहज़ादे दारा शिकोह ने श्रीमद्भगवद्गीता का भी संस्कृत से फारसी में तर्जुमा करवाया था......इन सभी किताबों का तर्जुमा करवाने का एक ही मकसद था, जो कि अभी फरीद ने बताया है।"

कुछ उलेमाओं के चेहरे पर नाखुशी साफ दिख रही थी। इससे बेखबर डॉ. ज़ुल्फिकार ने अपनी बात आगे बढ़ाई "....इन किताबों का संस्कृत से फारसी में तर्जुमा बहुत नेक और पाक मकसद को हासिल करने के लिये करवाया गया था जनाब!.... दो कौमें जो ज़माने से लड़ती-झगड़ती आ रही थीं, उनके दरम्यान अच्छे तालुकात कायम करने और इस तरह से पूरे मुल्क में चैन-ओ-अमन कायम रखने की गरज़ से ये तर्जुमा करवाया गया था। इस्लाम भी यही कहता है जनाब, और अल्लाह-पाक का भी यही फरमान है कि जंग, दंगे-फसाद हर हाल में रोके जाने चाहिये, और किसी भी सूरत में अमन कायम रखना चाहिये......लिहाज़ा फरीद अली बेग़ पर तो इस बाबत कोई इल्ज़ाम ही नहीं बनता है, बल्कि हमें खुश होना चाहिये कि इन्होने ये किताबें लाइब्रेरी में रखवायीं।"

डॉक्टर साहब की बात से वहाँ शोर-शराबा होने लगा। एक उलेमा ने चीख कर कहा "मुझे समझ नहीं आता.....ऐसे-ऐसे लोग कॉलेजों में इस्लामिक स्टडीज़ के प्रोफेसर कैसे बन जाते हैं ?"

दूसरे ने कहा "चार किताबें इधर-उधर की पढ़ लीं, एक दो कौड़ी की पीएच.डी.  कर ली....बस बन गये प्रोफेसर!.....जबकि साफ नज़र आ रहा है कि डॉक्टर साहब और इनके मुवक्किल को इस्लाम के बारे में रत्ती भर भी मालूमात नहीं है।"

इतने में उन सभी में से सबसे बुज़ुर्ग नज़र आ रहे उलेमा ने कहा "आज की सुनवाई हम लोग यहीं रोकेंगे। इसके आगे के इल्ज़ामातों पर सुनवाई कल होगी।" और सुनवाई अगले दिन तक के लिये मुल्तवी कर दी गयी।

आज के अखबार में "इस्लाम क्या है ?" निबंध की अगली किस्त छपी थी जिसमें दोनों लेखकों ने मुल्क के नौजवानों से अपील की थी कि ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त लाइब्रेरियों में, और खेल के मैदानों में बितायें, ज़्यादा से ज़्यादा किताबें पढ़ें और ज़्यादा खेल-कूद करें, अपनी दिमागी जानकारी और शरीर की ताक़त को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ायें, और अपने माँज़ी, मुल्क और दुनिया की सियासत, और अपने इर्द-गिर्द के महौल की जितनी पुख्ता जानकारी रख सकें, ज़रूर रखें, ताकि उन्हें कभी कोई सियासतदां अपनी लच्छेदार बातों में फँसा कर, मज़हब और ज़ात के नाम पर बेवकूफ न बना सके, आपस में बाँट न सके, लड़ा न सके। उन्होनें लिखा था "स्वामी विवेकानंद जी कहते थे कि अगर 2 घंटे बैठकर भजन-कीर्तन करना हो, तो जाओ, जाकर 1 घंटे फुटबॉल खेलो, और फिर तरोताज़ा होकर घंटे भर लाइब्रेरी में बैठो।"


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