HARSH TRIPATHI

Drama Tragedy Classics Crime

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HARSH TRIPATHI

Drama Tragedy Classics Crime

दस्तूर - भाग-16 (आखिरी किस्त)

दस्तूर - भाग-16 (आखिरी किस्त)

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फरीद के मुकदमे का फैसला आने के बाद से क़ाशनी साहब और डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार दोनों लोग सदमे में थे। इस बात को करीब 3-4 दिन हो चुके थे, लेकिन क़ाशनी साहब और डॉक्टर साहब के दिल-ओ-दिमाग से यह बात निकल ही नहीं पा रही थी कि कैसे बिल्कुल झूठा, फर्ज़ी मुकदमा चलाकर, वाहियात से और बेबुनियाद इल्ज़ामात लगाकर, फरीद को इस्लाम से खारिज क़रार दे दिया गया था। डॉक्टर साहब मुकदमे के बाद से ही क़ाशनी साहब के घर पर ही रुके हुए थे और वे दोनों इस बात पर मंथन कर रहे थे कि आगे क्या कदम उठाया जाये

इसी तरह से एक शाम 5-6 बजे के इर्द-गिर्द वे दोनों ही क़ाशनी साहब के बरामदे में बैठकर चाय पी रहे थे। बिल्कुल इसी वक़्त सौघरा पुलिस की दो जीपें उनके घर के गेट के आगे आकर रुकीं, और उसमें से एक सीनियर इंस्पेक्टर अपने कई सारे सिपाहियों के साथ उतरा और गेट खोलकर पूरी अकड़ के साथ क़ाशनी साहब के घर के कैम्पस में दाखिल हुआ। अचानक इस समय, और इस तरीके से पुलिस को आते देख कर क़ाशनी साहब और डॉक्टर साहब अपनी-अपनी जगहों पर खड़े हो गये। उन दोनों के चेहरे पर ताज्जुब और फिक्रमंदी नज़र आ रही थी। अब तक वह सीनियर इंस्पेक्टर उन दोनों के पास आ चुका था और सिपाहियों ने भी उन्हे घेर लिया था

फिर क़ाशनी साहब ने ही सवाल किया "क्या हुआ इंस्पेक्टर साहब ?.......आप इस वक़्त यहाँ पर कैसे ?"

इंस्पेक्टर ने बड़े रौब से और अकड़ कर, रूखी सी सरकारी आवाज़ में कहा "जी क़ाशनी साहब, बात ही कुछ ऐसी थी कि हमें इसी वक़्त आना पड़ा "

डॉक्टर साहब ने पूछा "क्या बात है इंस्पेक्टर साहब ?"

इंस्पेक्टर ने पहले डॉक्टर साहब की ओर देखा, फिर क़ाशनी साहब की ओर एक कड़क, सफेद कागज़ बढ़ाते हुए उनसे उसी रूखी सी, सरकारी आवाज़ में कहा "हम आपको अरेस्ट करने आये हैं क़ाशनी साहब.......आपकी गिरफ्तारी का वारंट है हमारे पास "

क़ाशनी साहब यह सुनकर बिल्कुल दंग रह गये थे। इसके पहले कि वह कुछ समझ पाते, इंस्पेक्टर ने अपने कॉन्स्टेबल की ओर देखते हुए उसको हुक्म दिया "अरेस्ट हिम!!!" और उस कॉन्स्टेबल ने अब तक बिजली की तेज़ी से क़ाशनी साहब के दायें हाथ की कलाई में हथकड़ी पहना दी थी। यह देखकर डॉक्टर ज़ुल्फिकार गुस्से में आ गये थे, और उन्होनें क़ाशनी साहब के दायें हाथ की कलाई पकड़ते हुए इंस्पेक्टर से कहा "अरे-अरे!!!......ये क्या बदतमीज़ी है इंस्पेक्टर साहब ?.......ऐसा कैसे कर सकते हैं आप ? .........ऐसे कैसे आप किसी को भी अरेस्ट कर लेंगे ?"

"आपकी तारीफ ?" इंस्पेक्टर ने डॉक्टर साहब की ओर डंडा दिखाते हुए कड़क कर उनसे पूछा

डॉक्टर साहब ने भी कुछ अकड़ कर कहा "मैं वकील हूँ इनका, डॉक्टर ज़ुल्फिकार मोहम्मद "

"हाँ तो वकील साहब,…… अब आपको जो कुछ भी कहना-सुनना है, वो सब बाकी बातें आप थाने में आकर कीजियेगा " इंस्पेक्टर ने उन्हें टका सा जवाब दिया, और फिर उसने अपने सिपाहियों से कहा "ले चलो गाड़ी में इनको " और फिर वे सिपाही क़ाशनी साहब को धक्का देते हुए अपनी जीप की तरफ ले जाने लगे थे। वह सीनियर इंस्पेक्टर सबसे आगे था.

डॉक्टर साहब दौड़कर इंस्पेक्टर के आगे पहुँचे और उसका रास्ता रोकते हुए पूछा "… लेकिन इंस्पेक्टर साहब!..... क़ाशनी साहब इस शहर ही नहीं, इस सूबे के एक मानिंद आदमी हैं...... आप इनको इस तरह से कैसे अरेस्ट कर सकते हैं ?"

"क्या मतलब ?........कोई भी आदमी हो वकील साहब, कानून की नज़र में सभी बराबर हैं " इंस्पेक्टर ने बिना उनकी ओर देखे तेज़ी से आगे बढ़ते हुए कहा। "....... और पुलिस का रास्ता मत रोकिये आप!! ......आप हटिये सामने से!!" यह कहते हुए उस इंस्पेक्टर ने डॉक्टर साहब को हल्का सा धक्का देकर एक तरफ करने की कोशिश की

"......अरे मेरा मतलब यह कि चार्जेज़ क्या हैं इन पर ?.......आप क्यों अरेस्ट कर रहे हैं इन्हें ?......आई मीन व्हाट आर दि चार्जेज़ ? प्लीज़ टेल अस इंस्पेक्टर!" डॉक्टर साहब ने एक बार फिर से इंस्पेक्टर का रास्ता रोकने की कोशिश करते हुए पूछा

इंस्पेक्टर अब तक अपने सिपाहियों और क़ाशनी साहब के साथ अपनी जीप के काफी करीब पहुँच चुका था। उसके सिपाहियों ने धक्का देकर क़ाशनी साहब को गाड़ी में बिठा दिया था। इंस्पेक्टर भी जीप में बैठने जा रहा था, लेकिन डॉक्टर साहब की बात सुनकर वह थोड़ी देर के लिये रुका और पीछे मुड़कर डॉक्टर साहब से कहा "सीरियस चार्जेज़ हैं वकील साहब,......सी. आर. पी. सी. सेक्शन थ्री सेवेंटी सेवेन .......और पुलिस की एक टीम डॉक्टर अखिलानन्द के घर भी गयी है उन्हें अरेस्ट करने " फिर इतना बोलकर वह तेज़ी से अपनी जीप में बैठा। पुलिस के दोनों ड्राईवरों ने तुरंत ही अपनी-अपनी जीपें स्टार्ट कर दी थी, और अगले ही पल धुआँ उड़ाती हुई दोनों जीपें तेज़ी से वहाँ से निकल गयीं

डॉक्टर साहब जीप में पीछे बैठे पुलिस के सिपाहियों के बीच, हाथों में हथकड़ियाँ लगे और सिर नीचे किये खामोश बैठे अपने दोस्त क़ाशनी साहब को जाता हुआ देखते रहे थे

"......सीरियस चार्जेज़ हैं वकील साहब, सी.आर. पी. सी. सेक्शन थ्री सेवेंटी सेवेन.......और पुलिस की एक टीम डॉक्टर अखिलानन्द के घर भी गयी है उन्हें अरेस्ट करने..... " इंस्पेक्टर के मुँह से यह सुनते ही डॉक्टर साहब सकते में आ गये थे। वह अपनी ही जगह पर बुत बनकर खड़े रह गये थे। उनकी ज़बान से एक लफ्ज़ नहीं फूटा था, मानो ज़बान मुँह के भीतर ही सिल गयी हो। उनके होंठ काँप रहे थे। तभी पीछे से हाँफते हुए, भागी-भागी अनीसा आयी, और उनके पास आकर खुद को सम्भालते हुए मुश्किल से पूछा " ......क्या हुआ डॉक्टर साहब ?.......क्या हुआ ?.......ये पुलिस ये पुलिस क्यों आयी थी यहाँ ? ........बाबाजी को क्यों ले गयी ? ...........पुलिस बाबाजी को ? "

डॉक्टर साहब अनीसा के सवालों से बेखबर, बिल्कुल बे-ऐतबारी में खड़े हुए अभी भी उस ओर देख रहे थे, जिधर पुलिस की जीपें गयी थीं। उनके काँपते हुए होंठो से धीमी आवाज़ में लफ्ज़ निकले "सी.... आर.... पी. सी.…… सेक्शन......थ्री.......सेवेंटी सेवन..........लाइफ इम्प्रिज़नमेंट....... " फिर वह भी आगे कुछ नहीं बोल सके

अनीसा ने फिर पूछा "क्या हुआ डॉक्टर साहब ?.......बताइये तो सही ?"

डॉक्टर साहब ने उसकी बातों का कोई भी जवाब नहीं दिया और तेज़ी से, बिना कुछ भी बोले क़ाशनी साहब के घर के अंदर चले गये

अगले एक घंटे के बाद डॉक्टर साहब अपने पूरे साजो-सामान के साथ सौघरा कैंट रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नं. 3 पर मौजूद थे। उनकी जेब में बरेली जाने वाली गाड़ी का टिकट था। थोड़ी ही देर के बाद वह गाड़ी वहाँ आ गयी और डॉक्टर साहब सीधे उस गाड़ी में चढ़कर बरेली के लिये रवाना हो गये.

सौघरा के रतनपुर थाने में, हवालात में बने पत्थर के एक चबूतरे पर अपना सिर नीचे किये हुए बिल्कुल खामोश क़ाशनी साहब बैठे हुए थे और सोच में डूबे हुए थे। जिस बात को इतने बरसों तक, इतनी मेहनत से, पूरी दुनिया से छुपा कर रखा हुआ था, आज वह बात आम हो गयी थी। वह ये सब बाते सोच ही रहे थे कि तभी अचानक थाने में कोलाहल सुनाई दिया। शोरगुल सुनकर क़ाशनी साहब चबूतरे से उठकर सलाखों के पास आ गये और सलाखें पकड़कर, बाहर देखते हुए शोरगुल की वजह जानने की कोशिश करने लगे। एक पुलिस वाला शायद किसी कैदी को गला पकड़कर और धक्का देते हुए ले आ रहा था और चिल्ला भी रहा था ".....चल साले हरामखोर!!!......चल!!........बहुत बड़ा यूनिवर्सिटी प्रोफेसर बना फिरता है मादरचोद!!!.........खुद भी यही सब करता है, और बच्चों को भी यही सब सिखायेगा कमीना!! ..........इस उम्र में भी जाकर ठरक में कोई कमी नहीं है!!!........चल हवालात में........अब बाकी की पूरी ठरक यहीं निकलेगी तेरी, जब उम्र भर सड़ता रहेगा साला इधर!!!! " क़ाशनी साहब ने अब गौर से देखा। डॉक्टर अखिलानंद को गिरफ्तार करके पुलिस ले आ रही थी। क़ाशनी साहब का दिल, जान से प्यारे अपने 'डियर अखिल' को देखकर रो उठा था। वह डॉक्टर अखिल से मिलने को मचल उठे थे, लेकिन वह कुछ नहीं कर सकते थे। क़ाशनी साहब बिल्कुल खामोश, और आँसुओं से भरी अपनी आँखें लिये सलाखों के पीछे कैद थे, और अपने सामने से उस पुलिसवाले को डॉक्टर अखिलानंद को भद्दी गालियाँ देते हुए, उनका गला पकड़कर और धक्का देकर, उन्हें किसी मुजरिम की तरह ले जाते हुए खामोशी से देखते रहे थे। इसके अलावा वह कुछ कर भी नहीं सकते थे। क़ाशनी साहब और डॉक्टर अखिलानंद की आँखें कुछ पलों के लिये मिलीं थीं। उन दोनों ने एक-दूसरे को कातर नज़रों से देखा लेकिन दोनों के मुँह से एक लफ्ज़ भी न निकला। पुलिसवाले ने डॉक्टर अखिल को क़ाशनी साहब के ठीक बगल वाली लॉकअप में ले जाकर बंद कर दिया था.

लगभग वह पूरा दिन उन दोनों के लिये पुलिसवालों के ताने सुनते हुए बीता। थाने में पुलिसवाले बड़ी बेशर्मी से उन दोनों को देखते हुए हँस रहे थे और उन्हें देखते हुए बिल्कुल घटिया और भद्दे तंज़ कस रहे थे " ......ये देख लो जी इन दोनों लैला-मजनू को ", "……वैसे एक बात तो बताओ प्रोफेसर साहब, आप दोनों में लैला कौन है और मजनू कौन ? ", "……अच्छा यह बताओ, कि तय कैसे करते हो कि कौन किसके ऊपर चढ़ता है ?… ", "… और आगे से या पीछे से ? ", "… अच्छा एक बात थोड़ा यह बताओ प्रोफेसर साहब, कि आप दोनों खाते क्या हो ? मतलब कौन सी दवा, कौन सी जड़ी-बूटी लेते हो ?......मतलब शिलाजीत और अश्वगंधा से भी ये कारनामा तो कतई नहीं हो सकता है, जो झंडा इस उम्र में जाकर आप लोगों ने गाड़ दिया है ", "… ये लोग कॉलेज के प्रोफेसर हैं नामी-गिरामी प्रोफेसर और देखो तो, क्या बेहतरीन काम करके क्या शानदार नाम किया है!!......", "… वैसे प्रोफेसर साहब, हमें हमदर्दी है आपसे......अब आपकी बीवी तो रही नहीं इस दुनिया में.......अब भूखा आदमी खाना तो ढूढ़ेगा ही ", "… और ये दूसरे नमूने को देखिये, इन जनाब की तो शादी भी ना हुई अभी तक.........अब इनकी ठरक को सम्भाल पाना तो हर एक के बस की बात भी नहीं है ", "… अरे भाई साहब ठरक तो ठीक है, लेकिन क्या वह भी ऐसी ? ", "… पूरे सौघरा भर की लड़कियाँ मर गयीं थीं क्या ? और चलो, जनाब को सौघरा की कोई लड़की पसंद ना भी आयी हो, तो भी हिंदुस्तान तो बहुत बड़ा मुल्क है करोड़ों खूबसूरत लड़कियाँ हैं यहाँ उन सबको छोड़कर क्या यही करना था इनको ? ", "… अब दिल आया गदही पर, तो परी का क्या दोष ? ", "……अरे गदही पर दिल आया होता तब भी बात थी, मगर ये ? " पुलिसवालों के बेशर्म और घटिया ठहाकों के बीच और भी न जाने क्या-क्या तंज़ पूरे दिन भर तक वे दोनों चुपचाप, बड़ी खामोशी से सुनते रहे थे

देर शाम उन दोनों को मजिस्ट्रेट के आगे पेश किया गया, जहाँ उन्हें सौघरा सेंट्रल जेल ले जाने का हुक्म दिया गया था। अगले ही दिन उन दोनों को सौघरा सेंट्रल जेल में शिफ्ट कर दिया गया था। उन दोनों को एक ही बैरक में, पास-पास लगने वाली दो अलग-अलग कोठरियों में रखा गया था

यह खबर सौघरा में आग की तरह फैल चुकी थी। इस बारे में लोगों का क्या सोचना था, यह बात क़ाशनी साहब के घर के बाहर पत्थरबाज़ी और उनके घर की दीवारों पर कालिख पोते जाने से साफ हो गयी थी। सौघरा की तमाम मस्जिदों के मौलवी, क़ाज़ी और ईमाम जो फरीद के मुकदमें के वक़्त से ही क़ाशनी साहब से खार खाये बैठे थे, अब उन्हें बदला निकालने का सुनहरा मौका मिल गया था। उन सभी ने आनन-फानन में अपनी-अपनी मस्जिदों से यह फतवा जारी कर दिया था कि क़ाशनी साहब का काम इस्लाम को गाली है, और इस्लाम में कुफ्र की जगह रखता है, लिहाज़ा अब एक पल के लिये भी उनका इस्लाम में बने रहना ना-काबिल-ए-बर्दाश्त है, और तत्काल प्रभाव से उन सभी ने क़ाशनी साहब को इस्लाम से खारिज करने का फरमान सुना दिया। क़ाशनी साहब के खिलाफ पूरे सौघरा शहर में धरना-प्रदर्शन शुरु हो गये थे, जिसमें क़ाशनी साहब और डॉक्टर अखिलानन्द को सख्त से सख्त सज़ा दिये जाने की माँग की जा रही थी। कुछ इंतेहापसंद लोग तो उन दोनों को फाँसी दिये जाने की भी ज़ोर-शोर से वकालत कर रहे थे। अखबारों में भी क़ाशनी साहब और डॉक्टर अखिलानंद के खिलाफ लगातार ज़हर उगला जा रहा था जो लोगों के गुस्से को और भी हवा दे रहा था

करीब तीन दिन बाद एक सुबह डॉक्टर अखिलानंद की कोठरी में उनकी लाश पायी गयी थी। उन्होनें रात में किसी वक़्त ब्लेड से अपने हाथ की नस खुद काट ली थी। बगल की कोठरी में पत्थर के चबूतरे पर बैठे क़ाशनी साहब सिर नीचे किये हुए बस रोये ही जा रहे थे। उनके कानों में डॉक्टर अखिल के वे लफ्ज़ गूँज रहे थे, जिन्हें वह अक्सर मुस्कुराते हुए कहा करते थे "......कुछ रिश्तों की खूबसूरती ही यही होती है हशमत, कि उन्हें बेपर्दा नहीं किया जाना चाहिये. " फिर वह बड़े प्यार से हँसते हुए, दाग़ के चंद अल्फाज़ पढ़ देते --

"....आशिक़ी से ही मिलेगा ऐ ज़ाहिद, बंदगी से खुदा नहीं मिलता."

 अपनी बेहद पाक मोहब्बत का आखिरी हक़ भी डॉक्टर अखिलानंद अदा कर चुके थे.

सौघरा का गवर्नमेंट मेंटल हॉस्पिटल उन दिनों बहुत मशहूर हुआ करता था। वह सूबे का सबसे बड़ा, और सबसे नामी-गिरामी अस्पताल था, जिसमें दूर-दूर से लोग अपना इलाज करवाने आया करते थे। इसी मेंटल हॉस्पिटल के सुप्रीटेंडेंट इंचार्ज थे डॉक्टर झा साहब। मेंटल हॉस्पिटल के सबसे सीनियर डॉक्टर वही थे, और मेंटल हेल्थ की दुनिया में काफी जाना-पहचाना नाम थे झा जी। करीब 30 साल की उनकी नौकरी हो चुकी थी और मेंटल हेल्थ की कोई भी कॉन्फ्रेंस, सेमिनार बिना झा साहब के पूरी नहीं होती थी। देश और दुनिया के काफी जाने-पहचाने, नामी-गिरामी मेडिकल जर्नलों में झा साहब के दर्जनों रिसर्च पेपर छप चुके थे, और मेंटल हेल्थ पर लिखी उनकी लिखी कई सारी किताबें हिंदुस्तान के तमाम मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाई जाती थीं। मिर्ज़ा हैदर उन दिनों सौघरा में ही थे, और इन्हीं डॉक्टर झा साहब से मुलाक़ात करने के लिये उन्होनें खासतौर पर उनको अपनी रानी की मंडी वाली कोठी पर एक शाम बुलाया था.

उस शाम झा जी तयशुदा वक़्त पर मिर्ज़ा हैदर के घर पहुँच गये थे। मिर्ज़ा ने अपनी बैठक में उनका स्वागत किया और बड़े अदब से उनसे सोफे पर तशरीफ रखने को कहा। झा जी मुस्कुराते हुए सोफे पर बैठ गये और उनके सामने वाले सोफे पर मिर्ज़ा भी बैठ गये.

"कहिये डॉक्टर साहब, क्या लेंगे आप ?.....कुछ ठंडा-गर्म ?" मिर्ज़ा ने हँसकर पूछा.

"जी ठीक है मिर्ज़ा साहब!........ चाय ठीक रहेगी " मुस्कुराकर झा जी ने कहा.

थोड़ी ही देर में एक नौकर एक ट्रे में एक प्लेट काजू कतली और दो गिलास पानी लेकर आया और धीरे से सोफा सेट के ठीक बीच में रखी मेज पर वह ट्रे रख दी। मिर्ज़ा ने उसे दो चाय लाने को कहा। फिर वह नौकर चला गया.

काजू कतली की प्लेट उठाकर मिर्ज़ा ने डॉक्टर साहब की ओर बढ़ाई और कहा "लीजिये झा जी " झा साहब ने हँसते हुए एक मिठाई उठा ली। मिर्ज़ा ने फिर वह प्लेट मेज पर रख दी और खुद भी एक मिठाई उठा ली.

मिठाई खाते हुए झा जी ने पूछा "कहिये मिर्ज़ा साहब, हमें कैसे याद किया आपने ?"

मिर्ज़ा ने कहा "कुछ ज़रूरी बात करनी थी आपसे झा जी, इसलिये आपको तकलीफ दी "

"बतायें सर, आपके लिये तो हम हमेशा हाज़िर हैं " हँसते हुए झा जी बोले.

इतने में नौकर एक बड़ी सी ट्रे में दो कप चाय, एक प्लेट इलाहाबादी समोसे, सॉल्टेड काजू और दालमोठ लेकर हाज़िर हो गया। उसने बड़ी तहज़ीब से वो सब समान एक-एक करके मेज पर रखा और चला गया.

मिर्ज़ा ने चाय का प्याला झा जी की ओर बढ़ाते हुए कहा "लीजिये झा जी, चाय लीजिये. "

मिर्ज़ा के हाथ से चाय का प्याला पकड़ते हुए झा जी ने मुस्कुराकर कहा "आप भी लीजिये सर. "

फिर मिर्ज़ा ने भी अपना चाय का कप उठाया और एक समोसा खाते हुए कहा "आप प्रोफेसर हशमत क़ाशनी को तो जानते ही होंगे झा जी ?"

झा जी चाय पीते हुए हँसकर बोले "उन्हें कौन नहीं जानता सर!!!........ सौघरा की बेहद मकबूल, जानी-मानी शख्सियत हैं क़ाशनी साहब.......और अब तो उन्होनें क्या शानदार कारनामा करके दिखाया है, कि जिसने उनके बारे में कभी नहीं सुना होगा, अब तो वह भी उन्हें जान ही गया होगा."

मिर्ज़ा खामोशी से झा जी को देख रहे थे

"...... जब मैंने सुना तो मैं तो बिल्कुल दंग रह गया सर!........ ऐसा कैसे हो सकता है ? " बड़ी-बड़ी आँखों को घुमाते हुए, हैरानी से झा जी ने कहा.

मिर्ज़ा अब भी उन्हें देख रहे थे.

"....... मगर फिर मैने सोचा कि ये लोग बड़े फिलॉसफर, लेखक, कवि लोग हैं........अब नामी-गिरामी फिलॉसफर, कवि, लेखक, एक्टर वगैरह हम लोग जैसे आम लोग तो होते नहीं .........और एक बात तो पक्का होती है कि ये लोग बहुत रंगीन मिज़ाज़ होते हैं......... लेकिन अपनी रंगीन मिज़ाजी को दुनिया से बिल्कुल छिपा कर रखते हैं " बेशर्मी से हँसते हुए झा जी कह रहे थे.

मिर्ज़ा मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे

"....... लेकिन ये रंगीन मिज़ाजी ऐसी होगी, ये हमने कभी नहीं सोचा था. "

मिर्ज़ा अभी भी चुप ही थे

"....... फिर हमने सोचा कि इनकी बीवी तो रही नहीं अब ........अब घोड़ा घास खायेगा नहीं तो जियेगा कैसे ? .........आखिर ठरक मिटेगी कैसे ?" ताली बजाकर, ठहाका मारते हुए झा जी बोले.

मिर्ज़ा खामोश थे और सिर्फ होठों के कोने से मुस्कुरा रहे थे.

" .......वैसे भी सर, मर्द बूढ़े कहाँ होते हैं!!!" जोर से हँसते हुए झा जी ने कहा.

देर से खामोश बैठे मिर्ज़ा ने अब कहा "अब देखिये डॉक्टर साहब, जो बात है, सो बात है....... इसमें हम क्या कर सकते हैं ? .......और वैसे भी ये सब उनके ज़ाती मामलात हैं जिनमें हम कोई दखल न करें तो ही अच्छा है........ असल में हमारी फिक्र कुछ और है. "

"बतायें सर. "

"झा जी, क़ाशनी साहब हमारे टीचर रहे हैं.......ग्रेजुएशन और पोस्ट-ग्रेजुएशन में......यहाँ सौघरा डिग्री कॉलेज में,  और आज मैं जो भी कुछ बन पाया हूँ, वह सिर्फ क़ाशनी साहब की लिखाई-पढ़ाई की बदौलत ही मुमकिन हो सका है. "

झा जी गम्भीरता से सुन रहे थे.

"एक इंसान जिसका इतना बड़ा एहसान हो हमारे ऊपर, उसकी यह हालत हमसे देखी नहीं जाती झा साहब. " दु:खी मन से मिर्ज़ा ने कहा.

"कैसी हालत सर ?"

"हम सेंट्रल जेल से लगातार क़ाशनी साहब के बारे में इत्तला लेते रहते हैं . हमें बहुत फिक्र होती है उनकी. सेंट्रल जेल का जेलर बता रहा था कि पिछले कुछ वक़्त से लगातार क़ाशनी साहब की तबियत में गिरावट आती जा रही है उनके ज़ेहनी हालात कुछ ठीक नहीं चल रहे हैं। जेलर कह रहा था कि कभी वह अचानक चीखने-चिल्लाने लग जाते हैं, कभी बिना बात के ही रोना शुरु कर देते हैं, कभी जेल में ही अचानक भाषण देना शुरु कर देते हैं, कभी अकेले ही अचानक ही कव्वाली गाना शुरु कर देते हैं, कभी खुद से ही ज़ोर-ज़ोर से बातें करने लगते हैं, तो कभी अचानक एकदम चुप हो जाते हैं. "

"जी, जी. "

".......जेलर बता रहा था कि वह इस बात को पचा ही नहीं पा रहे हैं कि उनसे कोई गुनाह हुआ है, और पुलिस ने उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया है. अपने ऊपर इस पुलिसिया कार्रवाई से उन्हें काफी सदमा लगा है, और वह इस सदमे से बाहर नहीं आ सके हैं. "

"जी सर, इतनी बड़ी और मानिंद शख्सियतों के साथ ऐसा तो होता ही है.

"… और रही-सही कसर वह डॉक्टर अखिलानंद की खुदकुशी ने पूरी कर दी है .......उस से हमारे जनाब क़ाशनी साहब बुरी तरह हिल गये हैं. "

"जी, जी, यह तो लाज़िमी है सर. "

".....हमें इसी सिलसिले में आपकी मदद चाहिये झा जी। हम यह चाहते हैं कि क़ाशनी साहब को आप अपने मेंटल हॉस्पिटल में, और खासतौर पर अपनी निगरानी में रख लें, जिससे हमारे उस्ताद की ठीक तरह से देखभाल और इलाज हो जाये, और उनकी हालत में सुधार हो जाये. जेल में तो ऐसा कुछ भी मुमकिन नहीं है, ये तो आप जानते ही हैं. "

"ठीक है सर, मैं अपनी एक टीम भेजता हूँ जेल में वहाँ वह उनकी कुछ मामूली सी जाँच वगैरह करेगी और फिर हम उन्हें अपने हॉस्पिटल में एडमिट कर लेंगे " झा जी ने कहा.

मिर्ज़ा ने मुस्कुराकर कहा "बस इतना एहसान कर दीजिये झा जी. "

"कैसी बात करते हैं सर!! ......आपने कहा, समझिये कि हो ही गया " हँसते हुए झा जी ने कहा.

चाय पीते हुए मिर्ज़ा ने आगे हँसते हुए कहा ".....और आपके उस सिविल लाइंस वाले बँगले का काम कैसा चल रहा है झा जी ?.......सुना है काफी आलीशान बँगला बनवा रहे हैं आप पूरे 600 गज में ?....... पूरे सौघरा में चर्चा है आपके बँगले की. "

"अरे नहीं सर सब ईश्वर का आशीर्वाद है बस......... ये सब काम अपने चाहने से नहीं होते, जब ईश्वर चाहता है, तभी होते हैं. " खीसें निपोरते हुए झा जी बोले

"......सिविल लाइंस जैसे पॉश इलाके में 600 गज ज़मीन....... मतलब करीब साढ़े पाँच हज़ार स्क्वायर फीट ज़मीन, और उस पर इतना बड़ा, दो-मंज़िला खूबसूरत बँगला बनवाना ........मैं सच कह रहा हूँ झा जी, सौघरा में ऐसी बुलंद किस्मत तो किसी की भी न होगी ." मिर्ज़ा ने मंद-मंद मुस्कुराते हुए कहा

"वही तो मैं कह रहा हूँ सर, सब किस्मत का ही खेल है. "

".........फिर भी झा जी, मैने सुना है कि करोड़ों लगा रहे हैं आप उसमें ...........कोई बता रहा था कि इम्पोर्टेड इटैलियन मार्बल लगवा रहे हैं आप पूरे बँगले में .........क्या सच में ?" मिर्ज़ा ने मुस्कुराकर पूछा

"अरे कुछ नहीं सर, लोग तो बस ऐसे कुछ भी खबर उड़ा देते हैं .......थोड़ा अच्छा ज़रूर बनवा रहे हैं, ताकि आगे चलकर बेटा भी उसमें क्लीनिक खोल सके, प्रैक्टिस वगैरह कर सके बाकी ऐसा कुछ खास नहीं है सर.......... सिम्पल सा घर है…… मगर हाँ, कोशिश है कि अच्छा ही बने."

"बिल्कुल झा जी, घर रोज़-रोज़ थोड़ी बनता है ? घर तो अच्छा ही होना चाहिये. " मिर्ज़ा ने कहा

करीब एक हफ्ते के बाद मेंटल हॉस्पिटल से एक टीम क़ाशनी साहब की जाँच करने जेल पहुँची। टीम में एक डॉक्टर, 3 पैरामेडिक्स, 3 वार्डबॉय थे। जेलर उन्हें क़ाशनी साहब की कोठरी तक ले गया। उस वक़्त क़ाशनी साहब अपनी कोठरी में, पत्थर के चबूतरे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे। लॉकअप के पास खड़े कारिंदे ने दरवाज़ा खोला और जेलर के साथ पूरी मेडिकल टीम अंदर गयी। उन्हें अचानक ऐसे आता देख कर क़ाशनी साहब खड़े हो गये। जेलर ने उनसे कहा "क़ाशनी साहब, ये लोग हॉस्पिटल से आये हैं, आपकी हेल्थ की जाँच करेंगे.......... आप प्लीज़ को-ऑपरेट कीजियेगा. "

क़ाशनी साहब ने गुस्से में कहा "मेरी जाँच ?...... ये लोग मेरी जाँच करेंगे ?...... मुझे क्या हुआ है ?...... मैं बिल्कुल ठीक हूँ .........मेरी जाँच की कोई ज़रूरत नहीं है. "

"ये आप तय नहीं करेंगे क़ाशनी साहब, ये काम डॉक्टर्स का है. " जेलर ने कहा

"अरे, जब मैं कह रहा हूँ कि मैं ठीक हूँ बिल्कुल क्या मेरे बारे में ये मुझसे ज़्यादा जानेंगे ?" क़ाशनी साहब अभी भी गुस्से में थे.

साथ आये डॉक्टर ने हँसते हुए तंज़ किया "हर कोई पहले-पहल यही कहता है कि मैं बिल्कुल ठीक हूँ........... अगर आप ठीक होते तो ये शानदार कारनामा नहीं करते. "

वहाँ खड़े सभी लोग ठहाका मारकर हँस दिये.

क़ाशनी साहब अपमान का घूँट पीकर रह गये, मगर कुछ बोल न सके.

जेलर ने पहले क़ाशनी साहब, फिर साथ आये डॉक्टर की ओर हँस कर देखते हुए कहा "अब आप अपना काम कीजिये डॉक्टर साहब .........नाउ इट्स योर्स!" और इतना कहकर जेलर तेज़ी से कोठरी के बाहर निकल गया.

उसके जाते ही एक वार्डबॉय ने कोठरी का दरवाज़ा बंद कर दिया। उसके बाद देर तक क़ाशनी साहब की कोठरी से चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें ही आती रहीं " अरे क्या कर रहे हो तुम लोग ? ", "… अरे हमने कहा न कि हम बिल्कुल ठीक हैं.......... कुछ नहीं हुआ है हमें, फिर किस बात की जाँच ? ", "… अरे ये क्या कर रहे हो ? ", "… अरे छोड़ो मुझे.....", "...... अरे ये क्या है ? .......ये कैसा इंजेक्शन है ?.... ", "… छोड़ो मुझे .........इंजेक्शन क्यों लगा रहे हो ? क्या जाँच कर रहे हो ?...... ", "……अरे छोड़ो मुझे ......कुछ नहीं हुआ है मुझे ........छोड़ो मुझे ", "… मिर्ज़ा हैदर ने भेजा है न तुम लोगों को ? बोलो ? "

इसी तरह करीब अगले बीस मिनट तक आवाज़ें आती रहीं, और फिर धीरे-धीरे मद्धम पड़ते हुए आवाज़ें आनी बंद हो गयीं। मेंटल हॉस्पिटल की टीम चली गयी थी, और क़ाशनी साहब अपनी कोठरी के पत्थर के चबूतरे पर सो गये थे.

अब यह करीब हर हफ्ते का नियम सा बन गया था। हर हफ्ते में दो दिन, सोमवार और शुक्रवार इसी तरह से मेंटल हॉस्पिटल की टीम क़ाशनी साहब की जाँच करने सेंट्रल जेल में आती थी, इसी तरह से फिर जेलर उन्हें लेकर क़ाशनी साहब की कोठरी में जाता था और टीम को वहीं छोड़कर वह कुछ वक़्त बाद बाहर आ जाता था, फिर इसी तरह से एक वार्डबॉय कोठरी का दरवाज़ा बंद कर देता था। फिर इसी तरह से देर तक उस कोठरी से चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आया करती थीं, और इसी तरह से फिर धीरे-धीरे, मद्धम पड़ते हुए वह आवाज़ बंद हो जाती थी। फिर इसी तरह से वह टीम क़ाशनी साहब को उस पत्थर के चबूतरे पर सोता हुआ छोड़कर बाहर निकल जाती थी.

ऐसा होते-होते लगभग दो-ढाई महीने बीत गये थे। इन आठ-दस हफ्तों तक लगातार क़ाशनी साहब की जाँचे होती रहीं। अंततोगत्वा मेंटल हॉस्पिटल की सलाह पर और सौघरा पुलिस की सिफारिश पर सौघरा कोर्ट ने क़ाशनी साहब को सेंट्रल जेल से गवर्नमेंट मेंटल हॉस्पिटल में शिफ्ट करने का आदेश दिया, जिसके नताइज क़ाशनी साहब को मेंटल हॉस्पिटल में भेज दिया गया जहाँ उनकी निगरानी खुद झा साहब और डॉक्टरों की एक टीम ने सम्भाल ली थी.

डॉक्टर अखिल के खुदकुशी कर लेने के बाद, अब क़ाशनी साहब के खिलाफ मुकदमें में कोई दम नहीं रह गया था, लिहाज़ा कोर्ट ने भी उन्हें ज़मानत दे दी थी, जिसका विरोध भी सौघरा पुलिस ने नहीं किया था। मगर पुलिस ने और मेंटल हॉस्पिटल ने कोर्ट में यह ज़रूर साबित कर दिया था कि क़ाशनी साहब की ज़ेहनी तबियत काफी खराब है, और इस वजह से उन्हें लगातार डॉक्टरों की निगरानी में, अस्पताल में रखे जाने की सख्त ज़रूरत है। कोर्ट ने इसी कारण अपने आदेश में साफ कहा था कि क़ाशनी साहब को ज़मानत तो दी जा रही है लेकिन जब तक उनकी तबियत ठीक न हो जाये, जब तक वह स्वस्थ न हो जायें, तब तक उन्हें डॉक्टरों की निगरानी में मेंटल हॉस्पिटल में ही रखा जाये.

इसी तरह से करीब महीने भर बाद, एक दिन मिर्ज़ा खुद मेंटल हॉस्पिटल पहुँच गये और डॉक्टर झा से मुलाक़ात करके क़ाशनी साहब से मिलने की ख्वाहिश ज़ाहिर की। झा साहब और उनकी पूरी टीम मिर्ज़ा को लेकर क़ाशनी साहब के कमरे के बाहर पहुँच गयी। वहाँ मौजूद अस्पताल के कर्मचारी ने दरवाज़ा खोला और वे सभी लोग कमरे के भीतर दाखिल हुए। मिर्ज़ा ने देखा कि अपनी खराब तबियत के बावजूद क़ाशनी साहब, मुंशी प्रेमचंद की किताब 'मानसरोवर' में डूबे हुए थे। कमरे के दरवाज़े के खुलने की आवाज़ सुनकर क़ाशनी साहब का ध्यान भंग हुआ और उन्होनें नज़र उठाकर दरवाज़े की ओर देखा। सामने से मिर्ज़ा हैदर आते दिखाई दिये, जिनके पीछे-पीछे झा साहब और उनके साथ डॉक्टरों की पूरी टीम भी चली आ रही थी। अब तक मिर्ज़ा क़ाशनी साहब के बिस्तर के पास तक पहुँच चुके थे। क़ाशनी साहब ने भी किताब बंद करके अपने बिस्तर पर, बगल में रख दी थी। मिर्ज़ा ने बड़े अदब से झुककर अपने उस्ताद को सलाम किया "अस्सलाम वालेकुम जनाब!"

क़ाशनी साहब ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और बस मिर्ज़ा को देखते ही रहे। मिर्ज़ा को देखते ही क़ाशनी साहब का दिल नफरत से भर गया था। उनका खून खौलने लगा था और उनकी आँखों से अंगारे बरसने लगे थे, लेकिन ज़बान बिल्कुल खामोश थी। वह मिर्ज़ा से इतनी नफरत कर बैठे थे कि उनसे कुछ भी बोलने का उनका मन ही नहीं कर रहा था.

मिर्ज़ा ने खुद ही वहीं पास में पड़ी लोहे की एक छोटी स्टूल को अपनी ओर खींचा और खुद उस पर बैठ गये। उस्ताद और शागिर्द दोनों एक-दूसरे को खामोशी से देख रहे थे

मिर्ज़ा ने मुस्कुराते हुए क़ाशनी साहब से पूछा "कैसे हैं जनाब आप ?........ अब कैसी तबियत है आपकी ?"

क़ाशनी साहब खामोश ही रहे.

मिर्ज़ा ने अपने उस्ताद की ओर देखते हुए, अपने पीछे खड़े डॉक्टर झा से कहा "मालूम होता है कि आप और आपकी टीम काफी मेहनत कर रही है डॉक्टर साहब!........... ऐसा लगता है कि हमारे जनाब पूरी तरह सेहतयाब होकर ही यहाँ से जायेंगे."

क़ाशनी साहब ने कुछ नहीं कहा, और वह मिर्ज़ा को देखते ही रहे.

खीसें निपोरते हुए, पीछे खड़े झा जी ने कहा "बस सर जैसा आपने कहा था, वैसा ही कर रहे हैं......... हमारी पूरी टीम लगी हुई है ."

मिर्ज़ा और क़ाशनी साहब एक-दूसरे को चुपचाप देख रहे .थे

"पूरी मेहनत से क़ाशनी साहब की देखभाल और इलाज हम लोग कर रहे हैं........... उम्मीद है कि जल्द ही इनकी सेहत में और भी सुधार होगा......... हम तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं सर. " झा जी ने आगे कहा.

"जी, जी, हम समझते हैं डॉक्टर साहब " क़ाशनी साहब को देखते हुए मिर्ज़ा बोले.

क़ाशनी साहब अभी भी चुप थे

अपने उस्ताद की ओर देखते हुए मिर्ज़ा ने झा जी से कहा "हम हुज़ूर से थोड़ा तनहाई में बात करना चाहते हैं झा जी........... उम्मीद है आपको कोई ऐतराज़ न होगा. "

"बिल्कुल सर, ऐज़ यू विश!" यह कहकर झा साहब अपने पूरे स्टाफ के साथ कमरे से बाहर निकल गये। उनके जाने के बाद मिर्ज़ा स्टूल पर से उठे और दरवाज़े के पास जाकर दरवाज़ा बंद किया। फिर वह वापिस आकर पहले की तरह स्टूल पर बैठकर क़ाशनी साहब की आँखों में देखने लगे.

कमरे की इस खामोशी को मिर्ज़ा ने ही तोड़ा। क़ाशनी साहब के पास पड़ी 'मानसरोवर' किताब उठाकर उसे देखते हुए मिर्ज़ा ने मुस्कुराकर अपने उस्ताद से कहा "किताबों ने अब भी आपका साथ नहीं छोड़ा जनाब ?"  

क़ाशनी साहब ने तंज भरी मुस्कान के साथ जवाब दिया "ये किताबें हैं मिर्ज़ा हैदर..........इंसान नहीं हैं "

मिर्ज़ा चुप थे.

"....... ये साथ निभाना जानती हैं. "

मिर्ज़ा अभी भी खामोश थे.

"सच बताइये मिर्ज़ा, ......ये सब आपने सिर्फ इसलिये ही किया न ताकि आप हमसे फरीद का साथ देने का बदला ले सकें ?....... बोलिये, यही बात है न ?" क़ाशनी साहब का सवाल था.

मिर्ज़ा ने बहुत हल्की सी मुस्कुराहट के साथ कहा "जनाब!...... वह एक भिखारी ही था जो अपनी मौत मर गया .........उसकी बात आप क्यों करते हैं ?"

क़ाशनी साहब मिर्ज़ा को देख रहे थे.

" .....एक बादशाह आपके आगे बैठा हुआ है, आप उसकी बात कीजिये .......उस भिखारी को बीच में क्यों ले आते हैं ?"

"एक बादशाह की ही बात कर रहा हूँ मिर्ज़ा हैदर " क़ाशनी साहब ने हँसते हुए कहा "बादशाह तो वही था! .......और वही होगा!....... हमेशा!"

"आपकी कही सारी बातें तो गलत साबित हुईं जनाब! आज आपका वह बादशाह कहीं नहीं है. " मिर्ज़ा ने कहा

क़ाशनी साहब ने उसी तरह मुस्कुराते हुए कहा "मत भूलो बरखुरदार!!...... इस दुनिया के अलावा भी एक और दुनिया है,........ और फरीद उस दुनिया का बादशाह होगा. "

मिर्ज़ा खामोश बैठे क़ाशनी साहब को देख रहे थे

"........ और वहाँ उस दुनिया में, उस बादशाह के आगे तुम्हारी औक़ात एक भिखारी की ही होगी मिर्ज़ा हैदर."

मिर्ज़ा ने बेपरवाही से कहा "उस दुनिया में जब फरीद से आमना-सामना होगा, तब की तब देखी जायेगी जनाब!......... फिलहाल तो आप अभी की बात कीजिये। आपके ऊपर बेहद संगीन इल्ज़ामात हैं क़ाशनी साहब। सौघरा की सभी मस्जिदों ने आपको इस्लाम से खारिज करार दे दिया है "

क़ाशनी साहब कुछ वक़्त तक चुप रहे, फिर उन्होनें हँस कर कहा –

"ऐसे दस्तूर को, सुबह-ए-बे-नूर को;

मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता,

ज़ुल्म की बात को, जहल की रात को;

मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता "

फिर उन्होनें मिर्ज़ा को कुछ घूरते हुए, गुस्से से कहा -

" ......फूल शाखों पर खिलने लगे, तुम कहो;

जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो;

चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो;

इस खुले झूठ को, ज़ेहन की लूट को;

मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता "

मिर्ज़ा ने हँसते हुए कहा "आपके मानने-जानने से कुछ नहीं होता जनाब........ जो बात है, वह यही है. "

उसके बाद दोनों एक दूसरे को कुछ वक़्त तक खामोशी से देखते रहे। फिर मिर्ज़ा स्टूल से उठते हुए बोले "चादर ओढ़ लीजिये जनाब वरना सर्दी लग जायेगी आपको. "

क़ाशनी साहब ने लेटे हुए ही हँसकर कहा "अगर हमारी इतनी फिक्र करते हैं आप तो वह चादर आप ही ओढ़ा दीजिये हमें " यह कहकर क़ाशनी साहब ने अपने बिस्तर पर, अपने पैरों के पास बड़े करीने से तह लगाकर रखी सफेद रंग की चादर की ओर इशारा किया

मिर्ज़ा ने यह सुनकर बेपरवाही से उस सफेद चादर की तह पकड़कर चादर ऊपर उठायी, जिससे वह पूरी चादर खुल गयी। लेकिन फिर वहाँ कुछ अजीब हुआ.

ज्यों ही चादर पूरी खुली, मिर्ज़ा ने देखा कि उस सफेद चादर में से कई सारे खून से सने और कटे हुए सिर एक के बाद एक करके बिस्तर पर गिर पड़े। सबसे पहले शुज़ा का सिर गिरा, उसके बाद लुढ़कते हुए मुराद का सिर गिरा, फिर चादर में से सुलेमान का सिर गिरा, उसके बाद चादर में से दीवान का सिर बिस्तर पर गिरता नज़र आया, फिर आखिर में फरीद और डॉक्टर अखिलानंद का सिर बिस्तर पर गिरा.

यह देखना ही था कि मिर्ज़ा के मुँह से चीख निकल गयीं "नहींSSSSS!!!!! " उसी पल तुरंत उनके हाथ से चादर छूट गयी। मिर्ज़ा हड़बड़ा कर, डर के मारे अपना संतुलन खो बैठे और पीछे हटते हुए धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़े। उनके होंठ काँप रहे थे और उनकी ज़बान जैसे मुँह के भीतर ही सिल गयी थी। डर की वजह से उनकी घिग्गी बँध गयी थी। उनका पूरा जिस्म पसीने-पसीने हो गया था। उनकी साँसे और दिल की धड़कने बहुत तेज़ हो गयीं थीं। उनकी आँखें अभी भी क़ाशनी साहब के पैरों के पास वाले जगह पर गड़ी हुई थीं, जहाँ वे सभी कटे हुए सिर गिरे पड़े थे.

उन सभी कटे हुए, बिस्तर पर गिरे पड़े सिरों की आँखें खुली हुई थीं, और वे सभी ज़ोर-ज़ोर से, ठहाका लगाकर हँस रहे थे। हँसते हुए वे सभी सिर आपस में भी एक-दूसरे को देख रहे थे, और बार-बार वे लोग मिर्ज़ा की ओर देख कर भी ज़ोर से हँसे जा रहे थे। मिर्ज़ा को उन सिरों के मुँह से बार-बार, अलग-अलग आवाज़ें सुनाई दे रहीं थीं। फरीद और शुज़ा के सिर हँसते हुए मिर्ज़ा को बुला रहे थे " प्यारे मिर्ज़ा!! ", मुराद का सिर हँसते हुए बार-बार उनसे कह रहा था "… मिर्ज़ा भाईजान!! ", सुलेमान का सिर उन्हें प्यार से बुला रहा था "… चचाजान!!.....ओ चचाजान!!.... ", दीवान का सिर उन्हें बार-बार बुला रहा था "…जनाब!! " डॉक्टर अखिल का सिर भी हँसते हुए उन्हें बुला रहा था ".... बेटे मिर्ज़ा!! " मिर्ज़ा के कानों में उन लोगों की यह हँसी यूँ पड़ रही थी गोया कोई पिघला हुआ शीशा कानों में उड़ेल रहा हो.

मिर्ज़ा ने फिर क़ाशनी साहब की ओर देखा। क़ाशनी साहब बिस्तर पर लेटे हुए मुस्कुरा रहे थे और मिर्ज़ा को देख रहे थे। मिर्ज़ा बुरी तरह से डरे हुए थे और ज़मीन पर गिर हुए थे। मिर्ज़ा ने फिर से चौंकते हुए क़ाशनी साहब के कदमों के पास देखा। अब वहाँ कुछ भी नहीं था। सफेद रंग की वह तह लगी चादर जिसे मिर्ज़ा ने क़ाशनी साहब को ओढ़ाने के लिये उठाया था, वह अभी भी वहाँ बिगड़ी हुई , बेतरतीब सी पड़ी हुई थी। वहाँ कोई सिर नहीं था। कहीं से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। मिर्ज़ा ने फिर हैरानी से क़ाशनी साहब की ओर देखा। उन्होनें हँसते हुए मिर्ज़ा से पूछा "क्या हुआ मिर्ज़ा ?"

मिर्ज़ा ने फिर से डरते हुए क़ाशनी साहब के पैरों के पास वाली जगह पर देखा। वहाँ अब फिर से उन्हें वही ज़ोर-ज़ोर से हँसते हुए, अपने तीनों भाईयों, डॉक्टर अखिलानंद और दीवान के खून से लथपथ, कटे हुए सिर दिखायी दे रहे थे जो बार-बार मिर्ज़ा का नाम लेकर बुला रहे थे। वे सिर आपस में भी एक-दूसरे को देख रहे थे, और बार-बार मिर्ज़ा को देखकर हँस रहे थे.

मिर्ज़ा और ज़्यादा डर गये, वे फिर से चिल्ला उठे और अपना मुँह पीछे फेर लिया। कुछ देर तक वह ज़मीन पर यूँ ही पड़े रहे। फिर धीरे-धीरे अपनी गर्दन घुमा कर उन्होनें क़ाशनी साहब की ओर देखा। वह अभी भी ज़मीन पर गिरे मिर्ज़ा को देखकर हँस रहे थे। मिर्ज़ा ने फिर से गर्दन और ज़्यादा घुमाई और फिर से क़ाशनी साहब के पैरों के पास वाले हिस्से को देखा। वहाँ अभी भी न कोई सिर था, न कोई ठहाके वाली हँसी थी। सफेद रंग की वह चादर अभी भी वैसे ही बिगड़ी हुई, बेतरतीब पड़ी थी.

मिर्ज़ा किसी तरह से अपना होश सम्भाल कर खड़े हुए। उनकी निगाहें अभी भी क़ाशनी साहब के पैरों के पास वाले हिस्से पर लगी हुई थीं। मिर्ज़ा काफी डरे हुए, और पसीने से लथपथ थे। उन्हें अचानक क़ाशनी साहब की आवाज़ सुनाई दी "मिर्ज़ा!! क्या चादर नहीं ओढ़ाइयेगा हमें ?" मिर्ज़ा ने सहसा क़ाशनी साहब की ओर देखा जो मिर्ज़ा को देखकर मुस्कुरा रहे थे.

मिर्ज़ा ने कोई जवाब नहीं दिया। डरते हुए मिर्ज़ा अपने कदम पीछे की ओर खींचने लगे। उनकी साँसे काफी तेज़ चल रही थीं। दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। वह अभी भी क़ाशनी साहब के पैरों की ओर देख रहे थे। वह धीरे-धीरे पीछे की ओर हटते जा रहे थे। पीछे हटते हुए अचानक मिर्ज़ा की पीठ पर कोई धक्का सा लगा। उन्होनें तुरंत डरते हुए पीछे देखा। मिर्ज़ा असल में पीछे हटते हुए बिल्कुल कमरे के दरवाज़े तक आ पहुँचे थे। उन्होनें धीरे-धीरे पीछे मुड़कर दरवाज़े की सिटकिनी खोली, लेकिन मिर्ज़ा की निगाह अभी भी क़ाशनी साहब के पैरों की तरफ ही लगी हुई थी। वहाँ सिवाय एक सफेद चादर के, और कुछ भी नहीं था। वहाँ अभी भी वह सफेद चादर बिगड़ी हुई, बेतरतीब सी पड़ी थी.

मिर्ज़ा ने आँखें बंद करके दरवाज़ा खोला और तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गये.

मिर्ज़ा रात को अपनी रानी की मंडी वाली कोठी में, अपने कमरे में अकेले सो रहे थे। ज़ीनत अपने बच्चों को लेकर मायके चली गयी थीं। गहरी नींद में सोये मिर्ज़ा को सपने में फिर से फरीद, शुज़ा, मुराद, सुलेमान, डॉक्टर अखिलानंद और दीवान के खून से सने, कटे हुए सिर ज़ोर-ज़ोर से हँसते हुए दिखाई देने लगे थे। वे बार-बार मिर्ज़ा को आवाज़ दे रहे थे " प्यारे मिर्ज़ा!! ", "… मिर्ज़ा भाईजान!! ", "… चचाजान ओ चचाजान!! ", "…जनाब!! ", "… बेटे मिर्ज़ा हैदर!! "। मिर्ज़ा को बार-बार सपने में क़ाशनी साहब की आवाज़ें आ रही थीं " .....मत भूलो बरखुरदार!!....... इस दुनिया के अलावा भी एक और दुनिया है, .......और फरीद उस दुनिया का बादशाह होगा........ और वहाँ उस दुनिया में, उस बादशाह के आगे तुम्हारी औक़ात एक भिखारी की ही होगी मिर्ज़ा हैदर!!!..... "

मिर्ज़ा सपने में देख रहे थे कि फरीद एक आलीशान दरबार में, एक बेशकीमती सिंहासन पर बैठे हुए हैं। उनके दोनों तरफ नीचे की ओर कुर्सियों पर मुराद, शुज़ा, सुलेमान, डॉक्टर अखिलानंद और दीवान बैठे हुए हैं। उन सभी के जिस्म पर हीरे-जवाहरात जड़े हुए बेशकीमती कपड़े हैं। खूबसूरत हूरें उन सभी को पंखा झल रही हैं, और तमाम लज़ीज़ पकवान खिला रही हैं। उन सभी के आगे फटे-पुराने, गंदे से, बदबूदार कपड़ों में, बिखरे हुए बालों और दाढ़ी में भीख माँगते हुए मिर्ज़ा हैदर कटोरा लेकर खड़े हैं। उन सभी के आगे मिर्ज़ा फूट-फूट कर रो रहे हैं, और उनसे कपड़े और खाना माँग रहे हैं। मिर्ज़ा कातर नज़रों से उन सभी की थालियों की ओर देख रहे हैं जो तमाम लज़ीज़ पकवानों से भरी हुई हैं, लेकिन जिनमें से एक दाना भी मिर्ज़ा के कटोरे में नहीं आ रहा है। लेकिन ऐसा लगता था कि उनमें से किसी को भी मिर्ज़ा हैदर नज़र नहीं आ रहे हैं। मिर्ज़ा की आवाज़ को वहाँ कोई भी सुन नहीं रहा है.

अचानक मिर्ज़ा की नींद टूट गयी और वह तुरंत ही उठ कर अपने बिस्तर पर बैठ गये। उनकी साँसे और दिल की धड़कनें बहुत तेज़ चल रही थीं। मिर्ज़ा का पूरा जिस्म पसीने से भीगा हुआ था.

अगले करीब डेढ़ महीने बाद क़ाशनी साहब को अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी थी। बीते कुछ महीनों में पहले सेंट्रल जेल में, और फिर मेंटल हॉस्पिटल में उन्हें नुकसान पहुँचाने की पुरज़ोर कोशिश की गयी थी। ज़हरीली, नशीली दवाओं के खतरनाक इंजेक्शन उन्हें बार-बार लगाये गये थे। उन दवाओं का ओवरडोज़ तक उन्हें देने की कोशिश की गयी थी। मेंटल हॉस्पिटल में भी उन्हें ज़बरदस्त ढंग से इलेक्ट्रिक शॉक तक दिये गये थे, लेकिन इन सभी को क़ाशनी साहब ने झेल लिया था। थक-हारकर अस्पताल प्रशासन ने उन्हें डिस्चार्ज करने का फैसला किया था.

अस्पताल से छूटकर क़ाशनी साहब रात के अंधेरे में सीधे अपने घर जाना चाहते थे, लेकिन अचानक उन्हें फरीद का अंजाम याद आ गया। फरीद ने भी इसी तरह से रात के अंधेरे में अपने घर जाने की कोशिश की थी जिसकी कीमत उन्हें अपनी जान से हाथ धोकर चुकानी पड़ी थी। इसी बात को सोचकर क़ाशनी साहब ने दिन के उजाले में ही मुँह पर एक कपड़ा डालकर अपने घर पैदल ही निकल जाने का फैसला किया.

क़ाशनी साहब अपने घर से थोड़ी दूरी ही थे जब अचानक उनके आगे तेज़ी से एक वैन आकर रुकी। वैन में से बिजली की तेज़ी से कुछ नकाबपोश लोग उतरे और तुरन्त की क़ाशनी साहब के चेहरे पर एक काला कपड़ा लपेटते हुए बहुत ज़ोर से क़ाशनी साहब को धक्का देकर उन्हें वैन में डाल दिया। फिर खुद भी वह लोग वैन में चढ़ गये और वैन के ड्राईवर ने बहुत तेज़ी से वैन भगा ली। दिन-दहाड़े ही क़ाशनी साहब को अगवा कर लिया गया था.

क़ाशनी साहब के चेहरे से जब कपड़ा हटा तो उन्होनें खुद को एक सीलन भरी जगह पर पाया। उन्होनें अपने इर्द-गिर्द देखा तो पाया कि वह शायद किसी बिल्डिंग कंसट्रक्शन साइट की छत थी। आस-पास मजदूर और मशीनें लगी हुईं थीं, और ज़ोर-शोर से काम चल रहा था। चारों तरफ पानी, बालू और सीमेंट बिखरा हुआ था, और पानी मिले सीमेंट-बालू, डीज़ल जलने से पैदा हुए धुएं वगैरह की गंध सब तरफ फैल रही थी। क़ाशनी साहब ने खुद को एक धूलभरी कुर्सी पर बैठा हुआ पाया, उनके हाथ पीछे रस्सी से बँधे हुए थे और उनके आगे एक गंदी से मेज भी रखी हुई थी। उन्हें चारों ओर से घेरकर कुछ हथियारबंद आदमी खड़े हुए थे.

क़ाशनी साहब ने उनमें से एक की ओर देखकर गुस्से मे कहा ".....क्यों रे मिर्ज़ा हैदर के पालतू कुत्तों!! ........उसी हरामखोर ने भेजा है न तुम लोगों को मुझे मारने के लिये ?"

उस आदमी ने गुस्से से भड़क कर कहा "हमसे कहा गया है कि हम तुझसे बात न करें………वरना इस बुढ़ापे में अगर तेरे जैसे किसी की हड्डियाँ टूटती हैं, तो उम्र भर तक नहीं जुड़ती हैं रे बुड्ढे!!!! .......इसलिये अपना मुँह बंद रख तू!!"

क़ाशनी साहब मन मसोस कर रह गये.

थोड़ी देर बाद वहाँ हलचल अचानक बढ़ गयी। दो आदमियों ने वहाँ पर आकर, क़ाशनी साह्ब के पास खड़े उस आदमी से कहा "साहब आ गये हैं. "

"हम्म्म्म ठीक है " उस आदमी ने उनसे कहा.

"अच्छा, तो मलिक आ गये तुम्हारे " क़ाशनी साहब ने उस आदमी से मुस्कुराकर कहा.

उस आदमी ने गुस्से में उनको देखा, मगर कुछ कहा नहीं.

तभी सामने से अपने कई आदमियों के साथ मिर्ज़ा हैदर आते दिखायी दिये। उनके साथ उनका खास आदमी हेमचंद भी था, साथ ही उनके साथ-साथ ही एक और अधेड़ उम्र का आदमी बहुत लम्बी दाढ़ी रखे और पठानी सूट पहने आता दिखायी दिया। शक्ल-सूरत और ढाँचे से वह शायद किसी मस्जिद का कोई ईमाम या मौलवी लग रहा था। अब तक वे लोग क़ाशनी साहब के पास आ चुके थे

क़ाशनी साहब और मिर्ज़ा कुछ देर तक एक-दूसरे को देखते ही रहे। फिर क़ाशनी साहब ने ही अपने दाँत पीसते हुए, गुस्से से मिर्ज़ा की ओर देखकर कहा ".....अब और कितना नीचे गिरोगे मिर्ज़ा हैदर ?"

मिर्ज़ा ने पहले अपने पास खड़े उस मौलवी की ओर देखा फिर मंद मुस्कान के साथ क़ाशनी साहब से कहा "दीन की हिफाज़त के लिये, कभी-कभी कुछ ज़रूरी कदम उठाने पड़ते हैं क़ाशनी साहब "

".....आपका हर कदम दीन की हिफाज़त नहीं, बल्कि दीन की बरबादी की जानिब बढ़ रहा है मिर्ज़ा हैदर बेग " क़ाशनी साहब अब भी गुस्से से फुफकार रहे थे.

मिर्ज़ा खामोश खड़े थे.

" .....जो इंसान अपने बाप का न हुआ, अपने सगे भाईयों का न हुआ ........जिसके हाथ अपने भाईयों के खून से रंगे हुए हैं......... जिसे अपने भाईयों को कत्ल करते एक पल के लिये भी शर्म न आयी, वह दीन की हिफाज़त क्या खाक़ करेगा ?" क़ाशनी साहब ने मिर्ज़ा को डाँटते हुए कहा.

मिर्ज़ा ने मौलवी साहब की ओर देखा। मौलवी साहब ने फिर क़ाशनी साहब से कहा "क़ाशनी साहब!! इस दीन-ए-इस्लाम की हिफाज़त करने के लिये, अल्लाह का हुक्म मानते हुए हमारे हुज़ूर हज़रत इब्राहीम भी अपने बेटे हज़रत इस्माईल को क़ुरबान करने को तैयार हो गये थे........... हुज़ूर मिर्ज़ा हैदर ने भी अपने भाईयों की क़ुरबानी भी इसी दीन-ए-इस्लाम की हिफाज़त करने के लिये दी है. "

"अच्छा, तो अब आप हमें इस्लाम के बारे में बतायेंगे ?" क़ाशनी साहब ने कहा.

"......ये हमारा फर्ज़ है कि अल्लाह के रास्ते से गुमराह हुए हर मुसलमान को हम सही रास्ते पर लायें " मौलवी ने कहा.

क़ाशनी साहब चुप थे.

मौलवी ने आगे कहा " ......और वैसे भी.......फरीद अली बेग़ जैसे क़ाफिर और गद्दार का न होना ही दीन-ए-इस्लाम के लिये सबसे बेहतर है. "

क़ाशनी साहब अब भी कुर्सी पर खामोश और काफी गुस्से में बैठे थे.

अब मिर्ज़ा ने मौलवी साहब की ओर देखा, फिर क़ाशनी साहब से कहा "मौलवी साहब का कहना है कि अगर आप अपनी गलती मान लेते हैं, और तौबा कर लेते हैं, तो आपको माफी दी जा सकती है. "

"जी हाँ जनाब!....... इस्लाम दुनिया का सबसे मक़बूल मज़हब है, जिसमें अपने गुनाहों की माफी माँग लेना कायनात का सबसे पाक काम समझा गया है,.......और माफी माँगने वाले को माफ कर देना अल्लाह-पाक की सबसे बड़ी नेमत है। अल्लाह अपने गुनाहों की दिल से माफी माँगने वाले हर शख्स को ज़रूर माफ कर देता है क़ाशनी साहब…… और उसे हमेशा जन्नतनशीं करता है " मौलवी ने कहा.

"माफी ? .......किस बात की माफी ?....... और किससे ?" क़ाशनी साहब ने गुस्से में सवाल किया.

"माफी उस गुनाह-ए-अज़ीम की जो आपने किया…… उस क़ाफिर, नामुराद अखिलानंद के साथ मिलकर " अब तक वह मौलवी भी तैश में आ गया था.

"कोई भी गुनाह नहीं किया हमने......... सिर्फ मोहब्बत की है बस!" क़ाशनी साहब ने सिर ऊँचा करके कहा.

मिर्ज़ा और मौलवी उन्हें देख रहे थे.

" .....और अगर कोई गुनाह किया है तो बस यह कि हम अपनी पाकीज़ा मोहब्बत को पूरी ईमानदारी, पूरी वफादारी से निभा नहीं पाये " क़ाशनी साहब की आँखों में अब आँसू आ रहे थे

मिर्ज़ा और मौलवी चुपचाप उन्हें देख रहे थे

" जिस वक़्त हमें अपने अखिल के साथ खड़ा होना था, उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर इस ज़माने की घटिया, सड़ी हुई रवायतों से लड़ना था……… उस वक़्त बीच मझधार में उन्हें अकेला छोड़कर, इस दुनिया, इस माशरे से डरकर हम भाग खड़े हुए .........यह गुनाह-ए-अज़ीम हुआ है हमसे और इस बात के लिये हम अपने अखिल से हर रोज़, हर पल माफी माँगते हैं " क़ाशनी साहब का सिर नीचे झुका हुआ था और वह फूट-फूट कर रो रहे थे

मिर्ज़ा और वह मौलवी अभी भी चुपचाप खड़े थे

"....... लेकिन इसके अलावा न हमने कोई गुनाह किया है, और न ही हम माफी माँगेंगे " क़ाशनी साहब ने फिर सिर ऊँचा करके जवाब दिया

"जो आपने किया है, वह कुफ्र है इस्लाम में दुनिया का कोई भी सच्चा मुसलमान कभी ऐसा गुनाह नहीं कर सकता. " चीखते हुए मौलवी बोला

"झूठ बोल रहे हो तुम!...! " गुस्से में गरजते हुए क़ाशनी साहब बोल पड़े। " ......कुछ अता-पता नहीं है तुम्हें, न इस्लाम के बारे में और न ही मुसलमानों के बारे में..... " क़ाशनी साहब की साँसे तेज़ चल रही थीं.

मौलवी और मिर्ज़ा भी इसे देखकर सकते में आ गये थे.

"....... सिर्फ दाढ़ी बढ़ा लेने से, सफेद चोगा पहन लेने से और अरबी-फारसी के चंद मुट्ठी भर अल्फाज़ रट लेने भर से ही कोई मुसलमान नहीं हो जाता मौलवी साहब!" मौलवी को डाँटते हुए क़ाशनी साहब ने कहा.

मिर्ज़ा और मौलवी दोनों खामोश थे.

 " मुगल बादशाह बाबर की लिखी किताब 'तुज़ुक-ए-बाबरी' पढ़ी है क्या तुमने ?" गुस्से में आकर क़ाशनी साहब ने उस मौलवी से सवाल किया.

मौलवी के पास कोई जवाब नहीं था.

" कहाँ से पढ़ी होगी ?...... पढ़ाई-लिखाई से वास्ता ही क्या है तुम लोगों का ?....... एकदम अनपढ़, गँवार और जाहिल हो सब के सब…… और इस कौम को भी ऐसा ही बरबाद करके छोड़ोगे!" क़ाशनी साहब ने मिर्ज़ा और मौलवी को फटकार लगाते हुए कहा.

मौलवी साहब और मिर्ज़ा उन्हें देख रहे थे

" .......अगर 'तुज़ुक-ए-बाबरी' पढ़ी होती तो तुम्हें पता होता, कि मुगल बादशाह बाबर जब फरगना का राजा था तब वह वहाँ पर एक लड़के से ही बेपनाह मोहब्बत किया करता था......... बाबर ने खुद अपनी किताब में अपनी कलम से यह बात लिखी है "

वे दोनों अभी भी क़ाशनी साहब को सुन रहे थे

" ........बाबर ने साफ लिखा है कि अपनी सियासी मजबूरियों, अपने रिश्तेदारों के साथ रंजिशों, और तमाम लड़ाईयों के चलते ही उसे फरगना छोड़कर हिंदुस्तान आना पड़ा , और बाबर को ताउम्र यह ग़म सालता रहा था कि अपनी सच्ची मोहब्बत को वह सियासत की सूली पर चढ़ा कर, पीछे फरगना में ही छोड़ आया "

मिर्ज़ा और मौलवी खामोश खड़े थे.

" ....अब बताओ ज़रा क्या गुनाह किया है मैंने ?" क़ाशनी साहब ने सवाल किया

मौलवी ने कहा "चाहे जो भी बात हो……… आप खुद को मुगल बादशाह बाबर के बराबर समझने की भूल कतई न करें.......आपकी औक़ात ही नहीं है. "

क़ाशनी साहब चुप ही रहे.

अब तक बिल्कुल चुप रहे मिर्ज़ा ने कहा "देखिये क़ाशनी साहब, मौलवी साहब की बात का सीधा सा मतलब यह है कि अगर आप अपनी गलती ही माफी माँग लें, और हमारा साथ दें, तो आपको आपकी तमाम मुश्किलों से आज़ादी मिल सकती है. "

"क्या मतलब ?" क़ाशनी साहब ने कहा.

"...मतलब यह कि अगर आप अखबारों में पब्लिकली, अपने किये कामों की माफी माँग लें, और फरीद भाईजान की बजाय हमारे रुख की पैरवी करें तो फिर कोई मुश्किल ही नहीं है .......इस्लाम में आपकी वापसी के दरवाज़े हमेशा खुले हैं "

मौलवी ने भी कहा "जी जनाब!....... फिर कोई भी मुश्किल नहीं है। मस्जिदों का फतवा हम खारिज करवा देंगे या फिर वे सब लोग आपसे माफी माँग कर अपने फतवे वापिस ले लेंगे."

क़ाशनी साहब ने हँस कर तंज किया "....जी हाँ! ......बिल्कुल आपकी तरह. "

"क्या मतलब ?"

"....मतलब यह मौलवी साहब कि चंद सिक्कों के लिये आपने अपना दीन-ओ-ईमान इस नापाक इंसान के हाथों बेच दिया है......... जो भी कुछ आप बोल रहे हैं, ये सिर्फ आवाज़ आपकी है, ज़बान इसी घटिया इंसान की है " मिर्ज़ा की ओर देखते हुए क़ाशनी साहब ने गुस्से से कहा.

मिर्ज़ा और मौलवी अभी भी खामोश खड़े थे.

"हम माफी नहीं माँगेंगे........और यह बात आप लोग गौर से सुन लीजिये " क़ाशनी साहब ने कहा.

मिर्ज़ा ने नाराज़गी से कहा "एक दफा फिर से सोच लीजिये क़ाशनी साहब. "

".....नहीं सोचना है हमें दोबारा .......हम माफी कतई नहीं माँगेंगे. "

मिर्ज़ा ने हेमचंद को इशारा किया। इशारा मिलते ही हेमचंद ने अपनी पिस्तौल निकाली और क़ाशनी साहब के सिर पर तान दी.

क़ाशनी साहब गुस्से में मिर्ज़ा हैदर और हेमचंद की ओर देख रहे थे

मौलवी साहब ने अब मुस्कुराते हुए कहा "चलिये क़ाशनी साहब....... अब हम लोग तो सच्चे मुसलमान हैं नहीं,……… तो अब आपके सच्चा मुसलमान होने की पहचान करते हैं. "

क़ाशनी साहब उसे घूर रहे थे.

मौलवी ने कहा " अब आप कलमा पढ़िये क़ाशनी साहब.... " और उसके बाद उस मौलवी ने कलमा पढ़ा "....ला-इलाह इल्लल्लाह, मुहम्मद-उर-रसूल-अल्लाह. " कलमा पढ़कर वह मुस्कुराते हुए क़ाशनी साहब को देखने लगा। क़ाशनी साहब भी उसे देख रहे थे

मौलवी ने कहा "कलमा पढ़िये क़ाशनी साहब. "

क़ाशनी साहब अब भी उसे ही देख रहे थे और खामोश बैठे थे.

मिर्ज़ा ने कहा "कलमा पढ़िये जनाब. "

क़ाशनी साहब मिर्ज़ा की ओर देखते हुए गुस्से में बोले "ला-इलाह " और फिर वह चुप हो गये। उन्होनें आगे कुछ नहीं कहा और मिर्ज़ा को घूरने लगे.

मौलवी ने कुछ चिढ़कर कहा "पूरा कलमा पढ़िये क़ाशनी साहब. " फिर उस मौलवी ने दोबारा पूरा कलमा पढ़ा "ला-इलाह इल्लल्लाह, मुहम्मद-उर-रसूल-अल्लाह. "

क़ाशनी साहब अभी भी मिर्ज़ा को ही देख रहे थे

मौलवी कुछ ऊँची आवाज़ में बोला "कलमा पढ़िये क़ाशनी साहब. "

मिर्ज़ा को देखते हुए क़ाशनी साहब बोले "ला-इलाह " और वह फिर से चुप हो गये.

मिर्ज़ा भी नाराज़गी से उन्हें घूर रहे थे.

मौलवी अब भड़क उठा और चिल्लाते हुए बोला "कैसा बदज़ात और बिल्कुल ही कमीना आदमी है यह हरामखोर!!..... यह कलमा भी नहीं पढ़ सकता है ?.....यह कमीना तो अल्लाह के वजूद को ही खारिज करता है !!"

मिर्ज़ा ने क़ाशनी साहब को डाँटते हुए कहा "कलमा पढ़िये जनाब. "

मौलवी अब भी चिल्ला रहा था "...यह आदमी कतई मुसलमान हो ही नहीं सकता है....... ऐसे इंसान का तो सिर ही कलम करना चाहिये!! ......यही सारी पट्टी इसने उस नामुराद, हरामखोर फरीद को पढ़ाई होगी इसीलिये उसका यह अंजाम हुआ, और अब इसका भी वही अंजाम होगा. "

मिर्ज़ा ने क़ाशनी साहब से कहा "पूरा कलमा पढ़िये जनाब " और फिर मौलवी की ओर इशारा किया

मौलवी ने फिर कलमा पढ़ा "ला-इलाह इल्लल्लाह, मुहम्मद-उर-रसूल-अल्लाह. "

मिर्ज़ा ने कहा "चलिये क़ाशनी साहब, कलमा पढ़िये. "

क़ाशनी साहब भी ज़िद्दी थे। मिर्ज़ा को देखते हुए उन्होने कहा "ला-इलाह " और वह फिर से बिल्कुल चुप हो गये। पूरा कलमा उन्होनें अब भी नहीं पढ़ा.

वह और मिर्ज़ा अब भी एक-दूसरे को गुस्से से देख रहे थे

मौलवी फट पड़ा "निहायत ही बदतमीज़ और नीच किस्म का आदमी है ये कमीना!!.......यह आदमी अल्लाह को ही नहीं मानता है!!!"

मिर्ज़ा ने कहा "कलमा पढ़ लीजिये जनाब! .......आपकी इस्लाम में वापसी हो जायेगी. "

क़ाशनी साहब तंज भरी मुस्कान के साथ मिर्ज़ा को देख रहे थे और खामोश थे.

मौलवी ने उन्हें डाँटते हुए कहा "आखिरी दफा कहता हूँ .......कलमा पढ़ ले हरामखोर!!....." और फिर उसने कलमा पढ़ा ".....ला-इलाह इल्लल्लाह, मुहम्मद-उर-रसूल-अल्लाह. "

क़ाशनी साहब मौलवी को देख भी नहीं रहे थे। मिर्ज़ा को देखते हुए उन्होने कहा "ला-इलाह " और वह फिर से चुप हो गये.

अब तक पानी मिर्ज़ा के सिर से भी गुज़र चुका था। बुरी तरह से झल्लाकर मिर्ज़ा चीखते हुए बोले "हेमचंद!!!...... गोली मार साले को!!"

क़ाशनी साहब के सिर पर पिस्तौल रखकर खामोश खड़े हेमचंद ने अपने मालिक का यह हुक्म सुनते ही पिस्तौल का ट्रिगर दबा दिया। एक गोली चलने की आवाज़ आयी, और अगले ही पल क़ाशनी साहब कुर्सी समेत ज़मीन पर निढाल गिरे हुए थे। उनके सिर से खून निकलकर वहाँ ज़मीन पर धीरे-धीरे फैलने लगा था। उनके हाथ अभी भी कुर्सी के पीछे, रस्से से कस कर बँधे हुए थे। गोली सिर के एक सिरे से अंदर घुसती हुई दूसरे सिरे से पार निकल गयी थी। क़ाशनी साहब के भेजे के कुछ खून से लथपथ लोथड़े भी गोली के साथ ही सिर के बाहर आकर उनके ठीक बगल वाली दीवार पर जा चिपके थे, और उनसे भी खून टपक कर दीवार पर नीचे की ओर बह रहा था

गोली चलते ही वहाँ बिल्कुल सन्नाटा हो गया था। गोली की आवाज़ सुनकर, वहाँ काम कर रहे मजदूर बिल्कुल सन्न रह गये थे, और अपनी जगह पर ही ठिठक कर खड़े हो गये थे। वे लोग खामोशी से सब कुछ होता देख रहे थे। लोहे की सरिया काटती हुई मशीनों को चलाने वालों ने भी अचानक अपने हाथ रोक दिये थे और उधर ही देखने लगे थे जिधर क़ाशनी साहब ज़मीन पर गिरे हुए थे। उस वक़्त वहाँ सिर्फ कंक्रीट बनाती हुई मशीन के चलने की ही आवाज़ आ रही थी

मिर्ज़ा ज़मीन पर गिरे अपने उस्ताद को बड़ी खामोशी से देख रहे थे। मिर्ज़ा थर-थर काँप रहे थे। उनकी ज़बान सिल गयी थी, और मुँह से अल्फाज़ भी नहीं निकल रहे थे। उनके रोंगटे खड़े हो गये थे। उनके भीतर एक अजीब सा तूफान चल रहा था। मौलवी साहब ने मिर्ज़ा को गौर से देखा और उनके करीब आकर उनके कंधे पर धीरे से हाथ रखकर कहा ".....गम न कीजिये मिर्ज़ा हैदर!........ वह आदमी इसी के काबिल था. "

मिर्ज़ा खामोश खड़े थे और क़ाशनी साहब को देख रहे थे.

" .......जो आदमी अल्लाह की ही बे-इज़्ज़ती करने पर आमादा हो जाये, उसका यही अंजाम होता है. "

मिर्ज़ा अभी भी चुप थे.

"....... आप अल्लाह के वफादार सिपाही हैं मिर्ज़ा हैदर!..... दीन-ए-इस्लाम की हिफाज़त का ज़िम्मा आप पर है जनाब!!........ इतने बड़े काम के लिये इस तरह की क़ुर्बानियाँ देनी पड़ती हैं मिर्ज़ा. "

 मिर्ज़ा धीमे-धीमे कदमों से चलकर अपने उस्ताद के पास पहुँचे। अब भी क़ाशनी साहब के हाथ कुर्सी पर पीछे रस्सी से बँधे हुए थे। उनके सिर से खून निकल कर ज़मीन पर फैल रहा था और उनकी आँखें खुली हुई थीं। अब तक ज़मीन पर फैलते-फैलते उनका खून मिर्ज़ा हैदर के जूतों की तलियों को भी पूरी तरह से भिगो रहा था

मिर्ज़ा घुटनों के बल नीचे बैठ गये। क़ाशनी साहब के खून से, मिर्ज़ा के घुटनों पर उनकी पतलून भीग चुकी थी। मिर्ज़ा की आँखें नम हो चली थीं, और बहुत कोशिशों के बाद भी वह अपने आँसू सम्भाल नहीं पाये थे। मिर्ज़ा ने अपने हाथों से धीरे से क़ाशनी साहब की दोनों खुली आँखें बंद की, और बुदबुदाते हुए कहा "....अब दूसरी दुनिया में आपसे मिलेंगे जनाब! " फिर मिर्ज़ा ने अपनी आँखें बंद कर के कहा "आमीन!!"

कुछ देर तक अपने उस्ताद को देखते हुए वह इसी तरह से चुपचाप ज़मीन पर बैठे रहे। उनकी आँखों से उनके जज़्बात आँसू की शक्ल में बाहर निकल रहे थे। थोड़ी देर बाद वह उठे और अपने आँसू पूछते हुए धीमे कदमों से हेमचंद के पास पहुँचे। मिर्ज़ा के जूतों से बने खून के लाल निशान उनके साथ-साथ ही चल रहे थे। क़ाशनी साहब को देखते हुए हेमचंद से उन्होने कहा "...इन्हें कब्रिस्तान मत ले जाना, .....वहाँ के क़ाज़ी इन्हें दफन नहीं करने देंगे........ इन्हें यहीं पास के इलेक्ट्रिक क्रीमेटोरियम में ले जाना, वहीं पर इनकी आखिरी रस्म पूरी होगी. "

"जी जनाब. " हेमचंद ने कहा

कुछ देर तक मिर्ज़ा अपने उस्ताद को यूँ ही देखते रहे, फिर उस मौलवी के साथ वापिस चले गये.

बेचारे क़ाशनी साहब की किस्मत ऐसी निकली कि उनकी आखिरी रस्म भी उनकी मर्ज़ी से न हुई। वह मरने के बाद अपने घर के पास वाले कब्रिस्तान में, अपनी प्यारी, मरहूम बेग़म के बगल में ही दफन होना चाहते थे, लेकिन किस्मत ने उनसे यह मौका भी छीन लिया था। सौघरा के सभी क़ाज़ियों, और इमामों ने डॉक्टर अखिल के साथ उनके रिश्ते सामने आते ही उन्हें इस्लाम से खारिज क़रार दे दिया था। ऐसे में किसी भी कब्रिस्तान में उनके लिये कोई जगह नहीं थी

इतनी लम्बी दास्तान सुनाने के बाद यमुना काफी दु:खी और चुप हो गयी थी। शफाक़त खामोश बैठा हुआ था, और उसकी आँखों से भी आँसू बहे जा रहे थे। यमुना ने उसे इस वक़्त छेड़ना मुनासिब नहीं समझा। कुछ देर बाद अपने आँसू पोछते हुए शफाक़त ने यमुना से पूछा "क्या अब्बू को अपनी ज़िंदगी में कभी इस बात का एहसास न हुआ कि उन्होनें क्या किया है ?"

लम्बी साँस छोड़ते हुए यमुना ने कहा "एहसास हुआ था शफाक़त....... बिल्कुल हुआ था. "

"कब ?"

".....अब से कुछ दिन पहले, जब 90 साल के तुम्हारे अब्बू, मुम्बई के किंग एडवर्ड्स अस्पताल में बिस्तर पर पड़े हुए अपनी आखिरी घड़ियाँ गिन रहे थे. उस वक़्त उनके सबसे बड़े बेटे यानि बहादुरशाह उनके ठीक बगल में बैठे थे, और मिर्ज़ा उनका हाथ पकड़े हुए थे "

शफाक़त यमुना की बातें फिर ध्यान से सुनने लगा

" .....उस वक़्त मिर्ज़ा हैदर वह सब कुछ सोच रहे थे जो उन्होनें अब तक की अपनी ज़िंदगी में किया था। मिर्ज़ा के दिमाग में सारी बातें आ रही थीं वह सभी भाई-बहनों का घर में एक साथ खेलना, वह सैयद साहब के कारखाने में आग लगना और उसमें जहाँआरा और रुखसार का कई कामगारों समेत फँस जाना जिन्हें नन्हे मिर्ज़ा ने अपनी जान पर खेलकर तब बचाया था, जब उनके सभी भाई भाग खड़े हुए थे, वह नशे में धुत्त कार वाले का फरीद को ठोकर मारकर निकल जाना और फिर छोटे से मिर्ज़ा हैदर द्वारा उसकी कार का शीशा तोड़ना और भरी दोपहरी में उसकी खूब पिटाई किया जाना, वह नौजवान मिर्ज़ा हैदर का आई. ए. एस. में सेलेक्शन हो जाना और भागते हुए सौघरा कॉलेज के उर्दू डिपार्ट्मेंट जाकर, रोते हुए उनका क़ाशनी साहब के गले लग जाना, बला की खूबसूरत ज़ीनत से मिर्ज़ा की शादी होना और शादी के बाद दो खूबसूरत बच्चों के बाप बनना, फरीद के साथ मिलकर बड़ी मेहनत करके दिल्ली में अपना कारोबार जमाना, आँखें बंद करके उन पर भरोसा करने वाली ज़ीनत से उनका बेवफाई करना और कुलसूम से प्यार की पींगे बढ़ाना, घर में सभी की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर कुलसूम से शादी करना, चौधरी अल्ताफ हुसैन के साथ मिलकर पेट्रोल पम्प का कारोबार शुरु करना, और उनकी बेटी नूर बानो से शादी करना जो कि एक बिजनेस डील से ज़्यादा कुछ नहीं थी, फिर घर के कारोबार पर कब्ज़ा करने के मकसद से उनका मुराद और शुज़ा के साथ डबल क्रॉस करना और दोनों को फरीद के खिलाफ भड़काना, अपने ही घर की फैक्ट्रियों पर पुलिस रेड करवाना और बड़े भाई फरीद पर बेईमान और धोखेबाज़ होने का इल्ज़ाम लगाना, मुराद के साथ सौघरा आना और फरीद और सुलेमान का जान बचाकर भागना, अपने अब्बू सैयद साहब को उनके ही घर में नज़रबंद कर देना, फिर शुज़ा को रेलवे स्टेशन से अगवा करवाना और कलकत्ता में उन्हें कैद रखना, अपने आदमियों से कहकर अपने सगे भाई शुज़ा के हाथ-पैर तुड़वा देना और फिर उनके परिवार सहित उन्हें खत्म कर देना, अपनी छोटी आपा रुखसार के साथ मिलकर छोटे भाई मुराद को लम्बे वक़्त तक बार-बार ज़हरीली शराब पिलवाना और नशे की गोलियाँ खिलाना, कस्तूरिया जी के बेटे हमीर को मुराद को मारने के लिये उकसाना, फिर मुराद को भी अस्पताल के बाहर गोली चलवाकर मरवा देना, फिर सरवर को लालच देकर अपनी ओर मिला लेना और फरीद और सुलेमान को धोखे से गिरफ्तार कर लेना, फरीद पर गद्दार और क़ाफिर होने का इल्ज़ाम लगाकर उनके खिलाफ तमाम मस्जिदों से फतवा जारी करवाना, उन पर आई.एम.पी.एल.सी. में मुकदमा चलाना और सब-कमेटी के मेम्बरान को खरीद लेना, फिर कमेटी से फरीद को इस्लाम से खारिज करने का हुक्म जारी करवाना, उसके बाद प्यारे भतीजे सुलेमान को खाने में ज़हर देकर मरवा देना, फिर दंगाईयों से कहकर फरीद और दीवान का सिर रात के अंधेरे में कलम करवा देना, फिर फरीद का कटा हुआ सिर असगर के हाथों अपने 83 साल के बूढ़े-बीमार अब्बू सैयद साहब--जिन्हे पहले ही मिर्ज़ा ने नज़रबंद कर रखा था--के पास उस वक़्त तोहफे के तौर पर भिजवाना जब वह अपनी बहू और बेटी के साथ अपनी 83वीं सालगिरह की खुशी मना रहे थे और रात का खाना खाने बैठे थे, फिर अपने प्यारे क़ाशनी साहब को गिरफ्तार करवाना, उन्हें जेल में ज़हरीली और नशीली दवाओं के इंजेक्शन लगातार लगवाना, उन्हें मेंटल हॉस्पिटल में रखवाना और वहाँ भी उन्हें खूब टॉर्चर करवाना, बिजली के झटके दिलवाना, फिर उन्हें अगवा करवा लेना, और फिर हेमचंद से उनके सिर में गोली मरवा देना........... इतना सब कुछ करने के बाद ही मिर्ज़ा सही मायनों में बादशाह बन सके थे......... आज अस्पताल में बिस्तर पर पड़े अपनी आखिरी घड़ियाँ गिनते हुए वह यह सब कुछ सोच रहे थे....... "

यमुना ने आगे कहा "......मिर्ज़ा बहुत पढ़े-लिखे इंसान थे शफाक़त!........ दुनिया भर की किताबें पढ़ रखी थीं उन्होने, और अपनी अब तक की ज़िंदगी में किये गये अपने कामों के बारे में सोचते-सोचते अचानक मिर्ज़ा के दिमाग में एक और बात आने लगी थी ..........और जो बात उनके दिल-ओ-दिमाग में उस वक़्त चल रही थी, वह बात मैं भी अच्छी तरह से समझ रही थी....... " यह कहकर यमुना मुस्कुराने लगी

"क्या मतलब ?" शफाक़त ने पूछा

यमुना ने बताना शुरु किया ".....आज से करीब 400 बरस पहले, हिंदुस्तान पर मुगल सल्तनत की हुक़ूमत हुआ करती थी और मेरे ही किनारे, इसी सौघरा शहर में ही इस सल्तनत के तख्त पर बैठा जो बादशाह राज करता था उसका नाम था शाहजहाँ वैसे ही जैसे सैयद साहब इस सूबे के नामी कारोबारी हुआ करते थे। शाहजहाँ के चार बेटे थे, दाराशिकोह, शाह शुज़ा, औरंगज़ेब और मुराद, और दो बेटियाँ थीं जहाँनारा और रोशनआरा ठीक वैसे ही जैसे सैयद साहब के चार बेटे फरीद, शुज़ा, तुम्हारे अब्बू मिर्ज़ा हैदर, और मुराद थे, साथ में दो बेटियाँ जहाँआरा और रुखसार थीं। जिस तरह बादशाह का बड़ा बेटा दारा शिकोह बहुत ही भली तबियत का, बहुत ही ज़हीन, और सबको साथ लेकर चलने वाला, सबके साथ प्यार से रहने वाला था वैसे ही फरीद अली बेग़ भी बहुत ज़हीन किस्म के और निहायत ही शरीफ इंसान थे जो किसी का दिल दुखाना पसंद नहीं करते थे। जिस तरह सल्तनत और सियासत के मामलों में दाराशिकोह कमज़ोर हुआ करता था…………वैसे ही करोबारी मामलों में फरीद भी कुछ उन्नीस ही बैठते थे। जिस तरह दारा शिकोह उस ज़माने के मशहूर फक़ीर सरमद की संगत बहुत ज़्यादा पसंद करता था, और यहाँ तक कि सरमद को अपने दरबार में बुलाकर दुनिया भर के मसाईल पर बातें किया करता था बिल्कुल वैसे ही फरीद को क़ाशनी साहब के पास जाना, और उनसे देश-दुनिया, घर-परिवार की तमाम सारी बातों पर चर्चा करना बहुत रास आता था। जिस तरह दारा का छोटा भाई औरंगज़ेब सल्तनत और सियासत के मामलों में बहुत ही तेज़ था………वैसे ही मिर्ज़ा हैदर भी कारोबारी मामलों में गज़ब के उस्ताद थे। जिस तरह शाहजहाँ दाराशिकोह को ही अपने बाद सल्तनत के तख्त पर बिठाना चाहता था और औरंगज़ेब को दूर रखना चाहता था…… वैसे ही सैयद साहब भी अपने कारोबार की बागडोर मिर्ज़ा की बजाय फरीद के हाथ में सौंपना चाहते थे.  शाहजहाँ की जब तबियत ज़्यादा बिगड़ने लगी थी तब उसके चारों बेटों में सल्तनत के तख्त पर बैठने के लिये जंग शुरु हो गयी थी। इस जंग में सबसे बड़ी बहन जहाँनारा ने बड़े बेटे फरीद का साथ दिया था जबकि छोटी बेटी रोशनआरा ने छोटे भाई औरंगज़ेब का ........बिल्कुल वैसे ही सैयद साहब की ज़िंदगी के अंतिम दिनों में उनका करोड़ों का कारोबार सम्भालने के लिये उनके चारों बेटों में जंग शुरु हुई, जिसमें बड़ी बेटी जहाँआरा ने फरीद का, जबकि छोटी बेटी रुखसार ने तुम्हारे अब्बू यानि मिर्ज़ा हैदर का साथ दिया था। जिस तरह तख्त के लिये जंग शुरु होने के वक़्त औरंगज़ेब दक्कन में, मुराद गुजरात में और शुज़ा बंगाल में, और दारा अपने बाप के पास सौघरा में ही था........ बिल्कुल वैसे ही चारों भाईयों में जंग शुरु होते समय फरीद, सैयद साहब के पास सौघरा में थे, मिर्ज़ा हैदर औरंगाबाद में थे, शुज़ा कलकत्ता में जबकि मुराद सूरत में थे। जिस तरह बनारस की जंग में दारा के बेटे सुलेमान ने अपने चाचा शुज़ा को हरा दिया था........ वैसे ही बनारस के पास ही, मुठभेड़ फरीद के बेटे सुलेमान ने चाचा शुज़ा को भी हरा दिया था और शुज़ा वापिस कलकत्ता भागने को मजबूर हो गये थे। जिस तरह मार्च, 1658 ई. में धरमत की जंग में औरंगज़ेब और मुराद ने मिलकर दारा के खास सिपहसालार महाराज जसवंत सिंह को हरा दिया था……उसी तरह धरमपुर में मिर्ज़ा और मुराद ने मिलकर फरीद के खासमखास कस्तूरिया जी को अपनी बातों में फँसा लिया था और अपना रास्ता आसान कर लिया था। जिस तरह से मई, 1658 ई. में सामूगढ़ की जंग में औरंगज़ेब और मुराद ने दारा और सुलेमान को हरा दिया था और वे दोनों जान बचाकर भागे थे .......बिल्कुल वैसे ही शामगढ़ के पास हुई मुठभेड़ में भी मिर्ज़ा और मुराद ने फरीद और सुलेमान को हरा दिया था और वे दोनों सौघरा छोड़कर भाग गये थे। उसी के बाद मिर्ज़ा ने मुराद को कारोबार का मालिक बना दिया था "

शफाक़त बड़ी हैरानी से आँखें फाड़े यमुना की बातें सुन रहा था। उसे उन बातों पर यकीन ही नहीं हो पा रहा था

यमुना ने आगे मुस्कुराते हुए कहा ".....जिस तरह औरंगज़ेब ने अपने बूढ़े-बीमार बाप और बादशाह शाहजहाँ को कैद करके आगरे के क़िले में नज़रबंद कर दिया था, और तख्त पर कब्ज़ा कर लिया था......... वैसे ही मिर्ज़ा हैदर ने भी अपने बूढ़े-बीमार बाप, सैयद साहब को भी उनकी रानी की मंडी वाली पुश्तैनी कोठी के एक कमरे में नज़रबंद कर दिया था , और मुराद को गद्दी पर बिठा कर एक तरह से परदे के पीछे बागडोर अपने हाथ में ले ली थी..... "

यमुना ने यह सब कुछ अपनी आँखों से देखा हुआ था, यह कह लीजिये कि यह सब खुद ही जिया हुआ था, इसलिये उसे यह सब कुछ बताते हुए कुछ भी ताज्जुब, या कोई भी हैरानी नहीं हो रही थी। शफाक़त से बेखबर यमुना ने आगे बात जारी रखी " ........जिस तरह से दर-दर की ठोकरें खाते हुए दाराशिकोह और सुलेमान लाहौर के सूबेदार मलिक जीवन के यहाँ शरण माँगने पहुँचे थे........ वैसे ही भयंकर गर्मी में रेगिस्तानी इलाकों से होते हुए, कई दिनों तक का मुश्किल सफर तय करने के बाद फरीद और सुलेमान जालंधर पहुँचे थे, जहाँ उन्होनें सरवर के घर शरण ली। जिस तरह से अपनी बीवी नादिरा के मुँहबोले भाई मलिक जीवन को कई बार दाराशिकोह ने बादशाह शाहजहाँ के कहर से बचाया था और खुद पहल करके लाहौर का सूबेदार बनवाया था........ उसी तरह फरीद की बीवी नादिरा भी सरवर को राखी बाँधती थी, और खुद फरीद ने सैयद साहब से कहकर जालंधर वाले अपने ड्रीम प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिये सरवर को वहाँ भेजे जाने की सिफारिश की थी जिसे सैयद साहब ने फौरन मान लिया था। जिस तरह से मलिक जीवन ने औरंगज़ेब के साथ मिलकर दाराशिकोह और सुलेमान के साथ धोखा किया और उन्हें औरंगज़ेब के हवाले कर दिया था......... बिल्कुल वैसे ही सरवर ने भी मिर्ज़ा हैदर के साथ मिलकर फरीद और सुलेमान के साथ धोखा किया और उन्हें मिर्ज़ा के हवाले कर दिया था। जिस तरह जनवरी, 1659 ई. में शुज़ा को इलाहाबाद के पास खाजवा की लड़ाई में औरंगज़ेब की फौज ने हरा दिया था… … ........वैसे ही इलाहाबाद के नज़दीक फतेहपुर से ही मिर्ज़ा और मुराद के लोगों ने शुज़ा को अगवा कर लिया था, और बाद में कलकत्ता में शुज़ा को उनके परिवार सहित खत्म कर दिया था। जिस तरह से मुराद को बाद में औरंगज़ेब ने ग्वालियर के किले में कैद कर लिया था और उसे लम्बे समय तक खूब ज़हरीली शराब पिलाई गयी थी ...........उसी तरह से मिर्ज़ा ने अपनी बहन रुखसार के साथ मिलकर यही काम अपने छोटे भाई मुराद के साथ किया था। जिस तरह से गुजरात के दीवान को मारने का इल्ज़ाम मुराद के सिर पर लगाकर औरंगज़ेब ने उसके बेटे को मुराद से बदला लेने के लिये उकसाया था ...........उसी तरह से कस्तूरिया जी की बे-इज़्ज़ती का बदला लेने के लिये भी उनके बेटे हमीर को मिर्ज़ा हैदर ने उकसाया था, और इसी वजह से अस्पताल के बाहर मुराद को हमीर के आदमियों ने गोली मार दी थी. "

शफाक़त सुनते जा रहा था और रोते जा रहा था.

यमुना बताती जा रही थी " ........जिस तरह से औरंगज़ेब ने सुलेमान और दाराशिकोह को अपने कैदखाने में रखा था और उन्हें हमेशा के लिये रास्ते से हटाने का मंसूबा बना रहा था .......उसी तरह से मिर्ज़ा ने भी अपने भतीजे सुलेमान और भाई फरीद को अपने सूरजगढ़ वाले फार्महाउस पर कैद कर रखा था, और वह भी उस बहाने की तलाश में थे कि इन दोनों को खत्म किया जा सके। जिस तरह से औरंगज़ेब की बहन रोशनआरा ने उसे सलाह दी थी कि दाराशिकोह पर इस्लाम और अल्लाह की खिलावर्ज़ी करने का इल्ज़ाम लगाया जाये, और धार्मिक आधार पर उसे बदनाम करते हुए सज़ा दी जाये........ उसी तरह रुखसार, सिन्हा साहब, और ज़फर अली ने भी मिर्ज़ा को इसी तरह की सलाह दी। इसके बाद मिर्ज़ा ने भी पहले तमाम मस्जिदों से फतवा जारी करवाया, और फिर आई. एम. पी. एल. सी. में फर्ज़ी और बेबुनियाद मुकदमेबाज़ी करवाई। जिस तरह से दाराशिकोह को तमाम क़ाज़ियों, और ईमामों के आगे बे-इज़्ज़त करते हुए पेश किया गया था .........उसी तरह से फरीद को भी एक बंद कमरे में तमाम क़ाज़ियों और ईमामों के आगे इस्लाम का दुश्मन, क़ाफिर और गद्दार बताते हुए खड़ा किया गया था। जिस तरह क़ाज़ियों, और ईमामों के वाहियात और बेबुनियाद सवालों का जवाब दाराशिकोह ने बहुत ही बेहतरीन तरीके से दिया था लेकिन फिर भी उसे क़ाफिर और गद्दार, इस्लाम का दुश्मन करार दिया गया था .........उसी तरह से फरीद और डॉक्टर ज़ुल्फिक़ार ने भी उस बंद कमरे में सुनवाई के दौरान, क़ाज़ियों और मौलवियों के फिज़ूल और वाहियात सवालों के जवाब में अपनी बातों को बहुत अच्छे ढंग से रखा और वहाँ मौजूद मौलवियों, क़ाज़ियों को लाजवाब कर दिया था, लेकिन उसके बावजूद उन लोगों ने आखिर में फरीद को क़ाफिर और गद्दार करार देते हुए इस्लाम से खारिज घोषित किया, और इस तरह से मिर्ज़ा ने फरीद को मारने का रास्ता तैयार किया. "

यमुना ने कहा " .....फर्क सिर्फ इतना ही था कि दाराशिकोह को भरी दोपहरी में सबके सामने, दिल्ली में कत्ल किया गया, वहीं फरीद को रात के अंधेरे में, सौघरा से कुछ दूर मारा गया। सुलेमान को जिस तरह औरंगज़ेब ने खाने में ज़हर देकर मरवाया था, उसी तरह मिर्ज़ा ने भी अपने भतीजे सुलेमान को मरवाया. "

शफाक़त आँखों से आँसू बहाते हुए बैठा था, और यमुना की बातें सुन रहा था.

"....... जिस तरह दाराशिकोह के कत्ल के बाद जब उसका सिर बादशाह औरंगज़ेब के पास आया, तो औरंगज़ेब ने भी उस पर अपनी तलवार से दो गहरे घाव लगाये थे ........उसी तरह से मिर्ज़ा ने भी फरीद के कटे हुए सिर पर खंजर से दो बहुत गहरे घाव लगाये थे। उसके बाद जिस तरह से औरंगज़ेब ने अपने बूढ़े और बीमार बाप शाहजहाँ के पास दाराशिकोह का कटा हुआ सिर तब भेजा था, जब शाहजहाँ कैदखाने में अपनी बेटी जहाँनारा के साथ अपनी सालगिरह मना रहे थे और रात का खाना खाने बैठे थे.......... बिल्कुल उसी तरह से मिर्ज़ा ने भी फरीद का कटा हुआ सिर, कोठी में नज़रबंद सैयद साहब के पास ठीक उनकी सालगिरह के रोज़, रात में खाने के वक़्त ही भिजवाया था. "

यमुना ने आगे बोलना जारी रखा " .....दाराशिकोह के कत्ल के बाद औरंगज़ेब ने उन लोगों को चुन-चुन कर निशाना बनाना शुरु किया जिन लोगों ने तख्त पर कब्ज़े की जंग में दाराशिकोह का साथ दिया था, और इनमें सबसे पहला निशाना बना वह मशहूर फक़ीर सरमद ..........ठीक इसी तर्ज पर मिर्ज़ा हैदर ने भी फरीद को मारने के बाद, फरीद के साथ हमदर्दी रखने वालों को निशाना बनाना शुरु किया जिसमे सबसे आगे खड़े नज़र आये थे क़ाशनी साहब जिन्होनें हर कदम पर फरीद का साथ दिया था। उन्होनें आई.एम.पी.एल.सी. वाले मुकदमे में भी फरीद को बचाने की हर मुमकिन कोशिश की थी."

शफाक़त की सिसकियाँ यमुना साफ सुन रही थी.

"...... जिस तरह से औरंगज़ेब और तमाम क़ाज़ियों और मौलवियों ने सरमद पर इस्लाम और अल्लाह की खिलाफत करने का इल्ज़ाम लगाते हुए, उससे ज़बरदस्ती कलमा पढ़वाने की कोशिश की थी........ उसी तरह से मिर्ज़ा और सौघरा के तमाम मौलवियों ने भी प्रोफेसर हशमत क़ाशनी पर इस्लाम और अल्लाह की खिलावर्ज़ी करने का इल्ज़ाम लगाया था और ज़बरदस्ती माफी माँगने के लिये कह रहे थे जिसे क़ाशनी साहब ने साफ नामंज़ूर कर दिया था. "

शफाक़त बेहद दु:खी होकर सारी बातें सुन रहा था

" .....और मिर्ज़ा ने उन्हें पहले सेंट्रल जेल में, और फिर मेंटल हॉस्पिटल में जान से मारने की पुरज़ोर कोशिश की, मगर जब क़ाशनी साहब इस सितम को भी झेल गये तब मिर्ज़ा ने उन्हें अगवा करवा लिया था. "

शफाक़त रो रहा था.

यमुना ने यह देखकर अपने दिल पर पत्थर रखते हुए, और हल्की से तंज भरी मुस्कान के साथ आगे बताया " .......और क्या तुम जानते हो शफाक़त ? ........चाँदनी चौक पर, जामा मस्जिद की सीढ़ियों के आगे, अपना सिर कलम किये जाने से ठीक पहले, बार-बार कहने पर भी उस फक़ीर सरमद ने न तो माफी माँगी थी, और न ही कलमा पूरा पढ़ा था......... उसी तरह से प्रोफेसर हशमत क़ाशनी ने भी अपने सिर में गोली मारे जाने के ठीक पहले, मिर्ज़ा और उनके साथ आये क़ाज़ी के बार-बार कहने पर भी न तो माफी ही माँगी थी,…… और न ही कलमा पूरा पढ़ा था. "

शफाक़त ज़ार-ज़ार रोये जा रहा था

" ......मुम्बई के किंग एड्वर्ड्स अस्पताल में बिस्तर पर अपनी आखिरी साँसे गिन रहे तुम्हारे अब्बू मिर्ज़ा हैदर के ज़ेहन में ये सभी बातें दौड़ रही थीं...... "

शफाक़त अपने आँसू पोछ रहा था

"...... वह साफ देख और समझ सकते थे कि उनकी ज़िंदगी और उनसे 400 बरस पहले मुगल बादशाह औरंगज़ेब की ज़िंदगी में गज़ब की यकसानियत नज़र आ रही थी। औरंगज़ेब की तरह ही मिर्ज़ा के हाथ भी अपने भाईयों, और मासूम भतीजों के खून से रँगे हुए थे .........और यह गुनाह ऐसा था कि अगर मिर्ज़ा आब-ए-जमजम से भी अपने दोनों हाथों को हज़ार बार भी धो डालते, तो भी उनके हाथों से उनके भाईयों, और भतीजों के खून की महक नहीं जा सकती थी। वह महक अब बार-बार उनके पास लौट कर आ रही थी. "

शफाक़त बिल्कुल चुप बैठा था.

यमुना ने आगे कहा " .....अपने बड़े बेटे बहादुरशाह का हाथ पकड़े, 90 बरस के मिर्ज़ा हैदर आँसू बहाते हुए बिस्तर पर पड़े थे। वहाँ के डॉक्टर भी हार मान चुके थे और जवाब दे चुके थे। बहादुरशाह भी खामोशी से अपने अब्बू को देख रहे थे। मिर्ज़ा ने उनसे बड़ी मुश्किल से, रुंधे गले से कहा "मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूँ?......और क्या हूँ?........ या मरने के बाद मैं कहाँ जाऊँगा ? मुझे नहीं पता कि मेरे साथ क्या सुलूक होगा और मेरे गुनाहों की मुझे क्या सज़ा दी जायेगी ? ..........मैंने बड़े ही खौफनाक गुनाह किये हैं अपनी ज़िंदगी में .............मेरे हाथ मेरे अपनों के खून से सने हुए हैं........... मैं नहीं जानता कि उस दूसरी दुनिया में मैं कैसे उन सबसे नज़रें मिलाऊँगा?......... और मैं नहीं जानता कि मेरे गुनाहों के लिये, कौन सी सज़ाएं मेरा इंतज़ार कर रही हैं. "

बहादुरशाह ने रोते हुए कहा "....नहीं अब्बू......... आपको जन्नत में आला मुक़ाम अदा होगा!......... अल्लाह पाक़ आगे बढ़कर, गले लगाकर आपका इस्तकबाल करेंगे "

मिर्ज़ा ने कहा " पता नहीं " और फिर उन्होने आँखें बंद कर लीं.

शफाक़त खामोश बैठा हुआ, सामने बहती यमुना को देख रहा था। यमुना भी इतनी लम्बी दास्तान सुनाने के बाद चुप हो गयी थी.

कुछ देर के बाद शफाक़त खड़ा हुआ। वह और यमुना एक-दूसरे को देख रहे थे। फिर यमुना ने कहा "शफाक़त यह थी वह पूरी कहानी जो तुम्हें जाननी ज़रूरी थी यही तुम्हारे उस सवाल का जवाब था कि तुम्हारे अब्बू के इंतक़ाल के हफ्ते-दस दिन बाद तक भी, क्यों तुम्हारे चाचा या ताऊ के यहाँ से कोई मिलने भी नहीं आया "

शफाक़त चुपचाप खड़ा था और अपने आँसू पोछ रहा था.

यमुना ने आगे कहा "..... माँज़ी हर बार खुद को दोहराता है शफाक़त. "

शफाक़त खामोश था

"...... अफसाने हमेशा वही पुराने होते हैं, बस किरदार बदल जाते हैं. "

शफाक़त यमुना को देख रहा था

"......ज़रूरत सिर्फ यह समझने की होती है,  कि हम माँज़ी से क्या और कितना सबक सीख पाते हैं......... और सीखते भी हैं या नहीं. "

शफाक़त खामोश खड़ा था

" ......मैंने तो वह सब कुछ भी देखा था......... इन्हीं सौघरा और दिल्ली शहरों में,  आज से करीब साढ़े चार सौ बरस पहले............... और फिर मैंने ये सब कुछ भी देखा, इन्हीं दो शहरों में. "

शफाक़त मुस्कुरा रहा था

अब तक साँझ, रात में तब्दील होने लगी थी। शफाक़त ने अपने मोबाईल की स्क्रीन को ऑन किया। फोन पर दिखा कि रात के 7:30 बज चुके थे। शफाक़त ने बड़े अदब से झुक कर यमुना को सलाम किया "आपका बहुत-बहुत शुक्रिया! "

यमुना चुपचाप बहती रही.

शफाक़त अब यमुना घाट से, वापिस अपने घर जाने के लिये मुड़ा। उसने फिर से फोन पर देखा तो उसके एम. पी -थ्री प्लेयर पर बज रहा गाना पॉज़ किया हुआ था। उसे याद आया कि वह जब यमुना घाट पर आकर बैठा था तब यमुना ने उससे बात करनी शुरु की थी। उसी वक़्त उसने वह गाना पॉज़ कर दिया था। शफक़त ने फिर से 'प्ले' का बटन दबाया और फिर से वह गाना वहीं से बजना शुरु हो गया था, जहाँ पर शफाक़त ने उसे पॉज़ किया था। वह नुसरत फतेह अली खान की बड़ी खूबसूरत सी, मशहूर कव्वाली थी, जो उसको और उसके अब्बू मिर्ज़ा हैदर को भी बेहद पसंद थी.

शफाक़त यमुना से दूर, अपने घर की जानिब चला जा रहा था और फोन पर बजती उस कव्वाली की आवाज़ यमुना को सुनाई दे रही थी। जो धीरे-धीरे मद्धम पड़ती जा रही थी –

" हर ज़र्रे में, जिस शान से, तू जलवानुमाँ है;

हैराँ है मगर अक़्ल कि तू कैसा है, तू क्या है!

तुम एक गोरखधंधा हो, तुम एक गोरखधंधा हो,

मैंने दैर-ओ-हरम में ढूँढ़ा, तू नहीं मिलता;

मगर तशरीफफरमाँ तुझको अपने दिल में देखा है!

तुम एक गोरख धंधा हो, तुम एक गोरखधंधा हो,

ढूँढ़े नहीं मिले हो, न ढूँढ़े से कहीं तुम,

पर ये तमाशा है क्या, कि जहाँ हम हैं वहीं तुम !

तुम एक गोरख धंधा हो, तुम एक गोरख धंधा हो......... "


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