दस्तूर - भाग-11
दस्तूर - भाग-11
कुछ बरस पहले ही सरकार ने आई.सी.एस. (भारतीय सिविल सेवा) का नाम बदलकर आई.ए.एस. (भारतीय प्रशासनिक सेवा) कर दिया था. मिर्ज़ा और उनके जैसे नौकरशाह अब आई.ए.एस. कहे जाने लगे थे. मिर्ज़ा की ट्रेनिंग औरंगबाद में खत्म हो चुकी थी और वह अपने परिवार, और अपने भाईयों के बच्चों के लिये तोहफे वगैरह खरीदकर अहमदाबाद की ट्रेन पकड़ चुके थे.
उस दिन सुबह से ही सुलेमान अपने अब्बू फरीद के पीछे-पीछे लगा हुआ था, और उनसे जमील के साथ कलकत्ता जाने की ज़िद कर रहा था. उसने फरीद को बता दिया था कि वह रात को उनके पीछे गया था जब वह जमील से मिल कर उसे एक अहम काम सौंपने और उसे पैसे देने गये थे. फरीद यह कतई नहीं चाहते थे कि सुलेमान भी जमील के साथ जाये. सुलेमान को लेकर वह कोई जोखिम नहीं उठा सकते थे, लिहाज़ा वह बार-बार मना कर रहे थे "बच्चों का खेल नहीं है ये सुलेमान!!.....गोलियां चलेंगी वहाँ, कत्ल-ओ-गारद होगी वहाँ, लाशें बिछेंगी उधर......इस खानदान का वारिस हैं आप, और आप को भेजना हम कतई मंज़ूर नहीं कर सकते."
सुलेमान ने कहा "लेकिन अब्बू, फोन पर आपने भी सारी बात सुनी थी.......चचाजान के सिर पर खून सवार है, और वो आपको भी मार देने, आपसे बदला लेने की बात बार-बार कर रहे थे......मेरे रहते आप को छू भी कैसे सकते हैं वो?......अगर ऐसा हुआ तो मेरे आपका बेटा होने पर लानत है अब्बू!!.....वो बेटा ही क्या जो अपने वालिद की हिफाज़त न कर सके?.....अपने सिर पर इस दाग के लगने से पहले, अच्छा होगा कि मैं वहीं मार दिया जाऊँ. आप ही बताइये अब्बू…..अगर कोई दादाजी को मारने की धमकी दे, उनसे बदला लेने की धमकी दे, तो क्या आप खामोश रहेंगे?......क्या आपका खून नहीं खौलेगा?.....क्या आपको नहीं लगेगा कि उस इंसान को काटकर यमुना में फेंक दिया जाये?......ऐसा ही तो मुझे भी इस वक़्त लग रहा है अब्बू!!!"
फरीद खामोश अपने कमरे में बैठे थे और अपने जवान बेटे की बात सुन रहे थे.
".....और फिर मुझे भी तो कितनी बुरी-बुरी गालियाँ दी उन्होनें.......उनको सबक तो सिखाना ही होगा!.....उनको बताना होगा कि जिस सुलेमान को वह इतना सब कुछ कह गये, उस सुलेमान ने भी अपने हाथों में चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं!!.....वह केवल ज़बान से ही नहीं, अपने हाथों से भी माकूल जवाब देना जानता है!!......सुलेमान के अंदर भी इसी खानदान का खून है अब्बू!!!......" जवान बेटा सुलेमान काफी गुस्से में बोल रहा था. फिर उसने खुद पर काबू किया और कहा "मैं बेटा हूँ आपका अब्बू, बस एक मौका दीजिये अपनी काबिलियत दिखाने का."
फरीद ने उसके सिर पर हाथ फेरा और समझाया "आप की सारी बात अपनी जगह सही है सुलेमान……हम आपके जज़्बात समझते हैं, आपके अंदर जो गुस्सा है वह भी समझते हैं...... आपकी काबिलियत के ऊपर कोई शक-शुबहा भी नहीं है हमें.......हम जानते हैं कि आप के अंदर भी सैयद जहाँगीर बेग और सैयद सरफराज़ बेग का खून दौड़ रहा है, लेकिन आपको जमील के साथ जाने की इजाज़त हम बिल्कुल नहीं दे सकते.......कतई नहीं!!......गलती से कहीं आपको कुछ हो गया तो हम आपकी अम्मी नादिरा को क्या मुँह दिखायेंगे?......आपके दादाजी को क्या जवाब देंगे? जब वो पूछेंगे कि सुलेमान को क्यों भेजा वहाँ तो क्या बोलेंगे हम?.......नहीं बेटा, नहीं....बिल्कुल नहीं भेजेंगे हम आपको." फरीद अपनी बात पर कायम थे.
"अब्बू, शेर का बच्चा जब तक खुद से शिकार नहीं करेगा तब तक वह डरपोक और बुज़दिल ही बना रहेगा, और फिर गीदड़ और लकड़बग्घों से भी डरता-भागता फिरेगा. अपने बेटे के लिये क्या यही चाहते हैं आप?" सुलेमान ने गुस्से में कहा.
फरीद उसे चुपचाप देख रहे थे.
"आखिर कब तक आप और अम्मी हमें अपने दामन में छिपाकर महफूज़ रखेंगे?" नौजवान सुलेमान का सवाल था.
सुलेमान की लगातार ज़िद के आगे फरीद को झुकना ही पड़ा, और अंत में उन्होनें सुलेमान को जमील से साथ जाने की इजाज़त दे दी लेकिन एक शर्त भी रखी कि वह सिर्फ गाड़ी में बैठे रहेंगे, उतरेंगे नहीं और कोई भी हथियार कतई नहीं चलायेंगे, और जमील की हर बात मानेंगे. सुलेमान ने इस पर हामी भर दी.
सुबह करीब 10 बजे फरीद और सुलेमान अपने दफ्तर के चैम्बर में थे जब उनके फोन की घंटी बजी. फरीद ने फोन उठाया. दूसरी ओर जमील था, वह गाड़ियाँ और हथियारबंद आदमियों के साथ कारखाने के गेट पर बाहर खड़ा था और उनका कारवाँ कलकत्ते निकलने वाला था. फरीद और सुलेमान तेजी से नीचे जमील के पास आये. फरीद से गले मिलते हुए जमील ने कहा "अब निकलेंगे भाईजान हम लोग. आपको कुछ कहना-समझाना हो तो अभी बोल दीजिये."
फरीद ने सुलेमान की ओर इशारा करते हुए कहा काफी चिंतित होकर जमील से कहा "सुलेमान भी जायेगा आपके साथ जमील......इसका ख्याल रखना आपकी ज़िम्मेदारी होगी. हमारे जिगर का टुकड़ा है ये जमील भाई.....दिल पर पत्थर रखकर भेज रहे हैं आपके साथ इसे, और सिर्फ आपके भरोसे पर."
"फिक्र ना कीजिये भाईजान!! अब से ये आपका नहीं, हमारा बच्चा है ये.......और अपनी जान से बढ़कर इसकी हिफाज़त करेंगे हम लोग, वायदा करते हैं आपसे." जमील ने फरीद का हाथ अपने हाथों में लेते हुए उन्हें भरोसा दिलाया.
"मैने भी कहा है इसको, कि ये आप की हर बात मानेगा, और जैसा आप कहेंगे, वैसा ही करेगा. आपसे केवल ये कहना है जमील भाई कि इसे गाड़ी में ही रखियेगा, नीचे ना उतरने दीजियेगा और गलती से भी इसके हाथ में हथियार न दीजियेगा........इसे मामूली सी खरोंच भी आयी तो हम खुद को माफ न कर पायेंगे.......अपनी जान देने के अलावा हमारे पास कोई रास्ता न होगा तब." फरीद ने बहुत दु:खी होकर जमील से गुजारिश की.
"आपको ज़बान देते हैं भाई!!.....सुलेमान पर हरगिज़ आँच नहीं आने देंगे. जैसा आपने कहा है, वैसा ही करेंगे."
"अल्लाह आपकी हिफाज़त करे जमील!!.....आपके जैसा साथी सभी को मिले ये दुआ है हमारी. कामयाबी मुकद्दर हो आपका जमील!!" यह कहकर फरीद ने जमील को बाहों में भर लिया. फिर फरीद ने अपने बेटे सुलेमान के माथे को चूमा और उसे गले से लगाकर कहा "अल्लाह फतेहमंद करे आपको सुलेमान!!" फरीद की आँखों में आँसू आ गये थे. सुलेमान ने कहा "इंशाअल्लाह हम कामयाब होकर लौटेंगे अब्बू!!"
"क्या उम्मीद है जमील भाई?....कब तक मिल पायेंगे आप लोग उनसे?....और कहाँ?" फरीद ने पूछा. उनकी पेशानी की लकीरें उनके अंदर का हाल बयान कर रही थीं.
"शायद यू.पी. में ही या फिर यू.पी.-बिहार बॉर्डर के आस-पास......कलकत्ता से वो लोग अगर सुबह 6-7 बजे भी निकले होंगे, तो भी 10 घंटे तो सिर्फ उनको पटना आने में लग जायेंगे. तब तक हम लोग इलाहाबाद के आस-पास होंगे……..अब इलाहाबाद से पटना की दूरी करीब साढ़े तीन सौ किलोमीटर है, मतलब कि ये दूरी करीब 6-7 घंटे की होगी……..इस हिसाब से समझें तो देर रात लगभग इसी दायरे में उनको पकड़ लेंगे हम......रात में वैसे भी सड़कों पर ज़्यादा गाड़ियाँ चलती नहीं हैं, उनकी पहचान करना ज़्यादा मुश्किल नहीं होगा."
रुपयों की एक मोटी गड्डी बेटे सुलेमान को थमाते हुए फरीद ने जमील से कहा "आप बहुत बड़े काम के लिये जा रहे हैं जमील भाई. रास्ते में कौन सी मुसीबत आयेगी और कितना खर्च होगा, कुछ भी नहीं पता है......इसलिये सुलेमान को कुछ पैसे दे रहा हूँ मैं……आपको जब भी, जहाँ और जिस भी काम के लिये पैसे की ज़रूरत हो, सुलेमान से बेधड़क ले लीजियेगा......ये पूरी मुहिम आप ही के इख्तियार में होगी."
फिर जमील, सुलेमान और उनके आदमियों ने फरीद से विदा ली, और कलकत्ता के लिये तेज़ी से निकल गये. जमील ने अपनी तीनों गाड़ियों में एक-एक आदमी को खासतौर पर इस बात के लिये हिदायत दी थी कि वह सामने से आने वाली गाड़ी का मॉडल, और रंग ध्यान से देखता रहे, और अगर मॉडल और रंग सही दिखे तो किसी भी हाल में नम्बर की पहचान की जाये.
जैसे-जैसे दिन बीता जा रहा था, जमील के काफिले, और उधर से आ रहे शुज़ा के काफिले, दोनों ही ओर की गाड़ियों में कशीदगी बढ़ती जा रही थी. हर एक इंसान के चेहरे पर बेचैनी साफ देखी जा सकती थी. कोई कितना भी बड़ा सूरमा होने का दावा क्यों न करता हो, मौत से डर सभी को लगता है, गला सभी का सूखता है. हाँलाकि शुज़ा को ये पक्के तौर पर नहीं पता था कि फरीद ने उसे मारने किसी को भेजा है या नही, लेकिन उनका अंदेशा था कि जिस हिसाब से कलकत्ता में उन पर नज़र रखी जा रही थी, जिस तरह से दो-तीन बार होटल बदलने के बाद भी हमलावर उन तक पहुँच गये थे, वह इस बात को अच्छी तरह समझ चुके थे कि फरीद चुप नहीं बैठेंगे और बीच रास्ते में ही शुज़ा को मारने का मंसूबा ज़रूर बनाया होगा. शुज़ा भी अपने हथियारबंद आदमियों के साथ आगे बढ़ रहे थे.
रात करीब 11 बजे होंगे. जमील का कारवाँ बनारस से गुज़र रहा थे. इतनी देर रात सड़कों पर गाड़ियाँ भी न के बराबर ही थीं. जमील, सुलेमान और उनके आदमी खाना भी 8-9 बजे ही खा चुके थे. सामने से आती कुछ गाड़ियों को देखकर जमील की गाड़ी में खिड़की के पास बैठे एक आदमी के कान खड़े हो गये थे. अपनी आँखों को सिकोड़कर सामने से आ रही गाड़ियों को देखते हुए वह धीरे से बोला "ये लाल रंग की एम्बेसडर गाड़ी तो लग रही है ना?" यह सुनते ही अचानक जमील की गाड़ी में बैठे सभी आदमियों ने कस कर अपने हथियार पकड़ लिये. उनके ड्राइवर कासिम ने, जो जमील का बहुत भरोसेमंद शार्प शूटर भी था, अचानक अपनी गाड़ी की रफ्तार कम कर दी. गाड़ी के नज़दीक आने पर उन्होनें देखा कि वह सच मे लाल रंग की एम्बेसडर कार थी. तभी जमील के काफिले की पीछे वाली गाड़ी में बैठा कोई आदमी बहुत ज़ोर से चिल्लाया "अरे वही नम्बर है ये!!!", तभी सबसे पीछे वाली गाड़ी में बैठा कोई आदमी चिल्लाया "अरे यही है वो!!!" अचानक ही जमील की सभी गाड़ियों के ड्राइवरों ने बहुत तेज़ी से ब्रेक लगा दिये. सड़क पर ऐसा देखना और सुनना ही था कि शुज़ा की गाड़ी के तेज़ दिमाग ड्राइवर ने पूरी ताकत से एक्सेलेरेटर दबा दिया था. शुज़ा के पीछे-पीछे चल रही हथियारबंद वैन के ड्राइवर ने भी ज़ोर से चिल्लाते हुए पूरी ताकत से एक्सेलेरेटर दबा दिया था "अरे मारो इनको!!!" और इसी वक़्त शुज़ा के आदमियों ने अपनी तेज़ रफ्तार वैन से, जमील के काफिले पर गोली चला दी थी. जमील के ड्राइवरों ने भी तेज़ी से अपनी गाड़ियाँ पीछे की ओर मोड़ीं और खतरनाक ढंग से शुज़ा के काफिले का पीछा करना शुरु कर दिया था.
दोनों ही तरफ से तेज़ रफ्तार गाड़ियों में से एक-दूसरे पर गोलियाँ चलायी जा रही थीं. जमील के शार्प शूटर कासिम ने तभी एक सटीक निशाना लेकर गोली चलायी जो ठीक शुज़ा के आदमियों की वैन के पिछले टायर पर लगी थी. टायर पंचर हो गया और वैन अचानक पलट गयी थी. वैन को पलटता देखकर शुज़ा के ड्राइवर ने भी अपनी एम्बेसडर रोक दी थी और दोनों ही गाड़ियों से निकलकर शुज़ा और उनके आदमी सड़क के दोनों ओर के खेतों, और बबूल के पेडों, झाड़ियों में पोजीशन लेने के लिये दौड़े. जमील के ड्राइवरों ने भी वहीं बहुत तेज़ी से आकर गाड़ी रोकी थी. जमील के लड़ाके भी गाड़ियों से उछल कर बाहर निकले और सड़क के किनारे की झाड़ियों में छिप कर पोजीशन ले ली थी, और शुज़ा के आदमियों की फायरिंग का जवाब दे रहे थे. सुलेमान भी उतर कर जमील के साथ ही भागा और जमील अपने ही साथ उसे झाड़ियों में लेकर छिप गये थे. सुलेमान को उन्होनें बिल्कुल खामोश रहने को कहा था और खुद मोर्चा सम्भाल लिया था. इतना सब कुछ इतनी रात गये हो रहा था और आस-पास दूर तक पुलिस का कोई नामोनिशान नहीं था.
दोनों ही तरफ से अंधाधुंध गोलियाँ चलायी जा रहीं थीं. शुज़ा के आदमी गिनती में ज़रूर कम थे, और अचानक वैन के पलट जाने के कारण कुछ ज़ख्मी भी थे, लेकिन जमील के आदमियों का न केवल सामना कर रहे थे, बल्कि भारी भी पड़ते लग रहे थे. उनके एक आदमी ने सेफ्टीपिन निकालकर एक हथगोला अचानक उस तरफ फेंका जिधर से जमील गोलियाँ चला रहे थे. हथगोला जमील और सुलेमान से कुछ दूर जाकर फटा. अचानक हुए इस हमले में जमील काफी ज़ख्मी हो गये थे. उनका एक हाथ जल गया था और जिस्म लहूलुहान हो रहा था. उन्होनें सुलेमान को वहाँ से भगाने की कोशिश की लेकिन इसके उलट सुलेमान ने जमील की पिस्तौल लेकर खुद ही ताबड़तोड़ फायरिंग शुरु कर दी थी, और उस आदमी को ढेर कर दिया था जिसने हथगोला फेंका था. जमील के पास भी दो-तीन हथगोले थे, जो उन्होनें सुलेमान को दिये और फेंकने का इशारा किया. अब शुज़ा के आदमियों के पाँव उखड़ रहे थे. जमील के आदमी गिनती और हथियार दोनों में ज़्यादा थे, और अब वे लोग भारी पड़ रहे थे. देखते ही देखते शुज़ा के आगे ही उनके चार आदमी मारे जा चुके थे.
शुज़ा के आदमियों ने फिर से ज़ोर लगाया और बहुत तेजी से फायरिंग शुरु कर दी थी. एक गोली सुलेमान के कंधे को रगड़ते हुए गुज़र गयी थी, और वह घायल हो गया था. इसी समय बगल के कच्चे रास्ते से एक दूसरी जीप अचानक आकर रुकी, जिसमें से कई सारे नकाबपोश उतरे और उन्होनें उस ओर अंधाधुन्ध गोलियाँ चलानी शुरु कर दी, जिधर शुज़ा के आदमी पोजीशन लिये हुए थे. शुज़ा के आदमियों के लिये अब यह मुठभेड़ भारी पड़ रही थी. वे पहले से ही कमज़ोर पड़ रहे थे, अब इन नये हमलावरों ने आकर मुश्किल बढ़ा दी थी, शुज़ा के तीन और आदमियों की लाशें बिछ चुकी थीं. उनका एक खास आदमी जो उनके ही साथ झाड़ियों में छिपा बैठा लड़ रहा था, ने शुज़ा से कहा "भाईजान, सुनिये…….अब हम लोग ज़्यादा देर लड़ नहीं पायेंगे......हमें नहीं पता था कि आपके भाई के लोग इतनी बड़ी तादाद में और इतने हथियारों के साथ आ जायेंगे वरना हम और ज़्यादा तैयारी से आते.....आप ड्राइवर को लेकर जल्दी निकल जाइये यहाँ से.....आप सेफ रहेंगे......आप जाइये जल्दी!!! हम लोग रोकते हैं यहाँ इनको उतनी देर तक....जाइये भाईजान, जाइये!!!" अपने आस-पास का मंज़र देखकर शुज़ा की हिम्मत भी अब तक जवाब दे रही थी. उन्होनें आस-पास देखा, तो एक जगह ड्राइवर दिखायी दिया. शुज़ा ने उसे धीरे-धीरे गाड़ी की ओर चलने का इशारा किया. शुज़ा के ही एक दूसरे आदमी ने उनको कवर फायर दिया जिसकी आड़ में वह ड्राइवर और शुज़ा बचते-बचाते गाड़ी तक जा पहुँचे. जैसे ही गाड़ी का इंजन स्टार्ट हुआ, सुलेमान ज़ोर से चिल्लाया "अरे भाग रहा है साला!!!....ज़िंदा जाने मत दो उसको, पकड़ो उसे!!" यह चिल्लाते हुए सुलेमान तेज़ी से शुज़ा की गाड़ी की ओर लपका. लेकिन शुज़ा के आदमी गाड़ी कि हिफाज़त के लिये बेहद खतरनाक ढंग से गोलियाँ चला रहे थे, यह देखकर जमील ने पूरी ताकत से सुलेमान को वापस झाड़ी में खींच लिया. सुलेमान बहुत गुस्से मे बोला "ये क्या कर रहे हैं जमील भाई?...जाने दे रहे हैं उसे?" जमील ने भी गुस्से से कहा "नहीं सुलेमान!! बचा रहे हैं आपको हम.....आपके अब्बू को ज़बान दी है हमने." फिर हाँफते हुए जमील ने पूछा "ये लोग कौन हैं, जो जीप से आये है?.....हमारी मदद क्यों कर रहे हैं ये?" सुलेमान ने जवाब दिया "पता नहीं भाई कौन हैं ये लोग."
शुज़ा के आदमी गोलियों की बरसात कर रहे थे और सुलेमान और उनके आदमियों के लिये एक कदम बढ़ाना भी नामुमकिन हो रहा था. इसी बात का फायदा उठाकर शुज़ा अपने ड्राइवर के साथ वापिस कलकत्ता की तरफ भाग निकले. जमील के ड्राइवर कासिम और फिर सुलेमान ने भी अपनी गाड़ियों की तरफ बढ़ने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे. कुछ देर बाद शुज़ा के सभी आदमी मार दिये गये लेकिन तब तक शुज़ा की गाड़ी आँखों से ओझल हो चुकी थी. जब गोलियों की आवाज़ बंद हो गयी और काफी देर तक गोलियाँ नहीं चलीं, तब धीरे-धीरे सुलेमान घायल जमील को लेकर झाड़ी से बाहर निकले. जमील के 20 में से 4 साथी मार दिये गये थे. जमील के बाकी आदमी भी जहाँ-जहाँ पोजीशन पर थे, बाहर आ गये. जीप से जो नकाबपोश लोग आये थे और लड़ रहे थे, वे भी बाहर निकल आये थे.
ये सभी लोग एक जगह सड़क पर जमा हो रहे थे, तब सुलेमान ने उन लोगों से पूछा "आप लोग कौन हैं?.....और यहाँ हमारी मदद करने क्यों आये थे?" जमील ने भी सवाल किया "तुम लोगों को कैसे पता चला इन सब के बारे में?.....और यहाँ तक कैसे आ गये?" उन नकाबपोशों में से एक ने कहा "फरीद भाई ने भेजा था हमें आपकी मदद करने के लिये……हम लोग लखनऊ से आये हैं, और आपके पीछे ही थे."
"लेकिन हमें तो फरीद भाई ने ऐसा कुछ बताया नहीं कि वह और भी किसी को भेज रहे हैं हमारे साथ......सच-सच बोलो, कौन हो तुम लोग, और यहाँ क्यों आये हो?" जमील ने सख्ती से पूछा. उस नकाबपोश ने हँसकर कहा "सच जानना चाहते हो?.....तो ये लो..." और फिर अचानक उसने घायल जमील के ऊपर बिल्कुल करीब से गोली चला दी. जमील अब तक उनकी बातें समझ चुके थे, उन्होनें सुलेमान को तेज़ी से झाड़ी की तरफ धक्का दिया और चीखे "भाग सुलेमान!!!!.....जल्दी भाग!!!" कासिम सहित जमील के 5-6 आदमी बिजली की तेजी से सुलेमान के साथ ही झाड़ी की ओर कूदे और नकाबपोशों के ऊपर बेतहाशा फायरिंग शुरु कर दी थी. नकाबपोशों ने अब तक जमील और उसके कई आदमियों को मार दिया था और झाड़ियों में छिपकर अब सुलेमान और उसके दूसरे आदमियों पर ताबड़तोड़ गोलियाँ चला रहे थे. कुछ देर पहले ही शुज़ा के आदमियों से साथ-साथ लड़ाई कर रहे दोनों गुट अब एक दूसरे से लड़ रहे थे. काफी घबराये हुए सुलेमान ने कासिम से कहा "क्या हो रह है ये सब कासिम भाई?....मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा है." कासिम ने गोली चलाते हुए कहा "समझ में तो मुझे भी कुछ नहीं आ रहा है.......लेकिन मुझे तो यही लगता है कि ये लोग आपको मारने आये थे." सुलेमान ने कहा "पता नहीं भाई, अभी तक मुझे लगा कि ये लोग हमारी मदद कर रहे हैं, लेकिन........जमील भाई...." सुलेमान बोल नहीं पा रहा था और रोने लगा था. "रोने का वक़्त नहीं है ये सुलेमान!! हथियार उठाइये और लड़िये, इस वक़्त जान बचाना ज़्यादा ज़रूरी है.....गोली चलाते हुए गाड़ी की तरफ बढ़िये, जिस से हम जल्दी से यहाँ से निकल सकें.....जल्दी कीजिये!!....हमारे पास वक़्त और बारूद दोनों खत्म हो रहा है!!!"
सुलेमान और उसके आदमियों ने धीरे-धीरे अपनी गाड़ियों की तरफ बढ़ना शुरु किया था कि नकाबपोशों की ओर से फेंका गया एक हथगोला सुलेमान के आदमियों की तीन गाड़ियों में से एक पर आकर गिरा, और वह गाड़ी हवा में उछल गयी, और फिर आग के गोले की तरह नीचे सड़क पर आ गिरी. यह देखकर कासिम ने सुलेमान और अपने लोगों से कहा "बहुत जल्दी से तुम सब गाड़ी तक पहुँचो, नहीं तो यहीं पर कब्र बन जायेगी हमारी!!!...हमारी एक गाड़ी खत्म हो गयी है." सुलेमान और उसके आदमियों ने फायरिंग और तेज़ कर दी और किसी तरह एक गाड़ी के काफी करीब तक पहुँच गये थे, कि तभी हथगोले से दूसरी गाड़ी को नकाबपोशों ने उड़ा दिया. इसी आपाधापी का फायदा उठाकर सुलेमान, कासिम और उनके बाकी आदमी तीसरी गाड़ी में बैठ गये जो सही सलामत थी. गाड़ी में बैठते वक़्त ही सुलेमान को कंधे में गोली लग गयी थी, लेकिन किसी तरह से उसे गाड़ी में बैठा दिया गया था. कासिम ने गोलियों की तड़तड़ाहट और दम घोंट देने वाले बारूद के धुएं के बीच बिजली की फुर्ती से गाड़ी कलकत्ते की ओर दौड़ा दी थी. नकाबपोशों में से एक चिल्लाया "पकड़ो उनको!!!....एक भी ज़िंदा न निकलने पाये यहाँ से!!!" और फिर उन नकाबपोशों ने अपनी जीप में जल्दी से बैठकर सुलेमान की गाड़ी का पीछा शुरु कर दिया था. कासिम के लोगों ने गाड़ी के फर्स्ट-एड बॉक्स से सुलेमान की कुछ कामचलाऊ मरहम-पट्टी कर दी थी. आधी रात में सुनसान सड़क पर दोनों तेज़ रफ्तार गाड़ियाँ एक के पीछे एक भागी जा रहीं थीं.
"कहाँ जा रहे हैं हम लोग कासिम भाई?" दर्द में तड़पते हुए सुलेमान ने अपने कंधे को दबाये हुए पूछा. कासिम ने गाड़ी चलाते हुए पीछे की ओर इशारा करके कहा "कहीं जायेंगे तो तब जब इनसे बचेंगे." फिर वह पीछे बैठे अपने आदमियों से चिल्ला कर बोला "ओये!!! एक के बदले दस चलइयो उन पर.....टायर पर मारियो गोली!!" अब उसने गाड़ी की रफ्तार और बढ़ा दी थी. नकाबपोशों में से एक ने अपने ड्राइवर से कहा "सम्भल के चला गाड़ी, और अपना टायर बचाना उनकी गोली से......और दूर तक उनका पीछा करना है जिस से डीज़ल खत्म होने के बाद भरवाने लायक भी न रहें साले!!
रात के करीब 1 बज रहे थे. काफी देर तक कासिम गाड़ी भगाता रहा था. एक ओर तेल खत्म हो रहा था, दूसरी ओर सुलेमान को भी किसी डॉक्टर के पास जल्दी ले जाना था, और उन नकाबपोशों की जीप थी कि जोंक की तरह चिपकी हुई थी, पीछा छोड़ने को ही तैयार नहीं थी. सुलेमान ने फिर कराहते हुए पूछा "कहाँ जा रहे कासिम भाई हम?" कासिम झल्लाते हुए बोला "अरे साला हमें नहीं पता कहाँ जा रहे हम!!!.......इधर पूरब की एक सड़क कभी नहीं देखी हमने…..सिर्फ गाड़ी भगा रहे हैं बस!!!.......सौघरा का रास्ता भी नहीं मिल रहा है!!!......और तुम यहाँ कन्धा फोड़ के बैठे हो, तुमको किसी डॉक्टर के पास भी ले जाना है......गाड़ी में तेल भी भरवाना है.....लेकिन ये सब तो तब होगा जब ये हराम के जने पीछा छोड़ेंगे!!!" आगे के चौराहे पर एक बोर्ड लगा था जिस पर बायीं ओर का निशान बना था और लिखा था 'बलिया 150 किमी.' कासिम ने उसी तरफ बिना सोचे-समझे गाड़ी मोड़ दी. "अब हम बलिया क्यों जा रहे हैं भाई?" एक आदमी ने कासिम से पूछा जिस पर कासिम बिफर गया "साले मेरे मामा की लड़की से तेरा निकाह तय हुआ है भोसड़ी के!!!......वही करवाने जा रहे हैं बलिया!!!" कासिम की बात सुनकर सुलेमान सहित गाड़ी में बैठे सभी लोग ठहाका मार कर हँस दिये, कासिम भी अपने जवाब पर हँसने से खुद को नहीं रोक पाया.
"ये साले बलिया क्यों जा रहे हैं?....नेपाल जाना है क्या इनको?" नकाबपोशों की गाड़ी के ड्राइवर ने कहा और उसी ओर अपनी गाड़ी घुमा दी. एक दूसरे ने कहा "अरे हमें तो नहीं जाना न नेपाल!!!....अब चलो यहाँ से…..जिस काम के लिये आये थे वो तो हो गया ना?" करीब एक घंटे तक तक पीछा करने के बाद एक नकाबपोश ने अपने ड्राइवर से कहा "सुनो, अब रहने दो, वापिस चलो नहीं तो हम भी रास्ता भूल जायेंगे इतनी रात को." और फिर उन नकाबपोशों की जीप वापिस हो गयी. कासिम के आदमी जीप का वापिस जाना देख रहे थे, जब देर तक जीप नज़र नहीं आयी तो कासिम ने कहा "लगता है पीछा करना छोड़ दिया उन्होने." फिर उन लोगों ने एक किनारे अपनी गाड़ी रोक दी और थोड़ी देर के लिये हाथ-पैर सीधा करने के वास्ते उतर गये.
करीब सुबह 4 बजे वे लोग बलिया शहर के एक नर्सिंग होम में पहुँचे जहाँ सुलेमान की ठीक ढंग से ड्रेसिंग और इलाज वगैरह किया गया. घाव ज़्यादा गहरा नहीं था. गोली ऊपर ही फँसी थी जिसे निकाल दिया गया था. वहीं से कासिम ने सुबह ही फरीद को फोन किया था. फरीद रात भर बेचैनी की वजह से सोये नहीं थे और जमील के ही फोन का इंतज़ार करते रहे थे. कासिम ने उन्हें पूरी बात बताई कि कुछ अनजान, नकाबपोश लोग भी मुठभेड़ में शामिल हो गये थे. शुज़ा जान बचाकर भागने में कामयाब रहे और उन अनजान लोगों के हमले में सुलेमान को मामूली चोट आयी लेकिन जमील को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था. जमील के साथ उनके कई और आदमी भी नकाबपोशों के हाथों मारे गये थे. रात भर उन लोगों ने सुलेमान और कासिम का पीछा किया था लेकिन उन्हें पकड़ नहीं पाये. कासिम ने बताया कि वे लोग किसी बलिया नाम के शहर में फँसे हुए हैं. फरीद ने उन्हें वहाँ किसी सराय में बहुत एहतियात के साथ एक दिन और रुकने को कहा और यह भी कहा कि वह एक दूसरी बड़ी गाड़ी बलिया भेज रहे हैं, जो उन लोगों को सही-सलामत सौघरा ले आयेगी.
करीब 3 रोज़ बाद, जब फरीद और सुलेमान रोज़ की तरह अपने दफ्तर में काम कर रहे थे, तभी उनके ऑफिस के कैम्पस में अचानक 10-12 पुलिस की जीपें सायरन बजाती हुई दाखिल हुईं. दफ्तर के लोगों और कारखाने के वर्कर्स के लिये यह बिल्कुल अजीब वाकया था, इसके पहले उन्होनें कभी इतनी बड़ी तादात में कैम्पस में पुलिस को इस तरह सायरन बजाते हुये आते नहीं देखा था. एकाएक सायरन की आवाज़ सुनकर फरीद भी चौंक गये थे, और इसके पहले वह चैम्बर से बाहर आकर कुछ समझ पाते, एक पुलिस ऑफीसर बड़ी तादात में पुलिस के कई इंस्पेक्टरों और जवानों को लेकर दफ्तर की इमारत के अंदर दाखिल हुआ और फरीद के चैम्बर तक आ पहुँचा था. फरीद का चेहरा बिल्कुल पीला पड़ गया था. उन्हें लग रहा था कि बनारस में जो मुठभेड़ हुई थी, पुलिस को पक्का उसका कुछ सुराग मिला है और पुलिस उनको और सुलेमान को गिरफ्तार करने आयी है. इंस्पेक्टर उनके चैम्बर में दाखिल हुआ. फरीद से उसे 'नमस्ते' करते हुए धीरे से पूछा "कहिये इंस्पेक्टर साहब......यहाँ कैसे आना हुआ?" उस ऑफीसर ने कड़क कर कहा "इंस्पेक्टर नहीं, डिप्टी एस.पी. हूँ मैं इस एरिया का!!" और फिर डी.एस.पी. ने एक कड़क, सफेद कागज़ उनकी ओर बढ़ाते हुए सख्त लहज़े में कहा "मिस्टर फरीद अली बेग!!...कोर्ट से आपकी ये फैक्ट्री और ये दफ्तर सीज़ करने के ऑर्डर्स हैं…..और केवल यहीं की यूनिट नहीं, बल्कि लखनऊ और कानपुर की यूनिट्स भी सीज़ कर दी गयीं हैं."
फरीद के पाँवों तले ज़मीन खिसक गयी थी. उन्होनें चौंक कर पूछा "क्या सर?....यहाँ, लखनऊ और कानपुर की यूनिट्स सीज़?......मगर क्यों सर?....मेरा मतलब, चार्जेज़ क्या हैं?"
डी.एस.पी. ने कड़क आवाज़ में कहा "फाइनेंशियल इर्रेगुलरिटीज़ और करप्शन के चार्जेज़ हैं.....टैक्स फ्रॉड भी है.......कागज़ गौर से पढ़िये आप."
फरीद ने ऊपर से नीचे तक पूरा ऑर्डर 2-3 बार पढ़ा. उनको अभी भी यकीन नहीं हो रहा था. "मैं अपने एकाउंटेंट और वकीलों से तो बात कर लूँ?" फरीद ने दरख्वास्त की. डी.एस.पी. ने कहा "बिल्कुल कीजियेगा, लेकिन पहले ये दफ्तर और अपनी फैक्ट्री बंद कीजिये, बिल्कुल अभी....और ये पूरा कैम्पस तुरंत खाली कीजिये."
"ये यूनिट्स कब तक बंद रहेंगी, डी.एस.पी. साहब?" फरीद ने पूछा
"कोर्ट के अगले ऑर्डर्स तक......कागज़ में लिखा है सब, पढ़िये आप."
फरीद फिर से कागज़ देख रहे थे. डी.एस.पी. ने उनसे फिर सख्त लहज़े में कहा "....और गौर से पढ़ियेगा उसे, उसमें साफ लिखा है कि कोर्ट के अगले ऑर्डर तक आपको शहर के बाहर जाने की परमीशन नहीं है.....और तब तक आपको नज़दीकी मलजकुंड थाने में हाजिरी देनी होगी....और वह भी हर रोज़ सुबह."
फरीद ने ऑफीसर की ओर देखा. डी.एस.पी ने आगे कहा "....बहुत ध्यान से रहियेगा मिस्टर बेग, जल्दी ही आपका अरेस्ट ऑर्डर भी आ सकता है......और फिलहाल अभी तो आप हमारे साथ मलजकुंड थाने चलेंगे."
जब फरीद ने उसके बाद कानपुर और लखनऊ की यूनिटों में फोन करके पता किया, तो बात सही निकली. वहाँ भी पुलिस पहुँचकर फैक्ट्री और दफ्तर कोर्ट के लिखित ऑर्डर से बंद करवा रही थी. तीनों ही जगह पर अगले दो घंटे में दफ्तर के सभी लोगों को घर जाने को कह दिया गया और कारखाने में जो काम, जहाँ पर था, वहीं पर तत्काल रोक कर सभी मजदूरों की छुट्टी कर दी गयी. उनको समझाया गया कि बहुत ही जल्द सभी फैक्ट्री दोबारा खुल जायेंगी और पहले की तरह काम शुरु हो जायेगा. चिंता करने की कोई बात नहीं है, सरकार को शायद कुछ गलतफहमी हो गयी है और कम्पनी का मैंनेजमेंट इस समस्या को जल्द ही सरकार के साथ बात करके सुलझा लेगा.
थाने से वापिस आकर शाम को घर पर फरीद अपने सभी एकाउंटेंट्स और अपने सभी जानकार वकीलों की पूरी टीम के साथ बैठे हुए, इस बात पर बहस कर रहे थे कि कैसे फाइनेंशियल इर्रेगुलेरिटीज़ और करप्शन, टैक्स फ्रॉड के चार्जेज़ उनकी कम्पनी पर लग सकते हैं? जबकि आज तक, पिछले 45 सालों में ऐसा कभी भी नहीं हुआ था. हर साल के प्रोडक्शन, खरीद-बिक्री, टैक्स रिटर्न वगैरह के दस्तावेज़ निकालकर देखे जा रहे थे और उनकी बारीकी से जाँच-पड़ताल भी की जा रही थी. कम्पनी के पुराने, मोटे-मोटे रजिस्टर जो ज़माने से धूल फाँक रहे थे, अब सब निकालकर खँगाले जा रहे थे. फरीद की समझ से परे था कि एक ही कम्पनी की 9 यूनिटों में से केवल 3 यूनिटें, वह भी सौघरा, लखनऊ और कानपुर ही, इस कार्रवाई की ज़द में कैसे आ गयीं थीं? और बाकी की यूनिटें कैसे बच गयीं, जबकि सभी यूनिटों में पूरा कागज़ी कामकाज बिल्कुल एक सा होता था.
उधर मिर्ज़ा सूरत की बजाय अहमदाबाद पहुँच गये थे और बिना किसी से कुछ भी पूछताछ किये बिल्कुल उसी होटल में गये, जहाँ पर मुराद ने उन्हें आने को कहा था. मुराद ने बहुत चुपके से एक रात अपने आदमियों के साथ सूरत छोड़ दिया था. वह सूरत में लगातार अपना ठिकाना बदलने से आज़िज़ आ गये थे.
मिर्ज़ा जानते थे कि मुराद पर नज़र रखी जा रही है लिहाज़ा मिर्ज़ा भी एहतियात बरत रहे थे. दरवाज़े पर दस्तक से मुराद बिल्कुल चौकन्ने हो गये और पिस्तौल निकालकर बोले "कौन?" आवाज़ आयी "मैं मिर्ज़ा, औरंगाबाद से." फिर मुराद ने दरवाज़ा खोला और जल्दी से मिर्ज़ा को अंदर कर दरवाज़ा बंद कर दिया. मिर्ज़ा के साथ जो आदमी आया था, उसको मुराद ने सिर्फ एक चाय के लिये बोला था. मुराद फिर मिर्ज़ा के गले लग गये और फफक कर रो पड़े. मिर्ज़ा ने उन्हें दिलासा दिया आराम से रहने को कहा. दोनो भाई फिर कमरे की खिड़की के किनारे लगी दो कुर्सियों पर बैठे और मुराद ने व्हिस्की की एक बॉटल निकाली और ग्लास में अपने लिये पैग बनाया. फिर अपनी जेब से सिगरेट का एक पैकेट निकाला जिसमें से एक सिगरेट निकालकर अपने होठों के बीच रखी और माचिस से सिगरेट जलाई. उन्होनें सिगरेट का धुआँ खिड़की की ओर उड़ाते हुए और ग्लास से एक घूँट गटकते हुए कहा "कैसे हैं भाईजान आप?" इतने में दरवाज़े पर दस्तक हुई. मुराद फिर से चौकन्ने होकर, पिस्तौल लेकर खुद उठे और बहुत थोड़ा सा दरवाज़ा खोला तो देखा कि चाय वाला है. उन्होने चाय लेकर फिर से दरवाज़ा बंद कर दिया और चाय लाकर मिर्ज़ा के आगे रख दी थी, फिर एक प्लेट में दालमोठ निकाली और चाय के बगल में रख दी और अपनी कुर्सी पर बैठ कर सिगरेट फूँकने लगे थे.
मिर्ज़ा ने कहा "मैं तो ठीक हूँ, मगर आपके हाल ठीक नहीं लग रहे हैं."
"ठीक?......ज़िंदा आपके सामने हैं, यही बहुत है....." हँसते हुए मुराद ने कहा. "...हमारे बड़े भाई ने हमारी मोहब्बत का बहुत खूब सिला दिया है हमें."
मिर्ज़ा ने चाय का घूँट पीने के बाद लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा "हम्म्म्म.....शुज़ा से बात हुई?"
"कुछ पता नहीं लग पा रहा है.....वह सड़क के रास्ते अपने आदमियों के साथ सौघरा के लिये रवाना तो हुए थे दो दिन पहले......फिर मैं भी रोज़ अपने ठिकाने बदल ही रहा था, इसलिये फिर उसके बाद कोई बात नहीं हो पायी हमारे बीच.....पता नहीं किस हाल में होंगे शुज़ा भाईजान?"
कुछ देर की खामोशी के बाद मिर्ज़ा ने पूछा "फिर क्या सोचा है आपने?....क्या करना है आगे?"
"फरीद भाई और उस हरामी सुलेमान को तो छोड़ना नहीं है भाईजान......और इन कस्तूरिया जी से भी पूरा हिसाब करना है......इन्हीं के आदमियों ने सूरत में हम पर हमला किया था."
"क्या?.......हमला?" मिर्ज़ा ने ताज्जुब करते हुए पूछा.
"हाँ भाईजान......जानलेवा हमला करवाया था फरीद भाई ने यहाँ हमारे ऊपर और वहाँ कलकत्ता में शुज़ा भाईजान के ऊपर.....मगर अल्लाह मेहरबान रहा, बच गये हम दोनों."
मिर्ज़ा मुराद की बात सुन रहे थे और चाय पी रहे थे.
"....और भाईजान, आपका तो जितना भी शुक्रिया हम अदा करें उतना कम है...." मिर्ज़ा का हाथ पकड़ते हुए मुराद ने कहा "....अगर आप ने हमें सही समय पर चेतावनी न दी होती, तो अभी तक हम दोनों का फातिहा पढ़ रहे होते आप."
"क्या बात करते हैं मुराद?.....अच्छी बातें बोलिये." मिर्ज़ा ने कहा.
"कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है हमारे चारों तरफ और आप कह रहे हैं कि......" फिर मुराद चुप हो गये. व्हिस्की का घूँट पीकर सिगरेट फूँकते हुए उन्होने आगे कहा "...ये तो अच्छा हुआ कि हम लोगों ने शगुफ्ता और रुबैदा दोनों को उनके बच्चों के साथ अपने-अपने मायके भेज दिया वरना पता नहीं क्या होता, ये सोच कर हमारी रूह काँप जाती है."
"फरीद भाई अचानक ऐसा कैसे कर सकते हैं?"
"इरादा तो बहुत पुराना रहा होगा.....लेकिन वह सही मौके की तलाश में थे कि उनके हाथ में ताकत आ जाये……..और वो ताकत अब आयी है उनके पास. जो अपने बाप का ही सगा ना हुआ, वो किसी और से रिश्ता क्या निभायेगा?" मुराद ने सिगरेट का धुआँ खिड़की के बाहर उड़ाते हुए कहा.
"फिर भी मुराद, इतनी ताकत उनके पास कहाँ से आ गयी?"
"कमाल करते हैं आप भाईजान!!....अरे 9 यूनिटों में 7 यूनिटों के मालिक तो वही हैं......केवल दिल्ली और जयपुर वाली यूनिट ही तो उनके इख्तियार से बाहर है, और बाहर क्यों?.....अब तो उनके मालिक भी वही है......टेलीग्राम पढ़ लीजिये आप!"
"मेरे स्टाफ ने बताया है मुझे........और वो लोग मेरे अलावा किसी और के अंडर में काम करने के लिये राज़ी भी नहीं हैं.......वैसे मुराद, अगर इनकी 3-4 यूनिटें बंद हो जायें तो?" मिर्ज़ा ने कहा
"क्या मतलब?"
"सीधा सा मतलब है, मैने पूछा कि अगर 3-4 यूनिटें बंद हो जायें तो उनकी ताकत पर क्या फर्क आयेगा?"
"ये इस बात पर डिपेंड है कि कौन सी यूनिट कितना मुनाफा दे रही है?"
"मतलब?" मिर्ज़ा ने पूछा.
"सबसे ज़्यादा कमाई तो फिलहाल आपकी यूनिट से आ रही है..." हँसकर मुराद ने कहा. अब तक उनका पैग खत्म हो चुका था. उन्होने दूसरा पैग बनाते हुए कहा "....सौघरा, कानपुर और लखनऊ की यूनिटें भी अच्छी कमाई कर रही हैं."
"अगर ये यूनिटें बंद हो जायें तो?"
"कैसे बंद होंगी?......हो ही नहीं सकता ये."
"क्यों?......कोई वर्कर्स स्ट्राइक?.....या फिर कोई पुलिस रेड?....या फिर ऐसी कोई जाँच-तहकीकात?......ये भी तो हो सकती है?" मिर्ज़ा ने कहा.
मुराद की आँखों में चमक आ गयी "अगर ऐसा हुआ तो फरीद भाई की तो कमर टूट जायेगी अल्लाह कसम!!!.....लेकिन....." उनकी खुशी अगले ही पल काफूर हो गयी थी.
"लेकिन क्या?"
मुराद फिर फीकी मुस्कान के साथ बोले "पुलिस रेड और जाँच!!!.....मज़ाक करते हैं आप मिर्ज़ा?.....अब्बू और फरीद भाई दोनो ही एक नम्बर के डरपोक लोग हैं. वो लोग घाटा उठा कर भी बिजनेस चलाने को तैयार रहते हैं लेकिन कोई उल्टा-सीधा, रिस्की काम कभी नहीं कर सकते......उनके सारे कागज़ एकदम सही रहते हैं हमेशा........पुलिस को कभी कुछ भी नहीं मिलने वाला वहाँ पर. रही स्ट्राइक की बात....तो एक साथ 3-4 जगह स्ट्राइक नहीं हो सकती, नामुमकिन है ये."
"पुलिस को क्या मिलना है और क्या नहीं मिलना है, ये तो पुलिस के ऊपर डिपेंड है ना?" मिर्ज़ा ने मुस्कुरा कर कहा.
"क्या मतलब?" मुराद ने मिर्ज़ा की ओर देखा, वह अभी भी हँस रहे थे.
"फिक्र मत कीजिये, वो यूनिटें बंद हो चुकी हैं." अपनी चाय खत्म करते हुए मिर्ज़ा ने कहा.
"क्या?" मुराद ने हैरानी ज़ाहिर की.
औरंगाबाद में अपनी ट्रेनिंग के अंतिम पड़ाव के समय एक शाम मिर्ज़ा ने सौघरा के डी.एम. राघवन को फोन किया था. मद्रास का राघवन अभी नया-नया आई.ए.एस. में सेलेक्टेड था और 6 साल की नौकरी के बाद हाल ही में सौघरा ज़िले का कलेक्टर बनाकर भेजा गया था. उस वक़्त वह अपने दफ्तर में ही था जब उसके फोन की घंटी बजी. "हैलो?" राघवन ने फोन उठाया.
"हाय राघवन!...हाउ आर यू डियर?....दिस इज़ मी, मिर्ज़ा हैदर फ्रॉम होम मिनिस्ट्री."
25 साल की शानदार नौकरी कर चुके, और होम मिनिस्ट्री के डिप्टी सेक्रेटरी मिर्ज़ा हैदर से यू.पी. के हर ज़िले का डी.एम. बखूबी वाक़िफ था. मिर्ज़ा भी यू.पी कैडर के ही थे. राघवन ने हँसकर कहा "ओह मिर्ज़ा सर!!!...व्हाट ए प्लीज़ेंट सरप्राइज़ दिस इवनिंग!!"
"और बताओ राघवन, व्हाट इज़ गोइंग ऑन देयर?.....हिंदी-विंदी सीखी या नहीं तुमने?"
"अभी कहाँ सर?....बाउत तोड़ी-तोड़ी.....इट्स वेरी टफ लैंग्वेज यू नो." राघवन ने टूटी-फूटी हिंदी बोली.
हँसकर मिर्ज़ा ने कहा "वेल, नथिंग इज़ टफ फॉर एन आई.ए.एस. ऑफीसर राघवन!!....यू विल गेट इट सून."
"ओ.के. सर!....आई विल ट्राई माई बेस्ट.......सो व्हाट कैन आई डू फॉर यू सर?" मुस्कुराकर राघवन ने कहा.
"नथिंग मच एक्चुली.....राघवन, विल यू डू ए फेवर टु मी?"
"ऑर्डर सर!!"
"नो, नो, नॉट एन ऑर्डर.....जस्ट ए स्मॉल फेवर आई नीड......" मिर्ज़ा ने हँसकर कहा "....डू यू नो अबाउट एस.जे. लेदर कम्पनी इन योर डिस्ट्रिक्ट?"
हँसते हुए राघवन ने कहा "ऑफ कोर्स आई नो सर!!....इट्स योर कम्पनी सर…….आपका फैमिली का कम्पनी है ये तो सर."
"यस, यस, इट्स ऑवर्स.......विल यू प्लीज़ सीज़ दि फैक्ट्री एंड ऑफिस ऑफ दि कम्पनी फॉर वन ऑर टू वीक्स?"
राघवन यह सुनकर चौंक गया "व्हाट?.....बट व्हाई सर?....आई मीन, सीज़िंग योर ओन कम्पनी?.......सीरियसली?"
"यस, देयर आर सम प्रॉब्लम्स राघवन.....सम इशूज़ हैव क्रॉप्ड अप.......विल यू प्लीज़ डू दिस?"
"बट सर, ऑन व्हिच बेसिस.......आई मीन, कोई क्रेडिबल ग्राउंड तो होना चाहिये.....ऑन व्हिच ग्राउंड वी कैन टेक एक्शन?"
हँसते हुए मिर्ज़ा बोले "कम ऑन डियर राघवन!!....यू आर एन आई.ए.एस. ऑफीसर!!......यू आर दि फकिंग डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट देयर.....इट्स योर डिस्ट्रिक्ट डफर!!!.....यू कैन डू एनीथिंग इन योर डिस्ट्रिक्ट!!.........शुड आई टेल यू हाउ टु गेट दि जॉब डन?"
"ओ.के. सर!!....आई गॉट इट..." मुस्कुराकर राघवन ने कहा "....बट सर, वी कांट डू इट विदाउट ए रिटेन ऑर्डर फ्रॉम दि डी.जे. .......कोर्ट का रिटेन ऑर्डर तो होना चाहिये ऑफ्टर ऑल."
"ओ.के., आई नो दैट......देन आई विल कॉल हिम सून, एंड ही विल गिव यू ए रिटेन ऑर्डर……..बट यू प्लीज़ डू दिस फॉर मी."
"योर विश, माई कमांड सर!!!"
"बट लिसन......डू इट ओनली आफ्टर ए वीक."
"ओ.के. सर."
और इस तरह से मिर्ज़ा ने पहले राघवन को, फिर डिस्ट्रिक्ट जज चावला जी को फोन किया था और एक हफ्ते बाद सौघरा की पूरी यूनिट सीज़ कर देने की बात की. इसी तरीके से मिर्ज़ा ने लखनऊ और कानपुर में भी अपनी चाल चल दी थी.
शुज़ा अवाक थे. उनका मुँह खुला का खुला रह गया था.
"यूनिटें कब तक बंद रहेंगी मिर्ज़ा?" सहमे हुए शुज़ा ने पूछा.
"जब तक हम लोग सौघरा पहुँच नहीं जाते."
"तो फिर कब निकलें हम लोग सौघरा के लिये?"
"जैस आप कहें मुराद.....हम तो आपकी मदद के लिये आये हैं." मिर्ज़ा ने कहा.
दोनों भाईयों रेलवे का टिकट बुक करवाने की काफी कोशिश की लेकिन सौघरा की किसी गाड़ी में टिकट नहीं मिल पाया था, इसलिये उन्होने अपने हथियारबंद लोगों के साथ दो दिन बाद, सड़क के रास्ते, सुबह 10 बजे सौघरा के लिये निकलने का फैसला किया था और अगले दिन रात 12 बजे तक उन्हें सौघरा पहुँच जाना था. मिर्ज़ा की सलाह पर मुराद ने जयपुर के रास्ते सौघरा न जाकर उज्जैन और ग्वालियर के रास्ते जाने का मंसूबा बनाया. जयपुर में कस्तूरिया जी की मौजूदगी इसकी वजह थी. इधर कस्तूरिया जी के आदमियों ने किसी तरह से एक दिन पहले ही अहमदाबाद में मुराद का पता लगा लिया था और यह इत्तला उनको कर दी थी कि मुराद दो दिन बाद अपने आदमियों के साथ उज्जैन और ग्वालियर के रास्ते सौघरा जायेंगे, लेकिन वे लोग उनको यह जानकारी नहीं दे पाये थे, कि मुराद के साथ भी कोई जा रहा है या नहीं. उन लोगों ने गाड़ी का मॉडल, रंग और नम्बर भी कस्तूरिया जी को बता दिया था.
कस्तूरिया जी ने तुरंत यह जानकारी फरीद को दी. फरीद ने शुज़ा के साथ हुई बनारस वाली मुठभेड़ के बारे में भी कस्तूरिया जी को बताया. और उन दोनों के बीच यह बात तय हो गयी थी कि मुराद और उनके आदमियों को उज्जैन में ही खत्म कर दिया जायेगा. फरीद ने अपने हथियारबंद आदमी, दो गाड़ियों में भरकर उज्जैन की ओर रवाना कर दिये थे, जहाँ उन्हें फिर कस्तूरिया जी के हथियारबंद आदमियों के साथ मिलना था और फिर मुराद को खत्म करना था. इस बार कहीं से कोई गड़बड़ ना हो जाये, इसलिये कस्तूरिया जी ने अपने लोगों के साथ खुद भी उज्जैन जाने का फैसला किया था. फरीद ने भी अपने आदमियों को साफ कहा था कि कस्तूरिया जी की हर बात माननी है, और जैसा वह कहें, वैसा ही किया जायेगा. इस बार भी सुलेमन ने जाने की ज़िद की लेकिन फरीद ने उसे रोक दिया था.
इधर शुज़ा बनारस से अपनी जान बचाकर भागे तो कलकत्ता जाने की बजाय पटना में रुकना ज़्यादा बेहतर समझा. कलकत्ता में फरीद के लोग उन्हें खोज रहे थे. एक मामूली सी सराय में कमरा लेकर वह रहने लगे थे और कमरे के भीतर रहकर अपनी दाढ़ी वगैरह बढ़ाने लगे थे जिस से उनकी पहचान न हो सके. खाना भी दो वक़्त की बजाय एक वक़्त ही खाते थे. बीते कई दिनों से न उनका मुराद से सम्पर्क हुआ था, न ही मिर्ज़ा से. शगुफ्ता से भी वह बात नहीं कर रहे थे. शुज़ा अब बिल्कुल अकेले पड़ गये थे, और अब वह सही मौके और सही किस्मत का इंतज़ार कर रहे थे.
अब तक अस्पताल में सैयद साहब की तबियत में भी कुछ सुधार हो रहा था. डॉक्टरों ने उन्हें घरवालों के बार-बार कहने पर घर ले जाने की तो इजाज़त दे दी थी लेकिन अभी भी पूरी तरह से बेडरेस्ट ही बोला गया था. सैयद साहब को फरीद और सुलेमान घर ले आये थे और एक कमरे में ही अस्पताल के सारे इंतज़ामात करवाकर अपने वालिद को उसी कमरे में रख दिया था. उन लोगों ने सैयद साहब को पुलिस की कार्रवाई या शुज़ा और मुराद के बारे में कुछ भी नहीं बताया था, न सैयद साहब इस हालत में थे कि पूछ सकें.
तय दिन पर सुबह के 10 बजे मुराद और मिर्ज़ा अपने हथियारबंद आदमियों के साथ सौघरा के लिये निकल गये थे. इसके करीब 4 घंटे पहले, सुबह 6 बजे ही कस्तूरिया साहब अपने लोगों के साथ जयपुर से उज्जैन के लिये निकल गये थे जहाँ पर मुराद को रोका जाना था.
शाम के करीब 5 बज रहे थे जब इन दोनों काफिलों का आमना-सामना उज्जैन के पास धरमपुर नाम की एक जगह पर हुआ. दिन का वक़्त था और कस्तूरिया जी के लोगों ने आसानी से मुराद की गाड़ी को पहचान लिया था. दोनों ही तरफ के लोग अपनी-अपनी गाड़ियों से उतरकर आस-पास के खेतों और झाड़ियों में छिप गये थे और दोनों ही तरफ से दनादन फायरिंग हो रही थी. कस्तूरिया जी के पास काफी ज़्यादा आदमी और हथियार थे, जबकि मुराद के आदमी और हथियार भी काफी कम थे. मुराद ने सोचा भी नहीं था कि इतनी बड़ी तादात में दुश्मनों से उनका सामना होगा, और इसलिये उनकी ऐसी खास तैयारी भी नहीं थी. वो तो इस मुगालते में थे कि उनके अहमदाबाद चले जाने के बारे में किसी को कोई खबर नहीं थी, जबकि यहाँ हकीकत में मामला उल्टा बैठ रहा था. कस्तूरिया जी के लोग पूरी तैयारी के साथ आये थे और उनको फरीद के आदमियों से भी मदद मिल गयी थी. मुराद ने लगभग हार मान ली थी. उनके लोग भी मारे जा रहे थे. मिर्ज़ा यह सब कुछ देख रहे थे और समझ रहे थे.
अचानक ही मिर्ज़ा के दिमाग में कुछ कौंधा और कुछ सोचकर मिर्ज़ा खुद झाड़ी से बाहर निकलकर सड़क पर आ गये और अपने दोनों हाथ ऊपर कर चिल्लाये "रोको इसे फौरन!!!.....फायरिंग तुरंत रोको!!!" मिर्ज़ा हैदर बेग को अचानक अपने आगे देखकर कस्तूरिया जी दंग रह गये थे और वह भी उछलकर झाड़ी से बाहर सड़क पर आ गये और चिल्लाये "बंद करो फायरिंग!!!..... तुरंत बंद करो फायरिंग!!!" अब तक मुराद भी पीछे से निकलकर मिर्ज़ा के साथ आकर खड़े हो गये थे और अपने आदमियों को फायरिंग तुरंत रोकने को कह दिया था. अब दोनों तरफ से फायरिंग बिल्कुल बंद थी और दोनों तरफ के लोग बाहर आ गये थे.
कस्तूरिया जी मिर्ज़ा के पास हाँफते हुए पहुँचे "अरे मिर्ज़ा!! आप यहाँ?" उन्हें यह कतई इल्म नहीं था कि मुराद के साथ मिर्ज़ा भी हो सकते हैं.
मिर्ज़ा ने गुस्से में कहा "जी, कस्तूरिया जी.....मैं हूँ.....और ये सब क्या है?.....मेरे भाई को मारने आप किराये के गुंडे लेकर आये थे?"
कस्तूरिया जी को समझ में नहीं आया था कि मिर्ज़ा के सवाल का क्या जवाब दिया जाये. वह इस बात से पहले ही परेशान थे कि मुराद के साथ मिर्ज़ा भी मौजूद थे. एक बेहद सीनियर आई.ए.एस. अफसर और जो खुद होम मिनिस्ट्री में इतने बड़े ओहदे पर हो, उस पर किसी भी हाल में गोली नहीं चलायी जा सकती थी, इसलिये कस्तूरिया जी ने फायरिंग भी रुकवा दी थी. उन्होने पूछा "लेकिन मिर्ज़ा, आप यहाँ, मुराद के साथ कैसे?"
मिर्ज़ा अभी भी भड़के हुए थे "क्यों?......क्या छोटे भाई के साथ सफर नहीं कर सकता मैं?" फिर उन्होने कहा "औरंगाबाद में होम मिनिस्ट्री की ट्रेनिंग और कॉन्फ्रेंस खत्म करके आ रहा हूँ, और दिल्ली जा रहा हूँ. मुझे पता था कि हमारे भाई मुराद सूरत में हैं, तो मैं उनसे मिलने पहले सूरत, फिर अहमदाबाद गया था. वहाँ से फिर मैं इन्ही के साथ आ रहा हूँ......लेकिन आप यहाँ क्य कर रहे हैं?.....और ये सब तमाशा क्या है?"
कस्तूरिया जी समझ गये कि मिर्ज़ा को ज़्यादा कुछ पता नहीं है. उन्होनें कहा "बड़ा कठिन मसला हो गया है मिर्ज़ा आपके यहाँ.....आप शायद इस से अंजान हैं. चलिये किसी ढंग की जगह चलकर तफ्सील से बात करते हैं." फिर दोनों तरफ के लोगों ने वहाँ से कुछ दूर आगे जाकर एक बड़े ढाबे के पास गाड़ियाँ रोकी और सभी लोग गाड़ी से नीचे उतरे. कस्तूरिया जी और मुराद ने सभी आदमियों से कहा "आप लोग चाय-नाश्ता जो भी करना चाहें कर लीजिये." और वो तीनों लोग खुद ढाबे में एक अलग जगह पर बैठे.
पहले कस्तूरिया जी और मुराद के बीच बात शुरु हुई. मुराद ने अपने ऊपर होने वाले हमलों का ज़िक्र किया, जिस पर कस्तूरिया जी ने कहा कि उनके और मुराद के आदमियों में कुछ गलतफहमी हो गयी थी, जिसकी वजह से सूरत में वह गोलीकांड हुआ. कस्तूरिया जी ने यह भी कहा कि मुराद को मारने की पहल फरीद ने की थी और खुद उनकी ऐसी कोई नीयत नहीं थी. फरीद ने ही उज्जैन में भी हथियारबंद आदमी भेजे थे क्योंकि वह मुराद को मारना चाहते हैं. कस्तूरिया जी ने इस पर मुराद से माफी भी माँगी कि उन्होनें फरीद का साथ दिया. उन्होनें मुराद को यह भी बताया कि सैयद साहब ज़िंदा हैं, और घर पर हैं.
मुराद ने कहा "...वैसे एक बात कहिये कस्तूरिया जी……फरीद भाई का साथ देने, और उनके लिये अपनी जान जोखिम में डालने का क्या सिला मिला है आपको?"
"क्या मतलब?" कस्तूरिया जी बोले.
"यही कि इतनी ज़्यादा दौड़-भाग आपने की उस जालंधर वाले प्रोजेक्ट के लिये........कितने लोगों से मिलकर बात की.......पूरा प्रोजेक्ट मुकम्मल करवाया आपने फरीद भाई के लिये.......आज यहाँ आप फरीद भाई के लिये गोली खाने को तैयार हैं........और जब जालंधर यूनिट का इंचार्ज बनाने की बारी आयी तो मालपुआ भकोस कर कौन ले गया?...वो लड़का सरवर……..जबकि हम लोग यही सोच रहे थे कि आपके बेटे हमीर को आपकी इस मेहनत का ईनाम ज़रूर मिलेगा. सरवर तो पहले से ही हमारी कम्पनी के दूसरे कामों में लगे हुए थे......उनको इंचार्ज क्यों बनाना था?.....हमीर को यह ज़िम्मेदारी मिलनी चाहिये थी."
मुराद ने कस्तूरिया जी दुखती रग पर हाथ रख दिया था, और उनके पास कोई जवाब नहीं था.
रात के करीब 9 बज रहे थे, और रात का खाना वगैरह खा कर मुराद और मिर्ज़ा अब आगे बढ़ चले थे. उनके ज़िंदा बचे हुए हथियारबंद आदमी भी उनके साथ ही थे. कस्तूरिया जी जयपुर वापिस लौट गये थे. सुबह करीब 6 बजे दोनों भाई ग्वालियर पहुँच गये थे और वहाँ एक सरकारी गेस्ट हाउस में मिर्ज़ा ने तुरंत ही कमरा भी बुक कर लिया था. अपने आदमियों के लिये उन्होनें पास के एक होटल में कमरा दिला दिया था. रात भर चलकर वे लोग थक गये थे, और अब चाय-नाश्ता करके, नहाना-धोना और सोना चाहते थे.
चाय-नाश्ता करके और नहा-धो कर मुराद ने वहाँ से कस्तूरिया जी को फोन किया.
उस रोज़ दोपहर में फरीद, सुलेमान और रुखसार के साथ खाने की मेज पर बैठे थे, जब उनके घर में हॉल में रखा टेलीफोन बजने लगा. उन्होने फोन उठाया "हैलो?"
"हैलो फरीद, मैं कस्तूरिया बोल रहा हूँ."
फरीद ने धीरे से कहा "जी, कस्तूरिया जी, बताएं........काम हुआ?"
कस्तूरिया जी ने हिचकते हुए कहा "....असल में फरीद......वहाँ मुराद के साथ-साथ मिर्ज़ा भी थे. तो....." फिर वह रुक गये.
फरीद चौंक गये, और ज़ोर से बोल पड़े "क्या?......मिर्ज़ा भी?" यह सुनकर रुखसार और सुलेमान भाग कर उनके पास आ गये. रसोई से नादिरा भी आ गयीं थीं.
"तो....तो क्या कस्तूरिया जी?.....फिर क्या किया आपने?" फरीद बेचैन हो उठे थे.
"तो......अब भारत सरकार की......होम मिनिस्ट्री के........इतने सीनियर आई.ए.एस. अफसर पर....... गोली कैसे चला सकते थे हम लोग?........आप समझ रहे हैं ना फरीद?....."
फरीद ने अपनी आँखें भींच ली और दाँतों से होठों को मुँह में दबा लिया. फिर खुद को सम्भाल कर बोले "कस्तूरिया जी, आपने क्या किया?.....सीधे बोलिये हमसे?.....बातें मत घुमाइये!"
"हमने तो उन दोनों.......भाईयों को......जाने दिया फरीद......लेकिन उन्होनें वादा किया है कि वे लोग सीधे सौघरा जायेंगे और आपसे मिल-बैठ कर बात करेंगे......फरीद, वो लोग कुछ नुकसान नहीं पहुँचायेंगे आपको या सुलेमान को, आप भरोसा रखिये."
यह सुनकर फरीद के होश फाख्ता हो गये थे. वह बिल्कुल बुत बनकर खड़े थे और उनके होठों से आवाज़ भी नहीं निकल रही थी. उन्होनें किसी तरह धीरे से कहा "आपको नहीं पता कस्तूरिया जी, कितनी बड़ी गलती कर आये हैं आप!!!!...." फिर चीख कर कहा ".....आपको मार देना था उन दोनों को वहीं पर!!!......इसीलिये भेजा गया था आपको वहाँ!!!......क्यों ज़िंदा जाने दिया उन्हें आपने?"
"फरीद हमारी बात समझिये, वो दोनों भाई साथ में ही थे और मिर्ज़ा, मुराद की ढाल बनकर खड़े थे.....उन्होने कहा कि मुराद से पहले गोली उन पर चलेगी.......अब मिर्ज़ा पर कैसे गोली चला देते हम?"
"बहुत गलत किया आपने कस्तूरिया जी!!!.....बहुत गलत किया!!!" फरीद ने बेहद अफसोस के साथ अपना चेहरा पोंछते हुए कहा. खुद को फिर से सम्भालते हुए आगे पूछा "अच्छा, इस वक़्त कहाँ पहुँचे होंगे वो?"
"मेरे आदमियों ने खबर की है अभी-अभी.....ग्वालियर पहुँच रहे हैं वो लोग."
इतना सुनना था कि फरीद गुस्से से पागल हो गये. अपने सिर के बाल नोचते हुए चीखे "क्या?....ग्वालियर में हैं वो?.....और आप हमें अब बता रहे हैं?.....दोपहर के 2 बजे?.....अरे!!!......अरे ग्वालियर से सौघरे की दूरी केवल 3 घंटे की है कस्तूरिया जी!!!.....हम क्या तैयारी कर पायेंगे सिर्फ 3 घंटों में?......आपने हमें पहले क्यों नहीं बताया कस्तूरिया जी?......उज्जैन में किस वक़्त मुलाकात हुई आप लोगों की?......आपने हमें उसी वक़्त क्यों नहीं बताया?......अरे वो लोग छोड़ेंगे नहीं हमें और हमारे बेटे को!!!.....आपने पहले क्यों नहीं खबर की?...." फरीद बहुत परेशान हो गये थे.
उधर से आवाज़ आयी "...हैलो?....हैलो?....हैलो फरीद?...हैलो?"
"जी, कस्तूरिया जी…." फरीद ने ज़ोर से कहा.
"हैलो?.....हैलो फरीद?....हैलो?....आप सुन पा रहे हैं?....हैलो?"
"जी बोलिये....हाँ बोलिये....जी कस्तूरिया साहब.....हैलो?" फरीद फोन पर चीख रहे थे.
"हैलो?....हैलो फरीद?....हैलो?..." और फिर फोन कट गया था.
फरीद का दिमाग काम नहीं कर रहा था. उन्होनें नादिरा से कहा "नादिरा!!....आप जल्दी से सुलेमान को लेकर अपने मायके चली जाइये......जल्दी कीजिये!!!....बहुत जल्दी!!!.....वो कमीने यहाँ कभी भी आ सकते हैं, जल्दी कीजिये!!!"
"अरे लेकिन हुआ क्या?...कुछ बताइये तो?" परेशान नादिरा ने पूछा. फरीद ने चीख कर कहा "बताने का वक़्त नहीं है, जैसा कहा है वैसा कीजिये!!!"
सुलेमान ने पूछा "क्या हुआ अब्बू?.....चचाजान आ रहे हैं?.....मैं भी चलूँगा आपके साथ अब्बू."
"बकवास मत कर!!...अम्मी के साथ सीधे नानी के यहाँ जायेगा तू!!!" फरीद ने चिल्ला कर कहा.
फरीद ने तुरंत फोन घुमाया. उनके हाथ काँप रहे थे और वह बार-बार होंठ दाँतों से चबा रहे थे "हैलो?....हैलो कासिम?.....बेटे मैं फरीद बोल रहा हूँ.......हाँ......बेटे एक बहुत बड़ी इमरजेंसी है......आदमी और हथियार जल्दी इकट्ठे करो, बहुत जल्दी......हाँ......15 आदमी कम से कम हों......तीन गाड़ियाँ और खूब सारे हथियार......हाँ, बिल्कुल.......क्या कहा?....सिर्फ 10 आदमी?.....नहीं बेटा, नहीं.....बेटा कम से कम 15 आदमी.....हाँ.....ठीक है.....बेटा कहीं से भी बुला लो.....अरे पेमेंट की बात ही न करो, दो गुनी मिलेगी.....अगले एक-डेढ़ घंटे में हमारे दरवाज़े पर.....हाँ.....अच्छा ठीक है, चलो जितने भी बुला पाओ, बुला लो....जल्दी करना बच्चे!!!" फिर फरीद ने फोन रख दिया.
नादिरा ने फरीद से कहा "मैं कहीं नहीं जाऊँगी......अगर वो लोग मुझे मारना चाहते हैं, तो यही सही.....मैं डोली में आयी थी यहाँ, अब यहीं से ताबूत में भी जाऊँगी......मैं यहीं रहूँगी और सुलेमान आपके साथ जायेगा."
"नादिरा बहस मत कीजिये......आपको और सुलेमान को नहीं खो सकते हम"
"तो आपको खोकर हमें क्या मिलेगा?....इस से तो मौत भली."
"दिमाग खराब है आपका, आप जल्दी निकलिये यहाँ से!!!" फरीद चीखे.
"मैं कहीं नहीं जाऊँगी!!!....और मेर बेटा भी अपने वालिद के लिये लड़ेगा बस!!!" नादिरा भी चिल्ला रहीं थीं.
फरीद ने बहस नहीं की और तुरंत सुलेमान के साथ बाहर निकल गये. किसी भी हाल में वह उन्हें सौघरा नहीं आने देना चाहते थे.
रुखसार यह सब देख रही थीं. उन्होनें एक लफ्ज़ तक नहीं कहा था और बड़ी चालाकी से अपने अंदर की बेपनाह खुशी को जज़्ब कर गयी थीं.
सुलेमान ने उनके पीछे भागते हुए पूछा "अब्बू, कहाँ रोकेंगे उन्हें?"
फरीद ने बिना उनकी ओर देखे कहा "सौघरा के बाहर जहाँ यमुना बहती है………शामगढ़ छोटा सा गाँव है......यमुना पार नहीं करने देनी है उनको......वहीं शामगढ़ में रोकेंगे उन्हें."
ढाबे पर जब मुराद, मिर्ज़ा और कस्तूरिया जी की बात चल रही थी, उसी दौरान मुराद ने कस्तूरिया जी से कहा "मेरे पास एक बात है आपसे कहने की, अगर आप उस पर गौर करें तो."
"कहिये."
मुराद ने पासा फेंका "कस्तूरिया जी, मैं वायदा करता हूँ आपसे, कि यदि मेरे हाथ में कम्पनी की बागडोर आ गयी, तो हमारी जालंधर यूनिट का इंचार्ज अपना हमीर होगा."
कस्तूरिया जी मुराद की ओर से अचानक दिये जा रहे इस तोहफे से हैरान रह गये थे और तय नहीं कर पा रहे थे, कि इसे मंज़ूर करें या नहीं. अपने भाई की इस बात को अचानक सुनकर खुद मिर्ज़ा भी दंग रह गये थे....उनके तो दिमाग में भी यह बात नहीं थी. वह कभी मुराद का चेहरा देख रहे थे, तो कभी कस्तूरिया जी का चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रहे थे.
"कहिये कस्तूरिया जी, हमारा सुझाव कैसा लगा आपको?" मुराद ने फिर पूछा.
कस्तूरिया जी पेसोपेश में पड़ गये थे. सैयद साहब से उनकी काफी पुरानी दोस्ती थी, और फरीद को भी वह बहुत प्यार करते थे. फरीद और सैयद साहब के कहने पर ही वह जालंधर वाले प्रोजेक्ट में फरीद की मदद करने को तैयार हुए थे, और मदद क्या की थी, लगभग पूरा प्रोजेक्ट ही उनके दम पर मुकम्मल हुआ था. कितनी ही तकलीफें उठायी थीं उन्होने इस प्रोजेक्ट के लिये.......फरीद तो केवल 2-3 दफा ही जालंधर आये थे, और सरवर तो एक बार भी नहीं आया था, लेकिन फिर क्या किया फरीद ने?.......और फरीद से अगर अब वह मुँह मोड़ते हैं, तो क्या यह दगाबाज़ी न होगी?......क्या यह उनकी पीठ में छुरा घोंपना नहीं होगा?.....क्या यह सैयद साहब से एहसानफरामोशी न होगी?.....क्या पुराने दोस्त का भरोसा नहीं टूट जायेगा?.....लेकिन फिर हमीर का क्या होगा?.....उनका अपना बेटा जिसके लिये उन्होनें जालंधर का प्रोजेक्ट अपने हाथ में लिया था, आखिर उसे जालंधर का इंचार्ज क्यों नहीं बनाया गया?....और अब जब मुराद यह मौका दे रहे हैं तो क्या इसे ठुकरा दिया जाये?
"आप हमसे क्या चाहते हैं?" कस्तूरिया जी ने मुराद से पूछा.
"बस आपका साथ चाहिये कस्तूरिया जी, जैसा साथ आप अभी तक फरीद का देते आये हैं." मुराद का जवाब था.
"गारंटी क्या है कि कम्पनी की बागडोर अपने हाथ में आने के बाद आप ऐसा ही करेंगे?.....कहीं आप बदल गये तब?"
"अब मैं परचून की दुकान तो नहीं चला रहा कस्तूरिया जी, जो आपको गारंटी दूँ हर सामान की........लेकिन अपने अब्बू की कसम खाता हूँ मैं.......आपको मैं ज़बान देता हूँ, कि जालंधर यूनिट आपके बेटे की होगी." मुराद ने भरोसे से कहा. मिर्ज़ा, मुराद की खुद-ऐतमादी पर हैरान थे.
कस्तूरिया जी ने फिर अपने सभी खास आदमियों को अपने पास बुलाया था.
अगले डेढ़ घंटे में बाप-बेटे फरीद और सुलेमान एक जंग की जितनी तैयारी अपनी ओर से कर सकते थे, उतनी कर ली थी. तब तक कासिम दो गाड़ियाँ और नौ आदमी मय हथियार, फरीद के घर के गेट पर ले आया था. "इतनी जल्दी-जल्दी में बस इतने लोग ही ला सका भाई......मगर हथियार कम नहीं हैं." कासिम ने कहा
फरीद ने उसे शाबाशी दी और अपने हथियार भी उनकी गाड़ियों में रखकर सुलेमान के साथ शामगढ़ के लिये रवाना हो गये थे. शामगढ़ पहुँचकर उन्होनें इलाके का मुआयना किया और अपने लिये सही और फायदेमंद पोजीशन चुन ली थी. अब वे लोग वहाँ घात लगाकर बैठ गये थे और मुराद और मिर्ज़ा की गाड़ी का इंतज़ार कर रहे थे. उनका एक आदमी सड़क के किनारे पर था जिसे गाड़ी आते देख कर इशारा करना था.
जल्दी ही ठीक वैसी ही गाड़ी आती दिखी जैसा ब्यौरा फरीद को कस्तूरिया जी से मिला था. सड़क पर खड़े आदमी ने लाल रुमाल गिराकर इशारा किया और भागकर झाड़ी में छिप गया. वह आदमी मुराद की तो गाड़ी देख गया था लेकिन वह उसके साथ आ रही, हथियारबंद आदमियों से भरी चार-चार गाड़ियाँ नहीं देख सका था.
जैसे ही वह काफिला फरीद के आदमियों की बगल से गुज़रा, इन लोगों ने मुराद की गाड़ी के ऊपर अंधाधुंध फायरिंग शुरु कर दी. इतने में मुराद के पीछे की गाड़ियों से उनके कम से कम 20 आदमी उतरे और उन्होनें भी जवाबी फायरिंग शुरु कर दी थी. मुराद के ही काफिले में फरीद के वह आदमी भी मौजूद थे जिन्हें फरीद ने उज्जैन भेजा था. इन आदमियों को पता ही नहीं था कि इन्हें क्या करना है. ये गोलीबारी के बीच में ही अवाक, भटके हुए से खड़े थे और इसके पहले कि ये लोग कुछ समझ पाते, पहले से ही तय प्लान के मुताबिक मुराद के आदमियों और कस्तूरिया जी के आदमियों, जिन्हें वह अपने साथ जयपुर से उज्जैन लाये थे, ने मिलकर फरीद के इन भटके हुए आदमियों को चुन-चुन कर मौत के घाट उतार दिया था और अब पूरी ताकत से वे लोग फरीद के आदमियों पर कहर बनकर टूट पड़े थे.
मिर्ज़ा और मुराद के आदमियों और हथियारों के आगे बहुत जल्द ही फरीद के लोगों के पाँव उखड़ने लगे थे. फरीद के पास लोग भी कम थे, और हथियार भी. एक-एक करके उनके आदमी कम हो रहे थे. इस भयानक गोलीबारी में कासिम भी मारा जा चुका था. धीरे-धीरे सिर्फ फरीद और सुलेमान ही रह गये थे और इन बाप-बेटे ने वहाँ से भाग लेने में ही अपनी भलाई समझी. वे लोग सौघरा तो जा नहीं सकते थे, लिहाज़ा खेतों के रास्ते किसी अनजान सी दिशा की ओर वे भाग निकले थे.
ढाबे पर जब मुराद, मिर्ज़ा और कस्तूरिया जी बात कर रहे थे, तब कस्तूरिया जी ने अपने आदमियों को अपने पास बुलाया और चुपके से समझाया "तुम लोग मिर्ज़ा और मुराद के आदमियों के साथ अपनी गाड़ियाँ और अस्लहा लेकर सौघरा चले जाओ. तुम्हारे साथ ये लोग भी रहेंगे जिन्हें फरीद ने भेजा है, लेकिन इनसे कुछ भी ज़िक्र मत करना जो मैं तुम्हें बता रहा हूँ......तुम सब जाओ. ग्वालियर में रुक कर सुबह चाय-नाश्ता करना और अच्छी तरह सो लेना.....वहाँ से तुम लोगों को दोपहर 2 बजे निकलना होगा, भूलना नहीं.....मैं दोपहर 2 बजे ही फरीद को फोन करूँगा. करीब 5 बजे शाम तुम लोग सौघरा के पास रहोगे. पूरी उम्मीद है कि फरीद के दूसरे आदमी वहाँ घात लगाये बैठे होंगे और तुम पर हमला करेंगे. ऐसी हालत में सबसे पहले तुम फरीद के भेजे इन चूतियों को ठिकाने लगाना जो तुम्हारे साथ यहाँ से अपनी अलग गाड़ी में जायेंगे.....और उसके बाद फरीद के बाकी आदमियों को मारना, और याद रखना कि किसी भी हालत में फरीद और उनका बेटा सुलेमान ज़िंदा बचना नहीं चाहिये."
मिर्ज़ा और मुराद अब अपनी गाड़ी से बाहर आये और बाहर का मंज़र देखा. फरीद के आदमियों की लाशें बिखरी हुई थीं. वे दोनों मुस्कुराते हुए आपस में गले मिले और अपने कुछ आदमियों को हिदायत दी कि जल्दी से जल्दी इन लाशों का निपटारा कर दें. वे दोनों बाकी आदमियों के साथ तेजी से सौघरा की ओर बढ़ गये थे.
रानी की मंडी वाली कोठी पहुँचकर मिर्ज़ा और मुराद के आदमियों ने पूरी कोठी को अपने कब्ज़े में ले लिया था. सैयद साहब के कमरे के बाहर मुराद ने अपने आदमी तैनात कर दिये थे. सैयद साहब इन सभी बातों से बिल्कुल बेखबर हुए सो रहे थे. आजकल दिन में ज़्यादातर वक़्त वह सोते ही रहते थे. नादिरा को भी उनके कमरे में कैद कर दिया गया था. रुखसार को वैसे भी कोई फर्क नहीं पड़ना था, और पड़ा भी नहीं. मुराद ने रुबैदा और शगुफ्ता को फोन करके बच्चों समेत वापिस बुला लिया था. वे लोग अगले दिन आने वाली थीं.
मिर्ज़ा नहा-धो कर अपने कमरे में पहुँचे जहाँ उनकी ज़ीनत खड़ी उनका इंतज़ार कर रही थीं. बच्चे बगल के कमरे में सो रहे थे. मिर्ज़ा हँसते हुए उनसे गले मिले "हम आ गये ज़ीनत!!....और ये देखिये, औरंगाबाद से खास आपके लिये और बच्चों के लिये क्या लाये हैं!!!" मिर्ज़ा से गले लगकर भी ज़ीनत के बदन में कोई हरकत न हुई थी. मिर्ज़ा बड़ी खुशी से अपना सूटकेस खोलकर सामान दिखाने लगे. ज़ीनत ऐसे खड़ी थीं गोया उन पर कोइ फर्क ही न पड़ा हो. चेहरे पर मुस्कान का नामोनिशान न था. किसी औरत का शौहर जो उस से कई महीनों के बाद मिला हो, वह शौहर से अपनी खाबगाह में ऐसे प्यार से मिलती है जैसे वही उसकी दुनिया हो, वही उस औरत की ज़िंदगी का आखिरी दिन हो और सारा प्यार उसी दिन लुटा देना चाहती हो. यहाँ ज़ीनत चुपचाप खड़ी मिर्ज़ा को देख रही थीं. मिर्ज़ा ने अपना सिर ऊपर उठाकर ज़ीनत को देखा. लम्बी साँस छोड़ते हुए उन्होने सूटकेस बंद कर के एक तरफ खिसका दिया और ज़ीनत के आगे जाकर खड़े हो गये. वो दोनों एक दूसरे को देख रहे थे, और मिर्ज़ा के लिये किसी बहानेबाज़ी की कोई जगह नहीं बची थी. उन्होने कहा "इतने लम्बे अर्से बाद हम मिल रहे हैं आपसे......खुशी नहीं हुई आपको?"
ज़ीनत ने कहा "आपको पता है कि क्या किया है आप दो भाइयों ने?"
मिर्ज़ा ने कहा "हम दो नहीं, बल्कि तीन भाइयों ने.....और वही किया है जो किया जाना चाहिये."
"गलत है ये."
"जो हमारे बड़े भाई ने किया, वो गलत था."
"फरीद भाई ने कुछ भी गलत नहीं किया था.....उन्होनें जो कुछ भी किया था, अब्बू के कहने पर किया था."
"इंसान के पास उसकी खुद की भी समझ होनी चाहिये."
"अच्छा, आपके पास थी खुद की समझ?......जब शादी-शुदा मर्द और दो बच्चों के बाप होकर, परायी औरत से इश्क़ की पींगे बढ़ा रहे थे?...तब कहाँ गयी थी खुद की समझ?"
"ज़ीनत हमसे बकवास मत कीजिये.......हम काफी दिन पर घर आये हैं, और हमें चैन-ओ-सुकून से रहने दीजिये." मिर्ज़ा ने चिढ़कर कहा और कमरे से बाहर निकल जाने लगे, तभी ज़ीनत ने टोका "नादिरा भाभीजान के ऊपर क्या गुज़र रही होगी?......थोड़ा जाकर उनसे भी मिल लीजियेगा." मिर्ज़ा ने ज़ीनत की ओर नहीं देखा और कमरे से बाहर चले गये.
रात को खाने में रुखसार ने आज कड़ाही चिकन खुद ही बनाया था. मिर्ज़ा का पसंदीदा पकवान था यह. खाने की मेज पर आज रुखसार, मुराद और मिर्ज़ा ही थे. नादिरा का खाना नौकर के हाथों उनके कमरे में भिजवा दिया गया था. ज़ीनत और अपने बच्चों को खुद मिर्ज़ा उनके कमरे में जाकर खाना दे आये थे. रुखसार ने मुस्कुराते हुए दोनों भाईयों से कहा "आप दोनों को फतेह मुबारक हो!!" मिर्ज़ा ने कहा "सब मुराद भाई का कमाल है!!....कस्तूरिया साहब पर इन्होनें जो जादू चलाया धरमपुर में, हमारा काम तो बहुत आसान हो गया......मैं तो दंग रह गया था इनके इस हुनर पर!!!" मुराद मुस्कुराकर बोले "आपका साथ न होता तो ये न कर पाते हम मिर्ज़ा भाईजान!!....आपको देखकर हमारी हिम्मत बढ़ती जाती है." मुराद ने फिर रुखसार से कहा "कल शगुफ्ता भाभीजान और रुबैदा बच्चों से साथ आ जायेंगी......फोन कर दिया है हमने.....आपको कल से राहत मिल जायेगी आपा."
मुराद ने पूछा "वैसे, अब अगला कदम क्या होना चाहिये भाईजान?"
मिर्ज़ा ने दो टूक कहा "एक टेलीग्राम भिजवाइये दो-तीन दिन बाद.....जहाँ-जहाँ भी हमारी कम्पनी कारोबार में शामिल है, सभी सरकारी दफ्तरों में, हमारी सभी यूनिटों में और सभी व्यापार मंडलों और ट्रेडर्स एसोसियेशनों में………और हाँ, तमाम अखबारों में भी निकलवाइये.......कि अब से एस.जे. लेदर कम्पनी के मालिक होंगे मुराद अली बेग, यानि कि आप……और अब से इस कम्पनी से जुड़े सभी कारोबारी फैसले केवल आपके ही दस्तखत और मुहर से ही आखिरी और मुकम्मल मानें जायेंगे. आपके अलावा किसी का भी दस्तखत और मुहर इस कम्पनी की नुमाइंदगी करता नहीं माना जायेगा."
मुराद यह सुनकर खुशी से फूले न समा रहे थे. उन्होनें फिर पूछा "लेकिन भाईजान, यूनिटें कब से खुलेंगी?"
"बस दो-तीन रोज़ के बाद ही खुल जायेंगी.....एक फोन ही तो करना है." मिर्ज़ा मुस्कुरा रहे थे.
खाने के बाद मिर्ज़ा अपनी रुखसार आपा से मिलने उनके कमरे में गये. रुखसार बिस्तर पर लेटी थीं, मिर्ज़ा को देखकर खड़ी हो गयीं और मुस्कुराते हुए अपने बाज़ू फैला दिये. मिर्ज़ा को उन्होनें अपनी बाहों में भर लिया और पीठ ठोंकते हुए कहा "कामयाबी मुबारक हो मिर्ज़ा हैदर बेग!!" मिर्ज़ा ने भी उनके कंधे पर सिर रखे हुए कहा "बिना आपके यह कतई नामुमकिन था आपा!!....सब आपकी मेहरबानी है."
रुखसार ने फिर मिर्ज़ा का चेहरा हाथों में लेकर उनकी पेशानी चूम ली और कहा "...लेकिन एक बात हम समझ नहीं पाये. आपने मुराद को कमान क्यों सौंपी?"
"आपा, हम सरकारी मुलाज़िम हैं.....सीधे तौर पर हम किसी प्राइवेट कम्पनी या यूनिट के मालिक नहीं हो सकते हैं.....और फिर एक बात और है."
"क्या?"
"आपा, हम सब जानते हैं कि मुराद कितने काबिल हैं, और उनकी क्या औकात है......इस हिसाब से वह केवल प्यादा हुए….." फिर मुस्कुराते हुए मिर्ज़ा बोले ".....चालें तो हम और आप ही चलेंगे." और फिर से दोनों भाई-बहन एक-दूसरे के गले लग गये.
इन सबसे बेखबर उसी घर में रहने वाली नादिरा ने रात को पानी तक नहीं पिया था और वैसे ही सो गयीं. कोई उनसे मिलने भी नहीं गया था. कड़ाही चिकन थाली में ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था.
अगले दिन सुबह मिर्ज़ा अपनी भाभी नादिरा से मिलने उनके कमरे में गये थे, साथ में भरपूर नाश्ता और चाय भी ले गये थे. उन्हें बताया जा चुका था कि नादिरा ने रात में भी कुछ नहीं खाया था. नादिरा बिस्तर के किनारे पर ही बैठी थीं, और मिर्ज़ा को अंदर आते देखा. मिर्ज़ा वहाँ आये और बड़े अदब से नादिरा को सलाम किया "अस्सलाम वालेकुम भाभी."
नादिरा चुप थीं. मिर्ज़ा नाश्ते की प्लेट लेकर, नादिरा के पैरों के पास अभी खड़े ही थे.
फिर मिर्ज़ा ने वहीं पास रखी स्टूल पर खाना रखा, और स्टूल उठाकर नादिरा के पास रख दी. फिर वह नादिरा के पैरों के पास जाकर खामोश खड़े हो गये थे, और नादिरा किसी बुत की तरह बैठी रही.
यह खामोशी मिर्ज़ा ने ही तोड़ी "नाश्ता कर लीजिये भाभीजान.......आपने रात में भी कुछ नहीं खाया था."
नादिरा चुप ही रहीं. उनका चेहरा बता रहा था कि वह किस दौर से गुज़र रहीं थीं.
"भाभीजान, खुदा के वास्ते.....प्लीज़, नाश्ता कर लीजिये." मिर्ज़ा ने सिर नीचे किये हुए कहा.
नादिरा अभी भी खामोश थीं और मिर्ज़ा की ओर नहीं देख रही थीं.
"भाभी, कुछ खा तो लीजिये आप."
"आपके बड़े भाई और सुलेमान कहाँ हैं मिर्ज़ा?" मिर्ज़ा की ओर बगैर देखे, अपनी खामोशी तोड़ते हुए नादिरा ने पूछा.
मिर्ज़ा चुपचाप खड़े थे.
अब नादिरा ने उन्हें देखकर कहा "जिस्म से रूह को जुदा करके फिर आप कहते हैं कि साँस लो?"
मिर्ज़ा कुछ वक़्त तक वहाँ खड़े रहे, फिर धीमे कदमों से बाहर निकल गये.
मिर्ज़ा ने फिर से राघवन और जज चावला को फोन किया था और सौघरा यूनिट खोल देने की बात की थी, जिस पर उन्होनें फौरन रज़ामंदी दे दी थी. फिर मिर्ज़ा ने लखनऊ और कानपुर भी बात की, और वहाँ से भी हरी झंडी मिल गयी थी. अगले दो दिनों में सभी बंद यूनिटें खुल गयीं थीं, और सभी कारखाने और दफ्तर पहले की तरह गुलज़ार हो गये थे. करीब 10 दिनों के बाद जाकर कारखाने की मशीनें अब शोर मचा रही थीं और सभी चेहरे मुस्कुरा रहे थे. तब जाकर मुराद ने वह टेलीग्राम सभी जगहों पर भिजवाया. टेलीग्राम सारी जगह पहुँचते ही एक दफा फिर से हड़कम्प मच गया था.
मिर्ज़ा इस बात को समझते थे कि फरीद और सैयद साहब की जगह लेना मुराद के लिये कतई आसान नहीं होगा. मुराद पहले से ही अपनी बुरी आदतों और नाकाबिलियत के चलते स्टाफ के लोगों में बिल्कुल पसंद नहीं किये जाते थे, और कम्पनी के मालिक के तौर पर तो कोई भी उन्हें देख ही नहीं सकता था. मिर्ज़ा ने इसीलिये कुछ दिन की छुट्टी ली थी और कम्पनी के इस नये रंग-रूप से जुड़े सारे मुश्किल मसले सुलझाकर ही दिल्ली जाना चाहते थे ताकि फिर उनकी गैर-मौजूदगी में फिर कोई दिक्कत पेश न आये. मुराद को लेकर मिर्ज़ा सौघरा की अपनी यूनिट में पहुँचे, और वहाँ के दफ्तर के पूरे स्टाफ को इकट्ठा किया. मिर्ज़ा ने फिर उन सभी को समझाया कि हालात कुछ ऐसे बन गये थे कि फरीद को हटाकर मुराद को कम्पनी का झंडाबरदार बनाना पड़ा था. मिर्ज़ा ने उन्हें बताया था कि फरीद के रहते कम्पनी पर मुश्किलों के बादल छा गये थे. कम्पनी पर करप्शन, फाइनेंशियल इर्रेगुलेरिटीज़ और टैक्स की चोरी तक के भी चार्जेज़ लगे जो कि आज तक कभी नहीं लगे थे. पुलिस की रेड भी हुई थी, और यहाँ तक कि कानपुर, लखनऊ और सौघरा की यूनिटों को बंद भी करना पड़ा था. कम्पनी के हज़ारों कर्मचारियों के आगे रोज़ी-रोटी की भी समस्या खड़ी हो गयी थी. इन सभी वजहों से फरीद के हाथों से कमान छीन लेनी पड़ी थी. मिर्ज़ा ने कहा कि फरीद अपने बेटे के साथ कम्पनी का काफी पैसा गबन कर के भाग गये हैं और उन्हें तलाश करने की कोशिश की जा रही है. मिर्ज़ा ने उन सभी को भरोसा दिलाया कि अब ऐसा कुछ नहीं होगा, और कम्पनी की सभी यूनिटें बिना किसी समस्या के, अब ज़्यादा बेहतर ढंग से काम कर करेंगी और अब सभी को दिल्ली वाली यूनिट के स्टाफ के बराबर तनख्वाह, भत्ते और बोनस दिया जायेगा. मुराद ने भी स्टाफ से इसी तरह की बात कही. फिर वह दोनों भाई कारखाने में गये, और सभी वर्कर्स को एक जगह जमा करके वही सब कहा जो दफ्तर में स्टाफ के लोगों से कहा था. स्टाफ के सभी लोग, और सभी वर्कर्स, इस बात से काफी खुश थे कि यूनिटें चालू हो गयीं हैं, बेईमान आदमी अब कुर्सी पर नहीं है, और अब सभी को दिल्ली वाली यूनिट के लोगों के बराबर पैसे और बोनस मिलेंगे. पूरे स्टाफ और वर्कर्स ने उन दोनों को पूरा भरोसा दिया वे सब उनका उसी तरह से साथ देंगे जैसे वे लोग फरीद और सैयद साहब का देते आये थे.
दफ्तर के स्टाफ ने मिर्ज़ा और मुराद को कम्पनी से जुड़े हर मामले की बारीकी से जानकारी दी. मैंनेजरों और सुपरवाइज़रों के साथ भी मिर्ज़ा ने अलग से मीटिंग की थी और उनके मामलों का जायज़ा लिया था. ट्रांसपोर्टर्स के साथ भी मिर्ज़ा और मुराद ने लम्बी मीटिंग की थी. कम्पनी के कारोबारी साझीदारों, और जिन बैंकों से लोन लिया था, उन तक भी मिर्ज़ा और मुराद ने सारी जानकारी पहुँचा दी थी और उन्हें भी भरोसा दिया था कि उनका कोई भी नुकसान नहीं होगा और कम्पनी अब पहले से भी अच्छा कारोबार करेगी.
इस तरह से करीब पूरे दिन यूनिट में रहने के बाद मिर्ज़ा ने एक बहुत बड़ी मुश्किल को सुलझा लिया था, और अब अगले दिन वह बेफिक्र होकर दिल्ली निकलने वाले थे.
रात को उनकी बड़ी आपा जहाँआरा घर आयी हुईं थी, और सैयद साहब के कमरे में मिर्ज़ा से मुखातिब थीं. उनके वालिद सो रहे थे. सोफे पर बैठी जहाँआरा ने अपने सामने बैठे मिर्ज़ा से सीधे सवाल किया "ये सब क्या है मिर्ज़ा?.....और क्यों है?"
जहाँआरा के सभी भाई-बहन अच्छी तरह जानते थे कि वे चाहे दुनिया की आँखों में आँखें डालकर कितना भी झूठ बोल लें, अपनी बड़ी आपा से कोई झूठ नहीं बोल सकता था. मिर्ज़ा भी इसे समझते थे और इसलिये उन्होने अपनी बड़ी आपा से सीधे तरीके से ही बात करने की तैयारी की थी. उन्होने कहा "कम्पनी के ऊपर मुश्किल आन पड़ी थी आपा, इसलिये यह कदम उठाना पड़ा."
"तो यह मुश्किल किराये के हथियारबंद आदमियों से हल होनी थी?" जहाँआरा ने तंज किया.
"ये सब पहले फरीद भाई ने शुरु किया था......मुराद से पूछ सकती हैं आप."
"मुराद को बीच में मत लाइये, अपनी बात कीजिये."
मिर्ज़ा ने कुछ पल खामोश रहने के बाद आखिरकार कह दिया "जो जिस काबिल है, उसे उसका वह हक़ मिलना चाहिये आपा."
दोनों लोग एक-दूसरे को देख रहे थे.
"आपका कौन सा हक़ छीना गया था आपसे?"
"लेकिन किसी नाकाबिल इंसान को बेवजह ईनाम दिया जाना भी तो नाइंसाफी है."
"ये नाइंसाफी आपने भी तो की है."
मिर्ज़ा खामोश थे.
"अब्बू को क्या जवाब देंगे आप?" बड़ी बहन का सवाल था.
"जब अब्बू पूछेंगे, तब की तब देखी जायेगी."
"मुराद को क्यों इस्तेमाल कर रहे हैं आप?"
"मुराद और शुज़ा ने अपनी मर्ज़ी से हमारे साथ आने का फैसला किया है." मिर्ज़ा ने कहा.
कुछ देर की चुप्पी के बाद जहाँआरा ने पूछा "फरीद और सुलेमान के साथ क्या करेंगे?"
"देखते हैं.....अभी सोचा नहीं है. पहले मुराद और शुज़ा से बात करेंगे."
मिर्ज़ा का यह जवाब सुनकर जहाँआरा के चेहरे पर मुस्कान खेल गयी थी.